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परिग्रह क्या है ?
अपरिग्रह क्या है, और अपरिग्रह-व्रत की साधना किस प्रकार की जा सकती है, इस विषय में काफी विचार आपके सामने रखे जा चुके हैं। आज भी इसी सिलसिले में कुछ बातें और कहनी हैं।
बात यह है, कि मनुष्य जब तक गृहस्थी के रूप में रहता है, दुनियादारी उसके पीछे है। परिवार, समाज तथा देश के साथ उसका सम्बन्ध बना हुआ है । इसलिए उसे कुछ न कुछ संग्रह करना पड़ता है । इस रूप में संग्रह किए बिना और परिग्रह रखे बिना वह अपना जीवन ठीक तरह चला नहीं सकता।
भिक्ष और गहस्थ का जीवन, अन्दर में तो एक ही रास्ते पर चलता है, किन्तु कदम कुछ आगे-पीछे अवश्य होते हैं। इस रूप में साधु के कदम तेज और गृहस्थ के कदम ढीले माने गए हैं। किन्तु मार्ग दोनों का एक ही है। कुछ लोग कहते हैं, कि साधु का मार्ग अलग है, और गृहस्थ का मार्ग अलग है, मगर वास्तव में बात ऐसी नहीं है।
सम्भव है, यह बात सुनकर आपको आश्चर्य हो, आपके मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, और आप सोचने लगें, कि हम तो दोनों के मार्ग अलग-अलग सुनते आ रहे हैं ! फिर दोनों का मार्ग किस प्रकार हो सकता है?
जब आप ऐसा विचार करने लगें तब यह भी विचार करें, कि साधु का मार्ग अहिंसा और सत्य का मार्ग है, तो श्रावक का मार्ग क्या है ? क्या श्रावक का मार्ग हिसा और असत्य का है ? श्रावक बनने के लिए क्या हिंसा का आचरण करना चाहिए ? असत्य का सेवन करना चाहिए? और मेरे इन प्रश्नों के उत्तर में आप कहेंगे-नहीं। तो, वास्तविक बात यह है, कि जो मार्ग साधु का है, वही गृहस्थ एवं श्रावक का भी है। साधु की अहिंसा गृहस्थ की अहिंसा से अलग नहीं है । और न दोनों के सत्य के रूप रंग में ही कुछ अन्तर है।
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