Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 12
________________ आचार्य कुंदकंद के ग्रंथों की पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण 0 डॉ. कमलेशकुमार जैन, जैनदर्शन प्राध्यापक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी मध्यकालीन भारतीय प्रार्यभाषाओं के अन्तर्गत प्राकृत भिन्न विविध बोलियों आदि के रूप में जानी जाने लगी। भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे सस्कृत भाषा को भगवान महावीर की परम्परा में अनेक आचार्य हए, तरह न तो राज-दरबारों की छत्र छाया में पलने का जिसमें से कुछ आचार्यों ने भगवान की मूल परम्परा का अवसर मिला और न ही इसे राजसत्ता की सुखानुभूति सम्यक निर्वाह करने में अपने को असमर्थ पाया। अतः हो सकी। किन्तु जन-साधारण का जो स्नेह प्राकृत भाषा उन्होंने उपदेशो के संकलन के समय अपने अभिप्रायों का को उपलब्ध हुआ है, वह अवश्य ही श्लाघनीय है। भी उसमें सन्निवेश कर दिया, जिससे भगवान् के मूल भगवान महावीर से कई शताब्दियों पूर्व में प्राकृत उपदेश में विकृति आ गई। फलस्वरूप दूसरी परम्परा ने भाषा जन साधारण द्वारा बोलचाल के रूप में प्रचलित भगवान् के संकलित उपदेशो को मान्यता नही दी और रही है । अत: भगवान महावीर ने अपने पुरुषार्थ से उप अपनी ही धारणा शक्ति को मर्तरूप देकर छन्दोबद्ध प्राकृत लब्ध तत्त्वज्ञान का सर्वसाधारण को लाभ पहुंचाने की में ग्रन्थो का निर्माण किया तथा मल आगमिक परम्पर दष्टि से प्राकृत भाषा को ही उपदेश देने का माध्यम ___को सुरक्षित रखा। ऐसे प्राचार्यों की परम्परा मे आचार्य चना। वे अपनी उपलब्धियों को किसी वर्ग विशेष तक कुन्दकुन्द का नाम सर्वोपरि है। सीमित नहीं रखना चाहते थे। शनैः शन. विविध प्रान्तों आचार्य कन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा के उन कालजयी और विविध प्रान्तीयजनों की बोलचाल की भाषा का आचार्यों मे प्रथम हैं, जिन्होंने अध्यात्म विद्या को सर्वविकास हुआ। फलस्वरूप प्राकृत के विविध रूप दष्टि साधारण की भाषा मे सर्वसाधारण जनों के लिए सुलभ गोचर होने लगे। किया है। यद्यपि उनके द्वारा निर्मित अनेक ग्रन्थों का जब लोगो की धारणा शक्ति क्षीण होने लगी तो प्रकाशन हो चुका है तथापि उनके ग्रन्थों की हजारो प्राचीन भगवान महावीर के उपदेशो को उनकी मूल भाषा प्राकृत पांडुलिपियां आज भी विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारी में पड़ी है मौर अपने समालोचनात्मक सम्पादन एवं प्रामाणिक अनुमें स्मृति के आधार पर लिपिबद्ध किया जाने लगा। दूसरे वाद की प्रतीक्षा कर रही है। दूसरे परवर्ती कई आचार्यों ने भी अपने भावों को अभिव्यक्ति देने के लिए प्राकृत भाषा को ही माध्यम चुना। आचार्य कुन्दकुन्द के जिन उपलब्ध ग्रन्थों का प्रकाशन गोनी स्थिति मे साहित्यारूढ़ प्राकृत को एक ढांचे में बांधने अनेक संस्थाओ/विद्वानो ने किया है, वह सन्तोषजनक नही की आवश्यक्ता प्रतीत हई। अत: कालान्तर मे साहित्या- कहा जा सकता है। कुछ प्रकाशनों को छोड़कर अद्यावधि रूढ प्राकृत भाषा को कुछ आचार्यों ने व्याकरण के नियमो- आचार्य कुन्दकुन्द का जो साहित्य प्रकाश में आया है वह पनियमों में जकड़ कर अनुशातित किया और भाषा का पाण्डुलिपियों का मात्र मुद्रित रूप है। उनके सम्पादन मे प्रवाह रुक गया। प्राकृत भाषा एक स्वरूप के अन्तर्गत प्राचीन पाण्डुलिपियों का उपयोग प्रायः नहीं के बराबर सीमित हो गई। जन साधारण द्वारा बोलचाल के रूप में हमा है। जिससे लिपिकारो के प्रमादवश अथवा अज्ञानता प्रयुक्त होने के कारण यद्यपि इसका बाद में भी विकास के कारण हुई भूलों का अथवा कही-कहीं पाठकों द्वारा हुआ, किन्तु बह नामान्तरों के माध्यम से प्राकृत भाषा से अपनी सुविधा के लिए पृष्ठो के किनारों पर लिखे गये

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