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हरिभद्रसूरि ने जिन गाथाओं को भाष्यगत माना है, वे चूर्ण में पाई जाती हैं, इससे ज्ञात होता है कि भाष्य-गाथाकार चूर्णिकार से पूर्व हुए हैं ।
इसकी रचना प्राकृत में की है । यह विद्वान् इसे विक्रम की छठी-सातवीं
३. प्रथम चूर्ण - आ० अगस्त्यसिंह ने सर्वाधिक मूलस्पर्शी एवं विशद है । इतिहासज्ञ शताब्दी के मध्य रचित अनुमान करते हैं ।
४. द्वितीय चूर्णि - जिनदास महत्तर ने इसे प्राकृत में लिखा है । इसका रचनाकाल विक्रम की सातवीं शताब्दी माना जाता है ।
५ विजयोदया टीका - यापनीय संघ के आचार्य अपराजितसूरि ने इसे संस्कृत में लिखा और अपनी मूलाराधना टीका में इसका उल्लेख किया है । अभी तक यह अनुपलब्ध है | अपराजितसूरि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है ।
६. हारिणद्रीय वृत्ति - इसे याकिनीसूनु हरिभद्र ने संस्कृत में रचा है । इनका समय विद्वानों ने वि० सं० ७५७ से ८२७ तक का निश्चय किया है ।
तत्पश्चात विक्रम की तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में तिलकाचार्य ने पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य माणिक्यशेखर ने सोलहवीं शताब्दी में विनयहंस ने, सत्तरहवीं शताब्दी मे श्री समयसुन्दर और श्री रामचन्द्रसूरि ने, अठारहवीं शताब्दी में श्री पायसुन्दर और श्री धर्मचन्द्र ने टीका, टब्बा आदि संस्कृत एवं गुजराती मिश्रित राजस्थानी भाषा में लिखे । इससे इसकी सार्वकालिक लोक-प्रियता सिद्ध है ।
श्रुत का उद्भव एवं दशर्वकालिक का उद्गम स्थान
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यों तो भाव श्रुतज्ञान अनादि-निधन है । किन्तु कर्मभूमि में उसका प्रकाशन तीर्थंकरों के द्वारा होता है, अतः वह सादि भी कहा जाता है भगवान् महावीर ने कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् धर्म और उसके कारणभूत तत्त्वों की देशना की । इन्द्रभूति गौतम ने उसे सुनकर द्वादश अंगों में निबद्ध किया । उन्होंने समय-समय पर दिये गये समस्त प्रवचनों का समावेश आचारांग आदि बारह अंगों में किया, अत: वे अंगप्रविष्ट के नाम से प्रसिद्ध हुए
द्वादशाङ्ग श्रुत के साधु आचार के उपयोगी साराश को लेकर दशवैकालिकसूत्र की रचना की गई है। इसके विषय में दशवैकालिक नियुक्तिकार लिखते हैंआयपवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायपुव्वा पिण्डस्स उ एसणा तिविहा ॥१६॥ सच्चप्पवायपुष्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ ॥ १७ ॥