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आचार- १/१/२/१७
में इन आरंभों से अनजान है ।
[१८] जो पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता, वह वास्तव में इन आरंभ का ज्ञाता है । यह (पृथ्वीकायिक जीवों की अव्यक्त वेदना) जानकर बुद्धिमान मनुष्य न स्वयं पृथ्वीकाय का समारंभ करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय का समारंभ करवाए और न उसका समारंभ करने वाले का अनुमोदन करे । जिसने पृथ्वीकाय सम्बन्धी समारंभ को जान लिया वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) मुनि होता है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
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अध्ययन- १ - उद्देसक - ३
[१९] मैं कहता हूँ - जिस आचरण से अनगार होता है । जो ऋजुकृत् हो, नियागप्रतिपन्न-मोक्ष मार्ग के प्रति एकनिष्ठ होकर चलता हो, कपट रहित हो ।
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[२०] जिस श्रद्धा के साथ संयम पथ पर कदम बढाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे । विस्त्रोतसिका -अर्थात् लक्ष्य के प्रति शंका व चित्त की चंचलता के प्रवाह में न बहे, शंका का त्याग कर दे ।
[२१] वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत- - अर्थात् समर्पित होते है ।
[२२] मुनि की आज्ञा से लोक को अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप जानकर उन्हें अकुतोभय बना दे । संयत रहे ।
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[२३] मैं कहता हूँ-मुनि स्वयं, लोक-अपकायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप न करे । न अपनी आत्मा का अपलाप करे । जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में अपना ही अपलाप करता है । जो अपना अपलाप करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है ।
[२४] तू देख ! सच्चे साधक हिंसा ( अप्काय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं । और उनको भी देख, जो अपने आपके 'अनगार' घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों द्वारा जल सम्बन्धी आरंभ-समारंभ करते हुए जल-काय के जीवों की हिंसा करते हैं । और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं ।
इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा का निरूपण किया है । अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए दुःखों का प्रतिकार करने के लिए कोई स्वयं अकाय की हिंसा करता है, दूसरों से भी अप्काय की हिंसा करवाता है और अप्काय की हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है । यह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है तथा अबोधि का कारण बनती है ।
वह साधक यह समझते हुए संयम साधन में तत्पर हो जाता है ।
भगवान् से या अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह परिज्ञात हो जाता है, जैसे - यह अपकायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, साक्षात् मृत्यु है, नरक है । फिर भी मनुष्य इस में आसक्त होता है । जो कि वह तरह-तरह के शस्त्रों से उदककाय की हिंसा - क्रिया में संलग्न होकर अपकायिक जीवों की हिंसा करता है । वह केवल अपकायिक जीवों की ही नहीं, किन्तु उसके आश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है ।