Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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मूर्तिपूजक-समाज का बाहुल्य है । स्थानकवासी समाज अल्पता में है। किन्तु मूर्तिपूजक-समाज के कुछ कट्टर तत्त्वों को स्थानकवासियों का थोड़ा अस्तित्व भी खटकता था। वे येन-केन-प्रकारेण उपद्रव पर उतारू थे।
संवत्सरी का पवित्र दिन था । सायं प्रतिक्रमण का समय, मूर्तिपूजकों के कुछ शरारती तत्त्व स्थानक के बाहर कणियां चौकड़ी मचाने लगे, चिल्लाने लगे । प्रतिक्रमण में आये श्रावकों में उत्तेजना की लहर फैल गई। वे प्रतीकार को उतारू हो गये।
परिस्थिति की गम्भीरता को देख पूज्यश्री ने श्रावकों को सम्बोधित करते हुए कहा---'संवत्सरी का पवित्र दिन है, इसका सन्देश है-'क्षमा', आज यह परीक्षा की घड़ी है, कहीं फेल नहीं हो जाएँ।" गुरुदेव बताया करते हैं कि पूज्यश्री के इस सन्देश से श्रावकों ने बड़े धैर्य का परिचय दिया। शरारती थककर चले गये। किन्तु उन्हें उन्हीं के समाज के समझदार, सभ्य व्यक्तियों से जबरदस्त उपालम्भ मिला। प्रतिक्रमण तुम सुनाओ
- पूज्यश्री एकलिंगदासजी महाराज ऊँठाला (वल्लभनगर) में अस्वस्थ हो गये थे। सभी शिष्य-समुदाय सेवा में था । सायं प्रतिक्रमण के समय पूज्यश्री, मुनि श्री अम्बालालजी महाराज को ही प्रतिक्रमण कराने की आज्ञा देते । पूज्यश्री कहते-अम्बालालजी पूर्ण विधि के साथ स्पष्ट उच्चारण करते हुए प्रतिक्रमण कराते हैं। इनकी वाणी में मिठास भी है।
मुनिश्री अपनी साधना में अप्रमत्त भाव से प्रवृत्त होते । यही इनकी सर्वदा विशेषता रही है। सबल आश्रय में समुचित विकास
पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज जिनके पवित्र सान्निध्य में जीवन-यात्रा चल रही थी, सबल व्यक्तित्व के धनी, सफल प्रवक्ता तथा उग्र विहारी थे। भ्रमण उनके जीवन का प्रमुख अंग था । यही कारण है कि मुनिश्री का प्रारम्भिक जीवन ही दीर्घ विचरण से शुरू हुआ और वह निरन्तर बढ़ता ही गया ।
पूज्यश्री के पवित्र सहवास में बम्बई, मनमाड, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, अहमदाबाद, आदि कई क्षेत्रों का विस्तृत प्रवास किया । इस विस्तृत प्रवास के कई खट्टे-मीठे अनुभव हैं और जब वे उन्हें सुनाने लगते हैं तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सचमुच 'सही दिशा में जीवन का सही निर्माण' इतना आसान नहीं है, जितना कि कहा सुना जाता है। वस्तुतः जीवन-निर्माण एक ऐसी लम्बी प्रक्रिया है, जो उपयुक्त दिशा में सतत जागरूकता के साथ बढ़ने से ही सफल हो सकती है। पत्थर के बदले प्यार
सं० १९८७ श्रावण कृष्णा २ को पूज्य आचार्य श्री एकलिंगदासजी महाराज का स्वर्गवास हो चुका था। वर्ष भर मेवाड़ भ्रमण कर सं० १९८८ का चातुर्मास पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज (जो चरितनायक के गुरु हैं) के साथ भादसोड़ा किया । बम्बई के सेठ वीरचन्द थोबण, अमृतलाल भाई, जीवनलाल कोठारी आदि अग्रगण्य श्रावकों का अत्याग्रह था । अतः पूज्यश्री ने बम्बई की तरफ विहार की स्वीकृति दे दी। अपने गुरुदेव के साथ मुनिश्री भी बम्बई की ओर चल पड़े । भादसोड़ा से क्रमशः विहार कर निम्बाहेड़ा (नबाब) आये, एक शरारती मुस्लिम छोकरे ने मुनिश्री के सिर में पत्थर की दे मारी । रक्तस्राव होने लगा, घाव गहरा था। (छोटा-सा निशान अभी भी मौजूद है)। पत्थर-प्रहार को सुनते ही समाज में सन्नाटा छा गया। नगर में सनसनी फैल गई। अग्रगण्य कार्यकर्ता जिनमें गौरीलालजी प्रमुख थे, अपराधी को पकड़ने में सफल हो गये । अपराधी को वे पुलिस के सुपुर्द करने ही वाले थे, किन्तु पहचान के लिये उसे पहले मुनिश्री के सामने लाये । छोकरा काँप रहा था। मुनिश्री ने कहा-बच्चा तो यही है, किन्तु आप इसे क्या करना चाहते हैं ?
जनता ने कहा-"पुलिस के हवाले !" मुनिश्री बोले-"नहीं, ऐसा नहीं होगा ! आप इसे मुक्त कर दीजिये !" मुनिश्री ने दृढ़ता के साथ कहा-"यदि आपने इसे किसी तरह कष्ट दिया तो मुझे उपवास करना होगा।"
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