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७४ | अपरिग्रह-दर्शन
इस दृष्टिकोण का अर्थ यह हुआ, कि गृहस्थ के पास जितना परिग्रह है, वह परिग्रह ही है, और उसके अतिरिक्त परिग्रह का त्याग जो उसने किया है, वह अपरिग्रह है। यहां तक उसका संसार से सम्पर्क है, वहां तक हिंसा है, और जितनी हिंसा का उसने त्याग किया है, वह अहिंसा है। इस प्रकार गृहस्थ के परिग्रह और अपरिग्रह की सीमाएँ हैं । गृहस्थ जब तक संसार-व्यवहार कर रहा है, और गृहस्थी में रह रहा है, तब तक वह परिग्रह से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । वह भिक्षा मांग कर, साधु की तरह तो अपना निर्वाह नहीं कर सकता । भिक्षा मांग कर अपना जीवन चलाना गृहस्थ के लिए अच्छा नहीं समझा गया है। किसी महान् उच्च साधना में निरत श्रावक इसका अपवाद हो सकता है, परन्तु साधारण गृहस्थ तो भिक्षा पर अपना निर्वाह नहीं कर सकता । अतएव गृहस्थ के लिए यही आवश्यक समझा गया है, कि वह अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन करे, और अपने जीवन को अपने आप चलाए। वह अपना भी भरण-पोषण करे, और परिवार तथा समाज का भी। उसमें दूसरों को देने के भाव भी होने चाहिए, और शनैः-शन। इस प्रकार के जितने अधिक भाव उसमें जागते जाएंगे, उसका जीवन उतना ही विशाल और विराट बनता जाएगा। इस रूप में गृहस्थ जो सग्रह करता है, वह केवल उसी के लिए नहीं होता; बल्कि दूसरों के भी काम आता है ।
यह तो गृहस्थ के संग्रह किए हुए परिग्रह की बात हुई । किन्तु वह जो नवीन उपार्जन करता है, उसके लिए भी कोई मर्यादा है या नहीं? इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने तथा दूसरे भी आचार्यों ने कहा है
न्याय-सम्पन्न-विभवः--आचार्य हेमचन्द्र
न्यायोपात्त-धनः-आगाधर गृहस्थ को सम्पत्ति तो चाहिए, वैभव भी चाहिए, उसके बिना उसका जीवन नहीं चल सकता, किन्तु वह सम्पत्ति और वैभव उसे अन्याय से उपार्जन नहीं करना चाहिए। उसकी सम्पत्ति पर न्याय की छाप लगी होनी चाहिए। उसकी सम्पत्ति पर न्याय की जितनी गहरी छाप लगी होगी, उस सम्पत्ति का जहर उतना ही कम हो जाएगा। इसके विपरीत जो धन जितने अन्याय और अत्याचार से प्राप्त किया जाएगा, जो पैसा दूसरों के आंसुओं और खून से भीगा हुआ होगा, वह उस धन के जहर को बढ़ाएगा, और उस धन का वह जहर अपने और दूसरों के जीवन को गला
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