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आसक्ति : परिग्रह | ६१
लेकिन आनन्द ने ऐसा ही त्याग किया है। वह कोई साधारण श्रावक नहीं था। उसकी मुख्य दस श्रावकों में गणना की गई है। इसके अतिरिक्त जिनके समक्ष त्याग किया गया है, वह भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे । साक्षात महाप्रभु महावीर के समक्ष यह त्याग किया गया है। अतएव यह तो असंदिग्ध है, कि आनन्द का त्याग कोई ढोंग नहीं है, दंभ नहीं है, कोई फरेब नहीं है। आनन्द ने जो त्याग किया, उससे अपरिग्रह आया है, तो हमें अब इसी रोशनी में सोचना है, कि वास्तव में परिग्रह क्या है ? वस्तु परिग्रह है या वस्तु को आकांक्षा परिग्रह है ?
सूत्र के शब्दों पर ध्यान दिया जाए, तो वहां एक महत्वपूर्ण और ध्यान आकर्षित करने वाला शब्द हमें मिलता है। शास्त्र में कहा गया है-'इच्छापरिमाणं करेइ ।' अर्थात आनन्द इच्छा का परिमाण करता है। यहां वस्तुओं के परिमाण को बात नहीं, इच्छाओं के परिमाण की बात आई है।
सर्वप्रथम मनुष्य के मन में इच्छा जागृत होती है, संकल्प उठता है, और उसके अनुसार वह दौड़ लगाता है, एवं वस्तुओं का संग्रह करता है। अर्थात् पहले इच्छा होतो है, फिर प्रयत्न होता है, और उसके बाद वस्तुओं को इकट्ठा करने का प्रश्न आता है। परिग्रह के संचय का यह एक
__इसका अर्थ यह है, कि यदि इच्छा हो न रहे, तो प्रयत्न भी नहीं होगा, और जब प्रयत्न न होगा, तब वस्तुओं को इकट्ठा करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा। इस प्रकार सब से बड़ा और मूल-भूत परिग्रह इच्छा ही है। जहां इच्छा है, वहां प्राप्त और अप्राप्त-सभी वस्तुएँ परिग्रह ही हैं। कहा भी है
मूर्छा-छन्न-धियां सर्व, जगदेव परिग्रहः ।
मूर्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ॥ जिसकी मनोभावना आसक्ति से ग्रस्त है, उसके लिए सारा संसार ही परिग्रह है। जो मूर्छ-ममता एवं आसक्ति से रहित हैं, उनके अधीन यदि सारा जगत भी हो, तो भी वह परिग्रह नहीं है । जहाँ-जहाँ मूर्छा है, वहींवहीं परिग्रह है।
एक भिखारी है, और उसके पास कोई खास चीज नहीं है, किन्तु उसने अगर इच्छाओं को नहीं छोड़ा है, परिग्रह की वृत्ति को नहीं त्यागा
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