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तृष्णा की आग | ४१. सिपाहियों के हाथ में पड़ गया। इन्होंने मार-मार कर मेरी बड़ो दुर्गति की है । और यह कहते-कहते कपिल के नेत्र भर आए और वह रो पड़ा।
राजा द्रवित हो उठा। उसने सहानुभूति भरे स्वर में कहा --दो माशा सोने की क्या बात है ! बोलो, तुम क्या चाहते हो?
कपिल सोच-विचार में पड़ गया। क्या मांगू ? दो माशा सोना मिल भी गया, तो उससे क्या होगा? सेर दो सेर सोना क्यों न मांग लू! पर वह भी खत्म हो जायगा। दस-बीस सेर सोना मांग लूँ, तो ब्राह्मणी के भरपुर जेवर बन जाएँगे और चैन से जोवन गुजरेगा। पर उस टूटी झोपड़ी में सोने के जेवर वया शोभा देंगे! तो फिर एक महल भी क्यों न मांग लू । किन्तु जागीर के बिना महल की क्या शोभा ? तो फिर एक गांव भी मांग लेने में क्या हर्ज है ? लेकिन एक गांव काफो होगा? नहीं, एक गांव से भी क्या होगा ? जब मांगने हो चले तो एक प्रान्त मांग लेना ही ठीक है । मनुष्य के मन की तृष्णा अनन्त है ।
इस रूप में कपिल की इच्छाएं आगे बढ़ीं 'जहा लाहो तहा लोहो' की उक्ति चरिताथ होने लगी। आखिर, एक प्रान्त भी जब कपिल को छोटा लगा तो उन्होंने राजा का सारा राज्य ही मांग लेने का इरादा कर लिया ! हाय लोभ! धिक् तृष्णा !
मगर कुछ ही देर के बाद उसका प्रसुप्त मन जाग उठा। सम्पूर्ण राज्य मांगने का इरादा करते ही उसको चेतना में प्रकाश का उदय हुआ। सुवर्ण का चिन्तन, आत्म-चिन्तन हो गया।
कपिल सोचने लगा -किसी भले आदमी ने देने को कह दिया है, तो क्या उसका सर्वस्व हड़प लेना उचित है ? किसी ने अंगुली पकड़ने को वह दिया, तो क्या उसका हाथ ही उखाड़ लेना चाहिए। किसी की उदारता का अनुचित लाभ उठाना ठीक नहीं है ।
और, कपिल विचारों की गहराई में उतर गया। देर होने के कारण राजा सशंकित हो उठा। उसने सोचा -यह गहरे विचार में पड़ गया है, कहीं राजगद्दी न मांग बैठे । अतएव राजा ने कहा--जो मांगना हो, जल्दी मांग लो। ___ज्यों ही कपिल ने आंखें खोलीं, राजा की आंखों में घबराहट दिखाई दी । कपिल समझ गया--मेरी तृष्णा से राजा भयभीत हो रहा है । अगर मैंने अपनी तृष्णा व्यक्त कर दो, तो राजा के प्राण पखेरू उड़ जाएंगे।
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