________________
विषय-प्रवेश
भगवान महावीर के समय की धार्मिक परिस्थिति :
भारतीय आर्य संस्कृति के समुन्नत विकास में वैदिक धर्मानुयायियों, जैन धर्मानुयायियों तथा बौद्ध मतावलंबियों का समान योगदान रहा है। भगवान महावीर के आविर्भाव के समय में भारतीय संस्कृति की दो प्रमुख परंपराएं प्राणवान थी'–एक वैदिक और दूसरी श्रमण परम्परा ।' जैन व बौद्ध श्रमण परम्परा के अन्तर्गत आते हैं। जैन धर्म प्रारंभ में श्रमण धर्म के रूप में ही ख्यात था, कालान्तर में वह जैन धर्म के रूप में अभिहित हुआ । 'जो मुक्ति के लिए आत्मसंयम और स्वाश्रय की प्रवृत्ति को महत्व देता है, वह 'श्रमण' कहलाता है' और यही इस परम्परा की विशिष्टता मानी जाती है। उस समय ब्राह्मण धर्म वेद-प्रेरित यज्ञ-याग एवं कर्म काण्डों पर विशेष बल देता था। प्रसिद्ध भारतीय तत्त्वचिन्तक डॉ॰ सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता उस समय के वैदिक धर्म की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- 'यथार्थ में यज्ञादि के कर्मकाण्ड एवं विधि-विधान विशेष रूप से विस्तृत एवं जटिल होते जा रहे थे। इसका सीधा प्रभाव तो यह हुआ कि देवताओं का महत्व अपेक्षाकृत कम होने लगा। मनोकामना की पूर्ति के लिए यज्ञानुष्ठान का चमत्कारपूर्ण विधान एक विशेष परम्परा का स्थान ग्रहण कर रहा था। यज्ञों में बलि और आहुति उस प्रकार की भक्ति और निष्ठा से प्रेरित नहीं होती थी, जिस प्रकार की भक्ति वैष्णव और ईसाई धर्मों में पाई जाती है।'2 उसी समय महावीर तथा बुद्ध ने चिन्तन-मनन के पश्चात् इंद्रिय - निग्रह, अहिंसा व कर्मवाद के सिद्धान्त द्वारा जाति-पांति, वर्ण-वर्ग, धर्म या संप्रदाय को महत्व न देकर केवल व्यक्ति को ही महत्व दिया। अपने उद्भव काल में श्रमण संस्कृति ने पूर्ण विकसित ब्राह्मण धर्म का घोर विरोध सहन करके भी जनता को अपने सिद्धान्तों का महत्व प्रतीत करवाने में अथक परिश्रम किया। पं० दलसुख मालवणिया जी इस संदर्भ में लिखते हैं कि - 'ब्राह्मणों में यज्ञ संस्था के प्राधान्य के साथ ही पुरोहित संस्था का उद्भव हुआ; परिणामस्वरूप ब्राह्मण वर्ग श्रेष्ठ और अन्य हीन ऐसी भावना का प्रचार हुआ। अतः समाज में जातिगत ऊँच-नीचता ने धार्मिक क्षेत्र में अपना प्रभाव फैलाया और मानव समाज में विभिन्न वर्ग पैदा हुए। इससे विपरीत श्रमणों में ऐसी कोई 'पुरोहित संस्था के उद्भव को अवकाश था ही नहीं। 3 उसी प्रकार वैदिक कालीन सीधे सरल
3
1.
डा० मोहनलाल मेहता - जैन आचार, पृ० 7 प्रस्तावना ।
2. डा० सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता - भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग-1, अध्याय-2 वेद, ब्राह्मण और उनका दर्शन, पृ० 22.
3.
डा॰ दलसुख मालवणिया - 'जैन धर्म चिन्तन' - अध्याय-1, पृ॰ 9.