________________
५८) अपरिग्रह-दर्शन
कुछ लोगों का ऐसा हो दृष्टिकोण होता है। वे समाज और राष्ट्र में से कट कर अपने आप में ही सीमित हो जाते हैं। और कुछ लोग उनसे भी गये-बीते हैं। वे अपने आपसे भी निकल जाते हैं, और अपने जीवन को भी नहीं देखते, शरीर की आवश्यकताओं को भी पूर्ण नहीं करते हैं। उनका काम केवल संचय ही संचय करना रह जाता है । वह शरीर से भी भिन्न किसी और तत्व में बँध जाता है ।
वह तत्व, परिग्रह है, और मन की वासना है, वही मनष्य को तंग करती है। प्रश्न भूखे मरने का नहीं, वास्तव में अपरिग्रह की भावना मन में नहीं आई है। अपरिग्रह की भावना जब तक नहीं आती, तब तक इन्सान बाहर नहीं निकलता है, अपने टूटे-फूटे खंडहर से बाहर नहीं आता है। तो,जब तक मनुष्य टूटे मिट्टी के पिण्ड में से बाहर न आ जाएगा-तब तक काम नहीं चलेगा।
कुछ विचारकों का मत है, कि इच्छाओं का परिमाण भले न किया जाए, मगर इच्छाएं कम रखी जाएँ, कमाई बन्द न की जाए, किन्तु कमाई कर-कर के दान देते जाएँ। वे समझते हैं, कि दुनियां भर की लक्ष्मो कमा कर दान दे देना बड़ा भारी पुण्य है। किन्तु, भगवान महावीर की दृष्टि बड़ी विशाल है । उस दृष्टि के अनुसार पुण्य का यह ढंग प्रशस्त नहीं है। एक तरफ लोगों से छीना जाए और दूसरी तरफ उन पर बरसाया जाए, तो इसके परिणामस्वरूप अहंकार का पोषण होता है । अर्थात् जनता से ही लेना और फिर जनता को ही देना, सर्वस्व का दान नहीं है । और फिर लेना बहुत है और देना कम है, लिये में से भी बचा लेना है, तो इसका अर्थ यही है कि छीना-झपटी की जा रही है ! यह दान नहीं कहा जा सकता।
जैनधर्म ने दान को भी महत्व दिया है। परन्तु दान से पहले अपरिग्रह को महत्व दिया है । दान पैर में कीचड़ लगने पर धोना है और अपरिग्रह कीचड़ न लगने देना है। नीतिकार कहते हैं -
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् । कीचड़ को धोने की अपेक्षा, न लगने देना ही अच्छा है।
इसका अर्थ यह नहीं. कि पैर में कीचड़ लग जाए तो लगा ही रहने देने का समर्थन किया जा रहा है। असावधानी से या प्रयोजन विशेष से कीचड़ लग जाने पर उसे धोना ही पड़ता है, किन्तु ऐसा करने की अपेक्षा श्रेष्ठ तरीका से कीचड़ न लगने देना ही है। इसी प्रकार इच्छाओं का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org