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अर्थात्- धर्मप्रज्ञप्ति या छज्जीवनिका नामक चौथा अध्ययन आत्मप्रवादपूर्व का नियूंढ या नियूं हण है, पिण्डषणा नामक पांचवां अध्ययन कर्मप्रवाद का, वाक्यशुद्धि नामक सातवां अध्ययन सत्यप्रवादपूर्व का नि' हण है और शेप सभी अध्ययन नवें प्रत्याख्यानपूर्व की तीसरी वस्तु के नियूं हण हैं। इसके साथ दशर्वकालिक के नियुक्तिकार यह भी लिखते हैं
बोओविय आएसो गणिपिडगाओ दुबालसंगाओ ।
एवं किर निज्जूढा मणगस्स अणुग्गहट्ठाए ॥१८॥ अर्थात् -- अपने पुत्र मनक के अनुग्रहार्थ आ० शय्यम्भव ने इसे पूरे द्वादशांगरूप गणिपिटक से नि' हण किया, एक ऐसी भी मान्यता है।
__ वर्तमान में दृष्टिवाद अंग अनुपलब्ध है। हां, दशवकालिक के समान उसके विभिन्न पूर्वो के आधार पर रचित अनेक खंड आगम और ग्रन्थ पाये जाते हैं। नामकरण
प्रस्तुत सूत्र के अगस्त्यणि में तीन नामों का उल्लेख है-दसकालिय (दशकालिक) बसवेयालिय (दशवकालिक) और दसवेतालिय (दशवतालिक) । यतः यह चतुर्दश पूर्वीकाल से आया हुआ है, अतः इसका नाम कालिक है और इसके दश अध्ययन हैं, अतः यह दशवकालिक है अथवा इसकी रचना का प्रारम्भ विकाल (अपराहुकाल) में हुआ और पूर्ति भी विकाल में हुई, अतः इसका नाम दशवकालिक है । वैकालिक इसलिए इसे कहा गया है कि गणधर पूर्वाह्न में आगमों की रचना करते हैं । किन्तु ग्रन्थकार का पुत्र मनक मध्याह्न काल में उनके पास पहुंचा था और उमे अल्पायुष्क जानकर उन्होंने काल व्यतीत करना उचित नहीं समझा और अपराह्नकाल में ही उसके सम्बोधनार्थ इसकी रचना प्रारम्भ कर दी थी। 'मरे नाम का कारण बतलाते हुए चर्णिकार कहते हैं कि यतः इमका दशवां अध्ययन .तालिक' नाम के वृत्त छन्द) में रचा गया है, अत: इगका नाम दशवतालिक
उपर्युक्त तीनों नामों में से पहिले और तीसरे नाम को छोड़कर दूसरे नाम से ही यह सूत्र जैनपरम्परा की सभी शाखाओं में प्रसिद्ध है।
सूत्रकार और सूत्र-निर्माण का निमित्त नन्दीसूत्र की पटटावली के अनुसार इसके रचियता आचार्य शय्यम्भव भगवान महावीर के चतुर्थ पट्टधर थे। जब ये गृहावास में थे, तव तीसरे पट्टधर प्रभवस्वामी के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मेरा पट्टधर होने के योग्य मेरे शिष्यों में कौन है ? उन्होंने अपने शिष्यों पर दृष्टि डाली, पर पट्टधर होने के योग्य किसी