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५६ | अपरिग्रह - दर्शन
ऐसा संग्रह-परायण मनुष्य जब एक जीवन कोत्याग कर दूसरे जीवन के लिए यात्रा करने की तैयारी करता है, तब उसका मन अत्यन्त व्यथित होता है ।
महमूद गजनवी वगैरह भारत में आए और लूट - लूट कर चले गए । उन्होंने सोने के पहाड़ और हीरे-जवाहरात के ढेर लगा लिए, मगर उनका उपयोग न कर सके । तो, जब उनके मरने का समय निकट आया तो बोले- वे ढेर हमारे सामने लाओ । जब ढेर सामने आए तब उस समय अपने जीवन का महत्वपूर्ण प्रश्न उनके सामने आया कि यह ढेर क्यों किए ? ये ढेर हमारे क्या काम आए ? बस, यही जीवन का महत्वपूर्ण प्रश्न है । और जिसके जीवन में जितनी जल्दी यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है, वह उतना ही बड़ा भाग्यशाली है ।
जब मनुष्य संसार में संग्रह करने के लिए दौड़ लगाता है; तब अपने राष्ट्र, समाज और परिवार को भूल जाता है, और कभी-कभी अपने आपको भी भूल जाता है । उसे खाने की आवश्यकता है, परन्तु खाता नहीं, विश्रान्ति की आवश्यकता है; किन्तु विश्रान्ति नहीं लेता | बस कमाना और कमाते जाना हो उसका काम रह जाता है। उसके जीवन का ध्येय जोड़ना है, और वह जोड़ना क्यों है, यह बात उससे न पूछिए, यह उसे मालूम नहीं । केवल संग्रह हो जीवन का लक्ष्य है ।
जो अपने आपको भूल जाता है, वह परिवार को कैसे याद रखेगा ? परिवार में कोई बीमार है, तो उसे चिकित्सा कराने का अवकाश नहीं है । बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में सोचने का उसे अवकाश नहीं है । पत्नी की बीमारी का इलाज कराने का उसके पास समय नहीं है । इस प्रकार जब वह परिवार का ही पालन-पोषण नहीं कर सकता, तब समाज और राष्ट्र की तो बात ही क्या है ? उसके लिए इनका मानों अस्तित्व ही नहीं है । और यह कितनी विचित्र बात है । यह एक महान् आश्चर्य है ।
हमने एक जगह चौमासा किया। जहां हम ठहरे थे, पास ही एक बड़ी हवेली थी । उसके मालिक विदेश में रहते थे, और हवेली की देख-रेख के लिए एक पहरेदार रहता था । उसको वेतन मिलता था, और कुछ लोग कहते थे, कि उसकी अपनी निजी पूँजो भी है; लेकिन दर्शनार्थी आते थे, तो उनसे भी पैसा मांगता था, और कहता था, कि मेरी स्थिति खराब है ।
वह बाजार से चने ले आता और हमारे सामने बैठकर खाता,
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