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तृष्णा का आग | ३७ .
कोहो पोइं पणासेइ, माणो विणय-नासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व-विणासणो॥
-दशवकालिक, ८ क्रोध आता है, तो प्रेम का नाश करता है । वह प्रीति नहीं रहने देता, उसकी हत्या कर देता है। अभिमान के जागने पर विनम्रता और शिष्टता चली जाती है । गुणी-जनों के प्रति आदरभाव समाप्त हो जाता है,
और मनुष्य ठठ का तरह खड़ा रहता है। अभिमान आने पर, पत्थर का टुकड़ा चाहे झुके, पर मनुष्य नहीं झुकता । मायाचार या छल-कपट मित्रता को नष्ट कर देता है। परिवारों में जब तक सरलता का भाव रहता है, वे एक दूसरे के हृदय को जानते रहते हैं। उसका जोवन खली हुई पुस्तक के समान रहता है। वहां निष्कपट मित्रता गहरो होतो जाती है, और जीवन का उल्लास और आनन्द बना रहता है। किन्तु जब उनमें छल-कपट पैदा हो जाता है, तब मित्रता के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। आप चाहें, कि एक दूसरे को धोखा भी दें, और मित्रता भा बनाये रखें, तो यह नहीं हो सकता। कोई एक फैसला करना होगा-या तो सरल-भाव कायम रख लो या छल कपट हो कर लो ! जहां छल-काट रहे, वहां मित्रता कायम नहीं रह सकती। छल से बल टूट जाता है ।
जब लोभ की बारी आई तो भगवान् कहते हैं-लोभ सबका नाश कर डालता है। अन्य अवगुण तो एक-एक गुण का नाश करते है; किन्तु लोभ सभी गणों का नाश करता है। लाभ के जागत होने पर न प्रेम रहता है, न विनय या शिष्टता हो रहतो है। लोभो एक-एक कौड़ी के लिए दूसरों का तिरस्कार करने लगता है ! लोभ से मित्रता का भी नाश हो जाता है। इस प्रकार मनुष्य को आसक्ति ही मनुष्यता के टकड़े-टुकड़े कर देती है, जोवन को अच्छाइयों की हत्या कर डालती है । लोभ की मौजदगी में, जीवन में जो बिराट भावना आनी चाहिए, वह नहीं आ पाती।
मनुष्य जितना क्षुद्र होता जाता है, विनाश की ओर जाता है और जितना विशाल बनता जाता है, उतना हो कल्याण की ओर बढ़ता जाता है। विराट होने में ही सुख है, शान्ति है ।
लोभ की यह भूमिका है। लोभ से मनुष्य कभी शान्ति का अनभव नहीं कर पाता। मनुष्य आज तक क्या करता आया है ? वह लोभ को शान्त करने के लिए लोभ करता रहा है। इसका अर्थ यही तो है, कि खून
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