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आत्म-कथा
एकवार मेरी माँ ने कपड़े रसी में डाले । ( रसी एक जाति की पीली सी मिट्टी थी जो पुराने ज़माने में सोड़ा की जगह कपड़े धोने के काम में लाई जाती थी ) रसी और पीली मिट्टी का भेद न समझ कर मैं मानने लगा कि पीली मिट्टी से कपड़े साफ़ होते हैं । इसलिये जब मैं खेती [ ऐसे बडे बडे गड्ढे जो बर्सात में पानी भर जाने से पल्वल या छोटे तालाव से बन जाते हैं ] में नहाने गया तो वहां की मिट्टी में अपने कपड़े रगड़ने लगा । जब पिताजी ने फटकारा तव मैं चकित होकर सोचने लगा कि घर में तो ये मिट्टी में कपड़े डालते हैं पर यहां मिट्टी लगाने से क्यों रोकते हैं ?
उन दिनों दो तीन बार रेल में बैठने का काम पड़ा था । शाहपुर से दमोह तीन ही स्टेशन है । इसलिये मुश्किल से एक ही घंटा गाड़ी में बैठ पाता, जव उतरता तब रोते मुँह से उतरता । मन ही मन कहता — और आदमी तो बैठे हुए हैं फिर हमें ही क्यों उतारा जाता है ? मैं इतना भी न समझता था कि रेलगाड़ी में मौज के लिये नहीं बैठा जाता है किन्तु अपने इच्छित स्थान पर जाने के लिये बैठा जाता है ।
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जो लोग मुझ से पहिले गाड़ी में बैठे होते और मेरे उतरने पर भी नहीं उतरते और विस्तर विछाये लेटे रहते उन्हें मैं रेल का आदमी समझता था । मेरे विचार में वे लोग ज़िन्दगी भर रेल में ही रहते थे इसलिये उनके सुख का पार न था । आज तो रेलगाडी से जल्दी पिंड छुड़ाने के लिये अधिक पैसे देकर भी डाक या