Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 17
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०४ सू०१ प्राणातिपातादीनां परिभोगनिरूपणम् ३ टोका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं वयासी' राजगृहे यावद् भगवान् गौतमः एवम् वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत, अत्र यावत्पदेन नगरे गुणशिलकं चैत्यमित्यारभ्य पाञ्जलिपुट इत्यन्तस्य सर्वस्यापि प्रकरणस्यानुस्मरणं कर्त्तव्यम् । किमवादीत् भगवान् गौतमस्तत्राह-'अह भंते' इत्यादि । 'अह भंते !' अथ खलु भदन्त ! 'पाणाइवाए मुसावाए' प्राणातिपातो मृषावादः 'जाव मिच्छादसणसल्ले यावत् मिथ्यादर्शनशल्यम् तथा 'पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे' प्राणातिपातविरमणम् यावद् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणम् 'पुढवीकाइए जाव वणस्सइकाइए' पृथिवीकायिको प्राणातिपात आदिकों के होता है या नहीं होता है इसका विचार किया गया है इसी सम्बन्ध से इस चतुर्थ उद्देशे का प्रारम्भ हुआ है। 'तेर्ण कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि टोकार्थ-'तेणं कालेणं तेणं समएण' उस कालमें और उस समय में 'रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं वयासी' राजगृह यावत् नगरमें भगवान् गौतमने प्रभु से ऐसा कहा पूछा यावत् पदसे 'गुणशिलक चैत्यम्' यहां से लेकर 'प्राञ्ज जलिपुटः, यहां तक का सब प्रकरण गृहीत हुआ है । 'अह भंते ! पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले' हे भदन्त ! प्राणातिपात, मृषावाद, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तथा 'पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे' प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विरमण 'पुढवीकाइए जाव वणस्सइकाइए' पृथिवीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक 'धम्मस्थिकाए' धर्मास्तिकाय વિગેરેને થાય છે? કે નથી થતો? તેને વિચાર કરવામાં આવે છે. તે સંબં. ધથી આ ચેથા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ થયો છે, "तेणं कालेणं तेणं समएणं" त्यादि टीजी "तेणं कालेण तेणं समएणं" त म भने त समयमा "रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं वयासी" २२०४७ नगरमा सवान् गौतम स्वामी प्रभुने मा प्रमाणे पूछ्युं. माडं यावत् शपथी "गुणशिलकं चैत्यम्" महिंथी मारलीन "प्राञ्जलिपुटः” महिं सुधार्नु समय ४२६ घडण थयेस छे. 'अह भंते ! पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले" ३ मावन् प्रातिपात, भृषापा, यावत् भिथ्याश नशय तथा "पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्ले" प्रातिपात विरम, यावत् मिथ्या शल्यविभy "पुढवीकाइए जाय वणस्सइकाइए' पृथ्वी यि न२५तिथि "धम्मत्थिकाए' यातिप्राय શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩

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