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६२ | अपरिग्रह- दर्शन
है, वह उतना ही पुण्यशाली समझ लिया जाता है । हमारा अपरिग्रही निग्रन्थ वर्ग भी ऐसे लोगों से प्रभावित और अभिभूत हो जाता है । मैंने सुना है अपने व्याख्यानों में वह उनका यशोगान करने में भी संकोच नहीं करता है । भरे व्याख्यान में, उन्हें पुण्यात्मा कहा जाता है ।
जब त्यागीवर्ग परिग्रह के पाप को पुण्य के सिंहासन पर आसीन कर दे, तब फिर दुनियां में उलट-पलट क्यों न होगी ? लोग परिग्रह की आराधना क्यों न करेंगे ? समाज भी और त्यागीवर्ग भी जिस पाप को प्रशंसनीय समझ ले, उस पाप का सर्वत्र आदर क्यों न होगा ? उस पाप की वृद्धि क्यों न होगी ? उस पाप का आचरण करके लोग क्यों न गौरव का अनुभव करेंगे ?
जब परिग्रह को पाप की कोटि में से निकाल दिया गया है, तो, आज भगवान् महावीर की वाणी और सारे शास्त्र नारों के रूप में रह गए हैं । ऐसा जान पड़ता है, कि कहने भर के लिए पांच पाप रह गए हैं, परन्तु व्यवहार में चार ही पाप माने जाते हैं । परिग्रह पाप नहीं रहा । धन के गुलामों ने उसे पुण्य के आवरण से ढँक दिया है ? यही तो परिग्रह की महिमा है ।
मैं समझता है, कि इस प्रकार पाप को पुण्य समझना मानव जाति के लिए अत्यन्त अमंगल की बात है । यह मनुष्य के पतन की पराकाष्ठा है । यही संघर्षों और विद्रोहों की जड़ है। जब तक मनुष्य परिग्रह के पाप को फिर से पाप न समझ ले, और भगवान् महावीर की वाणी को स्वीकार न कर ले, तब तक उसका निस्तार नहीं है, कल्याण नहीं है, त्राण नहीं है, तब तक उसकी अशान्ति का अन्त नहीं है । पाप को पुण्य मानकर संसार कभी सुख-शान्ति के दर्शन नहीं कर सकता ।
हां, तो मैं कह रहा था, कि मिलने वाले लोग बड़े अभिमान के साथ यह बतलाते हैं, कि मेरी अमुक-अमुक चीज की दूकानें हैं। ये अनेक दूकानों के मालिक जब स्थानीय बाजार पर अधिकार कर लेते हैं, तब फिर बाहर के बाजारों की ओर उनकी निगाह जाती है-और बम्बई तथा कलकत्ता
अपनी फर्मों खोलते हैं ! जब एक-एक आदमी इतना लम्बा रूप लेकर चलता है, तो शोषण की वृत्ति भी बढ़ती जाती है !
इस शोषण वृत्ति को रोकने के लिए भगवान् महावीर का दिया परिमाण व्रत है। तुम अपने व्यवहार को वहां तक फैलाना चाहते हो,
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