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तृष्णा की आग | ४३ तो मैं सोचता है, कि हमारी बुराइयों की जड़ हमारे अन्दर ही है। जब तक हम उनसे संघर्ष नहीं करते, और मन में फैले हुए लोभ-लालच के जहर को दूर नहीं कर देते, किसी भी प्रकार शान्ति नहीं पा सकते । संसार में धन सीमित है और इच्छाएं असीम हैं । भगवान् महावीर ने कहा था
सुण्ण-रुप्परस उ पव्वया भवे, सिया हु केलास-समा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा हु आगास-समा अणंतया ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र कल्पना कीजिए ---एक लोभी आदमी किसी देवता की मनौती करे, और वह देवता उस पर प्रसन्न हो जाय। यथेष्ट वर मांगने का अधिकार उसे दे दे, तो वह कहे -मुझे धन चाहिए। देवता उसके लिए पथ्वी पर सोने-चांदी के पहाड़ खड़े कर दे। कैलास और सुमेरु के समान ऊंचे और खब लम्बे-चौड़े, और फिर एक-दो नहीं, असंख्य पहाड़, कोई उन्हें गिनना चाहे, तो जिन्दगी पूरी हो जाय, पर उन पहाड़ों की गिनती पूरी न हो।
__इतने पहाड़ खड़े कर देने के बाद उससे पूछा जाए कि अब तो तेरा मन भर गया ? अब तो तुझे शान्ति है ?
तो, इस प्रश्न के उत्तर में वह लोभी आदमी क्या कहेगा, क्या आप जानते हैं ? वह कहेगा
एक पहाड़ इस कोने में और खड़ा कर दो तो अच्छा हो । तो इस प्रकार के लोभी और इच्छाओं के पोछे बे-लगाम दौड़ने वाले के लिए वे चांदी-सोने के पहाड़ भी कुछ नहीं हैं । इतना अपरिमित धन भी उसके लिए नगण्य है । उसकी इच्छाएं, और भी बढ़ती जाएंगो, क्योंकि इच्छाएं अनन्त हैं । तो अनन्त इच्छाओं का गड्ढा सोमित धन से कैसे भरा जा सकता है ?
एक सन्त किसी प्रयोजन से इधर-उधर गए। उन्होंने एक लोभी आदमी को देखा। उसे देखकर लौटे तो अपने चेले से कहा
देखा रे चेला बिना पाल सरवर! -आज मैं एक ऐसे तालाब को देखकर आया है, जिसका तट और किनारा ही नहीं है। तब शिष्य ने झट से कहा
इच्छा गुरूजी बिन पाल सरवर ।
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