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अपरिग्रह और दान | ५६ निरोध करना, और अपरिग्रह व्रत को धारण करना उत्तम मार्ग है, किन्तु जब इस मार्ग पर चलने की तैयारी नहीं है, और धन का उपार्जन करना नहीं छूटता है, अथवा अपरिग्रह व्रत को अंगीकार करने से पहले जो सचय कर लिया गया है, तो दान कर देना भी अच्छा ही है । दान में अहंकार का खतरा है, और अपरिग्रह में ऐसा कोई खतरा नहीं है । लेकिन त्याग का अहंकार भी बुरा है।
अतएव जैनधर्म का यह आदेश है, कि अपनी इच्छाओं के आगे ब्रेक लगा दो, और जीवन की गाड़ी, जो अमर्यादित रूप में चल रही है, दूसरों को कुचलती हुई चल रही है, उसे रोक दो या मर्यादित रूप में चलने दो। और जब उसे मर्यादित करो, तो ऐसा मत करो, कि पहले तो किसी को घायल करो और फिर उसकी मरहम पट्टी करो। यह जीवन का आदर्श नहीं है।
पुराने जमाने में मिमाई, मानव-रक्त से बनने वाली एक औषधि विशेष मरहम के लिए ऐसी बात होती थी, कि कुछ लोग किसी को पकड कर उल्टा लटका देते थे, और उसके सिर में घाव कर देते थे। उसके सिर से खुन की एक-एक बूंद टपका करती थी और नीचे रखी हई कढ़ाई में गिरा करती थी।
इस प्रकार एक-एक बूंद खुन निकाला जाता था, और खून निकाल लेने के बाद उसे छोड़ दिया जाता था, मरने नहीं दिया जाता था। उसके बाद उसे फिर अच्छा खाना खिलाया जाता, और जब फिर खून तैयार हो जाता, तब फिर उसी प्रकार लटका कर खून निकाला जाता था।
उपर्युक्त उदाहरण का तात्पर्य यह है, कि पहने किसी पर घाव करना, और फिर मरहमपट्टी करना, साधना का कोई महत्वपूर्ण अंग नहीं है। छीना-झपटी करो, ठगाई करो, और फिर वाह-वाह पाने के लिए दान करो, और दान देकर अहंकार करो, और अहंकार से अपने आपको कलुषित करो. इसकी अपेक्षा अपरिग्रह व्रत को ले लो, त्याग कर दो, छीनाझपटी बन्द कर दो और शोषण करना बन्द कर दो, यही तरीका श्रेष्ठ है। दान से त्याग सदा श्रेष्ठ रहा है।
अगर आप इतना ऊँचा नहीं उठे हैं, कि जीवन को आवश्यकताओं की पूरी तरह उपेक्षा कर दें, और उसके लिए किसी वस्तु पर निर्भर न रहे, तो अपनी आवश्यकताओं की सूची तो तैयार कर ही सकते हैं। ऐसा
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