________________
आवश्यकताएं और इच्छाएं | ३३
जो अपनी सम्पत्ति का न स्वयं उपभोग करता है, न दूसरों के काम आती है, वह भी क्या आदमी है ? वह शक्ल से इन्सान है, परन्तु इन्सान का दिल उसके पास नहीं है। उसकी इन्सानियत विदा हो गई है, वह जड़ के रूप में खड़ा है।
इन्सानियत की बुद्धि जागेगी तो जड़ की इच्छा कम हो जाएगी और जीवन में जितनी ज्यादा लट-खसोट होगी, इन्सानियत की आत्मा उतनी ही अधिक मलिन होती जाएगी। उसकी इन्सानियत का दीपक बुझता जाएगा। ऐसा आदमी खुद भी भटकेगा और दूसरों को भी भटकाएगा। परिग्रह की बुद्धि उसकी समग्र जिन्दगी को बर्बाद कर देगी।
आशय यह है, कि मनुष्य परिग्रह के चक्कर में पड़कर अपने जीवन को नष्ट न करे, अपनी इच्छाओं को ही अपने जीवन की आवश्यकता समझ कर उनके पीछे-पीछे न भटके, यही 'इच्छा-परिमाण' या 'परिग्रह-परिमाण व्रत' का उद्देश्य है, और जो इस व्रत को अंगीकार करता है,वह आनन्द की भौति आनन्द का भागी होता है । ब्यावर 1
अजमेर १६-११-५०J
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org