Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
अभिनन्दनीय वृत्त : सौभाग्य मुनि 'कुमुद' | ७
००००००००००००
००००००००००००
।
।
दृढ़ निश्चयी अम्बालालजी ने कहा कि मैं भोजन का परित्याग कर दूंगा । महाराणा अम्बालालजी के दृढ़ निश्चय को देख कर बड़े प्रभावित हुए और अपनी रोक हटा दी। साम्प्रदायिकों का आग्रह
उदयपुर के कुछ साम्प्रदायिक तत्त्वों को जब अम्बालालजी के दृढ़ निश्चय का पता चला तो उन्होंने कुछ और ही योजना बना डाली।
महाराणा के प्रतिबन्ध के उठते ही, वे अम्बालालजी को अपने मान्य गुरुजी के पास पहुंचाने का भरपूर प्रयत्न करने लगे । इसी उद्देश्य से उन्होंने इन्हें एक साम्प्रदायिक पाठशाला में भर्ती करा दिया । किन्तु अम्बालालजी तो अपनी गुरु-धारणा में एकान्त दृढ़ थे, अवसर मिलते ही बिना ही कोई सूचना दिये सनवाड़, जहाँ पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज विराजमान थे, पहुँच गये। स्वीकृति और दीक्षा
अब यह लगभग निश्चय हो चुका था कि अम्बालालजी दीक्षित होंगे ही। महाराणा से मुक्ति मिलने पर पारिवारिक प्रतिबन्ध भी ढीला हो चुका था। समाज के समझदार वर्ग ने भी परिवार को और मुख्यतया दादी को समझाने में अब प्रमुख हिस्सा लिया। फलत: रुकावट हल हो गई। स्वीकृति मिलते ही अम्बालालजी में एक नये उत्साह का संचार हो गया। संयम के लिए उत्सुक मन को निर्बाध योग मिलने पर प्रसन्नता होना तो स्वाभाविक ही था।
हमारे चरित्रनायक का वैराग्य नकली और कच्चा वैराग्य नहीं है। आत्मा के धरातल से उठी हुई एक लौ थी जो अपने लिए समुचित मार्ग ढूंढ़ रही थी। ज्योंही समुचित मार्ग मिला, वह तीव्रता से जगमगाने लगी।
भादसोड़ा में ही दीक्षा-महोत्सव होने वाला था। किन्तु तत्कालीन भीडर रावजी (ठाकुर), जो भादसोड़ा पर अपना दखल रखते थे, के असहयोग से वहाँ दीक्षा होना असम्भव देखा। मंगलवाड़, जो भादसोड़ा से दस मील पर स्थित अच्छा-सा कस्बा है, का संघ भी आग्रहशील था । अतः दीक्षा-महोत्सव वहीं करना निश्चित किया गया । वैरागी अम्बालाल जी एक दिन भी व्यर्थ खोना नहीं चाहते थे। न वे किसी बड़े आडम्बर के आकांक्षी थे। फिर भी संघ ने अपने सामर्थ्यानुसार समायोजन किया ही।
संवत् १९८२ में मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी सोमवार को अम्बालालजी का अभीष्ट मनोरथ सफल हो गया। पानी तीखा है
जैन मुनि की चर्या एक ऐसी अद्भुत चर्या है, जिसे देखकर प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्यचकित होता है। संयम और परीषह दोनों ही उसको तेजस्वी एवं प्रभावशाली बनाते हैं ।
कोई मुमुक्ष संयमी रहे और उसे परीषह नहीं हों, ऐसा तो हो नहीं सकता। कब क्या परीषह आ जाए, संयमी जीवन के लिए कोई अनुमान नहीं किया जा सकता।
पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज प्रथम बार भिक्षा (गोचरी) को गये तो किसी ने उन्हें राख बहरा दी। जाएँ भोजन के लिए और बहरादे राख तो क्या यह कम अपमान है ? किन्तु मुनि ऐसे अवसर पर समभाव रहा करते हैं। यदि मन में द्वेष आ जाए तो उन्होंने भिक्षा-परीषह को जीता ही नहीं।
श्री अम्बालालजी महाराज भी जब मुनि बनने के बाद पहली वार गोचरी गये तो किसी ने मिर्ची मिला पानी बहरा दिया। स्थान पर लाकर उसी का अनुपान करने लगे। पानी देखकर पूज्यश्री ने कहा-“कहो अम्ब मुनि ! पानी तीखा है ? तुम्हें बुरा तो नहीं लग रहा है ? संयम में साधना है तो 'सम' रहना, अभी तो परीषह का प्रारम्भ है।"
“गुरुदेव ! पानी तो तीखा है, पर मन तो मेरा मीठा ही रहा ! मैं बड़े से बड़े परीषह को सहने के लिए तैयार हूँ, आपकी कृपा से सब सह जाऊँगा।” नये मुनिजी ने कहा । बड़ी दीक्षा भादसोड़ा में
नव दीक्षित मुनि जघन्य सात दिन, मध्यम चार मास, उत्कृष्ट छह मास संयम की लघु भूमिका में रहा करते