________________
( १३ )
इसका प्रारम्भ अपराह्नकाल में हुआ और समापन भी अपराह्नकाल में हुआ. अतः इसका नाम वैकालिक पड़ा और इसके दश अध्ययन रचे गये, अतएव यह दशवकालिक के रूप से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।
आ० शय्यम्भव का समय और सूत्र - संकलन काल
भगवान महावीर के मुक्ति-गमन के पश्चात् सुधर्मास्वामी २० वर्ष तक पट्टधर रहे उनके पट्टधर जम्बूस्वामी हुए। उनका काल ४४ वर्ष रहा। उनके पट्ट पर प्रभवस्वामी आसीन हुए । उनका आचार्य काल ११ वर्ष का है। यह हम पहले बतला आये हैं कि उन्हें अपने उत्तराधिकारी के विषय में चिन्ता हुई और फलस्वरूप शय्यम्भव का सुयोग उन्हें प्राप्त हुआ ।
1
प्रभवस्वामी का आचार्यकाल ११ वर्ष का है और शय्यम्भव के मुनिजीवन का समय भी ११ वर्ष का हैं । वे २८ वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे और २३ वर्ष आचार्य के पद पर रहे। इस प्रकार ( २८+११+२३६२) बासठ वर्ष की आयु भोगकर वे वीर नि० सं० ६८ में स्वर्गवासी हुए ।
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रभवस्वामी के आचार्य होने के कुछ समय बाद ही शय्यम्भव मुनि बन गये थे, क्योंकि प्रभवस्वामी का आचार्य-काल और शय्यम्भव का मुनि-काल ११-११ वर्ष का समान है । वीर निर्वाण के ३६ वें वर्ष में शय्यम्भव का जन्म हुआ और वीर निर्वाण के ६४वें वर्ष तक वे घर में रहे । मुनि बनने के आठ या साढ़े आठ वर्ष के पश्चात् मनक के लिए दशीकालिक रचा गया । इस प्रकार दशवैकालिक का सकलन - काल वीर नि० सं० ७२ के लगभग सिद्ध ता है ।
शर्वकालिक का वर्ण्यविषय
भगवान महावीर अपने पास दीक्षा लेने वाले साधुओं को जो प्रारम्भिक उपदेश देते थे वहीं उपदेश आचार्य शय्यम्भव ने बड़े सुन्दर ढंग से इस सूत्र गुम्फित किया है। संक्षेप में कहा जाय तो इसमें साधुओं के आहार-विहार, बोल-चाल, रहन-सहन एवं संयम परिपालन का वर्णन हैं ।
अंतिम दो चूलिकाओं का गंभीरता से मनन करने पर ऐसा ज्ञात होता है कि उसकी रचना मनक के स्वर्गवास के पश्चात् अन्य साधुओं के हितार्थ हुई है ।
परवर्ती काल में रचित आचार - विषयक ग्रन्थों में इसका प्रभाव स्पष्ट efष्टगोचर होता है ।