Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
(१६) अज्झोयरए ( अध्यवपूरक)- गृहस्थ के लिए राँधते समय साधु के लिए अधिक राँधा हुआ आहार
लेना। 0 उत्पादन दोष-साधु के द्वारा लगने वाले आहार सम्बन्धी दोष उत्पादन दोष कहलाते हैं। वे भी सोलह
हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं(१)धाई (धात्री)- गृहस्थ के बाल-बच्चों को धाय (आया) की तरह खेलाकर आहार लेना। (२) दूई (दूती)- गृहस्थ का गुप्त या प्रकट संदेश उसके स्वजन से कहकर दूत कर्म करके आहार लेना। (३) निमित्ते (निमित्त)- निमित्त (ज्योतिष आदि) द्वारा गृहस्थ को लाभ-हानि बताकर आहार लेना। (४) आजीवे (आजीव)- गृहस्थ को अपना कुल अथवा जाति बताकर आहार लेना। (५) वणीमगे (बनीपक)- भिखारी की तरह दीनतापूर्ण वचन कहकर आहार लेना। (६) तिगिच्छे (चिकित्सा)- चिकित्सा बताकर आहार लेना। (७) कोहे (क्रोध)-गृहस्थ को डरा-धमका कर या शाप का भय दिखाकर आहार लेना। (८) माणे (मान)- 'मैं लब्धि वाला हूँ, तुम्हें सरस आहार लाकर दूंगा' इस प्रकार साधुओं से अभिमान
जताकर आहार लेना। (९) माया (माया)- छल-कपट करके आहार लेना। (१०) लोहे (लोभ)- लोभ से अधिक आहार लेना। (११) पुट्विं- पच्छा-संथव (पूर्व-पश्चात्-संस्तव)- आहार लेने से पूर्व या पश्चात् दाता की प्रशंसा
करना। (१२) विज्जा (विद्या)- विद्या बताकर आहार लेना। (१३) मंते (मंत्र)- मोहन मंत्र आदि मंत्र सिखाकर आहार लेना। (१४) चुन्ने (चूर्ण)- अदृश्य हो जाने का या मोहित करने का अंजन बताकर आहार लेना। (१५) जोगे (योग)- राज वशीकरण या जल-थल में समा जाने की सिद्धि बताकर आहार लेना। (१६) मूलकम्मे (मूलकर्म)- गर्भपात आदि औषध बताकर या पुत्रादि जन्म के दूषण निवारण करने के
लिए मघा, ज्येष्ठा आदि दुष्ट नक्षत्रों की शान्ति के लिए मूल स्नान बताकर आहार लेना।। एषणा दोष- श्रावक और साधु दोनों के निमित्त से लगते हैं, उनके दस भेद इस प्रकार हैं(१) संकिय (शङ्कित)-गृहस्थ को और साधु को आहार देते-लेते समय आहार की शुद्धि में शंका होने
पर भी आहार देना-लेना। (२) मक्खिय (मेक्षित)-हथेली की रेखा और बाल सचित्त जल से गीले होने पर भी आहार देना-लेना। (३) निक्खित्त (निक्षिप्त)- सचित्त वस्तु पर रखा हुआ आहार देना-लेना। (४) पिहिय (पिहित)- सचित्त वस्तु के ढके हुए आहार को देना-लेना। (५) साहरिय (संहृत)- सचित्त में से अचित्त निकालकर आहार लेना-देना। (६) दायग (दायक)- अंधे, लूले, लँगड़े के हाथ से आहार देना-लेना। (७) उम्मीसे ( उन्मिश्र)- सचित्त और अचित्त का मिश्रण कर (अथवा मिश्रित) आहार का देना-लेना। (८) अपरिणय (अपरिणत)- जो पदार्थ शस्त्र-परिणत न हुआ हो, जो अचित्त न हुआ हो, ऐसा पदार्थ
देना-लेना। (९) लित्त (लिप्त)- तुरन्त लिपी हुयी भूमि का अतिक्रमण करके आहार देना-लेना। (१०) छड्डिय (छर्दित)- भूमि पर छींटे डालते हुए देना-लेना।