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३२ | अपरिग्रह-दर्शन
किन्तु कोणिक की भक्ति वास्तविक भक्ति नहीं थी। वह तो स्वर्ग का सौदा करने के लिए प्रकट हुई थी और जनता की घृणा को प्रशंसा के रूप में परिणत करने के लिए पैदा हुई थी। उससे स्वर्ग कहां मिलने वाला
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अभिप्राय यह है, कि परिग्रह की लालसा मनुष्य को ले डूबती है। जहाँ परिग्रह की वृत्तियां जागती हैं, मनुष्य का जीवन अन्धकारमय बन जाता है। मनुष्य समझता है, कि वैभव और सम्पत्ति को अपने कब्जे में कर रहा है। मगर वास्तव में धन-सम्पत्ति और वैभव ही उसकी जिन्दगी को अपने कब्जे में कर लेता है। फिर वह न अपना खद का रह जाता है, न कुटुम्ब-परिवार का रह जाता है और न दूसरों का ही रह जाता है ! न उससे अपना कल्याण होता है और न दूसरों का ही कल्याण हो सकता है। वह सब तरह से और सब तरफ से गया-बीता बन जाता है। न वह दूसरों को चाहता है और न दूसरे ही उसे चाहते हैं। वह चारों ओर से घृणा का ही पात्र बनता है। ... देखते हैं कि परिग्रह की गहरी कीचड़ में फंसा हुआ मनुष्य न खाता है, न पीता है और दरिद्र के रूप में रहता है। वह बही-खाते देखता रहता है, और इस साल में इतना जमा हो गया और बैंक में इतनी राशि मेरे नाम पर चढ़ चुकी है, यही देख-देख कर खुश होता रहता है । उसकी इच्छा दूनी-दनी बढ़ती जाती है । न परिवार को उससे कुछ मिल रहा है और न राष्ट्र और समाज को ही कुछ मिल रहा है ! देश भूखा मरता है तो मरे, परिवार के लोग अन्न-वस्त्र के लिए मुहताज हैं तो रहें, उनसे क्या वास्ता ? उसकी तो पूंजी बढ़ती चली जाय, बस इसी में उसे आनन्द है !
ऐसे मनुष्य को एक सन्त ने अड़वा (बिजूका) कहा है । फसल होती है तो पश उसे खाने को आते हैं । किसान खेत के बीच में एक अड़वा खड़ा कर देता है । उसके सम्बन्ध में कहा गया है
जैसे अडवा खेत का, खाय न खावा देय । लकड़ियों का ढांचा खड़ा करके दुनियां के गन्दे से गन्दे कपड़े उसे पहनाये जाते हैं और सिर की जगह काली हांडी रख दी जाती है ! वही नराकार अड़वा कहलाता है।
__फसल खड़ी है, पर अड़वा न खुद ही खाता है और न दूसरों को ही खाने देता है । वह केबल आदमी की शक्ल है, आदमी नहीं है। इसी प्रकार
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