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तमिलनाडु-दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र
संदर्शन
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा
चेन्नई (तमिलनाडु
Jain Education international
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तीर्थों पर जो द्रव्य लगाते हैं, कई गुना धन पुण्य कमाते हैं ।
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महामंत्र
द्वादशांगी जिनवाणी का सार, सर्वार्थ सिद्धि का उत्तम द्वार ।
लो बना हृदय का हार, यह महामंत्र नवकार ।।
णमो अरहन्ताणं
णमो सिद्धाणं णमो आयरियाण णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं
___अर्थ :एम लोकोपकारी अरहन्तों को प्रणाम !
निष्कर्मा सिद्धों को प्रणाम ! अनुशास्ना आचार्यों को प्रणाम !
ज्ञानदाता उपाध्यायों को प्रणाम ! लोक में व्याप्त समस्त साधुओं को प्रणाम !
ध्यातव्य :यह महामंत्र मूलतः गुण नमन प्रधान आध्यात्मिक महामन्त्र है ।
यह समस्त जिनवाणी का सार है । इसका प्रतदिन शुद्ध एवं मनोयोगपूर्वक स्मरण समस्त सिद्धियों का प्रदाता है ।
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________________ II eft alagret : || | तीर्थ धर्म के सच्चे प्राण, तीर्थों से बनती पहचान / धन का मत अभिमान कीजिए, हृदय खोलकर दान दीजिए / / With Best Compliments From JBT J.B. TRADERS Canvassing Agents (All Varieties of Oil Seeds, Oil Grams, Grains, Pulses, Kirana, Atta, Maida & Sooji) 11, Vinayaga Maistry St., Sowcarpet, Chennai - 600 079. Ph: 5270425, 5270673, 5230980, Res: 5265405, Fax: 5221384 Mobile: 98410 61936 Round The Clock Services Grams JAY BHAG Jaichand Bakliwal Navin Bakliwal Saroj Bakliwal Manish Bakliwal
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!! श्री आदिनाथाय नम: !!
तमिलनाडु दिगम्बर जैन
तीर्थ संदर्शन (तमिलनाडु के प्रचीनतम दिगम्बर जैन मन्दिरों की सचित्र स्मारिका )
प्रकाशन मंगल प्रसंग चेन्नई में नूतन शताब्दि के प्रसंग पर तीर्थ संरक्षिणी महासभा का प्रथम अधिवेशन
दिनांक : १७ मार्च २००१
Uchleich श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा
चेन्नई (तमिलनाडु)
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पुस्तक
भाषा
प्रकाशन
प्रसंग
ऑफिस
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प्रकाशक *
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तमिलनाडु दिगम्बर जैन तीर्थ संदर्शन
हिन्दी
17 मार्च 2001
चेन्नई में नूतन शताब्दि के प्रसंग पर
तीर्थ संरक्षिणी महासभा का प्रथम अधिवेशन
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा चेन्नई (तमिलनाडु)
खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर
11, कोडलियार स्ट्रीट,
कोंडीतोप, चेन्नई
फोन नं० 5221465
श्री चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर 34, सुब्रमणियम् स्ट्रीट,
चेन्नई-600079
फोन नं० 5242319
11, विनायगा मेस्त्री स्ट्रीट, साहूकारपेट,
चेन्नई-600079
O: 5221384, 5230890
भद्रेश कुमार जैन जैन प्रकाशन केन्द्र
53, आदिअप्पा नाईकन स्ट्रीट,
साहूकारपेठ,
चेन्नई-79 : 5229739
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शुभकामना सन्देश
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा के सहयोग से तमिलनाडु के दिगम्बर जैन संस्कृति के प्राचीन तीर्थ क्षेत्रों को जीर्णोद्धार का कार्य अरहन्तगिरी के स्वस्ति श्री धवलकीर्ति भट्टारक स्वामीजी के नेतृत्व में सफलतापूर्वक सपन्न हो रहे हैं, जो बहुत ही प्रशंसनीय है ।
दिगम्बर जैन संस्कृति की प्राचीन पुरातत्त्व सामग्री प्रचुर मात्रा में सर्वत्र बिखरी हुई है । तीर्थ संरक्षिणी महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मलकुमारजी सेठी के अथक प्रयासों से महासभा और समाज का ध्यान इस पुरातत्त्व की सुरक्षा हेतु आकृष्टित हुआ है, यह प्रमोद का विषय है। वस्तुतः यह अतीव पुण्य का कार्य हो रहा है ।
प्राचीन पुरातत्व की सुरक्षा हेतु किये जा रहे प्रयासों में आप सभी को सफलता मिले, यही मंगलमय शुभ आशीर्वाद ।
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कर्मयोगी चारुकीर्ति भट्टारक महास्वामीजी (श्रवणबेलगोल मठ)
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शुभसन्देश
Dear Dharambandhu,
I am glad to note that you have planned to publish a book with details of historical information about the Jain Temples in Tamilnadu.
FR
This book will be very useful to the devotees and also to the pilgrims visiting from outside. I appreciate your venture and wish you all success.
May Shree Manjunatha Swamy bless you. Thanking you,
2
Yours sincerely,
D. VEERENDRA HEGGADE Dharamsthala
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शुभकामना सन्देश
भारत भूमि महान् पुण्य-धरा है। यह अनेक साधु संतों की जन्म-स्थली है एवं उनके तपश्चरण से इसका कण-कण पवित्र है। यहाँ के अति प्राचीनतम तीर्थ-स्थलों, मन्दिरों, पुरावशेषों और शास्त्रों ने पीढी दर पीढी जैन और जैनेतर समाज का मार्गदर्शन किया है। श्रमण संस्कृति की आर्ष परंपरा की मूर्तियाँ, मन्दिर, गुफायें अनेक जगह पर आज भी क्षतिग्रस्त रूप में हैं । जैनेतर लोग धीरे-धीरे उन पर कब्जा एवं उनकी दुरावस्था करने की चेष्टा कर रहे हैं । जिसका संरक्षण, सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार होना परमावश्यक है।
इस दुरावस्था को जीर्णोद्धार के माध्यम से सुरक्षित करने के लिए श्रीभारतवर्षीय दिगम्बर जैन धर्म संरक्षिणी महासभा ने महावीरजी में दिनांक ५ फरवरी १६६८ को एक नई संस्था का गठनकर श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षणी) महासभा के रूप में नामांकित करके इस सभा के कार्य को कार्यान्वित करने के लिए श्रीमान् निर्मलकुमारजी सेठी, लखनऊ को प्रधान अध्यक्ष बनाया । उस समय से ही सेठीजी ने अपनी मेहनत से सारे कार्यकर्ताओं को उत्साह प्रदान कर तीर्थ संरक्षिणी महासभा के कार्य को भारत के अनेक राज्यों में विस्तारित कर स्वयं जगह-जगह जाकर अपनी कर्मठ कार्य-कुशलता से अनेक साधु-संतों का आशीर्वाद प्राप्त कर समाज को जगाया, समाज से यथाशक्ति दान-राशि प्राप्त कर राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, उड़ीसा, गुजरात, बिहार, उत्तरप्रदेश, आसाम, नागालैण्ड, केरल आदि स्थलों में दो करोड़ से अधिक रुपये व्यय कर अनेक जीर्णित क्षेत्रों, मन्दिरों, मूर्तियों एवं गुफाओं को एक नया रूप देकर उनकी सुरक्षा का प्रशंसनीय कार्य किया है।
तीर्थ संरक्षणी महासभा के कार्य की सफलता के लिए अपने आराध्य अनेक आचार्यों, मुनि महाराजों, आर्यिका माताजी एवं भट्टारक स्वामीजी ने समय-समय पर अपने आशीर्वाद के माध यम से, अपने अनमोल उपदेश से प्रेरणा देकर समाज एवं महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया और बढ़ा रहे हैं ।
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श्रमण संस्कृति के इतिहास के कई अवशेष तमिलनाडु में अनेक जगहों पर स्थित है । आज यदि तमिलनाडु के सारे मन्दिरों, गुफाओं एवं क्षेत्रों का जीर्णोद्धार करना है तो कम से कम दो करोड़ रुपयों से अधिक व्यय होगा । श्री निर्मलकुमारजी सेठी की प्रेरणा एवं चेन्नई ब्रांच महासभा के (श्री एम. के. जैन जी, श्री प्रकाशचन्दजी जैन, श्रीनिवासजी बड़जात्या, ताराचन्दजी पहाड़िया, पदमचन्दजी धाकड़ा, एम. के. धाकड़ाजी, राजकुमारजी, जयचन्दजी, अनिलजी, एम. के. झाझरीजी आदि) पदाधिकारियों के उत्साह, लगन, शुभ भावना एवं कार्य कुशलता के सहयोग से दो साल के अन्दर कम से कम २२-२३ मन्दिरों (तिरुमले, चित्ताईमूर, पेरमण्डूर, कीलसातमंगलं, कीलएडयालम, वालपन्दल, तोरपाडी, मेलअत्तिपाक्कम, नावल्ल, एयिल, सैदापेटै-आरणी, कुन्नत्तूर, एन्नायरम्मलै, नल्लवनपालयम, कडलूर-ओटी, वल्लीमलै, तच्चूर, कोलपतूर, देसूर, वल्लोड-ईरोड, करन्दै, अम्बत्तूर-चेन्नई, वेम्बाक्कम आदि ) के जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण होकर उनकी पूजा पाठ भी निरन्तर चल रहा है । वर्तमान समय में भी आठ-दस मंदिरों का जीर्णोद्धार कार्य चल रहा है। इन मन्दिरों के जीर्णोद्धार के कार्यों में तीर्थ संरक्षणी महासभा के सहयोग के साथ-साथ तीर्थ क्षेत्र कमेटी, मुंबई एवं श्रवणवेलगोला के परम पूज्य जगद्गुरु कर्मयोगी स्वास्ति श्रीचारुकीर्ति भट्टारक स्वामीजी का और धर्मस्थल के धर्माधिकारी पद्मभूषण डॉ. श्रीवीरेन्द्र हेगड़ेजी का भी अच्छा सहयोग मिला है और मिल रहा है।
भगवान् से प्रार्थना है कि तीर्थ संरक्षणी महासभा का कार्य निरन्तर चलता रहे । भारत भूमि में स्थित सभी मन्दिरों का जीर्णोद्धार कार्य शीघ्र संपन्न हो, इसके लिए धर्मनिष्ठ श्रीमान् निर्मलकुमारजी सेठी एवं अन्य सभी पदाधिकारियों को भी तन-मन-धन एवं आरोग्य, दीर्घायु, आत्मशांति प्राप्त हो । तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में होने वाले १७ मार्च २००१ तीर्थ संरक्षणी महासभा का अधिवेशन सुसंपन्न हो, यही हमारा शुभाशीर्वाद है ।
धर्मो रक्षति रक्षतः !
स्वस्ति श्री धवलकीर्ति भट्टारक स्वामीजी श्री क्षेत्र अर्हन्तगिरी दिगम्बर जैन मठ,
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Sadharmabhandu,
शुभ सन्देश
We are immensly pleased to note that Shree Bharathvarshiya Digambar Jain (Teerth Sarankshini) Mahasabha has decided to do yeoman service to that ancient Jinalayas of Tamilnadu. The renovation work of such ancient temples is a necessity in the present age. People should be reminded about the 'Thapas' of more than 8000 Munimaharajas in Tamilnadu. A Special mention should be made about Bhuthabali Maharaj and Pushpadantha Maharaj who have been instrumental in giving us the great Agamas namely Dhavaladi granthas.
We know that the number of Jain Temples found in different hills of Tamilnadu are worth visiting as all of them are holy places.
You have decided to do a commendable work which needs all encouragement and assistance from the Jain Society.
We Pray Lord Chinthamani Prashwanath Swamy and deity Kushmandini to shower their choicest blessings to you all.
"Bhadram Bhuyat, Vardhatham Jinashasanam"
With Best of Blessings
SWATI SRI BHATTARAKA CHARUKEERTHI
PANDITHACHARYAVARYA SWAMIJI SHRI JAIN MATH, MOODBIDRI
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श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा, (तमिलनाडु संभाग)
संरक्षक : श्री एस. श्रीपाल जी जैन, चेन्नई श्री श्रीनिवासजी बड़जात्या, चेन्नई श्री ताराचन्दजी पहाड़िया, चेन्नई श्री ताराचन्दजी बगड़ा, सेलम श्री चम्पालालजी सिरायत, सेलम श्री पदमचन्दजी धाकड़ा, चेन्नई
उपाध्यक्ष : श्री राजकुमारजी बड़जात्या, चेन्नई श्री महेन्द्रकुमारजी धाकड़ा, चेन्नई
कार्याध्यक्ष (दक्षिण संभाग): एम. के. जैन, चेन्नई संयुक्त महामंत्री (दक्षिण संभाग): श्री प्रकाशचन्दजी बड़जात्या, चेन्नई
कोषाध्यक्ष : श्री जयचन्दलालजी बाकलीवाल, चेन्नई
सह सचिव : श्री अनिलकुमारजी कासलीवाल, चेन्नई
कार्यकारिणी सदस्य १. श्री विमलकुमारजी सेठी, चेन्नई २. श्री महेन्द्रकुमारजी जांझरी, चेन्नई ३. श्री प्रकाशचन्दजी छाबड़ा, चेन्नई ४. श्री ज्ञानचन्दजी जांझरी, चेन्नई ५. श्री निर्मलकुमारजी काला, चेन्नई ६. श्री मेघकुमारजी जैन, चेन्नई ७. श्री सोहनलालजी कोठारी, सेलम ८. श्री धरमचन्दजी बाकलीवाल, त्रिवल्लूर ६. श्री राजेन्द्रकुमारजी बगड़ा, मदुराई। १०. श्री श्रेयांसकुमारजी जैन, मेलचित्तामूर ११. श्री अपाण्डेयराजजी, करन्दै १२. श्री चिन्नादुरैजी जैन, चेन्नई १३. श्री लालचन्दजी बाकलीवाल, कड़लूर
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श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा, (तमिलनाडु संभाग)
धवल किर्ती भट्टारक स्वामी जी
एस. श्रीपाल जी जैन
श्रीनिवासजी बड़जात्या
ताराचन्दजी पहाड़िया . पदमचन्दजी धाकड़ा
एम. के. जैन
राजकुमार बड़जात्या
महेन्द्रकुमार धाकड़ा
प्रकाशचन्द बड़जात्या
जयचन्दलाल बाकलीवाल
अनिलकुमार कासलीवाल
विमलकुमार सेठी
महेन्द्रकुमार जांझरी
प्रकाशचन्द छाबड़ा
राजेन्द्रकुमार बगड़ा
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शुभ सन्देश
यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन ( तीर्थ संरक्षिणी ) महासभा की दक्षिण तमिलनाडु के प्राचीन तीर्थों की सचित्र स्मारिका का प्रकाशन करने जा रही हैं । प्राचीन तीर्थ के जीर्णोद्धार कार्यों में तमिलनाडु की धर्म/तीर्थ संरक्षिणी महासभा का अभूतपूर्व सहयोग एवं योगदान प्राप्त होता रहा है। इस स्मारिका का प्रकाशन उसी सहयोग की कड़ी है। उससे सम्पूर्ण जैन समाज को तमिलनाडु की प्राचीन संस्कृति के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होंगी तथा यह स्मारिका समाज में प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार के कार्यों में सहयोग करने हेतु प्रेरित करेगी, ऐसी पूर्ण आशा है । इस स्मारिका के प्रकाशन के लिए तमिलनाडु प्रान्त के धर्म/तीर्थ संरक्षिणी महासभा के सभी पदाधिकारी बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं । केन्द्रीय महासभा इस कार्य के लिए सभी की बहुत-बहुत आभारी है।
तमिलनाडु प्राचीन काल से ही जैन ऋषि-मुनियों की तप एवं साधना स्थली रही है । अनेक मुनिराजों, आचार्यों ने यहाँ तप करक इस प्रान्त को गौरवान्वित किया है । इस स्मारिका के प्रकाशन से तमिलनाडु की प्राचीन संस्कृति के बारे में लोगों को जानकारी प्राप्त होगी। हार्दिक शुभकामनाओं सहित !
निर्मलकुमार जैन
अध्यक्ष श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा
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(तमिलनाडु सरकार की मोहर)
शुभकामना
दिनांक : ७-०३-२००१
श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन धर्म तीर्थ संरक्षिणी महासभा, तमिलनाडु शाखा ने समाज की कुरीतियों को दूर कर आपसी प्रेम, सद्भाव व आपसी सौहार्द बनाने में योगदान करते हुए अपनी पहचान बनाई है।
महासभा १७ मार्च २००१ को चेन्नई में अधिवेशन करने जा रहा है, जिसमें जैन धर्म एवं सांस्कृतिक विकास के साथ नये जिनालयों के निर्माण की जगह पूराने जिनालयों के जीर्णोद्धार की विशेष चर्चा एवं जानकारी दी जायेगी। जो एक अति सुन्दर प्रयास है। __ इस अधिवेशन के प्रसंग पर एक स्मारिका का भी प्रकाशन किया जा रहा है, जो समाज के जिज्ञासुओं की ज्ञानवृद्धि के साथ-साथ तमिलनाडु के सभी सांस्कृतिक स्थलों की जानकारी में भी सहायक सिद्ध होगी। _मैं आशा करता हूँ कि अधिवेशन तथा स्मारिका हर दृष्टि से समाज एवं राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ । आप सभी की समृद्धि की कामना जिनेन्द्रदेव से करता हूँ।
भवदीय
एन. के. जैन मुख्य न्यायाधीश : हाई कोर्ट, मद्रास
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शुभकामना सन्देश
यह जानकर अत्यन्त प्रमोद हो रहा है कि श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा (दक्षिण संभाग) तमिलनाडु के प्रागैतिहासिक मन्दिरों, जिनबिम्बों, गुफाओं आदि प्राचीन धरोहर को समस्त भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज के समक्ष स्मारिका के रूप में प्रस्तुत करने को दृढ़ संकल्पित है।
हमारी प्राचीन संस्कृति आज हमारे जैन जीवन को ही नहीं अपितु जग-जीवन को भी नूतन दिशा प्रदान करने में सक्षम है। अतः इस प्रान्त के प्राचीन मन्दिरों और भग्नावशेषों की सुरक्षा का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। समस्त दिगम्बर जैन समाज को अधिक से अधिक सहयोग प्रदान करके इन मन्दिरों के जीर्णोद्धार के पुनीत कार्य में सहृदयता से दान देकर महान् पुण्य का सर्जन करना चाहिए । मैं वीतराग प्रभु से विनति करता हूँ कि आपका यह अनुमोदनीय/प्रशंसनीय कार्य सानन्द सम्पन्न हो ।
साथ ही साथ इसी विषय को लेकर १७ मार्च २००१ को हो रहे अधिवेशन की सुसम्पन्नता के लिए भी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ।
श्रीपाल जैन
आई. पी. एस. भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक, तमिलनाडु
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शुभकामना सन्देश
आप द्वारा प्रेषित पत्र के माध्यम से ज्ञात हुआ कि अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभा (तीर्थ संरक्षिणी) दक्षिण संभाग (तमिलनाडु शाखा) द्वारा प्राचीन जिनालयों के जीणोद्धार की प्रगति सम्बन्धी एक स्मारिका प्रकाशित करने जा रही है। यह बड़े हर्ष एवं दक्षिण दिगम्बर समाज के लिए आत्मगौरव की बात है
I
इस स्मारिका के माध्यम से जिनालयों के चित्रों व दक्षिण भारत के अनेक ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, साधकों के साथ-साथ जैन संस्कृति को अनुप्राणित करने में भट्टारकों के अप्रतिम योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता ।
वास्तव में स्मारिका ही साहित्य, समाज एवं संस्कृति का प्रतीक होती हैं। प्रतीक ही संस्कृति की आधारशिला है । स्मारिका के प्रकाशन पर दक्षिण संभाग के कार्याध्यक्ष श्री एम. के. जैन, संयुक्त महामंत्री श्री प्रकाशचन्दजी बड़जात्या, तमिलनाडु शाखा के उपाध्यक्ष श्री राजकुमारजी बड़जात्या, श्री महेन्द्रकुमारजी धाकड़ा, कोषाध्यक्ष श्री जयचन्दलालजी बाकलीवाल, सहसचिव श्री अनिलकुमारजी बाकलीवाल एवं पं. वाणीभूषण विद्यावारिधि श्री मल्लिनाथजी शास्त्री जैसे समाजसेवियों के अविस्मरणीय योगदान को कभी भी नहीं भूलाया नहीं जा सकता । मुझे पूर्ण विश्वास हैं कि इस स्मारिका के माध्यम से सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज लाभान्वित होगा ।
स्मारिका प्रकाशन पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं !
आपका शुभेच्छु बाबूलाल जैन छाबड़ा
मंत्री
श्री भा. दिग. जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा
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शुभकामना सन्देश
आपका पत्र मिला । पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आप तमिलनाडु में जैन धर्म तथा दक्षिण के दिगम्बर तीर्थों के विषय में पूरी जानकारी देने के लिए एक स्मारिका का प्रकाशन कर रहे हैं।
इस स्मारिका के प्रकाशन से दक्षिण भारत में जो जैन समाज की पुरातत्व सम्पदा है, उसकी जानकारी पूरे जैन समाज को मिलेगी और जो लोग दक्षिण में भ्रमण करने जाते हैं, उन्हें वहाँ के मंदिरों में जाने के लिए प्रेरणा मिलेगी।
शेष शुभ ।
आपका
उम्मेदमल पाण्ड्या
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शुभकामना सन्देश
आपका पत्र प्राप्त हुआ । एतदर्थ धन्यवाद ।
मुझे यह जानकर अति प्रसन्नता हो रही है कि अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा द्वारा तमिलनाडु में स्थित अति प्राचीन जिनालयों की जानकारी एवं जीर्णोद्धार हेतु एक स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है ।
स्मारिका के प्रकाशन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई तथा यह आशा करते हैं कि इस स्मारिका के प्रकाशन से समस्त भारत के जैनियों को तमिलनाडु में स्थित प्राचीन भव्य जिनालयों की जानकारी प्राप्त होगी तथा उनको जीर्णोद्धार हेतु आगे आने की प्रेरणा प्राप्त होगी। आभार सहित
धर्मचन्द पहाड़िया,
कार्याध्यक्ष श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी ) महासभा,
राजस्थान संभाग
जयपुर
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शुभकामना सन्देश
दक्षिण भारत दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा अपनी पुरा-सम्पदा के महत्व को रेखांकित करने के लिए अधिवेशन और स्मारिका के प्रकाशन की आयोजना कर रही है, यह एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। दक्षिण भारत में विशेषतः तमिलनाडु में जैन संस्कृति की सम्पदा को संरक्षण और जीर्णोद्धार की जितनी आवश्यकता है, उसके प्रचार-प्रसार की भी उतनी ही जरुरत है। इस ओर महासभा के कर्णधारों का ध्यान गया, यह आने वाने कल के लिए शुभ संकेत है।
आज नवनिर्माण की होड़ में प्राचीनता के विनाश का सर्वत्र एक अभियान चल रहा है । प्रचलित पूजा-पद्धतियों में परिवर्तन लाने के प्रयास किये जा रहे हैं, जिससे नई पीढ़ि के मन में अनास्था और धर्म के प्रति अरुचि पैदा हो रही है। यह समूची जैन संस्कृति के लिए 'आत्मघात' जैसा हानिकारक कृत्य है।
मुझे विश्वास है कि यह आयोजन हमारी प्राचीन धरोहर के रखरखाव के लिए समाज में जागृति और उत्साह उत्पन्न करेगा। आयोजकों को बधाई देते हुए मैं आयोजन की सफलता की कामना करता
नीरज जैन
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा
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शुभकामना सन्देश
आपका पत्र मिला । श्रमण संस्कृति में तमिलनाडु का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। यह प्राचीन काल में जैन संस्कृति का केन्द्रबिन्दु रहा है। यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ जैन धर्म के उपासक थे।
यह प्रसन्नता की बात है कि इस क्षेत्र में बिखरी जैन-संस्कृति की पुरा-धरोहर, जिनालयों के जीर्णोद्धार का काम आप सभी के द्वारा किया जा रहा है। यह सर्वविदित है कि नये जिनालयों के निर्माण की अपेक्षा पुराने का उद्धार आठ गुना अधिक पुण्य प्रदाता है। अतः आप सभी इस शुभ कार्य के लिए बधाई के पात्र हैं।
आप द्वारा प्रकाशित होने वाली स्मारिका तमिलनाडु के इन सभी सांस्कृतिक-स्थलों के बारे में जानकारी प्रदान करेगी तो विशेष उपयोगी रहेगा। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
आपका रमेशचन्द्र जैन
प्रबन्ध सम्पादक टाइम्स ऑफ इण्डिया/ नवभारत टाइम्स
नई दिल्ली-२
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सम्पादकीय
अपनी सच्ची अस्मिता में समाचार पत्र जनवाणी और जिनवाणी की आकांक्षाओं और देशनाओं का प्रतिनिधि होना चाहिए । यह लघु स्मारिका इस दिशा में एक प्रयास है। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु के संरक्षण और अनुसरण से ही धर्म गतिशील रहता है। आज सच्चे देव अर्थात् अरिहन्त परमेष्ठी के परोक्ष प्रतिबिम्ब तीर्थ स्थल सर्वत्र क्षयिष्णु स्थिति का सामना कर रहे हैं । प्रान्तीय एवं केन्द्रीय सरकारों का इस दिशा में उत्साह सीमित है । तब यह विनाशलीला हम मूक दर्शक बनकर देखते रहें या फिर अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करें, जागृत हों और युद्धस्तर पर अपने कर्तव्य का पालन करें ।
कोई भी जाति पुरुषार्थ, त्याग और संगठन से पहचानी जाती है। आज समस्त देश के तीर्थस्थलों विशेषतः तमिलनाडु के धर्मस्थलों की मरम्मत और सुरक्षा का सवाल विस्फोटक स्थिति में है ।
समस्त दिगम्बर जैन समाज को तन-मन-धन से जुटना ही होगा। यह स्मारिका अपनी लुघता के साथ यही एक मात्र निवेदन लेकर आपके कर कमलों में आ रही है। हम इस स्मारिका के प्रकाशन में सभी विज्ञापनदाताओं के एवं इसमें सहयोग करने वाले समाज के समस्त सदस्यों के हृदय से आभारी हैं, जिनकी सद्भावना से यह स्मारिका आपके कर कमलों में प्रस्तुत करने में समर्थ हो सके हैं
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सम्पादक मंडल
पंडित मल्लिनाथ शास्त्री
डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन एम. ए., पी-एच.डी., डी. लिट्. महेन्द्रकुमार धाकड़ा अनिलकुमार कासलीवाल
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राजकुमार बड़जात्या जयचन्दलाल बाकलीवाल ज्ञानचन्द झांझरी
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कार्याध्यक्ष ( दक्षिण संभाग)
अध्यक्ष की कलम से.......
कार्य के प्रारम्भ में भगवान की जय बोलिए । अन्तः करण के दृढ़ कपाटों को सहज ही खोलिए । ।
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मद्रास और सम्पूर्ण तमिलनाडु की जैन समाज के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि अखिल भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी सभा का यह महत्त्वपूर्ण अधिवेशन चेन्नई में सम्पन्न हो रहा है । वास्तव में उत्तर दक्षिण का आध्यात्मिक एवं साहित्यिक आदान-प्रदान सहस्रों वर्षों से होता आ रहा है । सभी तीर्थंकर उत्तर में जन्मे और वहीं से निर्वाण प्राप्त किया, जबकि सभी प्रमुख जैन आचार्यों ने दक्षिण में जन्म लिया और उत्तर भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रचार किया। इसी महत्त्वपूर्ण क्रम में आज यहाँ के प्राचीन तीर्थ स्थलों, शास्त्रों और अन्य धार्मिक आयतनों के जीर्णोद्धार, सुरक्षा, प्रचार एवं प्रसार की व्यापक समस्या हमारे सामने है । अभी तक उत्तर के जैनियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है, परन्तु अभी बहुत काम बाकी है। इसके लिए एक प्रामाणिक सर्वे और स्थलों का चयन जरूरी है। ये सभी धर्म स्थल तीर्थंकरों के समवशरण के प्रतीक हैं- इनकी रक्षा होनी ही चाहिए। आप सबका सभी प्रकार का सहयोग परमावश्यक है ।
"
रत्नत्रय अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र सम्मिलित रूप से मोक्ष प्रदाता हैं । इस सिद्धान्त को हमें जीवन में उतारना ही होगा। आशय यह है कि पूर्ण विश्वास हमारा हृदय है, पूर्ण ज्ञान हमारा मस्तिष्क है और पूर्ण चारित्र पालन हमारा शरीर हैं इन तीनों के योग से ही हमारा यह लोक और परलोक सुधरेगा। आज हमें आपसी एकांगी मतभेद और हठ को भूलाकर धर्म को उसकी सम्पूर्णता में समझना ही होगा ।
आज विज्ञान और उद्योगों का युग है । यथार्थ और व्यवहार का युग है । भावना और कल्पना का यथार्थ से जोड़ना होगा । अन्य धर्मों, विश्वासों और विचारों के प्रति उदार दृष्टि रखनी होगी । जैन धर्म का मर्म भी यही है
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आप सब के यहाँ आने से हमें बहुत प्रसन्नता हुई है और उत्साह मिला है । यह सिलसिला चलता रहे, यही भावना है ।
भावना ज्ञान से पुष्ट हो और आचरण से प्रमाणित हो तो हमारा नर-जन्म धन्य हो जाएगा । बोलिए भगवान महावीर की जय ।
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भवदीय एम. के. जैन
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संयुक्त महामंत्री की कलम सेदिगम्बर जैन तीर्थों की सुरक्षा की परमावश्यकता
जैन धर्म की संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। इस संस्कृति ने देश, समाज पर अपनी अमिट छाप अंकित की है। संस्कृति ही राष्ट्र और समाज की धरोहर है, थाती है । यह संस्कृति स्थापत्य कला के वैभव से समृद्ध है। भारतवर्ष को इस संस्कृति की जो महान् देन है वह है- स्थापत्य कला । स्थापत्य कला में जैन कला का सर्वोपरि स्थान है। इसके पर्याय है- प्राचीन जैन मन्दिर । दक्षिण भारत में जैन संस्कृति एवं स्थापत्य कला का अपना एक विशेष महत्व है । यहाँ के दर्रे-दर्रे में जैनत्व की प्रतिष्ठा अनुगूजित है। पहाड़ों की कंदराओं एवं मन्दिरों के जिनबिम्बों में वह सत्यता प्रतिष्ठापित हो रही है। तमिलनाडु के जैन तीर्थ स्थल -
संपूर्ण तमिलनाडु के दिगम्बर जैन धर्म स्थलों को कुल छह शाखाओं या चक्रों में विभाजित करके समझा जा सकता है । इसके बाद प्राथमिकता के आधार पर जीर्णोद्धार, सुरक्षा एवं विकास का पुण्यकार्य हाथ में लिया जा सकता है ।
ये छह चक्र हैं -- १. कांजीवरम् चक्र २. वन्दवासी चक्र३. आरणी-सेन्जी चक्र ४. टिण्डीवनम् चक्र ५. मदुरै चक्र ६. सिद्धनवासनमलै चक्र
उक्त सभी चक्रों में २०० से अधिक तीर्थ-स्थल हैं। इनमें से अधिकांश के लिए जीर्णोद्धार एव धनराशि की मानव-शक्ति की महती आवश्यकता है। प्राथमिकता के आधार पर निम्नलिखित स्थलों को पहले लिया जा सकता है
कांची चक्र (सर्किल) में तिरुनरकोड्रम और जिनकांची के अन्तर्गत अनेक प्रकार का काम होना है। करन्दै क्षेत्र में तिरुमनिगिरि तथा वन्दवासी क्षेत्र में एलंगाडु, सातमंगलम एवं पून्नूरमले में पर्याप्त जीर्णोद्धार एवं नव-निर्माण जरूरी है । नार्थ आर्काट जिले के अन्तर्गत आरणी क्षेत्र में नगरम् एवं पूंडी क्षेत्र विचारणीय है। तिरुमलै क्षेत्र में पर्याप्त अच्छी व्यवस्था है। इसे और अधिक संवारा जा सकता है । इसी प्रकार के क्षेत्रों का सर्वे होना चाहिए।
चेन्नई महानगर में उत्तर भारत से आये और बसे दिगम्बर जैनों ने प्राचीन जैन मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर उसे एक अत्यन्त भव्य जिनालय का रूप दिया है । खण्डेलवाल समाज ने स्वतंत्र रूप से विशाल जिनालय का निर्माण कराया है। इसमें अनेक धार्मिक एवं सामाजिक कार्य होते रहते
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हैं । सभागार है, अतिथिशाला है । विद्वानों के प्रवचन, प्रतियोगिताएं और सामूहिक महामंत्र पाठ नियमित रूप से होते रहते हैं। मेरे ये दो शब्द तो एक संकेत मात्र है। मुझे विश्वास है उत्तर-दक्षिण के मिलान का यह सिलसिला चलता रहेगा ।
दक्षिण भारत विशेषतया तमिलनाडु में करीबन ३०० प्राचीन जिनमन्दिर है । प्राचीन गुफाओं में बने साधुओं के शयनागार एवं विशाल चट्टानों पर लिखित आगम रत्नत्रय का मूर्तिमान रूप उपस्थित करते हैं । यहाँ पर आचार्य गुरुवर कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, मल्लिसेन, पुष्पदंत, अकलंकदेव आदि आचार्यों ने जन्म लिया और तप किया । इन ३०० प्राचीन जिनमन्दिरों में से अनेक मन्दिर १५००-२००० वर्ष प्राचीन है। जो वर्तमान में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है । इन प्राचीन मन्दिरों की धरोहर की रक्षा के लिए जीर्णोद्धार के कार्यों में और गति प्रदान करने की अत्यन्त आवश्यकता है
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इन जीर्ण-शीर्ण मन्दिरों के तुरन्त जीर्णोद्धार के लिए आर्थिक साधनों की अत्यन्त आवश्यकता है ताकि हमारी अमूल्य प्राचीन संस्कृति की रक्षा की जा सके। इस स्मारिका के द्वारा हमने देश के समस्त भागों में पूर्ण जैन समाज को तमिलनाडु के प्राचीन मन्दिरों का सचित्र विवरण प्रस्तुत कर, संपूर्ण वास्तविकता से अवगत कराने का प्रयास किया है । हमने सीमित साधनों से ही तमिलनाडु में २ वर्षों के भीतर २२-२३ मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराने का सत्प्रयास किया है ।
इस आलेख के माध्यम से मैं भारतवर्ष के समस्त धर्मानुरागियों से आग्रह करूंगा कि इस संस्कृति को और अधिक स्थायित्व प्रदान करने के लिए अधिक से अधिक तीर्थ संरक्षिणी महासभा को अनुदान एवं योगदान प्रदान करें ताकि प्राचीन धरोहर को और अधिक स्थायित्व मिल सके ।
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं । हृदय नहीं, वह पत्थर है, जिसको स्वधर्म से प्यार नहीं ।। अगणित जन्मों के पुण्यों से, हमने नर-जन्म कमाया है । पर कितने नादां हैं हम, अब तक तो व्यर्थ गंवाया है ।। संयम, सेवा और निज विवेक से, हम तीर्थों को अपनायेंगे । ये तीर्थंकर हैं मूर्तमान, इनको न हम कभी बिसरायेंगे ।
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- प्रकाशचन्द बड़जात्या, एम. ए.
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प्राचीन तीर्थ तमिलनाडु तीर्थ बच गये, धर्म बच गया, मानवता का मर्म बच गया
ARANI POONDI
ERAMPALUR
KARANTHAI
GINGEE HILL
MANNARKUDI
THANJORE KARANTHAI
ARPAKKAM
KALLAKULATHUR
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प्राचीन तीर्थ तमिलनाडु
MELISTHAMUR MUTT
तीर्थ हमारी हैं पहचान। करो सुरक्षित देकर दान ।।
THIRUPARATHI KUNDRAM PERANAMALLUR
PUDUKKOTTAI CHITHANNAVASAL
KOVILPATTI KAZHUKUMALAI
DEEPANGUDI
BRAMAHDEV
VALLIMALLAI
VIJAYA MANGALAM
EYYIL
KUSMANDENI DEVI
KARANTHAI
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तमिलनाडु में जैन धर्म एवं तीर्थ संदर्शिका
प्रस्तुति
: पं. मल्लिनाथ शास्त्री डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन
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षट्खण्डागम सिद्धान्त ग्रन्थ एवं तमिलनाडु
षट्खण्डागम जैसे महान् ग्रन्थ का नाम सुनते ही दिगम्बर जैन समाज के हर व्यक्ति का सिर गौरव से नतमस्तक हो जाता है। यह इतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है कि मानो भगवान् महावीर रूपी हिमालय से निकली हुई गंगा है । इसका संबन्ध भगवान् महावीर से है। भगवान् महावीर के बाद चौदह पूर्वधर गौतम गणधर, परंपरागत श्रुत केवलीगण तथा अन्तिम रूप से सभी अंग पूर्वो का ज्ञान आचार्य परंपरा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ ।
- पं. मल्लिनाथ शास्त्री
ये महान् आचार्य सौराष्ट्र (गुजरात काठियावाड़) देश के गिरनार नाम के नगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले थे । अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचन वत्सल आचार्य धरसेन महाराज को भान हुआ कि आगे अंग- श्रुत का विच्छेद हो जायेगा, अतः लिपिबद्ध कर इसकी सुरक्षा करनी चाहिए ।
वस्तुतः आचार्य धरसेन महाराज के पूर्व लोगों की अविस्मरणीय स्मरण शक्ति थी । ज्ञान शीघ्र ही कण्ठस्थ कर लेते थे । लिपिबद्ध की परंपरा नहीं थी। लोग एक सन्धी, द्विसन्धी, त्रिसन्धी ग्राही रहा करते थे । अर्थात् जिसको एक बार सुनाने से शास्त्र का ज्ञान हो जाता है (स्मरण शक्ति स्थिर हो जाती थी) ऐसे ज्ञान वाले को एक सन्धी-ग्राही कहते थे । जिसे दो बार कहने की आवश्यकता पड़ती थी, उसे द्विसन्धी-ग्राही कहते थे। जिसे तीन बार कहने की आवश्यकता पड़ती थी, उसे त्रिसन्धीग्राही कहते थे । अर्थात् उन लोगों को सभी बातें याद हो जाती थी, भूलते नहीं थे, अतः सिद्धान्त - विषय आदि बातों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, कालान्तर में स्मरण-शक्ति कम होती गई, कई बार कहने पर भी लोग भूलने लगे, यह परिस्थिति धरसेनाचार्य महाराज के समक्ष थी ।
अतः आचार्य महाराज ने सोचा कि स्मरण-शक्ति कम हो जाने के कारण सैद्धान्तिक विषयों को यदि लिपिबद्ध न किया गया तो इनका विच्छेद ही हो जायेगा। सिद्धान्त के रहस्य का ज्ञान शून्य हो जायेगा । अतः सिद्धान्त विषयों को लिपिबद्ध कर देना अत्यन्त आवश्यक है। इस तरह का विचार उनके मानस में आया ।
उचित समय पर धरसेनाचार्य के नेतृत्व में पंचवर्षीय साधु सम्मेलन हुआ था । उसमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथ (दक्षिण देशों के) आचार्यों के पास आचार्य धरसेन महाराज ने एक लेख भेजा। जिसमें उक्त कही गई बातों का विवरण था। दक्षिणापथ के आचार्यों ने उन वचनों को अच्छी तरह समझकर
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शास्त्र के अर्थ को ग्रहण करने एवं धारण करने में समर्थ नाना प्रकार से उज्ज्वल और निर्मल विनय से संपन्न शीलमाला के धारक, देश, कुल और जाति से विशुद्ध अर्थात् उत्तम कुल और जाति में उत्पन्न समस्त कलाओं में पारंगत दो महान् साधुओं को वेणानदी के तट से भेजा ।
उस समय दक्षिण में तमिलनाडु - आन्ध्र, कर्नाटक और केरल के रूप में विभाजित नहीं था । चारों मिलकर द्राविड़ देश के रूप में था। इस के उदाहरण में जान सकते हैं कि भगवान् महावीर का समवसरण ५६ देशों में विहार करते हुए द्रविड़ देश में आया था, न कि आन्ध्र, कर्नाटक आदि देशों में ।
अतः वे दोनों आचार्य द्राविड़ से निकलकर धरसेनाचार्य के सान्निध्य में पहुंचे । आचार्य धरसेन को दोनों मुनिवरों ने विनयपूर्वक नमोस्तु किया । आचार्य महाराज ने दोनों को आशीर्वाद देकर कुशल समाचार पूछे । उन साधुओं को उचित स्थान में बिठाने के बाद यंत्र-तंत्र-मंत्र आदि में पारंगत धरसेनाचार्य ने आगत साधुओं की परीक्षा लेनी शुरु की। बात यह थी कि उन साधुओं को कुछ मंत्र देकर विद्या साधने की आज्ञा दी थी। आजकल कतिपय लोग प्रश्न करते हैं कि साधुओं को मंत्र-तंत्र की क्या आवश्यकता है ? उससे आत्म-कल्याण तो होता नहीं है, न ही वह व्यावहारिक है । मंत्र-तंत्र की साधना में समय व्यतीत करना व्यर्थ है । उन लोगों को यह विवरण पाठ सीखाता है कि साधुओं को सभी विषयों में जानकार होना अत्यन्त आवश्यक है ।
आचार्य महाराज के कथनानुसार दोनों साधुओं ने मंत्र-विद्या साधना प्रारंभ की। उसमें से एक मंत्र अधिक अक्षर वाला था और दूसरा हीन अक्षर वाला था । उन दोनों साधुओं ने गुरु की आज्ञा से उपवास के साथ भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण स्थली पर जाकर विद्याओं को साधना शुरु किया । जब उनकी विद्याएँ सिद्ध हो गई तो उन विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियों को देखा, कि 'एक देवी के दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है ।' 'विकृतांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं है'। इस पर दोनों ने विचार किया । वे दोनों मंत्र संबन्धी व्याकरण - शास्त्र में कुशल थे। फिर उन दोनों ने हीन अक्षरवाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षरवाली विद्या में से अक्षर निकालकर मंत्र को सिद्ध किया । जिससे वे दोनों विद्या-देवियाँ अपने स्वभाव से सुन्दर रूप के साथ दृष्टिगोचर हुई । उन दोनों देवियों ने साधुओं से कहा कि 'आज्ञा दीजिये' उनके उत्तर में साधुओं ने कहा कि हम लोगों ने गुरु की आज्ञा मात्र से मंत्र का अनुष्ठान किया है। हमें किसी तरह की आवश्यकता नहीं है । उत्तर सुनकर दोनों देवियाँ अपने स्थान को चली गई। इस तरह का 'श्रुतावतार' में वर्णन है ।
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तदनन्तर आचार्य धरसेन के समक्ष उन दोनों साधुओं ने विनयपूर्वक विद्या-सिद्धि संबन्धी सारे वृत्तान्त को कह सुनाया । धरसेनाचार्य 'बहुत अच्छा' कहकर सन्तुष्ट हुए। तद्नन्तर आचार्यश्री ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ को पढ़ाना प्रारंभ किया। इस तरह क्रम से पढ़ते-पढ़ते शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन पूर्वाहून काल में ग्रन्थ समाप्त किया गया । इससे सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यन्तर देवों ने इन दोनों में से एक की पुष्प, बलि, शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेष के नाद से बड़ी भारी पूजा की । उसे देखकर धरसेन भट्टारक ने उनका भूतबलि नाम रखा तथा जिनकी भूतों ने पूजा की है। और अस्त-व्यस्त दन्त-पंक्ति को दूर करके दॉत समान कर दिये है, ऐसे दूसरे साधु का नाम श्रीधरसेन आचार्य ने पुष्पदन्त रखा ।
तदनन्तर वहाँ से भेजे गये साधु-महात्माओं ने गुरु की आज्ञा पाकर अंकलेश्वर (गुजरात) आये और वहीं वर्षाकाल व्यतीत किया। गुरु महाराज का उन दोनों को वहां से भेजने का विशेष कारण यह था कि उन्हें अपनी अल्पायु का भान होने से उन दोनों साधुओं को वहां से विहार कर अन्यत्र चार्तुमास करने की आज्ञा दी थी। अतः वे दोनों अंकलेश्वर आये और वहीं पर वर्षाकाल व्यतीत करने लगे ।
वर्षाकाल समाप्त करने के बाद पुष्पदंताचार्य जिनपालित को साथ लेकर वनवासी देश को चले गये तथा भूतबलि भट्टारक तमिल देश को चले गये । तद्नन्तर पुष्पदन्ताचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर दिखाये तथा जिनपालित मुनि को पढ़ाकर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया ।
भूतबलि महाराज ने जिनपालित के द्वारा दिखाये गये सूत्रों को देखकर निर्णय किया कि पुष्पादन्ताचार्य अल्पायु के हैं और हम दोनों के बाद महाकर्म प्रकृति प्राभूत का विच्छेद हो जायेगा । ऐसा विचार कर आचार्य भूतबलि महाराज ने द्रव्य प्रमाणानुगम की ग्रन्थ के रूप में रचना कर दी । इसलिए इस खण्ड सिद्धान्त ( षट् खण्ड सिद्धान्त) के कर्ता आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त कहे जाते हैं । अनुग्रन्थकर्ता गौतम स्वामी है तथा उपग्रन्थ कर्ता राग-द्वेष और मोह से रहित भूतबलि पुष्पदन्त आदि अनेक आचार्य हैं। I
धरसेनाचार्य का समय :- नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में ६८३ वर्ष के अन्दर ही धरसेनाचार्य का काल माना गया है अर्थात् भगवान् महावीर के बाद ६८३ वर्ष के अन्तर्गत काल में ही धरसेनाचार्य हुए । यह समय ई. सन् ७३ के लगभग का है ।
आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि का काल भी इन्हीं के आसपास का माना जाता है
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___ इस तरह पट्टावली इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार के आधार पर श्रीधरसेनाचार्य का समय वीर निर्वाण संवत् ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है ।
इस प्रकार धरसेनाचार्य के उपकार से ही आज हमें षट्खण्डागम ग्रन्थ स्वाध्याय करने को मिल रहा है । दिगम्बर संप्रदाय की मान्यता के अनुसार षट्खण्डागम और कषायपाहुड ऐसे ग्रन्थ है जिनका सीधा संबन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है।
धरसेनाचार्य के इतिहास से हमें यह ज्ञात होता है कि ये आचार्य ही एकमात्र अंग और पूर्वो के ज्ञाता थे। मंत्र-शास्त्र के भी अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने चिरकाल तक चन्द्रगुफा में निवास किया था तथा योग्य मुनियों को श्रुतज्ञान पढ़ाया था। शिष्यों को मंत्र-सिद्ध करने हेतु प्रोत्साहित किया था। जिस दिन षट्खण्डागम की रचना पूर्ण हुई उस दिन चतुर्विध संघ ने मिलकर श्रुत की पूजा की थी, उस दिन ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी थी। अतः उस पंचमी को आज श्रुतपंचमी कहकर सर्वत्र श्रुतपूजा करने की प्रथा चली आ रही है। उसे विशेष पर्व के रूप में मनाने के साथ-साथ श्रुत के गुरु पूज्य धरसेनाचार्य पुष्पदन्त तथा भूतबली आचार्य की पूजा भी करनी चाहिए ।
इससे ज्ञात होता है कि षट्खण्डागम सिद्धान्त की सुरक्षा में द्राविड़ देश (तमिलनाडु) के आचार्य द्वय पुष्पदन्त और भूतबली की सेवा अविस्मरणीय है । इसका तात्पर्य यह है कि धरसेनाचार्य रूपी हिमालय से पुष्पदन्त और भूतबली की धारा निकलकर अविच्छन्न रूप से बहती आ रही है, यह अहोभाग्य है।
यहाँ पर और एक ध्यातव्य है कि आचार्य भद्रबाहु के शिष्यगण ने तमिलनाडु में विचरण प्रारंभ किया, तद्नन्तर ही जैन धर्म तमिलनाडु में प्रचलित हुआ, उस के पहले नहीं था। यह बात भी यहां खण्डित हो जाती है अर्थात् ई. सन् ७३ में तमिलनाडु के अन्दर जैन धर्म था, यह बात आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबली के आधार से निर्णीत हो जाती है।
तमिलनाडु का प्रागैतिहासिक इतिहास सभी धर्मों में जैन धर्म सर्वोत्कृष्ट है । इसके कई नाम है, जैसे आर्हत् धर्म, निग्गंत (निर्ग्रन्थ) धर्म, अनेकान्त धर्म और स्याद्वाद धर्म आदि । जैन धर्म के आराध्य देव को जिन कहते है। जिन का अर्थ है 'जयतीतिजिनः' अर्थात् जो कर्मों को जीतता है, उसे 'जिन' कहा जाता है । कर्म, संसार-सागर में डुबाने वाला एवं दुःख देने वाला है। ऐसे कर्मो को जीतने से या नष्ट करने से ही आत्मा को शाश्वत सुख मिलता है। ऐसे जिन को जो नमन करते हैं, वे जैन कहलाते है । जिन को 'अर्हत्' भी कहते
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हैं । अतः जैन धर्म- आर्हत् धर्म, अनेकान्त धर्म और स्याद्वाद धर्म भी कहलाता है ।
एक समय में जैन धर्म सारे भारत में महोन्नत स्थिति पर था। इस बात को जैन और जैनेतर एवं सभी विद्वान् स्वीकार करते है । जैनेतर विद्वानों में विशेषतः राधाकृष्णन, प्रो. विरुपाक्ष एम.ए., काशीप्रसाद जयसवाल, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल आदि के नाम उल्लेखनीय है । विदेशी विद्वानों में डॉ. जेकोबी, डॉ. बूलर और स्मिथ आदि स्मरणीय और प्रशंसनीय है । जैन विद्वानों में चंपतरायजी, डॉ. ए.एन. उपाध्याय, बैरिस्टर जुगमन्दरलालजी और प्रो. ए. चक्रवर्ती आदि है । इन विद्वानों ने भारत के विषय में विशेषतः जैनत्त्व के विषय में शोध कर यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत में विद्यमान धर्मों में जैन धर्म बहुत प्राचीन है और श्रेष्ठ है । इसके मूलनायक प्रवर्तक भगवान् महावीर ही जैन धर्म के प्रवर्तक एवं प्रचारक थे । उन लोगों के कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् महावीर के पहले जैन धर्म नहीं था। जैसे बुद्ध से बौद्ध धर्म । यह बात बिलकुल हास्यास्पद है । डॉ.राधाकृष्णन् का कथन है कि
जैन परंपरा भगवान् ऋषभदेव को अपना संस्थापक एवं प्रचारक बतलाती है । इस धर्म का काल बहुत प्राचीन है। भगवान् वर्धमान और पार्श्वनाथ के पहले भी जैन धर्म था, इसका प्रमाण यह है कि हिन्दुओं के यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि- इन तीनों का उल्लेख मिलता है। भागवत् पुराण में भगवान् श्रीऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक बताया गया है। एक अन्य वैदिक विद्वान् प्रो. विरुपाक्ष का कथन है कि भगवान् ऋषभदेव का ऋग्वेद में वर्णन किया गया है। 'वृषभं मासनां सपत्नानां विषसाह' इत्यादि से यह बात स्वीकार करने योग्य है ।
संत विनोबा भावेजी का कहना है कि जैन धारा को अति प्राचीन कहने में संकोच नहीं करना चाहिये, क्योंकि हिन्दुओं के अतिप्राचीन वेद वचनों में 'अर्हत् इदं दय से विश्व संसेवस' आदि वचन पाये जाते हैं । अर्हत् शब्द जैन धर्म के अधिनायक भगवान् ऋषभदेव को ही सूचित करता है । इस बात को हम यदि मंजूर कर लेते हैं तो हिन्दुओं के वेद काल से भी प्राचीनता जैन धर्म को मिल जाती है। इसमें कोई सन्देह की बात नहीं है । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से मिली नग्न दिगम्बर मूर्तियों से भी जैनत्व को (दिगम्बर जैनत्व) पाँच हजार साल से पहले की प्राचीनता प्राप्त होती है । मोहनजोदड़ो का काल पाँच हजार साल का है।
उदयगिरि और खण्डगिरि से प्राप्त शिलालेखों से (जो जैन भक्त शिरोमणी खारवेल के जमाने के है) भी हम कह सकते हैं कि जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन है। इन सभी आधारों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन धर्म भगवान् ऋषभदेव रुपी हिमालय से निकली गंगा है, न कि भगवान् नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान से । अज्ञान एवं अनुसंधान के अभाव से कुछ इतिहासज्ञ, जैन धर्म की प्राचीनता
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को तिरोहित करने के लिये जैन धर्म के आदि संस्थापक के रुप में भगवान् ऋषभदेव को स्वीकार न करते हुए नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर को मानते है। उन लोगों की भ्रमपूर्ण वार्ताओं पर दृष्टि न डालकर विशिष्ट इतिहासवेत्ताओं के प्रामाणिक वचनों को स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है।
उपर्युक्त कथन से जैनत्व की प्राचीनता प्रमाणित होती है। हमें अब दक्षिण की ओर यात्रा करनी है । दक्षिण में जैन धर्म कब से है ? कौन इसके प्रवर्तक रहे ? यह महान् धर्म कहाँ-कहाँ फैला हुआ था ? आदि जानना है। दक्षिण भारत- तमिल, तेलुगू, कर्नाटक और केरल- इन चार प्रान्तों में विभाजित है, इन चार प्रान्तों में केरल और तेलुगू में स्थानीय जैनियों को खत्म सा कर दिया गया है । आदिशंकराचार्य का जन्म केरल प्रान्त में हुआ था। वे जैन धर्म के कट्टर विरोधी थे। वे ३५ साल की उम्र में ही गुजर गये थे परन्तु उन्होंने अपनी ३५ साल की उम्र के अन्दर ही कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक पैदल चलकर अनेक मठों की स्थापना की थी। जिन के प्रभाव से जैन धर्म और बौद्ध धर्म का हास हुआ। उन्हीं के कारण केरल में जैन धर्म लुप्त हो गया । पूराने जमाने में केरल 'चेरनाडु कहा जाता था। वहाँ के राजा लोग प्रायः जैन धर्मानुयायी होते थे। 'शिलप्पधिकारं' नामक एक महान् काव्य तामिल भाषा में है। वह पहली या दूसरी सदी का माना गया है। उस महाकाव्य के रचयिता 'इलंगोवडिगल' चेरनाडु के युवराज थे। शिलप्पधिकारं से पता चलता है कि युवराज पक्के जैन थे और उनकी परंपरा भी जैन थी। शिलप्पधिकारं कथा का नायक वैश्यकल तिलक 'कोवलन' भी कट्टर जैन था । शिलप्पधिकारं की कथा रोचक और ऐतिहासिक है । एक जमाने में केरल एकदम जैनत्व से भरा हुआ था । आज वहाँ जैन धर्म का नामोनिशान भी नहीं है और एक भी स्थानीय जैन नहीं है। यह सब आदिशंकराचार्य के कारण से हुआ । सारांश यह है कि जैन धर्म को केरल से हटा दिया गया । दूसरा नम्बर आन्ध्र प्रान्त का आता है। प्राचीनकाल में वहाँ भी जैन धर्म प्रचलित था । न जाने वहाँ जैन धर्म कैसे खत्म कर दिया गया ? यह सब किस के प्रभाव से कब और कैसे हुआ? यह पता नहीं चलता । वास्तव में ‘एलोरा' की शिल्पकला से पता चलता है कि आन्ध्र जैन एवं बौद्ध धर्म का गढ़ था । आन्ध्र और महाराष्ट्र में जैन और बौद्ध धर्म महोन्नत स्थिति पर अवश्य रहे, इसमें कोई शक नहीं है । आन्ध्र में जैन धर्म की अपेक्षा वैष्णव धर्म ज्यादा प्रचलित है । काल के प्रभाव से उलट-पुलट होती रहती है। जैन धर्म के प्रख्यात महान् आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म आंध्र में ही हुआ था । आन्ध्र पहले तमिलनाडु में मिला हुआ था । जैन धर्म के बारे में आचार्य कुन्दकुन्द से ज्यादा ठोस उदाहरण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे विशिष्ठ स्थान में आज एक भी स्थानीय जैन नहीं है। अब वहाँ व्यापारी या सर्विस वाले जैन ही आकर रहने लगे हैं ।
जहाँ तक कर्नाटक का संबंध है, प्राचीन काल से आज तक कर्नाटक जैन धर्म का केन्द्र बना
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रहा है। वहाँ के बहुत से राजा जैन धर्मानुयायी थे। विशेषतः चालुक्य वंश के राजा लोग जैन धर्म को मानने वाले थे। बाद में वहाँ भी वैष्णव धर्म ने जोर पकड़ा । उस समय राजाओं के अमात्यगण जैन धर्म के पक्के श्रद्धावान थे। उन अमात्यों में खास कर जैन भक्त शिरोमणी चामुण्डराय और इरगप्पन तथा हुल्लर स्मरणीय है।
कुछ मनीषी विद्वानों का विचार है कि उस समय जैन धर्म की रक्षा के लिये जैन मठों की स्थापना की गई थी। जिस से जैन धर्म थोड़ा बहुत बचाया जा सका । यह युक्ति-संगत मालूम पड़ता है।
जैन धर्म के प्रति महामना अमात्य हुल्लर की सेवा असाधारण रही । वे राजा नरसिंहदेव के अमात्य एवं भण्डारी थे। उनके द्वारा बनाया हुआ मन्दिर श्रवणबेलगोला में आज तक भण्डारी बस्ती के नाम से प्रसिद्ध है । भण्डारी हुल्लर की सेवा से सन्तुष्ट जैनी जनता ने उन्हें 'सम्यक्त्व चूडामणी' नाम की पदवी से अलंकृत कर गौरव प्रदान किया । यह बड़ी महत्व की बात है।
दूसरे धर्मश्रद्धालु चामुण्डराय, संसार के महान् अतिशय स्वरूप भगवान् बाहुबली की प्रतिमा के निर्माण व स्थापना के कारण अमर बन गये । भविष्य में भगवान् बाहुबली की अतिशय मूर्ति के साथ-साथ सम्यक्त्वरत्न चामुण्डराय का नाम भी आचन्द्रार्क टंकोत्कीर्ण बना रहेगा । महान् विभूति बाहुबली भगवान् के कारण और सिद्धान्त रहस्य पारंगत आचार्यवर्य धरसेन भूतबली-पुष्पदन्त और सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्र आदि आचार्यवों के कारण कर्णाटक में प्राचीनकाल से आज तक जैन धर्म बड़े महत्व के साथ चलता आ रहा है। आज भी वह स्थान वैभवमय है तथा भविष्य में भी रहेगा। ___ वहाँ पर (कर्नाटक में) जैन धर्म प्रसिद्धि के दो कारण हैं । पहला महामहिम भगवान् बाहुबली की प्रतिमा, दूसरा मूडबद्री के धवल सिद्धान्त ग्रन्थ । आजकल श्रवणबेलगोला जैनबद्री के नाम से भी प्रसिद्ध है। इन सभी कारणों से कर्नाटक जैन धर्म का महान् केन्द्र बन गया है।
अब तमिल प्रान्त के बारे में विचार करते हैं। तमिलनाडु के अन्दर चेर, चोल और पाण्डय नामक तीन वंश के राजा रहते थे। इन तीनों में बहुत से जैन धर्मानुयायी तथा सहानुभूतिशील होने के नाते यहाँ पर जैन धर्म खूब फला और फूला । प्राचीन चेर राज्य आजकल केरल में है। चोल राज्य के राजा की बहन 'कुन्दवे' ने तमिलनाडु के तिरुमले में जिनमन्दिर बनवाया था। आज भी वह मन्दिर कुन्दवै मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है । उनके जमाने में जैन धर्म उन्नत अवस्था में था।
पांड्यराजा 'नेडुमारन' कट्टर जैनी था। उनकी रानी ‘मंगयर्करसी' और अमात्य 'कुलच्चिरै'
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दोनों शैव थे। उस जमाने में एक घर के अन्दर कुछ लोग जैन और कुछ लोगों का शैव रहना स्वाभाविक था । मंत्री और रानी इन दोनों ने कई तरह के षड़यन्त्रों के द्वारा राजा को शैव बना लिया। उनके राज्य-काल में शैव और जैनों का हमेशा संघर्ष होता था । जैन और शैवों को भिड़ाकर राजा तमाशा देखता था । अन्ततः उन दोनों में वाद-विवाद (शास्त्रार्थ ) का निर्णय लिया गया । उस वाद-विवाद में तर्कवाद से निर्णय लेना चाहिए था, परन्तु शैव लोगों ने चालाकी से 'अनलवाद-पुनलवाद' को निर्णय करा लिया । अनलवाद का अर्थ है कि अग्नि में ताड़पत्र को डालना, पुनलवाद का अर्थ है कि पानी में ताड़पत्र को डालना । जिसका ताड़पत्र अग्नि में जल जाये और पानी में बह जाये, उस पक्ष को हारा हुआ माना जायेगा । जिसका जला नहीं और बहा नहीं, उसे जीता हुआ माना जायेगा । वस्तुतः यह शास्त्रार्थ नहीं था बल्कि धोखा था । षड़यंत्र रचकर जैनियों पर हार की छाप लगा दी गई। जैनियों के पक्ष में आठ हजार मुनिराज थे और शैवों के पक्ष में अकेला 'संबन्धन' था। राजा तो शैव मतानुयायी हो गया था, फिर क्या था ? मनमानी चली । जैनियों पर हार की छाप लगाकर आठ हजार मुनिराजों को (शैव मत को स्वीकार न करने के कारण) शूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। यदि तर्कवाद से जैनियों के साथ हम शास्त्रार्थ करते तो जैनियों को तीनों काल में जीत नहीं सकते थे। शैवों ने अपने शास्त्र में लिखा है कि 'तर्क समणरगल' और 'सावायुं वायुसेय समणरगल' अर्थात् जैन लोग तर्कवाद में दक्ष और मरते दम तक वाद-विवाद करने वाले होते हैं । आज भी उनके तेवार ग्रन्थ में ये वाक्य मिलते हैं । इस तरह की भयंकर हत्या की बातें पेरियपुराणं (शैव) में स्पष्ट देखी जा सकती है।
इससे यह अनुमान किया जाता है कि वाद-विवाद की ये बातें वस्तुतः हुई नहीं । अपने मत प्रचार के लिये गढ ली गई। तमिलनाडु और कर्नाटक में विद्वेषियों के द्वारा जैनियों के ऊपर अकथनीय अत्याचार हुए । निष्कर्ष यह है कि कई तरह (मारना, पीटना, भगाना और छीनना) से जैनत्व को नष्ट किया गया था । इस तरह के अत्याचार से डरकर बहुत से जैन लोग शैव बन गये और मुसलमान भी। इसका विशद विवेचन आगे भी किया जायेगा । काल दोष के कारण जैन धर्म को किस-किस तरह से नष्ट किया गया, यह समझने की बात है ।
ऊपर के विषयों से अच्छी तरह पता चलता है कि तमिल प्रान्त में प्राचीन काल से ही जैन धर्म प्रचलित था और अनगणित जैन अनुयायी लोग थे। इसी पवित्र भूमि में तर्कचूडामणी महान आचार्य समन्तभद्र महाराज का जन्म हुआ था। उन्होंने साठ जगहों पर अन्य मत वालों से शास्त्रार्थ कर जैन धर्म का डंका बजाया था । उन महान् आचार्य का कहना है कि 'शास्त्रार्थ विचराम्यहं नरपते शार्दूलविकीडितं ' अर्थात् हे राजन् ! शास्त्रार्थ के लिए मैं शार्दूल (सिंह) के समान निडर होकर संचार कर रहा हूँ । कोई भी मेरे साथ शास्त्रार्थ करने के लिये आवें, मैं तैयार हूँ । इस तरह चुनौति देकर
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शास्त्रार्थ करने वाले महान् साधु समन्तभद्र की पवित्र भूमि यही थी। बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराने वाले तार्किक शिरोमणि, त्यागदेवता अकलंकदेव की जन्मभूमि भी यही थी । इसी पवित्र भूमि में आचार्य पूज्यपाद ने जन्म लिया था । प्राभृतत्रय के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने इसी पवित्र भूमि में मूल संघ की स्थापना कर सारे तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार किया था। इस तरह तमिलनाडु कई आचार्यवर्यो एवं संतों का जन्म स्थान, निवास स्थान और तपोभूमि रहा है ।
कुछ भ्रमग्रस्त इतिहासवेत्ताओं का कहना है कि दक्षिण में प्राचीनकाल से जैन धर्म नहीं था । श्रुतकेवली भद्रबाहु महाराज के दक्षिण में आने के बाद ही यहाँ पर जैन धर्म प्रचलित हुआ। इसमें सोचने की बात यह है कि जैन धर्म के चौबीस तीर्थकरों का (भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर वर्धमान पर्यन्त) उत्तर भारत में ही जन्म हुआ और तप धारण कर कर्मों को नष्ट करते हुए मोक्षधाम सिधारे । परन्तु भगवान् महावीर स्वामी ने घातिया कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद समवसरण के द्वारा सारे देशों में अर्थात् ५६ देशों में विहार कर जैन धर्म का प्रचार किया । उन देशों में द्रविड़ देश का नाम भी मौजूद हैं। जब सारे द्रविड़ देश में भगवान् महावीर का समवसरण आया और जैन धर्म का प्रचार किया गया तो दक्षिण में जैन धर्म कैसे नहीं रहा होगा ? दूसरी बात यह है कि जहाँ पर धर्मानुरागी लोग रहते हैं, वहीं समवसरण जाता है, अन्यत्र नहीं। इसका मतलब यह निकला कि भगवान् महावीर से पहले भी दक्षिण में जैन धर्म मौजूद था और उसके अनुयायी श्रावकगण भी रहते थे । इसीलिए भगवान् महावीर का समवसरण यहाँ आया । यदि केवल पहाड़ और जंगल ही होता तो वहाँ समवसरण क्यों आता ? अतः भगवान् महावीर के समय से पूर्व ही दक्षिण भारत में विशेषतः तमिल प्रान्त में जैन धर्म मौजूद था। यह बात निर्विवाद सिद्ध है।
महान् आचार्य भद्रबाहु ई. पूर्व ३६ से २६७ तक जैन धर्म के आचार्य रहे । वे जगत् प्रसिद्ध सम्राट् मौर्य चन्द्रगुप्त (प्रथम) के धर्मगुरु भी थे। यह चन्द्रगुप्त सिकन्दर का समकालीन था। चन्द्रगुप्त सम्राट अशोक के पितामह थे । सम्राट् चन्द्रगुप्त के जमाने में उत्तर भारत में बारह साल तक भंयकर अकाल पड़ा । जिसके कारण श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के नेतृत्व में बारह हजार मुनिराजों के विशाल दि. जैन मुनि संघ ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया । भगवान् श्रुतकेवली के अद्वितीय शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त संसार की असारता को जानकर अपने मणिमौली किरीट के साथ महान् साम्राज्य को त्यागकर अपने गुरुदेव के चरणों का अनुसरण करते हुए पीछे-पीछे चलने लगे । सारा संघ कर्नाटक के श्रवणबेलगोला आने के बाद श्रुतकेवली महाराज ने अपने दिव्यज्ञान के द्वारा अपनी आयु का अवसान जाना । फिर अपने शिष्यगण/साधुओं को विशाख नाम के मुनिराज के नेतृत्व में चेर-चोल-पाण्डव देशों की ओर गमन करने का आदेश दिया । उस संघ में आठ हजार मुनिराज थे। बाद में भद्रबाहु महाराज
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ने ई. पूर्व २६६ में अपनी अन्तिम अवस्था के समय संलेखना धारण कर ली और आत्माराधना के साथ स्वर्गवास को प्राप्त हुए। राजाधिराज चन्द्रगुप्त अपने गुरु महाराज से जिन-दीक्षा धारण कर गुरुदेव के चरणानुगामी बने ।
इस बात का आचार्य हरिषेण (ई. ६३१) ने अपने ‘कथाकोश' में उल्लेख किया है तथा देवचन्द्रजी (ई. १८३८) ने अपनी 'राजावली कथा' में भी इसे अंकित किया है । इसके अलावा श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पहाड़ पर आचार्य भद्रबाहु गुफा एवं चन्द्रगुप्त बस्ती आज भी मौजूद है । चन्द्रगुप्त बस्ती में भद्रबाहु के ऐतिहासिक चिन्ह, शिल्प-कला के रूप में अंकित है । इसके साथ-साथ वहाँ का शासन (शिलालेख) भी इस बात की पुष्टि करता है ।
इस तरह ई. पूर्व तीसरी शताब्दी में आचार्य भद्रबाहु के शिष्य विशाखमुनि के द्वारा तमिलनाडु में जैन धर्म का आगमन हुआ, यह एक मत है । पाण्डय देश मथुरा (दक्षिण) जिले के अन्दर एक शिलालेख है। यह ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ जैन लेख है। इसका समय ई. पूर्व तीसरी सदी है। इस बात को आरकोलोजिकल डिपार्टमेंट भी स्वीकार करता है । इससे भी सिद्ध है कि यहाँ ई. पूर्व तीसरी सदी से जैन धर्म का अस्तित्व था ।
दूसरा प्रमाण यह है कि महावंश नाम का एक बौद्ध ग्रंथ है , उसमें ई. पूर्व तीसरी सदी के पहले से जैन धर्म का अस्तित्व बताया गया है। ई. पूर्व ३७ से ३६७ तक लंका द्वीप पर राजा 'पाण्डुकाभयन' राज्य करता था। उसने अनुराधपुर नाम के नगर में जैन साधुओं के निवास स्थान (गुरुकुल) का निर्माण किया था।
उत्तर हिन्दुस्तान का राजा चन्द्रगुप्त और लंका द्वीप का राजा 'पाण्डुकाभयन' दोनों समकालीन थे। उस समय जैन धर्मानुयायी साधु लंका द्वीप में रहे हो, वे तमिल प्रान्त के जरिये ही गये होंगे। उस समय तमिलनाडु और लंका द्वीप इन दोनों में आने-जाने में दिक्कत नहीं थी अर्थात् समुद्र का घेराव नहीं था । पैदल आने-जाने की सुविधा थी। इसलिए ई. पूर्व तीसरी सदी के पहले तमिलनाडु और लंका द्वीप में जैन लोग और साधुगण निवास करते थे। यह बात निःसन्देह स्वीकृत है। ____यहाँ यह समझने की बात है कि दि. जैन साधु-संत सब जगह सभी लोगों से (अन्य साधुओं के समान) आहार ग्रहण नहीं करते । जो श्रावक बड़ी श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ नवधा पुण्य कर्म से आहार देता है तो ग्रहण करते हैं, नहीं तो समता और शांति के साथ उपवास ग्रहण करते हैं । यही उन दि. जैन साधुओं का नियम था । गुरु भद्रबाहु महाराज इसे अच्छी तरह जानते थे। ऐसी
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परिस्थिति में भद्रबाहु महाराज हजारों मुनिराजों को श्रद्धालु जैन श्रावकों से रिक्त तमिलनाडु में कैसे भेजते ? कदापि नहीं। आजकल ८-१० मुनियों का संघ आ जाये तो भी कितना परिश्रम उठाना पड़ता है। यह सर्वविदित ही है । हजारों मुनिराजों के समागम होने पर कितने श्रद्धालु जैन श्रावकों की आवश्यकता पड़ी होगी ? यह समझने की बात है। वस्तुतः दि. जैन साधुगण, जहाँ भक्त एवं श्रद्धालु श्रावक समाज बसता है, वहीं पदार्पण करते हैं । इसलिये यहाँ पर अच्छी तरह समझना यह है कि हजारों की संख्या में मुनिराजों का समागम हुआ हो तो उन्हें सम्हालने की क्षमता तमिलनाडु के तत्कालीन जैनियों पर निर्भर थी और उस समय जैन लोग लाखों की संख्या में तमिलनाडु में निवास करते थे। तभी तो चर्या को संभालना संभव हो सका, नहीं तो असंभव ही था । अतः निःसन्देह स्वीकार करना पड़ेगा कि श्रुतकेवली भद्रबाहु महाराज के शिष्यगण दक्षिण में विशेषतः तमिलनाडु में आने के पहले से ही यहाँ पर जैन धर्म मौजूद था और लाखों की संख्या में जैन लोग यहाँ निवास करते थे। यह बात निर्विवाद सिद्ध है। इस बात को स्वर्गीय डॉ. ए. एन. उपाध्याय ने भी अपने प्रवचनसार की प्रस्तावना में स्वीकार किया है।
इसके अलावा 'मेक्डोनल' नाम के विदेशी विद्वान् ने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है । उनका कथन है कि संस्कृत का 'इन्द्र' व्याकरण और तमिल भाषा का 'तोलकाप्यं' - इन दोनों का काल एक है । इन्द्र व्याकरण का काल ई. पूर्व ३५० का है। वैसे ही 'तोलकाप्यं' का काल भी है।
पराक्रमी 'सिकन्दर' ने भारत पर चढ़ाई की थी। उस समय के ज्योतिषी भी उनके साथ आये थे। वे ज्योतिषी अपनी टिप्पणी में लिखते हैं कि तमिल भाषा में 'तोलकाप्यं' नाम का एक अद्वितीय व्याकरण है। इससे पता चलता है कि सिकन्दर के भारत में आने के पहले से ही तोलकाप्यं प्रसिद्ध व्याकरण के रूप में मशहर था ।
भारत पर सिकन्दर की चढ़ाई ई. पूर्व तीसरी सदी से पहले हुई है । अतः तोलकाप्यं का काल उससे पहले का है, इसे निःसंकोच स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है । तोलकाप्यं एक जैन व्याकरण है। उसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक का वर्णन है । एक स्थान पर लिखा है कि 'विनैयिन नींगिविलंगिय अरिवन मुनैवन कण्डदु मुदल नूलगम्' अर्थात् कर्मबंधन से विमुक्त ज्ञानी (केवलज्ञानी-सर्वज्ञ) जो प्रथम महापुरुष आदिनाथ ऋषभदेव हैं, उनके ज्ञान में प्रतिभासित शास्त्र ही पहला शास्त्र हैं। यह बात सर्वज्ञ वीतराग आदिनाथ भगवान के साथ घटित होने से निष्पक्ष विचारशील अजैन 'वेणुगोपाल पिल्लै' और मयिलै सीनु 'वेंकटस्वामी' आदि इतिहास के विद्वान् लोग तोलकाप्यं को जैन आचार्यों की ही रचना कहते हैं । अतः उक्त ग्रन्थ को जैन ग्रंथ कहने में किसी तरह संदेह नहीं है। उसमें जैन धर्म संबन्धी कई बातें ज्ञात होने से स्पष्ट है कि उसके पहले से ही तमिल प्रान्त में जैन धर्म फैला हुआ था।
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इसके अलावा तमिलनाडु के रामनाथपुरम् जिले में बहुत प्राचीन ब्राह्मी शिलालेख मिले हैं । वे अशोक के स्तंभों के शिलालेख से (अक्षरों से मिलते-जुलते हैं । इतिहासवेत्ता उन्हें ई. पूर्व तीसरी सदी के पहले का मानते हैं । यह शिलालेख जैन संस्कृति से संबन्धित है। तमिलनाडु के इन शिलालेखों की ब्राह्मीलिपि और लंका द्वीप के शिलालेखों की लिपि में समानता है, ऐसा इतिहासवेत्ताओं का मत है । अतः ये दोनों समकालीन होने चाहिये। इस कारण ये दोनों ई. पूर्व तीसरी सदी से पहले के माने जाते हैं । ऐसी हालत में तमिल प्रान्त के अन्दर जैन धर्म का अस्तित्व ई. पूर्व तीसरी सदी से पहले मानने में किसी तरह की हिचकिचाहट की जरूरत नहीं है ।
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और एक बात यह है कि पाण्डवों के जमाने में, अर्थात् कृष्णजी के समय में जैन धर्म का अस्तित्व तमिलनाडु में स्वीकार किया जाता है । यह काल नेमिनाथ भगवान् के तीर्थ के समय का है । इसका आधार (प्रमाण) तोलकाप्यं पोरुल अधिकार हर सूत्र की व्याख्या में है ।
और एक अन्य प्रमाण यह है कि हम जैन लोगों के साथ चेर, चोल, पाण्ड्य नरेशों को बेटी लेन-देन का व्यवहार भी होता था । इसका आधार संघ काल के ग्रन्थ में हैं। संघ काल दो हजार साल का माना जाता है । इन लोगों को उस जमाने में 'अरुलालऐ' अर्थात् करुणा वाले के नाम से पुकारते थे अर्थात् जैनों को करुणाशील कहना उचित है क्योंकि ये लोग अहिंसावादी थे । इससे पता चलता है कि ई. पूर्व कई सौ सालों से तामिलनाडु में जैनों का निवास था । उस समय के नरेशगण भी जैन हुआ करते थे । इन लोगों का आपस में बेटी लेन-देन व्यवहार भी होता था ।
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यहाॅ पर एक विशेष बात यह है कि कृष्णजी के वंश वाले अठारह गृहस्थ (पतिणेणकुडि) व्यवसायी अरुलालऐ थे । ये सब जैन धर्मावलम्बी थे । इन लोगों के उत्तर भारत से दक्षिण भारत आने के बाद इस प्रान्त में कृष्ण और बलराम- इन दोनों को पूजने की परंपरा भी चलने लगी । इससे समझना यह है कि ई. पूर्व कई सदी से अर्थात् कृष्णजी और पाण्डवों के जमाने से जैन धर्म तमिल प्रान्त में विद्यमान था न कि आचार्य भद्रबाहु महाराज के जमाने से। इससे अच्छी तरह पता लगता है कि तमिलनाडु में जैन धर्म प्राचीनकाल से विद्यमान था ।
जैन धर्म उत्तर से दक्षिण की ओर भी
भारत की पावनतम भूमि विश्वभर के देशों में अध्यात्म की उच्चता, प्राकृतिक सुन्दरता, संपन्नता और वीरता तथा विद्या के क्षेत्रों में प्रथम रही है तथा भारत में भी उत्तर भारत को यह गौरव अनेक कारणों से प्राप्त है । जैन धर्म की जन्म भूमि उत्तर भारत है । शैव, वैष्णव और बौद्ध धर्म भी यही
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जन्में और पनपे । चौबीस तीर्थंकरों का जन्म से निर्वाण तक का जीवन उत्तर भारत में ही संपन्न हुआ । तीर्थंकरों का विहार दक्षिण भारत में विशाल मुनि-संघों के साथ हुआ था किन्तु कब, कैसे और किस दिशा से यह निश्चित कर पाना आज तक पूर्णतया संभव नहीं हो सका है । धार्मिक विद्वेष और जातिगत वैमनस्य के कारण इतिहास लुप्त होता रहा। फिर भी भारतीय इतिहास के अनेक विशेषज्ञ यह तो स्वीकार करते ही हैं कि अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की दक्षिण-यात्रा के साथ दक्षिण भारत में जैन धर्म का बीजारोपण हुआ ।
कैसा अनोखा संयोग है कि सभी तीर्थंकर उत्तर भारत में जन्मे और वहीं से मोक्ष गये, जबकि जैन धर्म के प्रायः सभी आचार्य, कवि और सिद्धान्तग्रन्थों के रचयिता दक्षिण भारत में हुए। मुनि परंपरा का निर्वाह भी प्रायः दक्षिण से ही हो रहा है अतः उत्तर और दक्षिण जैन धर्म की दो भुजाएं हैं ऐसा कहना अनुचितन होगा ।
यह भी जनश्रुति है कि चंन्द्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में बारह वर्ष का भंयकर अकाल पड़ा । उस समय श्रुतकेवली भद्रबाहु ने बारह हजार मुनियों के साथ दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान किया । यह मुनिसंघ दो भागों में विभाजित हो गया । अलग-अलग मार्गों से कर्नाटक और तमिलनाडु में ये मुनि पहुँचे । अनेक शिलालेखों और अवशेषों से इस पक्ष की पुष्टि होती है । उस समय केरल और आन्ध्रप्रदेश मुनिसंघ के लिए अनुकूल न थे । अतः यह लगभग स्पष्ट है कि ईसा पूर्व तीसरी शती में दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रवेश हुआ । यहाँ यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि तमिलनाडु और कर्नाटक में जैन धर्म इससे भी पहले अवश्य ही रहा होगा, क्योंकि बिना किसी स्वस्थ और विश्वसनीय पूर्ववर्ती आधार के इतने बड़े मुनिसंघ वहाँ कैसे जा सकते थे ।
यद्यपि तमिलनाडु की अपेक्षा कर्नाटक में जैन मुनियों, मन्दिरों और गतिविधियों को पर्याप्त अधिक संरक्षण मिला, समृद्धि मिली, फिर भी तमिलनाडु में जैन धर्म का बहुमुखी विस्तार होता रहा । अनेक साम्प्रदायिक संघर्षों के बावजूद यहाँ के अनेक पर्वत, गुफाएं और मंदिर सहस्रों मुनियों से अभिमंडित होते रहे और अध्यात्म साधना में लीन रहे । साहित्य सृजन और सिद्धान्त ग्रंथ लेखन में भी यहाॅ प्रचुर एवं महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। यह अनेक विद्वानों द्वारा प्रकाश में भी लाया गया है । तमिलनाडु के दिगम्बर जैन प्रख्यात एवं प्राचीन मन्दिरों, पर्वतों और गुफाओं का सचित्र संदर्शन कराना अत्यन्त आवश्यक और महत्वपूर्ण है ।
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जैन धर्म की अभिवृद्धि
प्राचीन काल में जैन धर्म संपूर्ण तमिलनाडु में फैला हुआ था तथा जैन लोग बहुसंख्यक थे । वे लोग अच्छे धनाढ्य एवं समृद्धशाली थे । जैन धर्म की अभिवृद्धि के विषय में अन्य मतों के तेवारं, पेरियपुराणं, तिरुविलैयाडलपुराणं, नालायिरप्रबन्धं आदि शैव-वैष्णवों के ग्रन्थ और बौद्धमत के मणिमेखलै, जैनमत के शिलप्पधिकारं विस्तृत रूप से बतलाते हैं । इसके अलावा तमिलनाडु के अन्दर सब जगह मिलने वाले शिलालेख, खण्डहर, जैन मन्दिर, पहाड़, जंगल आदि स्थलों में असुरक्षित, अव्यवस्थित पड़ी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ इस बात की साक्षी है ।
जैन धर्म के लोग अन्न, अभय, औषध और शास्त्र - इन चार दानों को अपनी शक्ति के अनुसार जाति भेद के बिना सारे लोगों को दया दृष्टि के साथ दिया करते थे । गरीबों को आहार दान, औषध दान देना और जो डरे हुए हैं, उन्हें अभयदान देना अपना कर्तव्य समझते थे । वे लोग अभयदान का स्थान यथासंभव बहुतया जैन मन्दिर के आसपास ही रखते थे । इस स्थान का नाम तमिल भाषा में ‘अंजिनान पुगलिडं’ अर्थात् 'भयभीतों की रक्षा स्थान' था । शासन में इसके बारे में लिखा हुआ मिलता है साऊथ आर्काड जिले में पल्लिचन्दल गॉव के खेतों में एक शिलालेख है ।
दूसरा नार्थ आर्काड जिला वन्दवासि तालूका, तेल्लार गाँव में एक मन्दिर के मण्डप में मारवर्मन त्रिभुवन चक्रवर्ती विक्रम पाण्डयदेव के पाँचवें वर्ष में लिखा गया 'अंजिनान पुगलिडं' है । सकल लोक चक्रवर्ती संबुवरायर राजा के १६ वें वर्ष में एक पूरा गॉव अंजिनान पुगलिंड रहा ।
औषधदान में भी जैन लोग अग्रणी रहे थे । ये लोग खुद वैद्य बनकर सभी लोगों के रोगों की निःशुल्क चिकित्सा कर सहायता करते थे । उन लोगों के औषधिदान महिमा का स्मरण अपने जैन ग्रन्थ दिलाते हैं । जैसे बिरिकडु के एलादी, सिरु पंचमूलं आदि - ये ग्रंथ (लौंग-इलायची) रोग निवारण करने वाली दवाई के नाम से रचे गये हैं । इन ग्रंथों से शरीर का रोग और आत्मा का रोग (कर्म) दोनों निवारण किया जाता था ।
वे लोग शास्त्र दान में (ज्ञानदान) भी आगे रहते थे । जैन लोगों के साधुगण हमेशा धर्मोपदेश के साथ-साथ ज्ञानदान दिया करते थे। हर गाँव में पाठशाला खोलकर बच्चों को निःशुल्क पढ़ाकर ज्ञानदान देना जैनियों का कर्तव्य समझा जाता था । इस कारण सारी जनता जैनों के प्रति आदर भाव दिखाती थी । दूसरी बात यह है कि जैनियों के कारण से ही बच्चों के पढ़ने का स्थान पाठशाला के नाम से प्रसिद्ध था । आज भी उसी नाम से पुकारा जाता है ।
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यहाँ जैन धर्म पनपने का और एक कारण यह भी है कि जैनों का प्रचार-प्रसार मातृभाषा तमिल में ही हुआ करता था। उसके सारे अमूल्य ग्रन्थ मातृभाषा तामिल में लिखे गये । इससे स्थानीय लोग जैन तत्वों को आसानी से समझ पाते थे। इसी में धर्म प्रचार कार्य भी चलता था । ब्राह्मण वैदिक लोग अपने ग्रन्थों को संस्कृत भाषा में लिखते थे तथा दूसरों को पढ़ने नहीं देते थे। किन्तु जैन धर्म में किसी तरह की रुकावट न होने के कारण यह धर्म दिनोंदिन फलता-फूलता रहा ।इस तरह विशाल हृदय वाले जैन धर्मावलम्बी तमिल देश के अन्दर तमिल भाषा में अपने धार्मिक सिद्धान्त ग्रन्थों को लिखते थे। इन ग्रन्थों के निर्माण कार्य में साधु लोगों का सहयोग अवर्णनीय रहा। इन लोगों ने लोकोपकार के निमित्त कोष, काव्य, अलंकार, छन्द नीति ग्रन्थ आदि अगणित शास्त्रों का निर्माण कर समाज का महान् उपकार किया। यह भी जैन धर्म की अभिवृद्धि का कारण बना ।
जैन साधुओं की सहायता तामिल प्रान्त में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार का भार अधिकांशतः जैन साधुओं पर निर्भर था । वे साधुगण संघ के माध्यम से सभी स्थानों पर जाकर जैन धर्म की प्रभावना के कार्य में संलग्न रहते थे। संघ के साधु-संत सच्चरित्र के साथ नग्न दिगम्बर मुद्राधारी रहा करते थे। उन त्यागी महात्माओं को आहार के सिवाय और किसी तरह की चीजों की आवश्यकता नहीं होती थी। सिर्फ उन तपोधनों के लिए जप-तप-ध्यान और स्वाध्यायार्थ एकान्त निवास स्थान की आवश्यकता होती थी। वे साधु-संत पहाड़ों और गुफाओं में निवास किया करते थे । केवल उन्हें आहार के समय नगर आना पड़ता था। लेकिन धर्मात्मा लोग ऐसे साधु महात्माओं के सानिध्य में जाकर धर्मलाभ लेते हुए- अपने जीवन को सफल बनाते थे। उन त्यागी महात्माओं के निवास स्थान स्वरूप जो पहाड़ और गुफाएँ हैं उनमें उन महापुरुष त्यागीगणों के नामों से अंकित पाषाण-शिलाएँ आज भी कई जगह मौजूद है। इस तरह साधु-महात्मा लोग तमिलनाडु में जैन धर्म और जैन सिद्धान्त का प्रचार करते थे। उसके साक्षी अगणित शिलालेख हैं।
प्राचीनकाल में मद्रास बड़ा शहर नहीं था, छोटे-छोटे गांवों में बसा हुआ था, जैसे सैदापेट, चिन्ताद्रिपेट और वासरमेनपेट आदि । कांजीपुरम्, तंजाउर और मधुरै (दक्षिण) आदि शहर ख्याति प्राप्त थे। कलुगुमलै शिलालेख यह बतलाते हैं कि श्रामण संलगण समणर्मलै, कलुगुमलै, तिरुच्चारत्तुमलै आदि स्थलों को केन्द्र बनाकर विद्यापीठों की स्थापना करते हुए जैन सिद्धान्त, अहिंसा और करूणा आदि सार्वजनिक धर्मों का भेद-भाव के बिना प्रचार किया करते थे। ये निस्वार्थी, त्यागी महात्मा लोग तन-मन
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और आत्मा- इन सारी अमूल्य चीजों को लोकोपकारार्थ समर्पित करते हुए, रात-दिन सदा-सर्वदा धार्मिक कार्य में संलग्न रहते थे। इन त्यागी महात्माओं के त्याग के कारण से ही जैन धर्म दिन दूना, रात चौगूना बढ़ता गया । मुनिराजों का मुख्य कार्य यह हुआ करता था कि लोगों को धर्मोपदेश देना, महोन्नत ग्रन्थ राजों की सृष्टि करना आदि ।
यहाँ समझने की बात यह है कि मुनियों का समूह संघ कहलाता था । उसके नायक आचार्य होते थे। प्राचीनकाल में मूलसंघ नाम से बहुत बड़ा संघ था । उसके अन्तर्गत चार गण थे। वे हैंनन्दिगण, सेनगण, सिंहगण और देवगण । प्रत्येक गण में गच्छ, अन्वय- ये दो अवान्तर भेद थे ।
नंदिगण संघ के मुनियों के नाम इस प्रकार है- पुष्पनन्दी, श्रीनन्दी, कनकनन्दी भट्टारक, उत्तमनन्दी गुरुवडिगल, पेरुनन्दी भट्टारक, गुणनन्दी, अज्जनन्दी, भवनन्दी भट्टारक, चन्दनन्दी आदि । तमिल भाषा में 'नन्नूल' नामक प्रसिद्ध जैन व्याकरण है । उसके रचयिता भवनन्दी भट्टारक हैं । यह व्याकरण सर्वोत्तम माना जाता है । इसके बराबर दूसरा कोई व्याकरण है ही नहीं। आज तक जैन-अजैन सारे के सारे इसी व्याकरण का उपयोग करते हैं ।
सेनगण संघ के मुनिगण के नाम है- चन्द्रसेन, इन्द्रसेन, धर्मसेन, कन्दसेन और कनकसेन आदि । ये सब सेन संघ के मुनिराज थे । देवसंघ के मुनियों में तिरुतक्कदेवर ने 'जीवकचिन्तामणी' महाकाव्य की रचना की । तोलामोलिदेवर ने 'चूड़ामणी' काव्य की रचना की है। ये काव्य जैन-अजैन लोगों के द्वारा सर्वश्रेष्ठ मानकर उपयोग किये जाते हैं।
मुनि वज्रनन्दी ने विक्रम संवत् ५२६ (ई. ४७०) में 'द्रविड़ संघ' की स्थापना की थी। इसके बारे में ए. एन. उपाध्याय ने अपने प्रवचनसार भूमिका में जिक्र किया है। इस संघ के मुनिगणों ने तमिल ग्रंथों की रचना भी की थी। 'द्रविड संघ' के मुनियों के बारे में मैसूर शिलालेख में कहा गया है।
श्रीमद् दमिल संघे ऽस्मिन् नन्दिसंघोस्त्यरूंगला ।
अन्वयो भाति निःशेष शास्त्र साराधिपाटकैः ।। इसका मतलब यह है कि दाविड़ संघ नन्दिसंघ के अन्तर्गत था । इसके आचार्यगण शास्त्रसागर के पारंगत थे । मैसूर शिलालेख में द्राविड़ संघ के आचार्यों के नाम इस तरह बतलाये गये हैंत्रिकालमुनि भट्टारक, अजितसेन भट्टारक, शान्तिमुनि, श्रीपाल जैविधर आदि ।
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जैन धर्म की अर्जिकायें
इन्हें अर्जिका और गउन्दी के नाम से पुकारा जाता है। तमिलनाडु के शिलालेख में इनका नाम 'कुरत्तियर' बतलाया गया है, जैसे- तिरुच्चारणत्तु कुरत्तिगल, अरिष्टनेमि कुरत्तिगल, कनकवीर कुरत्तिगल आदि ।
प्राचीनकाल में तमिल प्रान्त में जैन धर्म के प्रचार और प्रसार के कार्य में अर्यिका माताओं की सेवाएँ कम नहीं थीं बल्कि बड़ी महत्त्व की थी। आर्यिका माताओं से मिलने में और धर्म श्रवण करने में मुमुक्षु महिलाओं को काफी सुविधा रहती थी। इसलिए महिला समाज में, जैन धर्म का प्रचार कार्य, त्यागशील आर्यिकाओं से ज्यादातर हुआ करता था । ये मातायें कई जगह महिलाओं के लिए विद्याकेन्द्र आदि की स्थापना कर जैन धर्म और नीति धर्म (जैन-अजैनों के योग्य नीति प्रधान आचार शास्त्र) का प्रचार-प्रसार करती थी। नीति धर्मों के उपदेश के कारण सामान्य लोग भी आकर्षित हो जाते थे । उस समय के शिलालेख इन सभी बातों को अभिव्यक्त करते हैं कि आर्यिका माताओं की सेवाएं अमूल्य थी । इसे उदाहरण के रूप में समझ सकते हैं कि तमिल प्रान्त के साउथ आर्काड जिले में जिंजी से दस मील की दूरी पर 'विडाल' नाम का गाँव है । इस गाँव में एक बड़ा पहाड़ है। उस पहाड़ की गुफा में 'गुणवीर कुरत्ति' नाम की आर्यिका माताजी ने पाँच सौ महिलाओं को शास्त्राध्ययन (पठन-पाठन) कराती थी । यह बात यहाॅ के शिलालेख से ज्ञात होती है । आज भी वह गुफा मौजूद है ।
इस तरह साधु-साध्वियों द्वारा तमिलनाडु प्रान्त में जो धार्मिक सेवाऍ हुई थीं, उसका पूरा विवेचन करना सर्वथा अशक्य है । "हमें यह शंका उठती है कि साधु-साध्वियों के कारण जैन धर्म का प्रचार-अविरल चलता रहता है । यदि इसे रोकना हो तो (जैन धर्म के ) प्रचार कार्य में लगे हुए साधु-साध्वियों को खत्म करना होगा । इसके बिना उन लोगों का (जैनियों) प्रचार रोका नहीं जा सकता ।” मानो इसी उद्देश्य से साम्प्रदायिक विद्वेषियों ने मधुरा के (दक्षिण) अन्दर आठ हजार मुनिराजों को शूली पर चढाकर खत्म किया हो। इस तरह का अन्याय दुनियाँ में और कहीं नहीं हुआ होगा । मुनिराजों का यह कैसा त्याग ? धर्म के लिये जीवन को तुच्छ समझकर शूली पर चढ़ जाना ही वास्तविक त्याग है । वे त्यागी महात्मा लोग धर्म के सामने अपने नश्वर शरीर को बिलकुल तुच्छ समझते थे । धर्मरक्षा में जीवन बलिदान कर अपने को धन्य समझते थे । उन महात्माओं का यही विचार था कि जीवन को छोड़ देंगे परन्तु धर्म रक्षण करेंगे । कदापि अन्य धर्म स्वीकार नहीं करेंगे । इस तरह के त्यागियों के अभाव के कारण से ही तमिलनाडु आज जैन धर्म के प्रचार-प्रसार से रिक्त पड़ा है I
कोई भी धर्म तात्कालीन राज्य की सहानुभूति के बिना कभी भी पनप नहीं सकता । 'यथा राजा
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तथा प्रजा' यह नीति बतलाती है कि हर धर्म के लिए राज्य सत्ता की सहायता अत्यन्त आवश्यक है। पल्लव राज्य के अधिपति महेन्द्रवर्मन कट्टर जैन धर्मानुयायी थे। वे संस्कृत के अच्छे ज्ञाता और विद्वान् थे। उन्होंने 'भत्तविलास प्रहसनं' नामक एक रोचक ग्रंथ का निर्माण किया था । उसमें अन्य धर्मों का उपहासमय खण्डन और जैन धर्म का मण्डन है। स्व. ए. चक्रवर्ती नैनार एम.ए. ने उसे प्रकाशित किया था, जो अत्यधिक रोचक है ।
मत-संघर्ष
इस बात को हम लोग जान गये हैं कि ई. पू. कई सदी पहले से जैन धर्म तमिलनाडु में समृद्ध होकर पनपता आ रहा था। इसका मतलब यह नहीं कि यहाँ दूसरा धर्म नहीं था । उस जमाने में अन्य धर्म वाले भी मौजूद थे। वे हैं- वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म), बौद्ध धर्म एवं मक्खली के 'आजीवक' । इनके अलावा तमिलनाडु में द्रविड़ धर्म भी एक था ।
ऊपर कहे गये जैन, बौद्ध, आजीवक और वैदिक- ये चारों धर्म वाले आपस में लड़कर एक-दूसरे को गिराने के प्रयत्न में लगे हुए थे। इसलिए इनकी लड़ाई के बारे में जानना अत्यावश्यक है।
इन धर्मों की लड़ाई में आजीवक धर्म शक्तिहीन होकर तिरोहित हो गया, बाकी जैन, बौद्ध, वैदिक (वेद आधारित) तीनों बहुत काल तक आपस में लड़ते रहे । इनमें वैदिक धर्म वालों की हालत भी बिगड़ने लगी। इसका कारण यह है कि वैदिक हवन (याग) में हिंसा होती थी। ब्राहमण लोग ऊँच-नीच का विचार रखते थे। अपने वेद-शास्त्र का अध्ययन अन्य मतवालों को नहीं करने देते थे। ये लोग स्वर्णदान, क्षेत्रदान, गोदान, महिषदान, अश्वदान, गजदान और कन्यादान को प्राप्त करने में ही ज्यादा दिलचस्पी रखा करते थे। जैन और बौद्ध साधारण जनता के लिये शास्त्रदान, विद्यादान, औषधदान और अभयदान दिया करते थे। इन कारणों से जैन-बौद्ध के समान वैदिकमत पनप नहीं सका था।
जैन, बौद्ध धर्म का ही महत्व था। इसके अलावा इन धर्मों के प्रसिद्ध होने का अन्य कारण शिक्षा देना, रोगियों का रोग निवारण करना था। इन धर्मों के अनुयायी हिंसा और मांस भक्षण नहीं करते थे। इनके लोकप्रिय कार्यो से जनता आकृष्ट हो जाती थी।
दुर्भाग्य की बात यह है कि ये दोनों (जैन-बौद्ध) मिल-जुलकर नहीं रहे । आपस में लड़ते थे। इसका आधार नीलकेशी और कुण्डलकेशी ग्रन्थ है । इन दोनों तमिल ग्रंथों में आपस के मतभेद का खण्डन है । आखिर बौद्ध मत के अन्दर भेदभाव होने से उसकी शक्ति क्षीण हो गई। ई.८ वीं सदी (ई.७५३) में जैन धर्म के महान् आचार्य अकलंक महाराज ने कांजीपुर नगर के कामाक्षी मन्दिर में
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बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया। बौद्ध लोग उस शास्त्रार्थ में हार जाने से लंका द्वीप चले गये। इस कारण से भी बौद्ध धर्म क्षीण हो गया । समृद्ध जैन धर्म भी ज्यादा दिन टिक नहीं सका । उसका कारणहिन्दू धर्म में भक्ति मार्ग का प्रवेश । इसके बारे में आगे विचार किया जायेगा ।
प्राचीन काल में इन धर्मों के साथ एक द्रविड़ मत (धर्म) का वर्णन किया गया था । उक्त द्रविड़ धर्म वाले षण्मुख शिव-पार्वती और विष्णु की पूजा - भक्ति करते थे । वे लोग काली (कोट्रवै) माता को बलि (जीवहिंसा) दिया करते थे। लेकिन शिव और विष्णु देवता के सामने जीव हिंसा का आधार नहीं मिलता है । इसके अलावा, उस समय वैदिक धर्म के अतिरिक्त शैव-वैष्णव धर्म अलग-अलग दिखाई नहीं देते थे ।
ऐसी परिस्थिति में वैदिक धर्म वाले आगे बढ़ने का प्रयत्न करने लगे। इन लोगों को आगे बढ़ाना था तो जैन-बौद्धों को गिराना ही था । तभी काम बन सकता था । ये लोग उसके लिये रास्ता ढूँढने लगे । उन लोगों को यही दिखने लगा कि जैन-बौद्धों को हराना है तो हमें द्रविड़ मतों के साथ मिल जाना है तभी साधारण लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से वैदिक धर्म वाले के षण्मुख, कालीमाता, शिव-विष्णु आदि देवताओं को अपने देवता के रूप में स्वीकार करने लगे । सिर्फ इतना ही नहीं द्रविड़ धर्म के देवताओं के साथ संबंध भी जोड़ने लगे । उन देवताओं को नये-नये नाम कल्पित करने लगे । जैसे- षण्मुख के साथ सुब्रहमण्यम्, कन्दन, मुरुगन आदि नाम जोड़ा गया । तमिलनाडु की देवी वल्लि - देवानै को उनकी पत्नी बनाया गया । इस तरह आर्य द्रविड़ संबन्ध होने लगा ।
एक जमाने में वैदिक लोग 'शिशुनदेव' शिवलिंग उपहास करते थे। बाद में उसी को उत्कट देवता मानकर शिव का चिह्न मान लिया गया । पार्वती को शिव की पत्नी बना दिया गया । लेकिन केरल में पार्वती (काली) को शिव की पत्नी न मानकर बहिन मानते आ रहे हैं ।
षण्मुख को शिव और पार्वती का पुत्र मान लिया गया। महाराष्ट्र से आये विनायक को भी पुत्र मान लिया गया । वैसे ही विष्णु को मायोन, तिरुमाल, नारायणन आदि नाम दिया गया । इन सबकी नई-नई कथायें कल्पित कर दी गयीं । नया पुराण भी लिख दिया गया । इस तरह वैदिक मत (धर्म) द्रविड़ मत (धर्म) अलग-अलग न रहकर एक ही हिन्दू मत में (धर्म) परिवर्तित कर दिये गये। इन दोनों की मिलावट अप्रत्याशित नहीं हुई । इस प्रक्रिया में सैंकड़ों साल बीत गये ।
जैन धर्म का हास (पतन)
हिन्दू धर्म के अन्दर भक्तिमार्ग प्रवेश करने के बाद उसने जैन धर्म पर आक्रमण करना शुरू किया । भक्तिमार्ग ने जैन धर्म का ह्रास किस प्रकार किया, आईये इस पर जरा विचार करेंगे ।
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मोक्ष प्राप्त करने के लिये जैन धर्म और हिन्दू धर्म दोनों का विचार क्या है ? इसके बारे में सबसे पहले जानना जरूरी है।
जैन धर्म :- इनके अरिहन्त, परमात्मा राग-द्वेष से मुक्त है। उनकी जो भक्ति करते हैं या नहीं करते हैं, दोनों की अवस्था एक अपेक्षा से बराबर है। वे भगवान् न देते हैं और न लेते हैं । परन्तु उन्होंने मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग बताया है। प्रत्येक व्यक्ति उनके बताये गये मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । गृहस्थी में रहने वाले स्त्री-पुरुष दोनों पुण्य कार्य करेंगे तो स्वर्ग मिल सकता है, मोक्ष नहीं । मोक्ष प्राप्त करने के लिए दिगम्बर मुनि का धर्म ग्रहण करना पड़ेगा । मुनिधर्म में तप कर कों को नाश करना है । तभी मोक्ष मिल सकता है । कितना कठिन है ! इसका मतलब यह है कि गृहस्थ धर्म से मोक्ष नहीं बल्कि मुनि धर्म से ही मोक्ष मिल सकता है। मोक्ष प्राप्त करना हो तो सदाचार (आचरण) की बड़ी जरूरत है । सदाचार के बिना कदापि मोक्ष नहीं मिल सकता । सदाचार रूपी तप से ही मोक्ष मिलता है । इसके लिये सदैव प्रयत्न करना पड़ेगा।
हिन्दू धर्म :- गृहस्थ, यति, नारी सभी (हर कोई) मोक्ष पा सकते हैं। किसी को रोक-टोक नहीं हैं। इसके लिये भक्ति ही काफी है। 'भक्ति से मुक्ति' यह उनकी नीति है अर्थात् सदाचार पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं । चाहे जितना भी पापी हो, ऐसे पापी व्यक्ति भी शिव (भगवान्) के चरणों का भक्त बन जाये तो शिवजी उसके सारे पापों को मिटाकर पवित्र बना देते हैं । साथ ही साथ उसे मोक्ष का भी पात्र बना देते हैं । यह शिव भगवान् की महिमा है । बनाना या बिगाड़ना सब उनके हाथ में हैं। यह बात उनके 'नालायिरं तिरुमलै' ग्रंथ में लिखी हुई मिलती है । उनके 'तेवारं' आदि ग्रंथ में भी इसके कई उदाहरण है।
हिन्दुओं के मतानुसार गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को, और भयंकर से भयंकर पापी को भक्ति से मोक्ष मिलता है। कोई कठिन परिश्रम करने की जरूरत नहीं है। आचार, विचार, सदाचार, कठिन तप आदि किसी की भी जरूरत नहीं है। केवल भक्ति करनी है बस मुक्ति मिल जाती है। इस तरह खूब प्रचार होने लगा । भयंकर पापी से लेकर पतित तक सभी को बिना परिश्रम के घर बैठे-बैठ, भोग भोगते-भोगते किसी तरह की रूकावट के बिना आसानी से मोक्ष मिलता है तो उसे कौन छोड़ सकता है? कोई नहीं । साधारण जनता आसान तरीकों को अपनाती है और कठिन को छोड़ देती है । हर आदमी यही चाहता है कि परिश्रम के बिना मोक्ष मिल जाये । किसी ने मोक्ष को देखा नहीं । देखे हुए व्यक्ति से सुना नहीं । मुक्ति तप करने वाले को मिलती है या भक्ति करने वाले को कोई देखकर बोलने वाला भी नहीं है। जो बड़े हैं, वे जो कुछ भी कहें, उस मत (धर्म) को, विश्वास से सत्य
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मान लिया जाता है। मतान्ध लोगों की विचारने की शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर क्या ? चाहे सत्य हो अथवा असत्य हो, अपने-अपने धर्म के आचार्य के कह देने पर, सत्य मान लिया जाता था । धर्माचार्य के सामने किसी को बोलने की गुंजाइश नहीं थी। वह तो भगवान् का ठेकेदार, चेला समझा जाता था। उसके मुंह से जो कुछ निकलता था, वह भगवान् की वाणी समझी जाती थी। अंधविश्वास का जमाना था।
हिन्दु धर्म का भक्ति मार्ग आसान और सरल था। ऐसे सुलभ मार्ग को छोड़कर पुत्र-मित्र-कलत्र, धन-धान्य आदि सभी परिग्रहों को और सांसारिक भोग-विलास को छोड़ कर पाँचों इन्द्रियों को दमनकर, कठिन तप के द्वारा आठों कर्मों का नाशकर ज्ञानवीर होते हुए मोक्ष प्राप्त करने कौन आयेगा ? कोई नहीं । इसलिये साधारण लोग, आसान भक्ति-मार्ग को अपनाने लगे। इससे जैन धर्म की वृद्धि क्षीण होने लगी। हिन्दु धर्म की अभिवृद्धि नजर आने लगी। लेकिन भक्ति-मार्ग से ही जैन धर्म क्षीण हो गया हो, ऐसा समझना ठीक नहीं है। हिन्दु धर्म वालों ने जैन धर्म की अभिवृद्धि को रोकने के लिए कई तरीकों को अपनाया। धर्म के विपरीत बलात्कार आदि कई दुष्कृत्यों का उपयोग किया गया। इसके कई आधार है। इसके बारे में ज्यादा लिखना उचित नहीं है। इस तरह धर्म के माध्यम से आपस में जो लड़ाई हुई थी, वह ई. ७, ८, ६ वीं सदी की थी।
हिन्दु धर्म के अन्दर भी शैव-वैष्णवों की लड़ाई हुई थी , परन्तु जैनियों के साथ लड़ते समय दोनों मिल जाते थे। उन दोनों की लड़ाई पीछे की है। तेवारं नामक शैव ग्रन्थ में जिन-जिन मन्दिरों का जिक्र किया गया था, उन सभी स्थानों में जैन-बौद्धों का निवास स्थान मन्दिर, पाठशाला आदि थे। उन सबको छीनकर बदल दिया गया ।
जैन धर्म के लोग हर तरह से प्रताड़ित हुए थे। उन लोगों के साथ हिंसा करना, शूली पर चढ़ाना, कलह करना, धन-धान, घर-बार सबको छीन लेना आदि अत्याचार हुए थे। धर्म विद्वेष के कारण भयंकर हत्याकाण्ड हुआ था । इसका आधार उन लोगों के ही ग्रन्थ है। जैनों के कई घर, धर्मशाला, पाठशाला आदि छीनकर बड़े-बड़े तालाब बना दिये गये थे।
'तलैयै आगे अरुघदे करुमं कण्डाय' (शैव आलवार तिरुप्पाडल ग्रंथ)
जैनियों के सिर काटो, यही तुम्हारा कर्तव्य है। इसके उदाहरण के रूप में शैवों के पेरियपुराणं, तिरुविलैयाडर पुराणं आदि ग्रंथों में बतलाया गया है कि आठ हजार जैन साधुओं को शूली पर चढ़ाकर मारा गया था । दक्षिण मधुरा के शिव मन्दिर की दीवार पर इसका दृश्य उत्कीर्ण किया हुआ है। हर
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साल शैव लोग इसकी स्मृति रूप में दस दिन उत्सव मनाते है।
कांजीपुर के पास 'तिवत्तूर' में इस तरह का कलह हुआ था । वहाँ के शैव मन्दिर में यह दृश्य उत्कीर्णित रूप में मौजूद है । चोल नरेश के 'परैयार' में भी यही हुआ था । इसका उल्लेख शैव तिरुत्ण्डर पुराण ग्रंथ में है। तिरुवारुर में भी इस तरह का कलहकारी कार्य हुआ था । जैनों के मठ, पाठशाला, घर-बार आदि छीन लिए गये थे। यह बात शैव पेरियपुराणं में है।
‘पन्नुं पालि पलिल कुलं मूल करै पड़त्तु (शैव पेरियपुराणं ) छीनकर तालाब बनाया गया था । इस तरह जैनों के मठ पाठशाला आदि छीनना, उनको शूली पर चढ़ाना, हाथी के पैरों तले दबाकर मारना, गॉव से भगाना, जमीन जायदाद छीन लेना आदि भयंकर अत्याचार एवं कलह हुआ था ।
करीब पाँच सौ साल के पहले साउथ आर्काड के 'जिंजी' नगर में ई. १४७८ के समय 'वेंकटपति नायकन' नाम का एक छोटा सा राजा राज करता था । उसे 'दुबालकृष्णप्पनायकन' के नाम से भी पुकारते थे। यह विजयनगर साम्राज्य के अधीन तेलुगू वंश का था। उसका विचार था- ऊँचे कुल वाले की लड़की से शादी करना । उसने ब्राह्मणों को बुलाकर लड़की देने हेतु पूछा । उन लोगों की राजा को लड़की देने की इच्छा नहीं थी किन्तु राजा के सामने मना नहीं कर सकते । इसलिए उन लोगों ने चालाकी से यह कहा कि हम लोगों से श्रमण अर्थात् जैन ऊँचे हैं, आप उनसे एक लड़की लीजिये, तब हम भी देंगे । वह राजा मूर्ख एवं अन्यायी था । उसने वैसे ही जैनियों से भी एक लड़की मांगी। जैनों की भी लड़की देने की इच्छा नहीं थी। मना करें तो उपद्रव मचायेगा। इस विचार से एक नतीजे पर आये । राजा से यह कहा गया कि अमुक दिन अमुक जगह पर आइये । वहाँ आपको लड़की मिल जायेगी। तदनन्तर जैनियों ने एक घर को खाली कर साफ सुथरा किया । खूब दीप जलाये । एक 'कुत्तिया' को नहलवा कर तिलक लगवाया और उसे बांधकर चले गये । राजा ने आकर देखा । कोई आदमी नहीं था । सिर्फ कुतिया बॅधी हुई थी।
उसे देखकर राजा को बड़ा गुस्सा आया। उसने इसे अपना अपमान समझा । इसलिये जैनियों को दण्ड देने के विचार से कत्ल करना शुरू किया । जैसे एक का सिर काटकर दूसरे के सिर पर रखना । इस तरह दस-दस आदमियों को मारता जाता था, उन्हें एक आदमी ढोता था। इसे 'सुमन्तान तलै पत्तु' अर्थात् काटे गये दस सिर को ढ़ोने वाला कहते हैं । उस समय हजारों जैन लोग मारे गये । जैन लोगों ने बेमतलब आपत्ति मोल ली थी। उस जमाने में सारे जैन लोग जनेऊ पहनते थे। बहुतसे लोग उसे फेंककर डर के मारे शैव बन गये। अब भी उस जाति वाले शैव के रूप में रहते हैं । उनको 'नैनार' कहते हैं । यहाँ स्थानीय जैनियों को भी नैनार कहा जाता है। दोनों का फर्क
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इतना है कि वे रात में खाते हैं, मस्तक पर राख लगाते हैं, जनेऊ नहीं पहनते । स्थानीय जैन लोग इन तीनों से परे हैं। उन लोगों को 'नीरपूसी नैनार' अर्थात् माथे पर राख लगाने वाला कहा जाता है। उनकी संख्या भी काफी है। यदि वे लोग भी जैन रहते तो आज तमिलनाडु में जैनों की संख्या लाखों में होती । जैन धर्म पर क्या-क्या, कैसी-कैसी आपत्तियों नहीं आयी ? जैन लोगों ने इन सबको झेला । इन सभी आपत्तियों के बावजूद भी अभी तक कुछ लोग बचे हुए हैं। उनकी संख्या करीब पचास हजार की है।
उस समय जिंजी के पास वेलूर में 'वीरसेनाचार्य' नाम के एक मुनि तट के किनारे तप कर रहे थे। सेवक उसे पकड़कर राजा के पास ले गया। उस समय राजा पुत्रोत्पति की खुशी में था । इसलिए मुनि को छोड़ दिया । वे श्रवणबेलगोला चले गये ।
जिंजी राजा के अत्याचार के समय जिंजी के पास 'तायनूर' गाँव में 'गॉगेय उडयार' नाम के बड़े व्यक्ति रहते थे। वे उडैयारपालयं छोटे राजा के पास ‘अभय' की दृष्टि से गये थे । वह राजा बड़ा दयालु था । उसने आदर दिया और जमीन जायदाद भी दी । वे महाशय दंगा शान्त होने के बाद श्रवणबेलगोला गये थे। वहाँ विराजमान 'वीरसेनाचार्य' को ले आये । यहाँ जो लोग मत परिवर्तन होकर शैव बन गये थे, उन्हें फिर से जैन बनवाया गया था। वीरसेनाचार्य ने उन लोगों को यज्ञोपवीत पहनाकर जैन धर्म में दीक्षित किया था। उस उडैयार परंपरा के लोग जैन समाज में आज भी मौजूद है । वे लोग शादी, ब्याह आदि में कहीं भी जावें, समाज उन लोगों को आगे बैठाकर सम्मान करता है। वह परम्परा आज तक चालू है।
समझने की बात यह है कि तमिलनाडु के सारे जैन लोग रत्नत्रयस्वरूप यज्ञोपवीत बराबर पहनते हैं। हर साल श्रावण पूर्णिमा के दिन मन्दिर आकर यज्ञोपवीत बदलते हैं । दूसरी बात यह है कि तमिलनाडु में उस यज्ञोपवीत ने ही जैन धर्म को बचाया था। उस समय यज्ञोपवीत पहनाकर जितने लोगों को जैन बना सके वे जैन बने । बाकी लोग वैसे ही शैव धर्म में रह गये । नैनार के नाम से शैव मतानुयायी के रूप में लाखों लोग आज भी मौजूद है । जैन मत के लिए एक से एक भयंकर दुर्घटनायें घटी हैं । इस तरह की कई आपत्तियाँ आयी थीं । आजकल जितने जैन मौजूद हैं, वे इस तरह की कठिनाइयों से बचे हुए लोग हैं। इन सब से बचकर अल्पसंख्या में आज भी जैन लोग मौजूद हैं । बौद्धों के समान बिलकुल खत्म नहीं हुए।
कुछ जैन लोग भंयकर कलह के समय अपना धर्म छोड़कर अपनी जीवरक्षा के निमित्त शैव बने, कुछ लोग वैष्णव बने और कुछ मुसलमान बने। इसके उदाहरण में देख सकते हैं कि केरल के आसपास आज
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भी कुछ मुस्लिम लोग अपने नाम के साथ 'जैन अल्लाउद्दीन' 'नैनार मुहमद' लिखते हैं। ये सब जैन परंपरा के हैं। धर्म को छोड़ा मगर जैन शब्द को नहीं छोड़ सके। उसे अपने नाम के साथ लिखते ही हैं।
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तमिल भाषा में पाठशाला को 'पल्लि' कहते हैं। तमिलनाडु में मुस्लिम की मस्जिद को पल्लिवासल के नाम से पुकारा जाता है । जैनों की 'पल्लि' पल्लिवासल के नाम से बदल दी गई है। इस तरह बगाव के समय जैन धर्म छिन्न-भिन्न होकर नष्ट-सा हो गया था ।
जो जैन, मत परिवर्तित होकर हिन्दू बन गये, वे अपने आचरण को नहीं छोड़ सके । उन्होंने अपने-अपने आचरण को हिन्दू धर्म में मिला दिया ।
आगम सार
★ अहिंसा संयम और तप धर्म के लक्षण है । जिसका मन सदैव धर्म में रमण करता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ।
* क्रोध को शांति से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से, लोभ को सन्तोष से जीतो । ★ धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्ति तीर्थ है, आत्मा की निर्मल भावना पवित्र घाट है; जहाँ पर (आत्म स्वरूप में) स्नान कर मैं कर्म मल से मुक्त हो जाता हूँ ।
★ एक माया सहस्रों सत्यों को नष्ट कर देती है।
* लाभ से लोभ बढ़ जाता है ।
* सद्गृहस्थ धर्मानुकूल ही आजीविका करते हैं।
* सरल आत्मा में ही धर्म ठहर सकता है ।
* सुव्रती साधक कम खाये, कम पीये, कम बोले ।
* क्षमा, सन्तोष, सरलता और नम्रता- ये चार धर्म के द्वार है ।
* तपों में ब्रह्मचर्य तप श्रेष्ठ है ।
★ हे धीर पुरुष ! आशा, तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर ।
* जो अपने प्राप्त लाभ में सन्तुष्ट रहता है और दूसरों लाभ की इच्छा नहीं करता, वह सुखपूर्वक सोता है।
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तमिलनाडु के दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र सामान्यतया भूगोल और इतिहास के आधार पर और अध्ययन की सुविधा के स्तर पर सम्पूर्ण तमिलनाडु के दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्रों को कुल सात संभागों में विभाजित किया जा सकता है। वे इस प्रकार है - १. कांजीवरम् तीर्थक्षेत्र-संभाग
कांजीवरम्- जिनकांची, पेरुनगर, आरपाक्कम् मागरल अलुन्दूर- तिरुनरकोंडुम्
चेय्यार- नावल, वेल्लै, वेलिय मल्लूर, करन्दै, तिरुप्पणमूर, वेणवाक्कम् २. वन्दवासी तीर्थक्षेत्र-संभाग
वन्दवासी, विरुदूर, सल्लुकै, नैल्लियानगुलम, विल्लीवन्, नल्लूर, अनन्तपुरम्, एलम्बलूर, मुद्लूर, एलंगाडु, पोन्नूरग्राम, वंगारम्, सातमंगलम्, गुडलूर, तेल्लार, कोरकोर्ट, पेरियकोटै, मंजपढु, तेन्नात्तूर, नरकोइल, पोन्नूरमलै, वेणुकुंडुम्, सैदमंगलम्, एरम्बूर आरणी तीर्थ क्षेत्र-संभागपेरणमल्लूर, वालपदल, मेलपंदल, नागरम्-नेत्रपाक्कम् अतिशय क्षेत्र, पूंडी अतिशय क्षेत्र, सेऊर, आरणी, तच्चूर, तिरुमलै, तच्चाम्बाड़ी। टिण्डीवनम् क्षेत्र-संभागटिण्डीवनम्, वीडूर, पैरनी, आलग्राम, सेंडीपाक्कम्, पेरमंडूर, विलुक्कम्, मेलंचित्तामूर,
आतिपाक्कम् । ५. इरोड़ तीर्थ क्षेत्र-संभाग
इरोड़ , सत्यमंगलम, वेलाड, तिंगलूर, चिन्नापूर ६. मदुरै तीर्थ क्षेत्र-संभाग
मदुरई, नागमलै, मेतुपट्टीमलै, करलीपट्टीमलै, कडगुमलै, यानैमलै, अलगरमलै, अरलीपट्टी,
पुदुकोट्टै, सिद्धनवासनमलै, मंनारगुड़ी, दीपंगुडी, कुम्भकोणम्, तिरूची । ७. चेन्नई क्षेत्र-संभाग
पांडीचेरी, कडल्लूर, पनरूटी, आरकोण्णम्
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उल्लिखित सातों क्षेत्रों के सभी दिगम्बर जैन धार्मिक तीर्थ-स्थलों की सुरक्षा, प्रबन्ध एवं जीर्णोद्धार की परमावश्यकता है । मुनियों और विद्वानों के आवास एवं आहार आदि की समुचित व्यवस्था भी अविलम्ब होनी चाहिए । प्राथमिकता के आधार पर हम कम से कम अत्यन्त महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों का काम आरम्भ कर सकते हैं । ऐसे तीर्थ स्थलों पर ही यहाँ जानकारी दी जा रही है।
चेन्नई:- चेन्नई तमिलनाडु प्रान्त की राजधानी है, यहाँ सब तरह का वाणिज्य चलता है। करीब ८० लाख जनता इसी नगरी में निवास करती है। यहाँ ६ दिगम्बर जैन मन्दिर है । भगवान् चन्द्रप्रभ जिनालय जिसे जूना मंदिर बोलते हैं लेकिन तीन वर्ष पहले इस मंदिर का पूर्ण नव-निर्माण कराया गया। मंदिर के नीचे धर्मशाला है तथा दूसरी मंजिल पर चन्द्रप्रभ की अत्यन्त अतिशयकारी प्रतिमा है । तीसरी मंजिल में भगवान् शांतिनाथ, अनन्तनाथ, महावीर भगवान् की खड्गासन मूर्तियाँ हैं ।
एक मंदिर आदिनाथ जिनालय (११, कुंडलियार स्ट्रीट) कोण्डीतोप में हैं । आर्यिका विजयमती माताजी के संघ ने चेन्नई में चातुर्मास करने का निश्चय किया लेकिन चातुर्मास के लिये जगह नहीं थी। उसी समय उत्तर भारत के जैन धर्मानुरागी बंधुओं ने मिलकर इस भवन को खरीदा तथा माताजी के सान्निध्य में आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा विराजमान कर इसे मंदिर का रूप दिया । नीचे ६ कमरे एवं २ हॉल है, तीसरी मंजिल पर स्वाध्याय हॉल है और यहाँ यात्रियों के लिये सभी प्रकार की सुविधा की व्यवस्था की गई है। दूसरे मंदिरजी अम्बत्तुर, मुगप्पियार, आरम्बाक्कम व चन्द्रप्पामुदली स्ट्रीट में स्थापित है। चेन्नई में स्थाई नैनार दिगम्बर जैन के करीब ७०० परिवार है।
यहाँ तीन दिगम्बर जैन मंदिर है। पहला कलकत्ता के निवासी सेठ बैजनाथ सरावगी के द्वारा बनवाया गया । पुरातन शिखरबद्ध चन्द्रप्रभ भगवान् का मंदिर हैं । यह अब नया बन गया है। नीचे धर्मशाला भी है । इसका पता : ३४ सुब्रहमण्यम् मुदली स्ट्रीट, चेन्नई-७६ (नटूपिल्लायर स्ट्रीट के पास ) चेन्नई रेल्वे स्टेशन से करीब एक किलोमीटर दूरी पर है। दूसरा उत्तर भारत से व्यापार के लिए आये हुए जैन लोगों द्वारा बनवाया गया खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मंदिर है । इसके नीचे धर्मशाला भी है। इसका पता - ११, कोण्डलियार स्ट्रीट, कोण्डितोप, चेन्नई-७६ है। तीसरा चन्द्रप्पामुदली स्ट्रीट में हैं । यह कानजी (सोनगढ़) भक्तों द्वारा बनवाया गया है ।
चेन्नई में तमिलनाडु के स्थायी दिगम्बर जैनों के ७०० से भी ज्यादा घर है। सर्विस वाले होने के कारण वे सारे शहर में फैले हुए हैं । उत्तर भारत से व्यापार के लिये आये हुए दिगम्बर जैनों के घर करीब १०० है । सभी व्यापारी लोग हैं।
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चेंगलपट्टु सर्किल (चेंगलपट्टू जिला)
उत्तरमेरूर :- यह छोटा सा शहर है । इसके सुन्दरवरदपेरुमाल (अजैन) मंदिर में भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति है । प्राचीनकाल में यहाॅ जैन लोग निवास किया करते थे ।
अनन्दमंगल :- यह ओलक्कूर रेल्वे स्टेशन से पॉच मील दूरी पर है। इस गाँव में चट्टान है जिसमें जैन मूर्तियां उत्कीर्ण की हुई है। उनमें भगवान् अनन्तनाथ की मूर्ति भी है । आश्चर्य की यह है कि भगवान् के नाम से यह गॉव प्रसिद्ध है । १६३८ वर्ष पूर्व (ई.६४५) का लिखा गया शिलालेख है । उससे मालूम होता है कि यहाॅ जिनगिरि नाम की पाठशाला थी। विनयभासुर गुरु महाराज के शिष्य एवं वर्द्धमान महाराज के नेतृत्व में साधु-संतों की आहार व्यवस्था होती थी । अब यहाॅ जैन नहीं है । आसपास के गॉव से जैन लोग यहाॅ आकर पौष माह में पूजा करते हैं
सिरुवाक्कं :- यहाँ का जिनमन्दिर गिरा पड़ा है। यहाॅ के शिलालेख में लिखा हुआ है कि जिनमन्दिर का नाम श्रीकरणपेरुपल्लि था । इसके लिये जमीन दान में दी गई थी ।
कांजीवरम् :- लगभग दो हजार वर्षो से प्रयाग, वाराणसी, मथुरा, अवन्तीपुरी और कांची नगरी भारत की धार्मिक एवं सांस्कृतिक राजधानी के रूप में प्रख्यात रही है। इनमें कांची (तमिलनाडु) की प्रसिद्धि भी अनोखी रही है। इस नगरी में जैन, बौद्ध, वैष्णव और शैव धर्मो ने अपनी-अपनी एक स्वतंत्र कांची की स्थापना की। सैकड़ों वर्षों तक इन सब में धार्मिक, सांस्कृतिक सौमनस्य रहा। धीरेधीर पारस्परिक वैमनस्य के कारण और नृपतियों के संरक्षण के अभाव के कारण बौद्ध और जैन कांची की प्रसिद्धि और लोकप्रियता कम होती गयी। आज की जैन कांची और प्राचीन जैन कांची में
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जमीन-आसमान का अंतर है। यहाॅ सहस्रों संपन्न धार्मिक जैन परिवार रहते थे । गुरुकुल, आश्रम, मुनिसंघ, आर्यिका संघ आदि सब कुछ था । लगभग ८४ जैन मंदिर थे । आज लगभग १०० दिगम्बर जैन परिवार इस नगरी में रहते हैं। एक नवनिर्मित जिनालय है। मूल नायक महावीर स्वामी है। सफेद पाषाण की पद्मासनस्थ भव्य प्रतिमा है ।
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तिरुप्पत्तिकुन्ट्रं- यह कांजीपुरम् से पश्चिम की ओर दो किलोमीटर की दूरी पर है । यही जिनकांची कहलाता है | यहाॅ बहुत बड़ा जिनमंदिर है। यहाॅ पर विराजमान भगवान् का नाम त्रैलोक्यनाथ है । यहाँ के अभिलेख द्वारा जाना जाता है कि मल्लिषेण, वामनाचार्य के शिष्य परवादि मल्ल पुष्पसेन वामनाचार्य नाम के मुनिराज के प्रयत्न से इस मंदिर का गोपुरम् बनवाया गया है । दूसरा शासन (तमिलनाडु में शिलालेखों को शासन के नाम से कहने की परिपाटी है) वामनाचार्य और मल्लिषेणाचार्य के विषय में बताता है । इस मंदिर के कोरनाम पेड़ के नीचे इस महान् आचार्यों के चरण चिह्न विराजमान है । मल्लिषणाचार्य की उल्लेखनीय बात यह है कि इनके द्वारा तमिल में 'मेरुमन्दरपुराणं' और 'नीलकेशी' तर्क ग्रंथ की 'समय दिवाकरं' नाम की व्याख्या लिखी गई है ( इन दोनों को प्रो. ए. चक्रवर्ती नैनार एम.ए., आई.ई.एस ने अंग्रेजी भूमिका के साथ मुद्रित करवाया है ) और एक शासन बतलाता है कि २००० कुजि जमीन इस मंदिर के लिए दान में दी गई है ।
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एक शासन से यह बात मानी जाती है कि इस मंदिर के लिए 'कैतडुप्पर' नाम के ग्रामवासियों ने ऋषभ समुदाय के वास्ते कुआ खोदने के लिये जमीन दी है, यह पवित्र क्षेत्र है । पहले यहाॅ एक विद्यापीठ था । भट्टारक मठ भी था। इस मंदिर में चोल, पल्लव और विजयनगर राजाओं की चित्रकारी अंकित है । पहले चार मठ थे । दिल्ली, कोल्हापुर, जिनकांजी और पेनकोंडा । इनमें से जिनकांजी मठ यहीं
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पर था, न जाने वह जिंजी के पास मेलचित्ताईमूर में कैसे पहुंच गया ? अराजकता के कारण यहाँ से वहाँ जाकर बस गये होंगे। यहाँ चन्द्रप्रभ भगवान् का पुरातन जैन मन्दिर है। इसके चारों ओर कपास की खेती है । कपास को तमिल में 'परुत्ति' कहते हैं । तिरु गौरव का शब्द है । शायद इसी कारण से इस गाँव का नाम तिरुपत्तिकुन्द्रं है। इस पुरातन मंदिर का शिखर टूटा पड़ा है। यह मन्दिर आर्किलोजिकल डिपार्टमेंट के अधीन है।
अब इस गाँव में एक ही श्रावक का घर है और एक पूजारी का है। इस मंदिर की चार सौ एकड़ की जमीन थी। सब नष्ट-भ्रष्ट करदी गई है। कुछ लोगों ने हड़प लिया है। सारे गाँव की जमीन मन्दिर की है परन्तु अजैन लोगों ने उस पर कब्जा कर लिया है।
यहाँ तीन मंदिर है जो भगवान् आदिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के हैं । एक ही परकोटे के अन्दर ये तीनों मंदिर हैं । यहीं पर धर्मदेवी (कूष्माण्डिनी) का पीठ भी है । कई धातु की प्रतिमाएँ हैं । कुआं है। 'कोरा' नाम के पेड के पास दो पीठ है। ये दोनों मल्लिषेण आचार्य और पुष्पसेन आचार्य के बताये जाते हैं । यह एक पवित्र, शांत और मनोहर स्थान है । वर्तमान में यह सरकार के अधीन है।
प्रारंभ में गोपुर द्वार है तथा संगीत मण्डप है , इसमें सैकड़ों लोग बैठ सकते हैं । यहाँ से करीब-करीब दो फलांग पर ५ समाधि स्थान है जो कि भग्नावशेष के रूप में विद्यमान है। ये किन्हीं मुनिराजों के समाधि-स्थल है।
मागरल :- यहाँ आदिनाथ भगवान का मंदिर है। यहाँ के अजैन मंदिर में दो जैन प्रतिमायें हैं। शैव भक्त तिरुज्ञान के द्वारा एक जमाने में जैनी लोगों को यहाँ से भगा दिया गया था । यहाँ का जैन मंदिर भग्नावशेष है । यह आरपाक्कं से करीब दो किलोमीटर दूरी पर है। वर्तमान में यहाँ कोई जैन परिवार नहीं है।
आरपाक्कं :- यहाँ आदिनाथ भगवान का जैन मंदिर है। यहाँ भगवान् को आदि भट्टारक भी बोलते है। यह बहुत प्राचीन है। यहाँ सिर्फ पुजारी का घर है। यह जैन मंदिर केशरियाजी के समान अतिशययुक्त है। लोग बच्चों का चोल-कर्म (बाल उतरवाना ), कर्ण छेदन आदि यहीं कराते हैं। उनकी मनोकामनाएँ भी पूर्ण होती हैं । अजैन लोग भी उन्हें पूजते हैं। रोज लोग आते रहते हैं । धातु की प्रतिमाएँ काफी संख्या में हैं। उसमें धर्मदेवी, ब्रह्मदेव आदि भी हैं । सामने मानस्तंभ है। सन्निकट ही धर्मशाला है । जलवायु अच्छा है। सुना जाता है कि तामिल भाषा के 'तिरुक्कलंबकं' नामक ग्रंथ की रचना यहीं हुई थी। साधुओं के लिए यह अति योग्य स्थान है। शांति से जप-तप अनुष्ठान कर सकते
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हैं । ध्यानावस्थित भगवान् की मुद्रा चित्ताकर्षक है । यहाँ शिवरात्रि के समय (आदिप्रभु का मोक्ष दिन) बहुत बड़ा मेला लगता है । यह स्थल कांजीपुरमं से करीब १२ किलोमीटर की दूरी पर है । बस का साधन है। दर्शन करने योग्य है ।
पेरुनगर :- यह चेंगलपटु जिला, मदुरांतकं तालुका, मदुरांतकं से उत्तर-पश्चिम में २५ कि. मी. की दूरी पर है। इस गाँव के पूर्व में एक जिन मंदिर शिथिल होकर गिरा हुआ है। इस मंदिर के पत्थरों को ले जाकर जैनेतरों के द्वारा कृष्ण मन्दिर बनवा लिया गया है । इस तरह लोगों का कथन है।
नॉर्थ आर्काड सर्कल (जिला) सेतूर :- आरनी शहर से उत्तर-पश्चिम में यह गाँव है । यहाँ एक पुरातन जैन मंदिर है । मूलनायक वृषभनाथ भगवान् है । यह नई प्रतिमा श्रीनिर्मलकुमारजी सेठी महासभा अध्यक्ष के द्वारा विराजमान कराई गई है । यहाँ जैनियों के ६० घर है । लोगों में जिन-भक्ति एवं मुनि-भक्ति है।
अनन्तपुरं :- यह आरनी से दो कि.मी. पर है । यहाँ एक प्राचीन छोटा सा जिन-मंदिर है। मूलनायक आदिनाथ भगवान् है । यहाँ पर अभी जैनियों के २० घर है ।
आरनी :- यह नॉर्थ आर्काड जिले में एक छोटा सा शहर है। यहाँ एक विशाल आदिनाथ भगवान् का जिन मंदिर है । दाहिनी और ५०० आदमियों के बैठने योग्य सभा मण्डप है और सामने उत्तुंग मानस्तंभ तथा ध्वजस्तंभ भी है। मंदिर शिखरबद्ध है और सुव्यवस्थित है । मूलनायक आदिनाथ
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भगवान् है । करीब तीस धातु की मूर्तियाँ हैं शासन देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं। यह मंदिर आरनी नगर के एक कोने में कोशाप्पालयं नामक वीथी में है। यहाँ ५० दिगम्बर जैनियों के घर है। मंदिर की व्यवस्था अच्छी है ।
तिरुमलै :-- पोलूर तालुका से उत्तर-पूर्व में १२ कि. मी. दूरी पर 'वडमादिमंगल' है । वहॉ से ५ कि. मी. पर यह गाँव है। यहाॅ एक छोटे से पहाड़ पर १८ फुट ऊँची नेमिनाथ भगवान् की प्रतिमा दृष्टिगोचर हो रही है । यहाॅ के शासन में 'कुन्दवै जिनालयं' का नाम अंकित है । कुन्दवै चोलराजा की बहन थी । तमिलनाडु की प्रतिमाओं में यही सबसे ज्यादा ऊँची मानी जाती है। इस पहाड़ के नीचे दो मंदिर है । यहाँ की गुफाओं में चोल राज्य की चित्रकारी है, परन्तु घिसी हुई है। इसमें समवसरण भी है, चट्टान पर कुछ सुन्दर मूर्तियां उत्कीर्ण है ।
1
दूसरा शासन यह बतलाता है कि तिरुमलै परवादिमल्ल के शिष्य अरिष्टनेमि आचार्य महाराज ने एक जिन प्रतिमा बनवाकर रखी है और एक शासन बतलाता है कि पल्लव राजा की रानी 'इलैय मणिमगै' नामक देवी ने इस मंदिर लिए नन्दादीप (अखण्ड दीप) के वास्ते साठ सोने टका और जमीन दी थी ।
नेमिनाथ भगवान् को ‘शिखामणिनाथर' भी बोलते हैं। इन मंदिरों में कई धातु की मूर्तियां है साथ ही शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां भी है। एक छोटा सा झरना है जिसका पानी भगवान् की पूजा आदि के काम में भी आता है । सबसे ऊपर छोटा सा पार्श्वनाथ जिनालय है। उसके ऊपर एक चट्टान पर तीन पादुकाऍ उत्कीर्ण हैं । वे श्री वृषभाचार्य, श्री समन्तभद्राचार्य एवं श्री वरदत्त गणधर की बताई जाती है । यह हजारों साधु-संतों की तपोभूमि रही है तथा अत्यन्त ही पवित्र स्थल है। कहा जाता है कि यहाँ
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पाण्डव लोग आये थे। उनके दर्शनार्थ नेमिनाथ भगवान् की मूर्ति बनवाई गई थी। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह चतुर्थ कालीन अतिशय तीर्थ क्षेत्र है।
यह केन्द्र सरकार के अधीन है । सारी व्यवस्था ‘आरकोलाजिकल डिपार्टमेंट' ही करता है । अवश्य दर्शन करने योग्य पवित्र स्थल है। एक-एक कण मुनिराजों के चरण स्पर्श से पवित्र है । जलवायु अनुकूल है। यहाँ हर साल संक्रान्ति के तीसरे दिन भगवान् नेमिनाथ का विशेष रूप में अभिषेक होता है। उस समय हजारों जैन लोग शामिल होकर धार्मिक कार्यक्रम की शोभा बढ़ाते हैं । यहाँ जैनों के घर अभी नहीं है । फिलहाल दो साल के पहले यहाँ पर श्रवणबेलगोला के भट्टारक श्रीचारुकीर्ति महाराज ने एक मठ की स्थापना की थी। उसकी गद्दी पर अपने शिष्य धवलकीर्तिजी को दीक्षा देकर आसीन किया । भट्टारक धवलकीर्तिजी बड़े होशियार नवयुवक है । संस्कृत, हिन्दी, तमिल, कन्नड आदि कई भाषाओं के जानकार है । ज्योतिष, वास्तुकला में निपुण हैं तथा प्रतिष्ठाचार्य भी हैं । अच्छे व्याख्याता है। इनके कारण क्षेत्र की अभिवृद्धि खूब हो रही है । क्षेत्र आरकालोजिकल डिपार्टमेंट के अधीन होने के कारण क्षेत्र का जीर्णोद्धार कार्य पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा है। डिपार्टमेंट से परमिशन लेने की कोशिश कर रहे हैं । आसानी से नहीं मिल रही है । क्षेत्र के लिए दस एकड़ जमीन खरीद ली गई है । विद्यार्थियों को भोजन-आवास आदि के साथ शिक्षा दी जा रही है । भट्टारकजी उत्साह के साथ कार्य कर रहे हैं । समाज में उनकी प्रतिष्ठा है । नेमिनाथ भगवान् की कृपा से उनको दीर्घायु और आरोग्य प्राप्त हो । आप तीर्थ संरक्षिणी महासभा के धर्म संरक्षक भी है। प्रत्येक तीर्थस्थल अरिहन्ततीर्थकर - केवली के समवशरण का लघु रूप होता है । यह भाव मन में रखकर वंदना और तीर्थ सेवा करना चाहिए । भाव सहित तीर्थों की वंदना करना नर जन्म की बहुत बड़ी सफलता है। सरकार के साथ-साथ हमें भी इस क्षेत्र के विकास के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहिए ।
विडाल :- यह नॉर्थ आर्काड जिले में है । यहाँ दो छोटे से पहाड़ पर स्वाभाविक दो गुफाएँ हैं । गुफा के सामने दो मण्डप है। यहाँ के शासन से पता चलता है कि एक मण्डप पल्लव राजा के द्वारा और दूसरा मण्डप चोल राजा के द्वारा बनवाया गया था। मालूम होता है कि इन गुफाओं में पूराने जमाने में मुनि लोग निवास करते थे। एक बात यह भी ध्यातव्य है कि गुणकीर्ति भट्टारक की शिष्या कनकवीरकुरत्ति नाम की आर्यिका ने अपनी शिष्याओं को यहाँ रहने की व्यवस्था की थी। एक जमाने में यह मुनि और साध्वियों का निवास स्थान होने के कारण अत्यन्त पवित्र तथा स्वाध्याय एवं साधना का केन्द्र माना जाता था।
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तिरुवत्तूर :- यह छोटा सा शहर है । प्राचीन काल में जैनों के प्रधान शहरों में यह भी एक था । उस जमाने में यहाँ जैन लोग अधिक संख्या में निवास करते थे । यहाँ का तलपुराण नाम का पेरियपुराण बतलाता है कि शैव भक्त तिरुज्ञान संबन्धन यहाँ आया था। उसके कारण शैव और जैनों में जोरदार मुठभेड़ हुई। सारे जैन लोग भगा दिये गये थे। यहाँ के शिव मन्दिर में इस बात का शसन है। इसके पास पुनताकै नाम का जो गाँव है उसमें भी जैन मंदिर था । उसे भी तोड़कर उसके पत्थर लाये गये थे और उससे तिरुवत्तुर का शैव मन्दिर बनवाया गया था । पुनताकै के बाहर दो जैन मूर्तियां पड़ी है । इसके पास की जगह पर इस मंदिर के ताम्बे के किवाड़ आदि गाड़ कर रखे हैं। इस बात को यहाँ का शासन बतलाता है ।
तिरुप्पनम्र :- यह कांजीवरं से १५ कि.मी. दूरी पर है। यहाँ पुष्पदन्त भगवान का जिन-मंदिर है। सामने विशाल मानस्तंभ हैं । श्रीपुष्पदन्त भगवान् की मूर्ति, चूने से निर्मित विशालकाय है । धातु की भी सैकड़ों मूर्तियां हैं । पाषाण की भी मूर्तियाँ हैं । यह शिखरबद्ध मंदिर है। शासन देवताओं की मूर्तियां भी है। यहाँ एक मण्डप एवं इसमें तमिल पुस्तकालय है जिसमें कई भाषाओं के ग्रंथ हैं । निकट ही में एक छत्री है। जिसमें मुनिराजों की चरणपादुकायें हैं । यह मन्दिर ६०० वर्ष पूराना है । इसकी व्यवस्था ठीक तरह से चल रही है। मंदिर भी सुव्यवस्थित है ।इस गाँव में जैनों के घर है। यहाँ तीन मुनिराज हुए हैं । इस मंदिर को महासभा का अनुदान दिया हुआ है ।
करन्दै :- (मुनिगिरि-अकलंकबस्ति) यह तिरुप्पणमूर से एक फर्लाग पर है । बीच में एक तालाब है। पहले के जमाने में यहाँ अधिकतर संख्या में मुनि लोग निवास करते थे। इसलिए इसका नाम मुनिगिरि पड़ा । यह जगत्प्रसिद्ध अकलंक महाराज की तपोभूमि होने के नाते ‘अकलंकबस्ति' कही जाती
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है। यह गॉव छोटा है मगर मंदिर बड़ा है। इस गॉव में जैनियों के लगभग बीस घर है। एक बड़े भारी परकोटे के अन्दर तीन मंदिर है। मूलनायक कुन्थुनाथ भगवान् हैं। इस मंदिर का निर्माण पल्लव नरेश नन्दीवर्म के द्वारा ई.८०६-८६६ में हुआ है। वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना
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इस मंदिर के दक्षिण भाग में २५ सीढ़ियाँ चढ़ने पर महावीर भगवान् का मंदिर है। यह १२ वीं सदी का है । उत्तर में आदिनाथ भगवान् का मंदिर है । यह १५ वीं सदी का है । उसके बगल में कूष्माण्डी यक्षी का मंदिर है। यह भी १५ वीं सदी का है। दक्षिण पश्चिम के आखिर में ब्रह्मदेव मंदिर है । पार्श्वनाथ भगवान् का भी एक जिनालय है तथा देवीजी के मंदिर के बगल में मण्डप है । सामने दीवाल पर श्री १०८ अकलंकदेव की पादचिह्न, पीछी, कमण्डुल, पुस्तक आदि कोरी हुई मौजूद है । करन्दै - तिरुप्पनमूर के बीच में एक छत्री है। वह अकलंकदेव की समाधि है ।
इन मंदिरों के बारे में कहना यह है कि अत्यन्त प्राचीन होने के कारण पहले से ही ये मंदिर निर्मित थे परन्तु राजा लोगों ने बाद में सिर्फ जीर्णोद्धार किया है। यहाँ १८ शिला शासन है । कुन्थुनाथ भगवान् के जो मंदिर है उसके गोपुर के अन्दर का शिलालेख पल्लव नरेश नन्दिवर्मन प्रसिद्ध है । वर्धमान भगवान् के मंदिर में भी शासन है ।
महान् आचार्य अकलंकदेव के बारे में यह बात प्रसिद्ध है कि ये 'अलिपडैतांगल' नाम के स्थल में जो बुद्ध साधुगण रहते थे उनके साथ हिमशीतल महाराजा (कांजीपुरं) की सभा में शास्त्रार्थ कर जीते थे । इस जीत में करन्दै की कुष्माण्डिनी देवी की सहायता रही। एक तमिल पद्य में ये सारी बातें लिखी मिलती है ।
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करीब ५-६ लाख रुपये के खर्च से इन मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ है। मंदिर सुरक्षित हो गये हैं । जीर्णोद्धार कार्य में महासभा का सहयोग काफी रहा है। चेन्नई जैन समाज की पूर्ण सहायता मिली है।
इसकी पंचकल्याण प्रतिष्ठा पूज्या आर्यिका श्री १०५ सुभूषणमति माताजी , श्री १०५ सुप्रकाशमति माताजी के सत् प्रयत्न से (२८.२.६१ से ४.३.६१ में) बड़ी धूमधाम के साथ संपूर्ण हुई थी। यहाँ हर साल फाल्गुन मास में दस दिन का ब्रह्मोत्सव चलता है। जैन लोग शामिल होकर शोभा बढ़ाते हैं । यह दर्शन करने योग्य पवित्र स्थल है ।
आरणी क्षेत्र-संभाग (नॉर्थ आर्काट जिला) इस तीर्थ क्षेत्र चक्र में लगभग १५ गॉवों में प्राचीन जिनालय हैं । यह क्षेत्र वन्दवासी क्षेत्र से ३५ किलोमीटर की दूरी पर है। इस क्षेत्र के अत्यन्त विख्यात जिनालयों का विवरण प्रस्तुत है
पूण्डी (अतिशय क्षेत्र) :- आरणी क्षेत्र की गोद में सघन अमराई और धान के विशाल खेतों से घिरा हुआ यह सुरम्य तीर्थ स्थल है । जनश्रुति है कि राजा नन्दिवर्मन ने इस ७ परकोटे वाले क्षेत्र का निर्माण कराया था। प्रथम ही आदीश्वर मंदिर है। चन्द्रप्रभु जिनालय और ज्वालामालिनी देवी की भव्य प्रतिमाएं है। पार्श्वनाथ मंदिर और अनेक देवियों के बिम्ब हैं । अनेक धातुमयी प्रतिमाएँ हैं ।
जनश्रुति है कि यहाँ भगवान् आदिनाथ की मूर्ति भूगर्भ से निकली है, निकालते समय भगवान् की प्रतिमा को चोट लग गयी। सम्बद्ध व्यक्ति अन्धा हो गया। उसे स्वप्न में आदेश मिला । सावधानी से
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खोदो, भगवान् हैं । मंदिर बनवाने पर तुम्हारी दृष्टि लौट आयेगी, ऐसा ही हुआ। ऐसी और भी अनेक चमत्कारी घटनाओं का इस जिनालय से सम्बन्ध हैं । दर्शनार्थी जैन-अजैन आते ही रहते हैं। यहाँ वार्षिक विशाल मेला लगता है । पोंगल धूमधाम से मनाते हैं । जीर्णोद्धार की बड़ी जरूरत है, उचित सुरक्षा और मरम्मत के अभाव में यह प्रसिद्ध क्षेत्र धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है। यह उत्तर भारत के चम्पापुर और नैनागिर की समता का क्षेत्र है । ऐसे पवित्र और महान् क्षेत्रों की रक्षा करना हम आस्थिक जैनों का परम कर्तव्य है। इससे अपार पुण्यबंध होता है ।
आरणी :- यहाँ पर्याप्त प्राचीन एवं भव्य आदिनाथ जिनालय है । विशाल सभा मंडप और मान-स्तम्भ है, दो वेदियां हैं, छह शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां है। यहाँ अभिषेक एवं पूजन नियमित रूप से होता है । यहाँ पूजन आदि शाम के समय सम्पन्न होते हैं । ४० श्रद्धालु जैन परिवार है।
वल्लिमलै :- यह स्थल नार्थ आर्काड जिला, गुडियात्तम तालुका मेलपीडि नाम के गाँव के पास है । इस गाँव का छोटा सा पहाड़ पत्थर से भरा है। इसकी पूर्व दिशा में स्वाभाविक एक गुफा है । उसके बगल में दो पंक्ति में जैन मूर्तियां उत्कीर्ण की हुई है। इसके नीचे कन्नड़ लिपि में कुछ लिखा हुआ है। इससे पता चलता है कि इस गुफा को राजमल्ल नाम के गंगकुल नरेश ने बनवाया था तथा अज्जनन्दी भट्टारक द्वारा ये मूर्तियाँ बनवायी गई थी।
_यहाँ की जैन मूर्तियां और शिलाशासन से पता चलता है कि यह स्थान जैनियों का था और आसपास के गाँवों में अनेक जैन लोग निवास करते थे किंतु आजकल कोई भी जैन नहीं है। वर्तमान में इस स्थल पर अजैन लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है। यहाँ जीर्णोद्धार करा सकते हैं व त्यागी भवन बना सकते हैं ।
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पंचपाण्डवरमलै :- आर्काड शहर से दक्षिण-पश्चिम में छह किलोमीटर दूरी पर पंचपाण्डवरमलै नाम का छोटा सा पहाड़ है। तमिल में मलै का अर्थ पहाड़ है। पंचपांडवों के साथ इसका कोई संबंध नहीं दिखता । इसका दूसरा नाम तिरुप्पामलै है । इस पहाड़ के पूर्व भाग में बारह स्तम्भों से युक्त छह कक्ष हैं । इस गुफा के ऊपर एक चट्टान पर ध्यानस्थ जैन मूर्तियां है । दक्षिण भाग में स्वाभाविक एक गुफा है। पास में पानी का एक कुण्ड है। इस पहाड़ पर जो मूर्तियां दृष्टिगोचर है उनमें साधु की और यक्षणी की सामने दिखाई देती है । साधु का नाम नागनन्दी मालूम होता है। इन सभी आधारों से पता चलता है कि एक जमाने में यह पहाड़ श्रमण साधुओं का निवास स्थान था । इसमें कोई शक नहीं है । यहाॅ पर श्रमण साधुगण तप किया करते थे । इस बात को यहाॅ का शासन निःसन्देह बतला देता है । यह निर्जन प्रदेश है । साधु-संतों के अनुकूल एकान्त स्थान है। सैकड़ों मुनिराज यहाॅ तप किये होंगे, आज यह निर्जन है, यहाॅ त्यागी आश्रम व धर्मशाला बनाई जा सकती है ।
वन्दवासी संभाग- उत्तर आर्काट जिला
इतिहास, संस्कृति और धर्मायतनों के पुष्ट आधार पर यह क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसके अन्तर्गत छोटे-बड़े लगभग ३० तीर्थ क्षेत्र आते हैं। यह १२५ से १५० किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है । यहाँ के पर्वत और गुफाएँ भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र में जागृति तुलनात्मक स्तर पर अधिक है । अनेक संस्थाएँ और अध्ययन केन्द्र भी हैं। इस चक्र के अन्तर्गत लगभग ३५ क्षेत्र आते हैं। सर्वत्र दिगम्बर जैन परिवारों की संस्था पर्याप्त है, रुचिपूर्वक धार्मिक कार्यों में भाग लेते हैं ।
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वन्दवासी :- इस नगरी में एक चैत्यालय है। मूल नायक महावीर स्वामी है । श्वेत पाषाण की प्रतिमा है । अंबिकादेवी प्रतिष्ठित है। मंदिर नया है । यहाँ १५० जैन परिवार है।
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सात मंगलम् :- ग्राम वन्दवासी से ५ किलोमीटर की दूरी पर है। यहाॅ १५०० वर्ष पूराना भव्य चन्द्रप्रभ जिनालय है । सुन्दर, विशाल मानस्तम्भ है। आठ शासन देव-देवियां हैं, पूजा, भजन आदि होते रहते हैं । जीर्णोद्धार आवश्यक है । यहाँ ६० श्रद्धालु जैन परिवार निवसित हैं 1
नरकोइल - अतिशय क्षेत्र :- पोन्नूर गाँव से लगी हुई एक पहाड़ी पर प्राचीन आदिनाथ जिनालय भग्नावस्था में हैं। एक छोटे कमरे में सभी मूर्तियाँ रख दी गई हैं। इस क्षेत्र के उद्धार के कुछ प्रयत्न हुए पर अभी अनेक प्रकार का काम होना शेष है। पूरा सर्वे होना चाहिए । समीप ही अनेक तीर्थंकरों की भग्न मूर्तियाँ हैं ।
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पोन्नूर ग्राम :- यह लगभग २००० वर्ष पूराना प्रसिद्ध नगर है। यह सुप्रसिद्ध जैनाचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की तपोभूमि के रूप में मान्यता प्राप्त है । यहाँ से २ किलोमीटर की दूरी पर पोन्नूरमलै (पर्वत) स्थित है, वस्तुतः पोन्नूर गाँव और पोन्नूर पर्वत कभी एक ही थे, धीरे-धीरे दूरी बढी
और अलग-अलग नाम हो गये । इस गाँव में प्रसिद्ध आदिनाथ जिनालय है। इसे कनकागिरि भी कहा जाता है। मंदिर के सामने मानस्तम्भ है। मंदिर में शताधिक धातु निर्मित मूर्तियां है । सभा मंडप है । यहाँ एक पाठशाला है। सभी जैन परिवार श्रद्धालु एवं संगठित है । यहाँ सब कुछ व्यवस्थित है। यह वन्दवासी से ६ कि. मी. दूरी पर है। पहले के जमाने में इसका नाम 'अलगिय सोल नल्लूर' था। वर्तमान में यह जैनों के मुख्य गाँवों में एक है। यहाँ पर जैनों के ६० घर है। यहाँ आदिनाथ प्रभु का जिनमंदिर है । पोन्नूर को स्वर्णपुरी भी कहते हैं । कुन्दकुन्द आचार्य महाराज की यह तपोभूमि कही जाती है । मंदिर सुव्यवस्थित है। फिलहाल पंचकल्याण प्रतिष्ठा भी हुई थी। मंदिर के सामने मानस्तम्भ है । शासन देवताओं का मंन्दिर भी है । मन्दिर में पचासों धातु की मूर्तियाँ हैं । पास में सभा मण्डप है । परिक्रमा के दाहिनी ओर नवीन चरण पादुका स्थापित है । श्रावक-श्राविकाओं की भक्ति है।
पोन्नूरमलै :- अतिशय क्षेत्र-तपोभूमि-कर्मभूमि-यह वन्दवासी से पश्चिम की ओर ६ किलोमीटर दूरी पर है । बस सुविधा है । इसके चारों ओर सुरक्षित वनस्थली है । नीचे अच्छी धर्मशाला है और कुन्दकुन्द विद्यापीठ है । कुन्दकुन्दाश्रम भी है। इसमें एक मन्दिर है और पाँच वेदियाँ हैं । वेदियों में पाषाण एवं धातु की मूर्तियाँ हैं किन्तु यहाँ जैनियों के घर नहीं है। मन्दिर के अन्दर एक ओर सुन्दर नन्दीश्वर द्वीप की रचना है एवं बाहर एक सुन्दर नवनिर्मित समवसरण मन्दिर भी है ।
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आश्रम के सामने पहाड़ है। सामने धर्मचक्र है। पहाड़ पर चढ़ने की ३०० सीढ़ियाँ हैं । ऊपर जाने पर विशाल मण्डप दिखाई देता है। जिसमें करीब ६०० आदमी बैठ सकते हैं। मण्डप के दक्षिणी ओर कुन्दकुन्द - एलाचार्य महाराज की चरण पादुकायें हैं। (तमिल कुरल काव्य के रचयिता कुन्दकुन्द एलाचार्य माने जाते हैं । उनके प्राकृत के तो समयसार आदि ८४ ग्रन्थ हैं ।) यह एक शिला पर उत्कीर्ण है इस शिला को मणिशिला कहते हैं । पर्वत 'नीलगिरि' के नाम से प्रसिद्ध है । अभी दो वर्ष पूर्व मुनि श्री १०८ आर्जवसागरजी की प्रेरणा से एक और मन्दिर एवं विशाखाचार्य तपोनिलयम् बनाया गया है । यह आचार्य कुन्दकुन्द महाराज की तपोभूमि है । एकान्त स्थान है । निर्जन प्रदेश है । मुनिराजों के अनुकूल स्थान है । इस स्थान को देखने से ऐसा भाव होता है कि हम भी मुनि बनकर इस परम पवित्र स्थान में ध्यान करने लग जायें। सुरक्षित ठंडी-ठंडी हवा आती है। यहाॅ एक गुफा भी है । आसपास में ४-५ मील पर श्रावकों के गाँव हैं । चित्ताकर्षक स्थान होने से मुमुक्षुओं को अवश्य दर्शन करने चाहिए । करीब २० साल पूर्व आचार्य निर्मलसागरजी महाराज का यहाँ चातुर्मास हुआ था । उस समय अच्छी प्रभावना हुई थी । करीब १० साल पूर्व गणिनी १०५ श्री विजयामती माताजी का भी चातुर्मास हुआ था । अपूर्व धर्मभावना हुई थी । त्यागियों के प्रभाव से ही धर्म की प्रभावना होती है किन्तु वर्तमान में उसकी कमी है । भूतकालीन इतिहास इसका साक्षी है । वन्दवासी क्षेत्र का यह पर्वत और जिनालय सर्वाधिक प्रसिद्ध, क्रियाशील और लोकप्रिय है । कुन्दकुन्द स्वामी की यह कर्मभूमि और तपोभूमि के रूप मे प्रसिद्ध है । इस क्षेत्र का प्रायः सर्वतोमुखी विकास हो रहा है । यात्रियों का आवागमन भी प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में होता रहता है ।
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अरुगुलं :- यह स्थान चेन्नई से तिरुत्तनि जाने के रास्ते पर उत्तर में तिरुत्तनि से दस मील की दूरी पर हैं । यहाॅ एक सुन्दर जिनमन्दिर है जो विशाल एवं सुरक्षित है । मूलनायक धर्मनाथ भगवान् है । उसमें परिक्रमा है । सुना जाता है कि पल्लव नरेशों के द्वारा यह मन्दिर बनवाया गया था । मन्दिर बहुत प्राचीन है । पहले जीर्ण था, जीर्णोद्धार करवाकर ठीक कर दिया गया है। यहाॅ जैन लोग नहीं है, सिर्फ पुजारी का घर है, बराबर नित्य का अभिषेक होता है । यह आचार्य अच्चणन्दि महाराज की तपोभूमि है ।
तमिल भाषा का ‘चूड़ामणि' नाम का अद्भुत साहित्य ग्रन्थ है । उसके रचयिता 'तोलामोलिदेव' धर्मनाथ भगवान् के भक्त थे । उन्होंने भगवान् के सन्निधान में ही अपनी ग्रन्थ रचना पारम्भ की थी । इस बात को तमिल का एक पद्य प्रकट करता है। चाहें कुछ भी हो यह तपोधनों का निवास स्थान था । पूर्व में आसपास के गाँवों में भी जैन लोग रहा करते थे किन्तु आजकल सर्वशून्य है । सिर्फ मन्दिर मात्र है । साल में एक बार माघ मास में मेला लगता है । जैन समाज इकट्ठा होता है । उस समय
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भगवान् का अभिषेक तथा धर्म-प्रचार आदि कार्यक्रम होते हैं । यहाँ पर त्यागी आश्रम एवं धर्मशाला की आवश्यकता है।
मयिलापुर :- यह चेन्नई शहर का एक हिस्सा है । पूराने जमाने में यहाँ नेमिनाथ भगवान् का एक मन्दिर था । 'अविरोधि आलवार' नाम के व्यक्ति पहले ब्राह्मण थे और बाद में वे जैन बने । उन्होंने भगवान् की भक्ति में लीन होकर, उनके गुणों का वर्णन करते हुए 'तिरुनूट्रन्दादि' नाम के ग्रन्थ की रचना की थी। वह ग्रन्थ उपलब्ध है। भक्ति से ओतप्रोत अद्भुत ग्रन्थ है। जैन लोग उसका पारायण करते हैं । इसके अलावा 'मयिलापुर पत्तुपदिकं' मयिलापुर नेमिनाथ स्वामी पदिकं आदि ग्रन्थ भी है। ये सभी नेमिनाथ भगवान् के गुणगान पर आधारित है।
पहले नेमिनाथ भगवान् का मन्दिर मयिलापुर में था । जहाँ आजकल मयिलापुर के समुद्र के किनारे ईसाई सान्थोम चर्च है । एक जमाने में यह मन्दिर समुद्र के तूफान से डूब जायेगा, इस डर के कारण भगवान् की मूर्ति को ले जाकर मेलचित्तामूर में विराजमान कर दिया गया था। वह अतिशय मूर्ति आज भी मेलचित्तामूर में विराजमान है । इस बात को एक शासन के द्वारा जाना जाता है । इससे नेमिनाथ भगवान् और मन्दिर की बात निश्चित हो जाती है। उक्त स्थान पर यानि चर्च के आसपास जैन मूर्तियाँ थी। उन्हें उठाकर यत्र-तत्र भूमिगत कर दिया गया है ।
मयिलापुर के नेमिनाथ भगवान् के ऊपर 'नेमिनाथ' नाम के ग्रन्थ की रचना हुई थी। नन्नूल नाम के व्याकरण ग्रन्थ के व्याख्याता मयिलैनाथर का निवास स्थान भी यहीं था। कुछ जैन मूर्तियाँ पादरी के घर में है और कुछ अन्य लोगों के घरों में है । इस तरह यहाँ एक जमाने में वहाँ ख्याति प्राप्त विशाल जैन मन्दिर था किन्तु आजकल वहाँ नामोनिशान भी नहीं है ।
देसूर :- यह छोटा सा शहर है । पोन्नूरमले से २० कि.मी. पर है। यहाँ आदिनाथ भगवान् का मन्दिर है। यहाँ पर जैनों के आठ-दस घर है । मन्दिर में धातु की प्रतिमाएँ भी है । धर्मचक्र है, शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं किन्तु मन्दिर की व्यवस्था साधारण है । मन्दिर में जीर्णोद्धार कार्य हो रहा है। महासभा ने अनुदान दिया है।
तेल्लार :- देसूर से ६ कि.मी.पर है। यह एक प्राचीन गाँव है । यहाँ एक जैन मन्दिर है। मूलनायक महावीर भगवान् है । धातु की मूर्तियाँ भी है । मन्दिर शिथिल हो गया था, अब जीर्णोद्धार हुआ है। यहाँ दस जैन परिवार है। प्रचार न होने के कारण श्रद्धा-भक्ति कम है। महासभा ने अनुदान दिया है।
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तिरक्कोयिल :- (अतिशय क्षेत्र) यह पोन्नूरमले से ५ कि. मी. की दूरी पर है। यहाँ एक छोटा सा पहाड़ है। पहाड़ के ऊपर एक मन्दिर था जो पूरा ढह चूका है अतः मन्दिर की मूर्तियों को एक कोठरी में विराजमान किया गया है जिससे एक छोटा सा मन्दिर तैयार हुआ है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् हैं । धातु की प्रतिमायें भी हैं । पूजा की व्यवस्था ठीक नहीं है, चार जैन परिवार है। स्थान अत्यन्त सुरम्य है, मन्दिर के पीछे जो चट्टान है उसमें बाहुबली स्वामी का बिम्ब उत्कीर्ण किया हुआ है । तलहटी में एक चट्टान के चारों ओर महावीर भगवान् ,आदिनाथ भगवान्, पार्श्वनाथ भगवान् तथा चन्द्रप्रभ भगवान्- इन चारों की पद्मासन मूर्तियाँ उत्कीर्ण है। यह बहुत पूराना मन्दिर है । महासभा की तरफ से मूलनायक आदिनाथ भगवान् की मूर्ति प्रतिष्ठा कराई गई है। वह विराजमान की गई है। तीर्थ क्षेत्र कमेटी ने भी इस क्षेत्र की सहायता की है। इस क्षेत्र में जीर्णोद्धार की आवश्यकता है ।
वेण्कुन्टं :- वन्दवासी के उत्तर में ३ कि. मी. पर है । यहाँ एक जैन मन्दिर है, ३५ दिगम्बर जैनों के घर है। यहाँ के मन्दिर के मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ है अन्य कई धातु की मूर्तियाँ हैं । दायीं ओर धर्मदेवी का मन्दिर है । मन्दिर के सामने मण्डप में वृषभनाथ भगवान् की मूर्ति हैं जिसे 'मलैबिम्ब-वर्षाकालबिम्ब' कहकर पूजते हैं । मुख्य द्वार के सामने एक वेदी है। उसका मूलनायक चन्द्रप्रभु भगवान् हैं। धातु की मूर्तियाँ भी है। एक सभा- मण्डप भी है। यह विशाल मन्दिर दर्शनीय है । व्यवस्था अच्छी है । लोग धर्मप्रेमी है । यह चोल राज्य के समय से निर्मित है । बहुत पूराना हैं ।
साऊथ आर्काड जिला तिरुप्पापुलियूर :- (पाटलीपुर) के नाम से प्रसिद्ध था । यह साऊथ आर्काड जिले में
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हैं। इसे कडलूर भी कहते हैं । यह जैन लोगों का मुख्य स्थान था । प्राचीनकाल में यहाँ जैन मठ एवं मन्दिर थे । यहाँ का जैन मठ अति प्राचीन था । यहाँ के सर्वनन्दी नाम के श्रमण साधु महात्मा ने 'लोकविपाकं' नाम के शास्त्र को अर्धमागधी भाषा से संस्कृत भाषा में अनुवादित किया था। वे दोनों भाषा के मूर्धन्य विद्वान् थे। उस शास्त्र से पता चलता है कि यह कार्य शक वर्ष ३८० में (ई.४५८) कांजीपुरं के नरेश नरसिंहवर्म के २२ वें वर्ष में हुआ था। इस पाटलीपुर मठ के अन्दर शास्त्राध्ययन कर इस पीठ के प्रधान साधु के रूप में जो धर्मसेन थे उन्होंने शैव बनकर बाद में जैन धर्म के प्रति बड़ा अनर्थ किया था। वह प्रधान शैव भक्तों में से एक हो गया था। यह 'अप्पर' के नाम से पुकारा जाता था ।
इसी व्यक्ति ने शैव होने के बाद जैन मठ को तुड़वाकर उसके पत्थरों से 'पुणपर' के द्वारा तिरुवदिकै में शैव मन्दिर बनवाया था। इस स्थान में जैन मन्दिर था - इसका आधार यह है कि मंजकुप्पं यात्री बंगले के पास एक जैन मूर्ति मौजूद है । इसकी ऊँचाई चार फुट है।
तिण्डिवनम् :- यह एक शहर है । यहाँ एक जैन मन्दिर है विशाल चन्द्रप्रभ भगवान् की मनोज्ञ प्रतिमा है। शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं । धर्मशाला है। यहाँ का मन्दिर नवीन है। इसकी प्रतिष्ठा भी हो चुकी है। इस शहर में लगभग दिगम्बर जैनों के २०० घर हैं किन्तु धार्मिक वातावरण कम है । चेन्नई से १०० कि.मी. दूरी पर है।
सिरुकडंबूर :- (तिरुनाथ'न्ट्र) यह जिंजी से २ कि.मी. पर है। यहाँ के तालाब के चट्टान पर ४-५ फुट की जिन प्रतिमा उत्कीर्ण है। इसके पास एक बड़ी चट्टान पर २४ तीर्थंकरों की पद्मासन
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प्रतिमायें दो पंक्ति में उत्कीर्ण है । यह जमीन से दस फुट ऊँचाई पर है। इसलिये दुष्ट लोग इसे तोड़ नहीं पाये । वे मूर्तियाँ सौम्य एवं मनोज्ञ हैं । इसे देखने से ऐसा लगता है कि वे अभी अभी बनवायी गई हो । इस स्थान पर चन्द्रकीर्ति उपाध्याय एवं इलैय भट्टारक- इन दो साधु-महात्माओं ने ५७ व ३० दिन का उपवास किया था । यह तपोभूति है । इस बात को यहाॅ का शासन बतलाता है कि यह महत्वपूर्ण स्थान है । यहाॅ एक गुफा है। एकान्त स्थान है । साधुओं के लिये अनुकूल स्थान है । यहाँ का शासन बहुत ही प्राचीन है । इसे ईस्वी तीसरी सदी का बतलाते हैं ।
जिंजी :- यह भी एक छोटा सा शहर है। इसके एक कोने में जैनों का निवास स्थान है । जैनों के करीब १५ घर है। एक छोटा सा चैत्यालय है। पूजा आदि की व्यवस्था है। यहाॅ धर्म के प्रति अभिरुचि एवं जाग्रति कराने की बड़ी आवश्यकता है । तिण्डीवनम से ३० कि.मी. दूरी पर है ।
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मेलचित्तामूर :- इस गाँव में भगवान् मल्लिनाथ का पुरातन मन्दिर है । उसमें एक ही चट्टान पर मल्लिनाथ भगवान्, पार्श्वनाथ भगवान्, महावीर स्वामी और बाहुबली स्वामी की प्रतिमायें उत्कीर्ण है । बगल में कुष्मांडिनी देवी है। एक जैन मठ भी है । यहीं तामिलनाडु में जैनों का एकमात्र मठ है । पहले यह काजीवरम् में था। न जाने वहॉ से यहाॅ कैसे आ गया ? मैलापुर के नेमिनाथ भगवान् को यहाँ लाकर विराजमान किया गया है । यहाँ के मन्दिरों में कुछ शिलाशासन उपलब्ध है । तिण्डीवनम् से २० कि.मी. दूरी पर है ।
यहाॅ के मठ में मठाधीश रहते हैं। धार्मिक संस्कार डालना, धर्म का प्रचार करना - इनके हाथ में है । मठ का बहुत बड़ा भवन है । समाज का सुधार, देखरेख आदि ये ही करते हैं । इनका नाम
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लक्ष्मीसेन भट्टारक है । चार मठ मुख्य माने जाते हैं , जैसे- दिल्ली, कोल्हापुर, जिनकुन्जी और पेनकोण्डा, किन्तु पेनकोण्डा का पता नहीं चलता । सम्भवतः वह कर्नाटक में था ।
मठ के पास दो मन्दिर है । एक नेमिनाथ भगवान् का एवं दूसरा पार्श्वनाथ भगवान् का है । पार्श्वनाथ भगवान् का मन्दिर नया और कलात्मक है । मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति देखते ही बनती है । इतनी कलापूर्ण सुन्दर आकृति है कि उसका वर्णन करना अशक्य है । नेमिनाथ भगवान् की मूर्ति भी पूरानी है तथा कला की दृष्टि से उत्तम है । प्रवेश गोपुराकार सात मन्जिल का है । मन्दिर के सामने विशाल मैदान है। चैत्र माह में दस दिन का ब्रह्मोत्सव हर साल होता है। सातवें दिन भगवान् पार्श्वनाथ का रथोत्सव होता है । यह सब दक्षिण परंम्परा के अनुसार चलता है।
पार्श्वनाथ भगवान् का मन्दिर बड़ा मन्दिर कहलाता है । मन्दिर ग्रेनाइट पत्थर से बनवाया गया है । दक्षिण की वास्तुकला से परिपूर्ण है । नेमिनाथ भगवान् का मन्दिर छोटा मन्दिर कहलाता है । बड़े-छोटे मन्दिरों में धातु की मूर्तियाँ बहुत है। छोटे मन्दिर के पश्चिम में सरस्वती, गणधर परमेष्ठी, ब्रह्मयक्ष, कुष्मांडिनी देवी, ज्वालामालिनी यक्षी और पद्मावती- इन सब के अलग-अलग मन्दिर है। यहाँ एक बहुत बड़ा सभा मण्डप है। उसके सामने मानस्तम्भ और ध्वजस्तम्भ है । उसके सामने के मण्डप में बाहुबली भगवान् की मूर्ति विराजमान है ।
मठ के अन्दर ताड़पत्र का शास्त्र भण्डार है । देखरेख की कमी के कारण ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण होते जा रहे हैं । मठ की काफी जमीन है । चार-पांच साल से वर्षा का अभाव होने के कारण आमदनी नहीं के बराबर है । मन्दिर के दोनों गोपुरों का जीर्णोद्धार हो गया है । पाण्डुक शिला भी है। ब्रह्मोत्सव के अन्तिम दिन १००८ कलशों से इसी पाण्डुक-शिला पर भगवान् का अभिषेक होता है । मठ के अन्दर प्राचीन चॉदी, स्फटिक, हीरा, पन्ना आदि की मूर्तियाँ हैं । धर्मशाला है । यात्री लोग ठहर सकते हैं । आने-जाने के लिये बस की सुविधा है। यह दर्शन करने योग्य अतिशय क्षेत्र है । महासभा तीर्थ संरक्षणी से अनुदान दिया है । धर्मशाला व त्यागी भवन की आवश्यकता है।
तोन्डूर :- यह तिण्डिवनम् से २५ कि. मी. और जिन्जी से १५ कि. मी. पर है । इस गाँव के दक्षिण में एक छोटा सा पहाड़ है। इसे पन्चपाण्डवमलै कहते हैं । इसमें दो गुफायें और कई शय्यायें हैं । गुफा में २ फुट ऊँची तीर्थकर प्रतिमा है ।
इस गाँव में 'बलुवामोलि पेरुपल्लि' नाम का मन्दिर था । शिलाशासन से पता चलता है कि इस
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मन्दिर के लिये एक राजा ने 'आरान्द मंगलम्' नाम का गाँव, बगीचा और कुआ आदि दान में दिया था । इसका निर्वाह वज्रसिंह साधु और उसके शिष्य करते रहे। इस तरह का शिलाशासन किया गया था । पाँचों पांडवों का यहाँ आगमन हुआ तथा यह अनेक मुनियों की तपोभूमि भी रही है ।
मेल उलक्कूर के पास एक तोण्डर है। यहाॅ एक विशाल जिनमन्दिर है । मूलनायक महावीर भगवान् है । मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ है। मन्दिर में धातु की मूर्तियाँ भी है। यह जिन-मन्दिर प्राचीन है । गाँव से एक फर्लांग पर छोटी पहाड़ी है । उसमें एक गुफा है। गुफा की चट्टान पर पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति उत्कीर्ण है । यह अत्यन्त चमत्कारी मानी जाती है। अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए जैन-अजैन सभी आते हैं और भक्ति से पूजा करते हैं। कहा जाता है कि अनेकों आचार्यों ने यहाॅ तपश्चरण किया था । गुफा के ऊपर अनेकों शय्याये हैं, जिससे पता चलता है कि कई मुनिराजों ने यॉतप किया होगा और आत्म-साधना के द्वारा निजानन्द प्राप्त किया होगा । यहाँ अत्यन्त शान्त वातावरण है । यहाँ श्रावकों के २५ घर है जो धर्म प्रेमी और धार्मिक प्रवृत्ति के है । महासभा से अनुदान दिया गया है ।
कल्लपुलियूर :- यह जिंजी से १५ कि. मी. पर है । यहाँ दिगम्बर जैनों के ५० घर है । एक जिन मंदिर है । मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ है । मन्दिर की व्यवस्था ठीक है । यह साधु-सन्तों का जन्म-स्थान रहा है । श्री १०८ वर्धमानसागरजी का जन्म स्थान यही हैं । यहाँ का मन्दिर प्राचीन है । मन्दिर में धातु की मूर्तियाँ बहुत है। यहाँ के भण्डार में ताड़पत्र के करीब १५० ग्रंथ है। श्रावक-श्राविकाओं में धर्म की ओर अभिरुचि है। पूजा-पाठ आदि बराबर चलता है ।
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वलत्ति :- यहाँ एक जिन-मन्दिर है । जैनियों के करीब ३० घर है । मन्दिर के सामने मानस्तम्भ है। मूलनायक आदिनाथ भगवान् है, अन्य पाषाण की मूर्तियाँ भी हैं। शासन देवताओं की मूर्तियाँ है । शास्त्र भण्डार भी है। एक सभा मण्डप है। श्रावक-श्राविकाओं में धर्म की अभिरुचि है। गाँव से एक किलामीटर पर पहाड़ी जंगल में एक गुफा है, उसमें भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा उत्कीर्ण है, इससे पता चलता है त्यागीगण भी यहाँ निवास किये होंगे । सुधार की बड़ी आवश्यकता है । जीर्णोद्धार अत्यावश्यक है।
मेलमलयन्नूर :- यहाँ एक जिनमन्दिर है। यह प्राचीन है। यह जीर्णावस्था में था किन्तु अब पूर्ण रूप से जीर्णोद्धार हो गया है। महासभा, तीर्थ क्षेत्र कमेटी, धर्म स्थल आदि संस्थाओं की सहायता काफी रही। भव्य जैन समूह ने भी यथाशक्ति सहायता दी है। मानस्तंभ की स्थापना की गई है, पंच कल्याण प्रतिष्ठा हो चुकी है। यहाँ दस श्रावकों के घर है । मन्दिर के जीर्णोद्धार में करीब ४-५ लाख रुपये लगे हैं । कठिन परिश्रम के कारण काम पूरा हुआ है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है, अन्य धातु की प्रतिमायें काफी है। शासन देवताओं की भी प्रतिमायें हैं । ब्रह्मदेव और धर्म देवी अलग-अलग मन्दिर में स्थापित हैं । धार्मिक रुचि साधारण है।
तायनूर :- यहाँ एक जिनमन्दिर है। जैनों के २५ घर है। यह मेलमलयन्नूर से २ कि. मी. पर है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है । यह २५०० वर्ष प्राचीन स्थल है। अन्य धातु की प्रतिमायें हैं । इसका जीर्णोद्धार हुआ है । जिंजी दुबाल कृष्णप्पनायकन के अत्याचार से डर कर जो लोग शैव बन गये थे, उन्हें फिर से जैन बनाने का श्रेय जैन ओडयार नामक श्रावक को है। वे महाशय इसी
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गाँव के थे । उनकी परंपरा अब भी यहाँ पर है, जो कोई जैन तामिलनाडु में नजर आ रहे हैं वे सबके सब फिर से जैन धर्म में पुनः दीक्षित किये गये थे । इनकी कृपा नहीं होती तो आज एक भी जैन नजर नहीं आता । यहाँ के जैन ओडयार श्रावक महानुभाव की सेवा प्रशंसनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है । महासभा से अनुदान दिया गया था ।
तोरप्पाडी :- यहाँ पुष्पदन्त भगवान् का १५०० वर्ष प्राचीन जिनमन्दिर है। यह जीर्ण अवस्था में है । महासभा की सहायता से इसका जीर्णोद्धार हुआ था किन्तु पूरा नहीं हो सका । यहाँ अन्य धातु की प्रतिमायें हैं । यह जिंजी से ८ कि. मी. पर है । यहाँ १५ दिगम्बर जैनों के घर है । यहाँ पर जीर्णोद्धार की बड़ी आवश्यकता है ।
पेरंबुकै :- यह जिंजी से चार किलोमीटर पर है। यहाँ एक २०० साल प्राचीन जिनमन्दिर है । मूलनायक मल्लिनाथ भगवान् है। शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं । यहाँ अक्षय तृतीया के दिन अच्छे ढ़ंग से आहार-दान की विधि करायी जाती है । गाँव से डेढ़ किलोमीटर पर एक गुफा है उसमें करीब बीस शय्यायें हैं । इसमें आचार्य निर्मलसागरजी, शांतिसागरजी एवं आचार्य वर्धमानसागरजी महाराज के चरण-चिह्न स्थापित किये गये हैं। यह पहाड़ की तलहटी में है। इससे पता चलता है कि इस पर्वत की गुफा में मुनिगण तप किये होंगे और वे आहार के लिये नीचे गाँव में जाते रहे होंगे । सुन्दर वातावरण है । मुनियों के योग्य स्थान है । यहाँ बाहर में २००० वर्ष पूर्व की आदिनाथ भगवान् की मनोज्ञ प्रतिमा है । जीर्णोद्धार की बहुत जरूरत 1
वीणामूर :- यह मेलचित्तामूर से ५ कि. मी. पर है। यहाॅ श्री आदिनाथ भगवान् का २०००
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वर्ष पूर्व का जिनमन्दिर है। हर गाँव में जैन लोग अलग ही रहते हैं । इन लोगों की वीथी (स्ट्रीट) अजैनों की वीथी (गली) से अलग रहती है। यहाँ करीब चालीस जैन परिवार है । मन्दिर में अन्य धातु की प्रतिमायें भी है। इस मन्दिर की बांयी और तीन कोठियाँ हैं जिसमें कुष्माण्डिनी, पद्मावती और ज्वालामालिनी देवी विराजमान है। हर एक मन्दिर में भगवान् की सेवा करने वाले शासन देवता और देवियाँ विराजमान की जाती है। इनका आदर-सत्कार भी बराबर होता रहता है। इस प्रान्त में आगम परंपरा के अनुसार सब काम चलता है। यहाँ पर पंचामृताभिषेक की परंपरा चालू है। लोगों की भक्ति भावना भी सराहनीय है । आगम पर इनकी अटूट श्रद्धा है । मन्दिर की व्यवस्था ठीक है। फिलहाल इस मन्दिर की पंचकल्याण प्रतिष्ठा भी हुई है।
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ओदलवाडी :- यह तिरुमलै से ५ कि. मी. पर है। यहाँ जैनियों के ६० घर है। यहाँ एक जिनमन्दिर है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है। अन्य धातु की मूर्तियाँ भी है। धर्मदेवी आदि शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं । ब्रह्मदेव मन्दिर है। श्रावक-श्राविकाओं में धर्म के प्रति अभिरुचि कम है अतः यहाँ प्रचार की जरूरत है।
तच्चांबाडी :- यहाँ एक जैन मन्दिर है । वन्दवासी से ३५ कि. मी. की दूरी पर है। जैनों के २० घर हैं । यहाँ पढ़े-लिखे विद्वान् लोग रहते थे । मन्दिर के मूलनायक भगवान् महावीर स्वामी है। अन्य धातु की प्रतिमायें हैं शासन देवताओं की भी प्रतिमायें हैं । मन्दिर के सामने मानस्तंभ और ध्वजस्तम्भ है । पीछे की ओर एक मुनिराज की २५०० वर्ष प्राचीन चरणपादुका है। विशाल सभा मण्डप है । मन्दिर सुन्दर एवं सुरक्षित है।
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पेरणमल्लूर :- यहाँ आदिनाथ भगवान् का जिन मन्दिर है। धातु की २० प्रतिमायें हैं । शासन देवताओं की मूर्तियां हैं । मन्दिर सुरक्षित है । चार-पाँच साल पहले इसकी पंचकल्याण प्रतिष्ठा हुई थी । यहाँ करीब ४० जैन परिवार है। धर्म के प्रति अभिरुचि साधारण है। धर्म प्रचार की बड़ी आवश्यकता है।
मलपन्दल :- यह छोटा सा गाँव है । यहाँ एक जिनमन्दिर है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है, अन्य धातु की प्रतिमायें हैं । शासन देवताओं की प्रतिमायें भी है। इस गाँव में २० श्रावकों के घर है । मन्दिर का सुधार आवश्यक है । धर्म प्रचार भी अत्यावश्यक है ।
कोईलांबूण्डि :- यह मेलपन्दल से एक किलोमीटर पर है। यहाँ जैनों के घर नहीं है। पहले रहे होंगे। प्राचीन जिनमन्दिर है। पुरातन मूर्तियां हैं । चतुर्थ काल की बतलाते हैं । मूलनायक भगवान् महावीर स्वामी है। इसे करीब डेढ़ हजार वर्ष प्राचीन स्थल बतलाते हैं । मन्दिर की अवस्था ठीक है परन्तु शिखर की हालत शोचनीय है, जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। ब्रह्मदेव और धर्मदेवी के पृथक् मन्दिर है।
वालप्पन्दल :- यह आरनी के पास है । यहाँ एक जिनमन्दिर है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है । धातु की १० प्रतिमायें हैं । तामिलनाडु के हर एक गाँव में जैन मन्दिर अवश्य रहता है । जैनी लोगों को मन्दिर और जिन भगवान् के प्रति श्रद्धा अटूट है । यहाँ के मन्दिर के जीर्णोद्धार की बड़ी आवश्यकता है। यहाँ जैनों के २० परिवार है। धर्म की अभिरुचि कम है।
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नगरं-नेत्रपाक्कं :- मेलपन्दल से ६ किलोमीटर पर है। यह छोटा सा गाँव है । यहाँ चार जैनों के घर है। यहाँ से एक किलोमीटर पर जंगल में छोटा सा जैन मन्दिर है, बहुत सुन्दर है। इसके चारों ओर खण्डहर पड़ा है, इससे ज्ञात होता है कि एक जमाने में यहाँ पर विशाल मन्दिर रहा होगा । इसका जीर्णोद्धार साहू रमारानी के कोष से हुआ है। मूलनायक नेमिनाथ भगवान् है। यह एक तरह से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। यह क्षेत्र नेत्रपाक्कं भी कहा जाता है । यहाँ की धातुओं की मूर्तियों को नेत्रपाक्कं में ले जाकर रखा गया है। यहाँ चोरी का भय है । आसपास में कोई घर नहीं है ।
तच्चूर :- यह एक प्राचीन स्थल है। यह आरनी से १० किलोमीटर पर है। यहाँ आदिनाथ भगवान् का १००० साल पूराना जिनमन्दिर है। अन्य धातु की प्रतिमायें हैं। शासन देवताओं की मूर्तियाँ भी है। कहा जाता है कि एक मार्च के दिन सूर्य की किरणें प्रातः काल वृषभनाथ स्वामी के चरणस्पर्श करती है। यह एक अतिशय है। यहाँ जैनियों के २५ घर है। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ है। प्रतिष्ठा भी हुई है । मन्दिर सुरक्षित है । दर्शन करने लायक है।
सेरप्पेरिपालयं :- यह तच्चूर से २ किलोमीटर पर है। यहाँ करीब १० घर जैनियों के हैं परन्तु मन्दिर प्राचीन है । मन्दिर की अवस्था दयनीय है। इसका जीर्णोद्धार होना आवश्यक है । महासभा की तरफ से सहायता दी गई है। पूर्णरूप से जीर्णोद्धार नहीं हुआ है। रोज अभिषेक होता है। मूलनायक आदिनाथ भगवान् है, अन्य धातु की मूर्तियां भी है। शासन देवताओं की प्रतिमायें भी है। मन्दिर कलात्मक है।
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नावल :- यह चैयार से ८ किलोमीटर पर है। यहाँ पर एक छोटा सा गाँव है। इसमें एक २५०० वर्ष पूराना जिनमन्दिर है । यहाँ कई विद्वान् हुए हैं। इस मन्दिर के मूलनायकं वासुपूज्य भगवान् है । धातु की मूर्तियां भी है । ताड़पत्र की कुछ प्रतियाँ है । शासन देवी-देवता है । मन्दिर की परिस्थिति साधारण है । यहाँ २५ जैन परिवार है । महासभा से अनुदान दिया गया है ।
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वेलले :- यह चैयार से ६ कि.मी. की दूरी पर है। यहाँ १२ जैन परिवार है। छोटा सा २००० वर्ष प्राचीन जिनालय है । जीर्णोद्धार चल रहा है। महासभा की सहायता मिली है । मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् है । धातु की मूर्तियाँ भी है । शासन देवता की मूर्ति है। यहाॅ के लोगों में धर्म की अभिरुचि साधारण है । धर्म प्रचार की आवश्यकता है ।
वेलियनल्लूर :- यह करन्दै से ६ कि. मी. पर है। यहाॅ एक प्राचीन मन्दिर है । मूलनायक महावीर स्वामी है । धातु की प्रतिमायें हैं। शासन देवताओं की मूर्तियाँ है। यहाॅ करीब ३० दिगम्बर जैन परिवार है । मन्दिर पर शिखर नहीं है । मन्दिर की हालत ठीक नहीं है । पूजापाठ भी बराबर नहीं चलता है। जीर्णोद्धार की जरूरत है।
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यह बड़ा गाँव है । तिरुप्पणमूर से दो किलोमीटर पर है। यहाॅ एक जिनमन्दिर है । अतिप्राचीन है । मूलनायक चन्द्रप्रभु भगवान् हैं । अन्य धातु की प्रतिमायें हैं। शासन देवताओं की प्रतिमाये भी है । देवी कुष्माण्डिनी का अलग मन्दिर है । मन्दिर की व्यवस्था अच्छी है । इसको महासभा की सहायता मिली है। साफ सुथरा है । प्रवेशद्वार का गोपुर बनवाकर कलश चढाया गया है। यहाॅ ३० जैन परिवार है। संपन्न भी है। धर्म के प्रति अभिरुचि है ।
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सलुक्क :- वन्दवासी से करीब ३ कि.मी. पर यह गाँव है। यहाँ प्राचीन खण्डहर में एक छोटा सा मन्दिर है। यहाँ तीर्थंकर की मूर्ति है। इस भगवान् को अजैन लोग भी पूजते हैं । इस गाँव में १५ वर्ष पूर्व जमीन खोदते समय धातु की प्रतिमायें निकली थी परन्तु उन्हें सरकार ने अपने अधिकार में कर लिया है। यहाँ कोई श्रावक का घर नहीं है। पहले के जमाने में काफी जैन लोग रहे होंगे ? नहीं तो जिनालय होना, जमीन में प्रतिमायें निकलना कैसे संभव है ? शैव नैनार के कुछ घर है। वे पहले जैन थे। अब भी उनका आचार-विचार जैनों का सा है ।
बिरुदूर :- यह गॉव वन्दवासी से २ कि.मी. पर है। यहाँ जैनों के ६० घर है । आदिनाथ भगवान् का एक जिनमन्दिर है। यह मन्दिर आरकाड के नवाब (मुस्लिम राजा) के जमाने का है। इस मन्दिर के लिए नवाब की दी हुई जमीन है । मूलनायक यक्ष-यक्षी सहित है। शासन देवी का मन्दिर है। अन्य धातु की मूर्तियाँ हैं। मानस्तम्भ है । एक सभा मण्डप भी है। धर्म के प्रति लोगों में अभिरुचि है। जीर्णोद्धार की जरूरत है।
नेल्लियांगुलम :- यह विरुदूर से २ कि.मी. पर है। यहाँ एक जिनमन्दिर है । मूलनायक नेमिनाथ भगवान् है। अन्य धातु की मूर्तियाँ हैं । शासन देवताओं की मूर्तियाँ भी है । एक सभा मण्डप है जिसमें नेमिनाथ भगवान् का पूरा जीवन चरित्र चित्रित है। मुख्यद्वार के दॉयी ओर एक कमरे में वेदी है जिसमें चौबीस भगवान् विराजमान है। कुष्माण्डिनी देवी भी बगल में विराजमान है। यहाँ पर एक संपन्न, दानी एवं धर्मात्मा जयपाल नैनार नाम के व्यक्ति थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में लाखों रुपये दान में खर्च किये थे । यहाँ के मन्दिर का खर्च तथा उसका निर्वाह उन्हीं के जिम्मे में था । जहाँ कहीं भी पंचकल्याण होते उनका सारा खर्च स्वयं किया करते थे। वे जैन शास्त्र के अच्छे जानकार भी थे।
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सदाचारी थे । उनकी परंपरा के लोग यहीं रहते हैं। यहाॅ के मन्दिर की परिस्थिति अच्छी है । लोग धर्मप्रिय हैं । जैनों के ३० घर है I
विल्लिवनम् :- यहाॅ पर महावीर भगवान् का जिनमन्दिर है। साहू जैन ट्रस्ट की सहायता से कुछ जीर्णोद्धार हुआ है परन्तु अधूरा है। धातु की कई प्रतिमायें हैं। शासन देवताओं की प्रतिमायें भी है । शिखर निर्माण हुआ है। यहाॅ जैनों के २०-२५ घर हैं । यह गॉव नेल्यांगुलं से करीब २ कि.मी. है । प्रचार की आवश्यकता है। लोगों में धर्म की अभिरुचि है ।
पर
नल्लूर :- यहाॅ वृषभनाथ भगवान् का एक २००० वर्ष पूराना जिनमन्दिर है । धातु की कई प्रतिमायें हैं । शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं । यहाँ जैनों के ५० घर है । विशाल मन्दिर है । मन्दिर के दाहिनी ओर समवसरण की रचना है । चौबीस तीर्थंकर भगवान् संगमरमर के हैं । मुख्य द्वार के बायीं ओर पाण्डुक शिला है । यह प्राचीन है । मानस्तम्भ है । मन्दिर की दशा ठीक है । व्यवस्था साधारण है । यह गाँव वन्दवासी से १० कि.मी. पर है । बस की सुविधा है । धर्म की जागृति साधारण है ।
एरंबलूर :- यह एक छोटा सा गाँव है । यहाँ का जिनालय नष्ट हो गया है । केवल जमीन है । महावीर भगवान् की एक मूर्ति है। इसे एक प्रत्थर के ऊपर विराजमान कर रखी है । यहाँ सिर्फ ५ जैनों के घर है । ये लोग उक्त मूर्ति की भक्ति पूजा कर लेते हैं । यह मूर्ति भी २५०० वर्ष पूरानी
है
। सहायता की आवश्यकता है
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मुदलूर :- यह वन्दवासी से ६ कि.मी. पर है। यहाॅ बहुत पूराना जिनमान्दर है। यहाॅ जैनों
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के सिवाय अन्य लोग नहीं रहते हैं। यह पाँच गाँवों का एक ही मन्दिर था। अब लोगों ने अपने-अपने गॉव में मन्दिर बनवा लिये हैं । यहीं से तीन मठाधीश हो चूके हैं। यहाॅ पर जैनों के करीब ५० घर है। यहाॅ मूलनायक आदिनाथ भगवान् है। अन्य धातु एवं शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं । महासभा की सहायता से कुछ जीर्णोद्धार हुआ था परन्तु काम पूरा नहीं हुआ है। मानस्तम्भ है जिसमें भगवान् की मूर्तियाँ बनी हुई हैं । जीर्णोद्धार की आवश्यकता है ।
एलंगाड
(अतिशय क्षेत्र) यहाँ एक जिनालय है। मूलनायक आदिनाथ प्रभु है । श्रीनेमिनाथ भगवान् की मूर्ति भी है । यह चमत्कारी प्रतिमा है । इसकी ऊँचाई ८ फुट है और चौड़ाई ४ फुट है । यह धातु की है । अन्य मूर्तियाँ भी धातु की है। यहाॅ २५ जैनों के घर है। श्रद्धा-भक्ति काफी है । जीर्णोद्धार की आवश्यकता है ।
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वंगारम :यहाँ एक जिनमन्दिर है । मूलनायक श्रीआदिनाथ भगवान् है । यह वन्दवासी से ५ कि.मी. पर है । यहाँ करीब ४० श्रावकों के घर है । यह गॉव पोन्नूरमलै से ३ कि.मी. पर है I यहाॅ का मन्दिर प्राचीन है । गोपुर जीर्ण हो गया है । अन्य धातु की प्रतिमायें हैं । शासन देवताओं की मूर्तियॉ है । श्रावक लोगों की भक्ति भावना जागृत है । कुछ जीर्णोद्धार हुआ है और भी होना है, कार्य अपूर्ण है।
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सात्तमंगलम् :- यह वन्दवासी से ३ कि.मी. पर है। यहाॅ श्रावकों के करीब ६० घर है I चन्द्रप्रभ भगवान् का जिनमन्दिर है । यह बहुत प्राचीन है । ऊँचा मानस्तम्भ है। एक ही पत्थर से निर्मित है । मन्दिर की दशा अच्छी है। कुछ जीर्णोद्धार हुआ है किन्तु अधूरा है, पूरा होना आवश्यक है । अन्य धातु की प्रतिमायें भी है। यहाॅ के श्रावकों में श्रद्धा-भक्ति कम है। नवयुवकों में तो बहुत कम है । जीर्णोद्धार की बड़ी आवश्यकता है । धर्म प्रचार की भी बड़ी आवश्यकता है । नवयुवक धर्म से अलग होते जा रहे हैं। उन्हें सुधारने की जरूरत है । गाँव की परिस्थिति साधारण है 1
गूडलूर :- यह एक छोटा सा गाँव हैं। यहाॅ श्री कुंथुनाथ भगवान् का जिनालय है । अत्यन्त विशाल मानस्तम्भ है । सभामण्डप है । पद्मावती देवी की प्रतिमा चिताकर्षक है । अन्य धातु की प्रतिमायें है । यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां हैं । कुन्दकुन्द महाराज की चरण पादुकायें है । मन्दिर का गोपुर कलापूर्ण है परन्तु शिथिल है। जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। मन्दिर की हालत ठीक नहीं है। यहाँ श्रावकों के ३० घर है । यहाँ के लोग जिन धर्म में अभिरुचि रखते हैं। कोल्हापुर के वर्तमान भट्टारक श्रीलक्ष्मीसेन भट्टाचार्य की यही जन्म-भूमि है । यह विद्वानों की नगरी रही है। हजारों वर्ष प्राचीन है ।
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अगरकोरक्कोट्टे 1:- यह तेल्लार के पास है। यहाॅ श्रावकों के लगभग १२ घर है । श्रीभगवान् पार्श्वनाथ स्वामी का छोटा सा जिनालय है। धातु की मूर्तियाँ भी है । जीर्णोद्धार किया जा रहा है । यहाँ पढ़े-लिखे लोग रहते हैं। धर्म प्रचार की आवश्यकता है ।
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पेरिय कोरक्कोट्टै :- यह अगरकोरक्कोट्टे के पास है। यहाॅ २००० वर्ष प्राचीन आदिनाथ भगवान् का सुन्दर जिनालय है। धातु की प्रतिमायें काफी है। तीन चौबीसी की प्रतिमा विशेष आकर्षक है । मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ है। यहाॅ जैनों के ६० घर है। पढ़े-लिखे लोग ज्यादा है । गॉव से दूर एक चट्टान पर चरणपादुकायें हैं। बगल में पिच्छी कमण्डुलु सहित मूर्ति उत्कीर्ण है । चट्टान पर चढ़ने की १०-१२ सीढ़ियों है । किसी मुनिराज का समाधि स्थल मालूम पड़ता है । फिलहाल यहाँ पंचकल्याणक हुआ है । महासभा से अनुदान दिया हुआ है ।
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अरुंगावर : (चित्तरुकावूर) यह एक छोटा सा गाँव है जो कि जंगम्बूण्डी के पास है । दोनों गॉवों में मिलकर करीब १५ श्रावकों के घर है । जंगम्बूण्डी में मन्दिर नहीं है । अरुगावू में आदिनाथ भगवान् का जिन मन्दिर है। धातु की प्रतिमायें हैं। मन्दिर छोटा है परन्तु जीर्णावस्था में है। जीर्णोद्धार की बड़ी आवश्यकता है ।
मंजपट्टु :- यह गॉव देसूर से ५ कि.मी. पर है। यहाॅ १५०० वर्ष पूराना मल्लिनाथ भगवान् का जिनालय है । इसका जीर्णोद्धार हो चुका है। पंचकल्याणक भी हो गया है। यहाॅ ३० श्रावकों के घर है । अन्य धातु की प्रमिमायें हैं। यक्ष-यक्षिणियों भी है। यहाॅ ताड़पत्र के शास्त्र भण्डार है। महासभा से अनुदान दिया गया है।
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सीयमंगलं :- मंजपट्टु से डेढ़ कि.मी. पर सीयमंगलं नाम का गाँव है । वहॉ जैन नहीं है । एक जमाने में खूब रहे होंगे। उस गाँव के पहाड़ पर एक गुफा है। गुफा के ऊपर चट्टान पर तीन मूर्तियां उत्कीर्ण है । वे भगवान् पार्श्वनाथ, महावीर भगवान् और बाहुबली भगवान् हैं । मूर्तियाँ नयनाभिराम है । ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ हैं । सुना जाता है कि गुफा के अन्दर पाँच फुट की मूर्ति थी । गुफा का द्वार बन्द न होने के कारण दुष्ट लोगों ने उसे खण्डित कर दिया है। अब वह मूर्ति चेन्नई के म्यूजियम में है। पहाड़ आजकल आर्कोलेजिकल डिपार्टमेंट में है। मूर्ति करीब डेढ हजार साल पहले की होनी चाहिए। शासन देवताओं की मूर्तियां है, उन्हें गॉव के अजैन लोग पूजते हैं । यह स्थान देसूर से ३ कि.मी. पर है। गुफा आदि को देखने से पता चलता है कि वह मुनिराजों का निवास स्थान रहा था । वे वहाँ तप करते हुए पास के गाँवों में जाकर आहार लाया करते थे । जहाँ कहीं भी पहाड़ और गुफा होगी वहॉ पर जिन प्रतिमायें अवश्य होंगी, क्योंकि तमिलनाडु में एक जमाने में आठ हजार मुनिराज विहार एवं संचार करते थे । वे मुनिगण अधिकांश गुफा में ही रहा करते थे । तप के लिए वही अनुकूल एवं एकान्त स्थान होता था ।
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तेन्नात्तूर :- तेन्नात्तूर गॉव मंजपट्टु से २ कि.मी. पर है। यहाॅ एक जिनमन्दिर है । मूलनायक भगवान् महावीर स्वामी है । पाषाण एवं धातु की प्रतिमायें बहुत । शासन देवताओं की प्रतिमायें भी है । दिगम्बर जैन परिवार के ३० घर है । मन्दिर का जीर्णोद्धार होकर वेदी प्रतिष्ठा भी हो गई है । भगवान् को यथास्थान विराजमान कर दिया गया है । धर्म-कर्म पर लोगों की श्रद्धा है । यहाँ धर्म का प्रचार होना चाहिए ।
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इसाकुलत्तूर :- यह गाँव तेन्नात्तूर से २ कि.मी. पर है। एक जिनमन्दिर है । मूलनायक भगवान् महावीर स्वामी है । पाषाण और धातु की मूर्तियाँ भी है । सभी मूर्तियाँ नयनाभिराम है । परिक्रमा पर तीन मूर्तियाँ दीवार के अन्दर उत्कीर्ण है। यहाॅ कूष्माण्डिनी (धर्मदेवी) देवी की अलग वेदी है। देवी की मूर्ति चार फुट ऊँची है। हर शुक्रवार के दिन लोग आते हैं और मनौती करते हैं । वर्षारंभ के दिन भीड़ ज्यादा होती है। जैनों के घर १० है । मन्दिर का जीर्णोद्धार कार्य हुआ है । महासभा और दानी महानुभावों की सहायता भरपूर रही है ।
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:- यह कुलत्तूर से दो कि.मी. पर है। यहाँ आदिनाथ भगवान् का जिनमन्दिर
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सेंदमंगलं :- यह गॉव वन्दवासी से पश्चिम में है। यहाँ का मन्दिर प्राचीन है । यह मुस्लिम नवाब के सहयोग से निर्मित है। इसे फिर से नया बना रहे हैं। महासभा की सहायता मिली है। लोग यथाशक्ति दान देकर जीर्णोद्धार कर रहे हैं। काम अधूरा पड़ा है। गोपुर का काम पूरा हो चूका है बाकी काम होना है। धन का अभाव है। कई साल से वर्षा की कमी है। प्रतिमायें कमरे में विराजमान है। यहाँ जमीन से चार प्रतिमायें निकली है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है। धातु की प्रतिमायें है। यक्ष-यक्षिणियॉ भी है। यहाँ करीब २५ जैन श्रावकों के घर है । जीर्णोद्धार की आवश्यकता है।
ए5बूर :- यह वन्दवासी से ५ कि.मी. पर है। यहाँ जिनमन्दिर है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है । मन्दिर का थोड़ा जीर्णोद्धार हुआ है, शेष होना है। धातु की मूर्तियाँ है। शासन देवताओं की मूर्तियाँ भी है। ताड़पत्र के कुछ ग्रन्थ हैं । यहाँ श्रावकों के ३० घर है। धर्म की अभिरुचि ठीक है फिर भी धर्म प्रचार की आवश्यकता है।
आयलवाडी :- यह एउंबूर से ६ कि.मी. पर है। छोटा सा गाँव है, एक जिनमन्दिर है । मूलनायक आदिनाथ भगवान् है । इस मन्दिर का जीर्णोद्धार होकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई है। मन्दिर सुन्दर है। पाषाण की एवं धातु की प्रतिमायें है। शासन देवताओं की भी प्रतिमायें है । यहाँ करीब २० श्रावकों के घर है। धर्म के प्रति श्रद्धा साधारण है। धर्म का प्रचार करें तो और भी दृढ़ बन सकती है । महासभा का अनुदान दिया गया है।
विलुक्कं :- यह गाँव चित्तामूर के पास है । चित्तामूर से करीब ३ कि.मी. पर है । यह जिनमन्दिर है। मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् है । एक पार्श्वनाथ की प्रतिमा चॉदी से भी निर्मित है, अन्य
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धातु की प्रतिमायें हैं । यहाॅ अर्थात् इस प्रान्त में सभी जगह अधिकांश मूर्तियां समवसरण युक्त एवं प्रभामण्डल सहित | विशाल मानस्तम्भ है । मन्दिर की व्यवस्था अच्छी है। यहाॅ पद्मावती देवी चमत्कारयुक्त है । लोग इसकी मनौति करते है । इसके नाम से शुक्रवार के दिन एकासन करते हैं। आसपास के लोग आकर पूजा आदि करते हैं। यहाॅ के तालाब पर आचार्य गुणसागर के चरणद्वय विराजमान है । नूतन वर्षारंभ के दिन इसकी पूजा होती है ।
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एलमंगलं : - यह विलुक्कं के पास का गाँव है । यहाँ एक जिनमन्दिर है। जैनों के १० घर है । धर्म के प्रति जागरुकता कम है । धर्म प्रचार की बड़ी आवश्यकता है ।
अगलूर :- यह चित्तामूर से ८ कि.मी. पर है। यहाॅ आदिनाथ भगवान् का जिनालय है । इसका जीर्णोद्धार हुआ है । व्यवस्था अच्छी है । मन्दिर के सामने मानस्तम्भ है । एक सभा मण्डप है । क्षेत्रपाल का मन्दिर है । धातु की बहुत सी प्रतिमायें है । यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ भी है । शास्त्र भण्डार है । यहाँ ४० जैनों के घर है । इस गाँव में विद्वान् लोग ज्यादा रहे। इस गॉव से दो भट्टारक हुए है
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अत्तिपाक्कं :- यहाँ दो जिनमन्दिर है। एक अनंतनाथ भगवान् का है दूसरा महावीर भगवान्
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। अनन्तनाथ भगवान् के मन्दिर में कई धातु की मूर्तियां है । पाषाण की ५ मूर्तियां है । एक चॉदी की मूर्ति भी है। शासन देवताओं की मूर्तियां हैं। यह प्राचीन मन्दिर है। श्रावकों में संगठन का अस्तित्व कम है। जिसके कारण मन्दिर की व्यवस्था ठीक नहीं है। श्रावकों के ३० घर है । लोगों में धर्म की रुचि साधारण है । धर्म प्रचार की आवश्यकता है ।
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नेमेली :- यह अत्तिपाक्कं से एक किलोमीटर पर है। यहाॅ नूतन जिनमन्दिर बन रहा है 1 मूलनायक नेमिनाथ भगवान् है । कई धातु की प्रतिमायें हैं। शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं । यह २००० वर्ष प्राचीन मन्दिर है । यहाँ श्रावकों के ३० घर है
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वीडूर :- यहाँ आदिनाथ स्वामी का जिनालय है । यह १५०० वर्ष प्राचीन है । इस गॉव में श्रावकों के करीब ५० घर है । इस मन्दिर में १५० ताडपत्र की प्रतियाँ हैं । ये सब संस्कृत और प्राकृत में हैं। यहाॅ करीब ६० से ज्यादा जिन प्रतिमायें हैं। यह गाँव तिण्डिवनं से २५ कि.मी. पर है। अक्षय तृतीया और दशहरे के समय उत्सव मनाये जाते हैं। अभिषेक पूजारी ही करता है। तमिल प्रान्त में ऐसी ही हालत है | श्रावक-श्राविकायें भगवान् के दर्शन करने आते हैं। खुद अभिषेक करने की आदत कम है । यहाॅ चार-पाँच साल के पहले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी। यहाॅ के महानुभाव हुम्बुचं के भट्टारक रहे । उन्हीं के द्वारा ताडपत्र की प्रतियां तैयार की गई है। उन में अच्छे-अच्छे शास्त्र होंगे। खोजकर देखने की जरूरत है । महासभा का अनुदान रहा है ।
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वेल्लिमेटुपेट्टै :- यहाॅ का जिनालय साफ-सुथरा है । व्यवस्था अच्छी है । मूलनायक अनन्तनाथ स्वामी है । मानस्तम्भ है। पद्मावती देवी का मन्दिर है । यह देवी चमत्कारयुक्त है I धातु की काफी प्रतिमायें हैं। शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं । इस गाँव में करीब ३० जैन परिवार है । यह तिण्डिवनं और वन्दवासी रोड़ पर है । महासभा से अनुदान दिया हुआ है I
पेरणी : :- यह वीडूर से ८ कि. मी. पर है। यहाँ १५०० वर्ष प्राचीन जिनालय है। मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् है । अत्यन्त कलात्मक मूर्ति है । कूष्माण्डिनी, पद्मावती, धरणेन्द्र- इन तीनों की अलग-अलग वेदियाँ है। यहाॅ धातु की प्रतिमायें २० हैं । सुना जाता है कि यहाॅ पर १०० जिनमन्दिर थे। ऐसी अवस्था में श्रावकों की आबादी कितनी रही होगी ? यह सोचने की बात है। वह एक स्वर्णिम जमाना था । आज की बात अलग है, करीब २५ घर जैनों के हैं। कहा जाता है कि जमीन से मन्दिर निकला था । उस में पद्मासन पार्श्वनाथ, खड्गासन पार्श्वनाथ, पद्मासन महावीर स्वामी की मूर्तियाँ निकली। उन्हें सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया है। मन्दिर की व्यवस्था ठीक-ठीक है । महासभा की तरफ से सहायता दी गई थी । उससे पूरा काम नहीं हो सका । काम अधूरा है। प्रचार की आवश्यकता है ।
पेराऊर :- यह एक बड़ा गाँव है। यहाॅ का मन्दिर २००० वर्ष प्राचीन है। प्रथम गोपुर द्वार पाँच मंजिल का है । तामिल प्रान्त के अन्दर प्रायः जिनालयों का प्रवेशद्वार इसी प्रकार का रहा करता था । विशाल मानस्तम्भ है । बायीं ओर आदिनाथ भगवान् का जिनालय है । मानस्तम्भ के आगे सभा-मण्डप है । धातु के करीब ४० बिम्ब है । शासन देव - देवियों की मूर्तियां है । मन्दिर की हालत साधारण है । इस गाँव में ३० दिगम्बर जैन परिवार है। पद्मावती देवी का अलग मन्दिर है । यहाँ
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के लोगों की स्थिति प्रायः अच्छी है । धार्मिक भावना कम दिखती है। लोग भद्र स्वभावी है। प्रचार करने की बड़ी आवश्यकता है।
उप्पुवेलूर :- यह बड़ा गाँव है । इसमें जैनों के ४० परिवार है । यहाँ सुन्दर जिनालय है। लोग धर्मप्रिय एवं संपन्न है । परंपरा से भक्त है । मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ है। मन्दिर विशाल एवं मनोहर है । मूलनायक भगवान् आदिनाथ प्रभु है । धातु की प्रतिमायें बहुत है। शासन देवताओं की मूर्तियां है । क्षेत्रपाल का अलग मन्दिर भी है। मानस्तंभ है । सुन्दर गोपुर है । धर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति साधारण है।
आलग्रामम् :- यह गाँव टिंडीवनम से २० कि. मी. पर है। यहाँ ऋषभनाथ प्रभु का जिनालय है। भगवान् महावीर निर्वाण २५०० वें महोत्सव के समय पर स्थापित धर्मचक्र स्तूप है । मन्दिर सुन्दर एवं मजबूत है। तमिलनाडु के हर एक मन्दिर में नैवेद्य बनाने का एक अलग कमरा रहता है । उसमें पूजारी भगवान् के लिए नैवेद्य तैयार करता है। यहाँ एक प्रथा और है कि सभी भगवानों का अभिषेक नहीं किया जाता किन्तु सिंहासन पर एक भगवान् को विराजमान कर उसी का पंचामृत से अभिषेक होता है। यहाँ धातु की अनेक मूर्तियां है । गणधर परमेष्ठी की भव्य प्रतिमा जपमुद्रा के रुप में पीछी कमण्डलु सहित है। पाण्डुकशिला भी है। यहाँ हर साल आषाढ़ माह में ८ दिन तक ब्रह्मोत्सव होता है। श्रावकों की भक्ति भावना अच्छी है। यहाँ श्रावकों के ४० घर है ।
सेण्डियंबाक्कं :-- यह गाँव आलग्राम से ४ कि. मी. पर है । छोटा सा गाँव है । एक दिगम्बर जैन मन्दिर है । मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ है लेकिन अधूरा है। धातु की प्रतिमायें है। शासन
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देवताओं की प्रतिमायें भी है। मूलनायक श्वेत पाषाण के हैं । अत्यन्त सुन्दर है। यहाँ २५ श्रावकों के घर है । आवश्यक त्यौहारों पर उत्सव मनाते हैं । चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि का व्रत भी करते हैं । तामिलनाडु में जैन महिलाओं में यह प्रथा प्रचलित है कि हर एक महिला पूर्णिमा के दिन एकासन करती है।
परमण्डूर :- यह प्राचीन गाँव है । यहाँ दो दिगम्बर जैन मन्दिर है । यहाँ विद्वान् लोग रहा करते थे। इस मन्दिर में ताडपत्र के सैकड़ों ग्रन्थराज थे । अब नहीं है। चोरी हो गये हैं । एक आदिनाथ स्वामी का मन्दिर है । दूसरा चन्द्रप्रभ भगवान् का है । धातु की काफी मूर्तियां हैं । कुछ वेदी पर है और कुछ अलमारी में है। जिनालय हजारों वर्ष प्राचीन है । कूष्माण्डिनी देवी की मूर्ति नयनाभिराम है । शासन देवताओं की मूर्तियाँ हैं । महासभा द्वारा कुछ जीर्णोद्धार हुआ है लेकिन अधूरा है । मानस्तम्भ और ध्वज स्तम्भ है । आचार्य निर्मलसागरजी की चरणपादुकायें विराजमान है। सबसे पुरातन मन्दिर जो गाँव से जरा दूर पर है , उसका जीर्णोद्धार हुआ है। अब वहाँ शास्त्र भण्डार नहीं है। पहले था । मन्दिर के चारों और जैन लोगों का निवास है। यहाँ करीब ६० श्रावकों के घर है। लोग धर्म श्रद्धालु हैं।
तिरुनरुंकुन्ट्रं :- यह अत्यन्त प्राचीन अतिशय क्षेत्र है। यह तिरुक्कोयिलूर से १८ कि.मी. पर है। यह मन्दिर पहाड़ पर है। ऊपर चढने के लिए सीढ़ियों की व्यवस्था है। इसमें पार्श्वनाथ भगवान् को 'अप्पाण्डैनाथर' के नाम से पूजते हैं। यहाँ एक चन्द्रनाथ भगवान् का जिनमन्दिर भी है।
यहाँ कई शिलालेख मिलते हैं । कुलोत्तुंग चोलराजा के नौवीं सदी में 'वीरसेगाकाडवरायर' ने
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पाठशाला के लिये ४८ हजार टेक्स दान दिया था। राजराज देव के १३ वें वर्ष में दूसरी पाठशाला को दान देने का विवरण दूसरे शासन शिलालेख से मालूम पड़ता है। यह दान पुष्पदन्त नाम के आचार्य को सौंपा गया था । अप्पाण्डैनाथर का चैत्र मास उत्सव और पौषमास उत्सव चलाने के लिए जमीन दान में दी गयी थी। इस बात को त्रिभुवन चक्रवर्ती के समय का शासन बतलाता है ।
यहाँ से कुछ आगे निषिद्ध स्थान है। लोहे के कंटीले तार लगे हैं । यहाँ कुछ संलेखना वाले साधुओं की समाधि है । यह पहाड़ी सरकार के संरक्षण में है। यहाँ एक चेतावनी अंग्रेजी भाषा में एक पट्ट पर इस प्रकार है -
This hill called" Thirunathan Kuru" was a piace of penance of the jain monks, from early times. According to the incription datable to 1st to 4th cent. A.D. found here. on Chandra Nandi Acharya fasted unto death 57 days. An other incription dateble to 10 century A. D. records that one Bhattarak also fasted for 10 days and died. So this hill, like many other hills of Tamil Nadu Tirumalia, Vallmalai, etc., seems to have been the place chosen for the Jain monks to do their Sanlekhana Penance.
इससे स्पष्ट है कि आचार्य चन्द्रनन्दी ने ५७ दिन का उपवास कर यहाँ समाधि ली और भट्टारकश्री १० दिन का उपवास कर समाधिस्थ हुए, अतः यह उत्तम तपोभूमि है ।
यहाँ का क्षेत्र जैनों के पास है। कहा जाता है कि गुणभद्र मुनिराज के नेतृत्व में 'वीरसंघ' यहाँ रहा था । यहाँ दो गुफायें है । प्रवेशद्वार पर उन्नत शिखर है । गुफा के सामने ध्वजस्तम्भ है । प्रवेश करते ही चन्द्रप्रभ भगवान् की गारे से निर्मित प्रतिमा दिखती है। प्रकोष्ठ में यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां
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है, बीच में गुफाद्वार है। प्रवेश करते ही दाहिनी ओर पर्वत भित्ति पर उत्कीर्ण श्री १००८ पार्श्वनाथ प्रभु की चमत्कारयुक्त अतिशय मनोज्ञ यक्ष-यक्षिणी सहित खड्गासन मूर्ति है। इसके चमत्कार से आकृष्ट जैन-जैनेतर लोग दूर-दूर से आकर पूजा पाठ करते हुए मनौति करते हैं तथा अभीष्ट फल प्राप्त करते है।
अन्य धातु की मूर्तियां हैं। विशाल परिक्रमा है। बायीं ओर विशाल मण्डप है , मध्य में पद्मावती देवी का मन्दिर है। इसके पश्चिम में कुछ कमरे हैं। नीचे एक धर्मशाला है। यहाँ हर साल मई माह में १० दिन का ब्रह्मोत्सव मेला लगता है। हजारों लोग आकर शोभा बढ़ाते हैं । इस मन्दिर का अच्छे ढंग से जीर्णोद्धार होकर प्रतिष्ठा भी हो चुकी है। नरकाक्षी (सम्यग्दर्शन) व्रत वाले ४२ दिन व्रत करने के बाद वहाँ आकर उसकी पूर्ति करते हैं। एक जमाने में यहाँ आठ हजार जैन परिवार थे। उसका प्रमाण यह है कि 'तिल्लै मूवायिरं तिरुनरुंकुन्द्रं एण्णायिरं' यानि लोकोक्ति अब भी कही जाती है कि चिदाम्बरम में तीन हजार और तिरुनरुंकुन्द्र में आठ हजार जैन थे । यहाँ धातु प्रतिमा की चोरी हुई थी। चोर अपने आप आकर पकड़ा गया। इससे इस क्षेत्र का चमत्कार जाना जा सकता है। वर्तमान में यहाँ जैनों के दो ही घर है और एक पूजारी है परन्तु यह महान् अतिशय क्षेत्र है।
यह गाँव चेन्नई से तिरुचिरापल्ली जाने के रास्ते पर है । उलुन्दूरपेट उतर कर तिरुवन्नै नल्लूर से (रोड़ से) पिल्लैयार कुप्पं जाना है। वहाँ से यह क्षेत्र ५ कि.मी. पर है । बस की व्यवस्था है । महासभा के फण्ड से इसके जीर्णोद्धार कार्य में सहायता मिली है।
तिरुक्कोयिलूर :- यहाँ के कृष्ण मन्दिर का ध्वजस्तंभ जैनस्तम्भ सा मालूम पड़ता है । इससे अनुमान किया जाता है कि यह मन्दिर पहले जैन मन्दिर रहा होगा। यहाँ के राजाओं में बहुत से राजा जैन थे।
दादापुरं :-- इसका पूराना नाम 'राजराजपुरं' था । यहाँ के कृष्ण मन्दिर के शासन में बताया गया है कि यहाँ जैन मन्दिर था । यह शासन राजकेशरीवर्मा राजराजदेव का है। दूसरी बात यह है कि चोल राजा की बहन ‘कुन्दवै देवी' ने अपने नाम से 'कुन्दवै जिनालय' बनवाकर उस मन्दिर के लिए कुन्दवै देवी ने सोना, चॉदी के बर्तन, मोती, जमीन आदि दान किया था। इस राजकुल देवी ने पोलूर तालूका तिरुमलै में और तिरुच्चि तिरुमलैवाडी में जैन मन्दिरों को बनवाया था ।
पल्लिचन्दल :-- (तिरुकोविलूर तालूका) यहाँ की छोटी पहाड़ी पर एक जैन मन्दिर है। यहाँ बाहुबली भगवान् की मूर्ति है । यहाँ का शासन ई.१५३० का विजयनगर अच्युतदेव महाराजा का है।
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इसमें जम्बै विजयनायनार के द्वारा दिया हुआ मन्दिर (जैन) के दान का विवरण है । इसके अलावा 'वालैयूरनाट्टु पेरुंपल्लि' नाम के जैन मन्दिर के सहायतार्थ एक झील दान में दी गई है । इससे दो कि.मी. पर राजराजचोल का शासन कण्डरादित्य पेरुपल्लि नाम के जैन मन्दिर का विवरण बताता है । यह भी बतलाता है कि यहाॅ एक 'अंजिनान पुगलिडं' भयभीतों का रक्षा स्थान था । यहाॅ कोई भय से आवे तो उसकी रक्षा की जाती थी ।
सोलवण्डिपुरं :- (तिरुक्कोविलूर तालूका) यहाँ के कीरनूर गॉव में 'किरनांपाटै' नामकी एक चट्टान है । उस पर भगवान् गोमटेश्वर और पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ और साधु लोगों की शय्यायें हैं । यहाँ पर एक जमाने में जैन लोग अत्यन्त वैभव के साथ निवास करते थे । दूसरी बात यह है कि सोलवाण्डिपुरं के आण्डि पहाड़ पर दसवीं सदी का शासन मिलता है। यहाॅ की चट्टान में शासनदेवी पद्मावती माता, गोमटेश्वर भगवान्, पार्श्वनाथ भगवान् और महावीर स्वामी की मूर्तियां है । शासन देवी पद्मावती माता, इसके पास देवियगरं एलन्दूर में पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति है । इससे पता चलता है कि साऊथ आर्काड जिले के अन्दर जैन लोग एक जमाने में अधिक संख्या में रहते थे और उनके जैन मन्दिर भी थे । इस सभी जगह पर जैन मन्दिरों की जमीनें थी । जीर्णोद्धार की आवश्यकता है ।
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तिरुच्चिरापल्लि जिला
उरैयूर :- यह चोल राज्य का प्रधान शहर था । यहाॅ जैन लोग और जैन मन्दिर थे । 'सिलप्पधिकारं' नामक जैन काव्य के पात्र कोवलन - कण्णकी के साथ जैन आर्यिका 'गौडंनदी अडिगल' माताजी ने यहाॅ के जिन भगवान् की वन्दना की थी। फिर मथुरा (दक्षिण) नगरी की ओर तीनों प्रस्थान किये थे । यह बात सिलप्पधिकारं मथुरा काण्ड में उल्लिखित है । ई. दूसरी सदी में यहाॅ जैन लोग अधिक संख्या में निवास करते थे। यह बात नीलकेशी ग्रन्थ आजीवकवाद सर्ग में बतलाई गई है ।
कुत्तालं :- तेन्कासि तालूका कुत्तालं की गुफा और पहाड़ी में श्रमण मुनिगण रहा करते थे । तिरुमलैवाडी :- यहाॅ कुन्दवै देवी ने एक जैन मन्दिर बनवाया था । अभी नहीं है । पुदुकोटै जिला
सिद्धनवासलषे :- पुदुकोटै तमिलनाडु का अत्यन्त प्राचीन धार्मिक-सांस्कृतिक नगर । अब यह एक बड़ा गाँव जैसा है। यहाॅ के सरकारी म्यूजियम में अनेक तीर्थंकरों की प्रतिमाएं, देवी-देवताओं के बिम्ब, शिलालेख, फोटो आदि संग्रहीत है । यह सामग्री २००० वर्ष
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रहा
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पूरानी होनी चाहिए । इस कस्बे से लगभग १५ मील की दूरी पर अत्यन्त प्रसिद्ध ऐतिहासिक विशाल पर्वत चित्तनवासल (सिद्ध निवास) है ।
सिद्धन्नवासन
सिद्धन्नवासन गॉव के पूर्व में २ कि. मी. पर एक लम्बा पहाड़ है । इस पहाड़ के ऊपर शय्यायें (पत्थर के तख्त) है। इस स्थान पर जैन मुनिगण तप किया करते थे । इसमें पत्थर को काटकर बनाया हुआ १६०० वर्ष प्राचीन एक गुफा मन्दिर है । यह स्थान तमिलनाडु भर में अत्यन्त प्रसिद्ध है । पूराने जमाने में यह स्थान जैन साधुओं का केन्द्र था । इस गुफा मन्दिर के सामने उत्तर दक्षिण में २३ फुट लम्बा और १२ फुट चौड़ा एक मण्डप है। इसमें कई खम्बे है यह सभी एक ही चट्टान में खोदे हुए हैं। इसे देखने से बहुत आश्चर्य होता है । इस मण्डप के उत्तर में छत्रत्रय के साथ अरिहन्त भगवान् की मूर्ति है। दूसरी ओर पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति है । मण्डप के चारों ओर चित्रकला अंकित है । इसे देखने के लिए रोज सैकड़ों लोग आते हैं। ये चित्र जरा घीसे हुए हैं। फिर भी चित्ताकर्षक है । जो जैनधर्मी हैं, उन्हें ऐसे परम पवित्र स्थलों का एक बार दर्शन करना अतीव आवश्यक है । जिससे जन्म सफल अवश्य होगा, क्योंकि हजारों एवं लाखों मुनिराजों के चरणस्पर्श से यह स्थल एकदम पावन है । अतः यह स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस मण्डप के बीच में चट्टान को खोदकर तैयार किया हुआ गुफा मन्दिर है। इसकी लम्बाई और चौड़ाई ११ फुट है। ऊँचाई करीब ६ फुट है । इस मन्दिर के अन्दर छत्रत्रय के साथ अरिहन्त भगवान् की तीन प्रतिमायें हैं । इस गुफा मन्दिर के निर्माणकर्ता जगत्प्रसिद्ध पल्लव राजाधिराज महेन्द्रवर्मन है। यह राजा ई. ६०० से ६३० तक चोल साम्राज्य का अधिपति था । एक कोने में उदारचित्त इस राजा की मूर्ति भी बनी हुई है। इस मन्दिर के उत्तर-पूर्व में एक स्वाभाविक गुफा है। इस गुफा के अन्दर जाना हो तो एलडिपट्टं रास्ते से जाना
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होगा । इस गुफा में पूराने जमाने में श्रमण साधुगण अपनी आत्माराधना (तप) किया करते थे। यहाँ पर ब्रह्मीलिपि में शिलालेख है । यह शिलालेख कई तीर्थंकर भगवानों के तामिल नाम बतलाता है। साधुओं के भी दूसरा शासन बतलाता है कि अवनिशेखन श्रीवल्लुवन के जमाने में इलंगोतमन नाम के बुद्धिमान व्यक्ति ने उक्त भीतर के मण्डप का जीर्णोद्धार किया था । _यहाँ के बगीचे में एक टूटी हुई जिनमूर्ति है । उस पर हल्का सा ठोकने पर मधुर नाद निकलता है । कई शिलालेख ये बतलाते हैं कि जैन मन्दिरों के लिए किसी व्यक्ति ने पल्लिचंदं के नाम जमीन दान में दी थी।
कुलत्तूरतालू का कुन्नाण्डार (कोयिल-मन्दिर) गुफा मन्दिर, जैन मन्दिर है। यहाँ के नारियल के बगीचे में दो जिन प्रतिमायें हैं । समणरमेडु में जमीन से मूर्ति मिली है । तेक्काटूर में एक जैन मूर्ति है। कइण्गुडि में एक जैन मूर्ति मिली है। कीलैतानियम गाँव में कुछ जैन मूर्तियां हैं। इन सबको देखने से पता चलता है कि प्राचीन काल में यहाँ और आसपास में बहुत अधिक जैन लोग रहते थे । कलह के समय सब नष्ट कर दिया गया है। नहीं तो इतनी मूर्तियाँ और श्रमणों के चिह्न नहीं मिल सकते थे। इसे पंचमकाल का दोष ही कहना चाहिए । धर्म की अवनति और अधर्म की उन्नति हुई है।
तंजाऊर जिला तंजाऊर ( सिटी,करदट्टाडी ) :- यह जिला है । यहाँ आदिनाथ भगवान् का जिनालय है । यह २५०० वर्ष प्राचीन है । यहाँ अनेकों धातु की प्रतिमायें हैं । शासन देवताओं की मूर्तियां हैं। प्रदक्षिणा में सरस्वती देवी मन्दिर हैं । ब्रह्मदेव, ज्वालामालिनी और कुष्माण्डिनी के भी मन्दिर है। मन्दिर की व्यवस्था साधारण है। दो-तीन साल के पहले प्रतिष्ठा भी हुई थी। यहाँ श्रावकों के २० घर है। जिन भक्ति अच्छी है।
तंजावूर (कोटै) यहाँ जैनियों के १५ परिवार है । एक चैत्यालय है । कई धातु की प्रतिमायें हैं । शासन देवतओं की मूर्तियाँ हैं । यह व्यक्तिगत चैत्यालय है । तंजाऊर करन्दै से तीन कि.मी. दूर है। यह शहर के भीतर है।
तिरुवारूर:- यह शहर है। प्राचीन काल में यहाँ जैन लोग समृद्धि के साथ रहते थे। उस समय यहाँ का तालाब छोटा था । उस तालाब के चारों ओर जैन लोगों के मठ पाठशाला और जमीन आदि थे। ई.सातवीं सदी के पहले यहाँ सांप्रदायिक उपद्रव हुए और जैन लोगों को यहाँ से भगा दिया गया था। शैव पेरियपुराण बतलाता है कि 'दण्डि अडि' के जमाने में इस तरह का कलह हुआ था।
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इस कलह के कारण जैनों के मठ, मकान आदि तोड़कर नष्ट कर दिये गये थे। अब वह तालाब १८ एकड़ विस्तीर्ण में है। पहले इसके किनारे पर जैनों की जमीनें थी। उन सबसे बलपूर्वक छीनकर तालाब बड़ा कर दिया गया ।
सेन्दलै :- तंजाऊर तालुके में यह गाँव है । इसके शैव मन्दिर की दीवार पर एक शिलालेख है । वह बतलाता है कि नक्कनीति नाम की महिला ने जैन मन्दिर के लिए सोना दान दिया था। इससे पता चलता है कि यहाँ जैन लोग रहते थे और जैन मन्दिर था तथा उसको सोना दान दिया गया था ।
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मन्नारगुड़ी :- यह तालूका है । पूराने जमाने में यहाँ जैन लोग अधिक संख्या में रहते थे । अब यहाँ जैनों के ३० घर है । यहाँ एक विशाल जैन मन्दिर है। यहाँ का राजगोपाल स्वामी मन्दिर (अजैन) का ध्वजस्तम्भ जैनों के मानस्तम्भ के समान होने से यह मन्दिर जैन मन्दिर रहा होगा। मन्नारगुडी का जैन मन्दिर किले के समान सुदृढ़ है । मन्दिर का मूलनायक भगवान् मल्लिनाथ है । क्षेत्रपाल और ब्रह्मदेव की वेदी है । देवी ज्वालामालिनी का अलग मन्दिर है। यह देवी शक्तिशालिनी मानी जाती है। लोग इसकी मनौति करने दूर-दूर से आते हैं । अजैन लोग भी आते हैं । अभीष्ट फल पाते हैं । यहाँ धातु की कई मूर्तियां है। शासन देवताओं की मूर्तियां भी है। तंजाऊर चैत्यालय से भी कुछ मूर्तियां लाकर रखी गई है। स्वस्तिक वेदारण्यं अनन्त राजय्यन मुदलियार के घर वालों की तरफ से इसका जीर्णोद्धार परी तरह से होकर पंच कल्याण प्रतिष्ठा भी हो चुकी है। अब मन्दिर सुन्दर बन गया है। उसकी हानि किसी तरह से नहीं है । मन्दिर की जमीन है । यह मन्दिर
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बहुत पूराना है । तंजाऊर जिले में मुगलों के समय ही ज्यादा कलह हुआ था । न जाने यह मन्दिर कैसे बच गया है। कहते हैं यहाँ लव-कुश ने आकर पूजा की थी। अतः मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के समय का यह मन्दिर है।
दीपंगुडी :- यह नन्निलं तालूका में है। यह भी एक जैन लोगों का मुख्य स्थल है। यहाँ 'जयंगोण्डार' नाम के कविवर ने 'दीपंकुडिपत्तु' के नाम से अत्यन्त भावपूर्ण भक्तिरस युक्त दस पद्यों की रचना कर , भगवान् के महात्म्य को मुखरित किया है। यह दसों पद्य भक्ति के दस रत्न हैं , इन्हीं महात्मा ने 'कलिंकत्तुपरणी' की रचना की थी। यह ग्रन्थ उपलब्ध है।
इस मन्दिर के बारे में शासन भी है। इस गाँव का नाम 'अरसवनकाडु' है। मूलनायक आदिनाथ भगवान् हैं । धातु की कई मूर्तियाँ हैं । शासन देव-देवियाँ है । मन्दिर के सामने विशाल अहाता है । क्षेत्रपाल और ज्वालामालिनी का अलग मन्दिर है। यह मन्दिर ईटों से बना हुआ है । ताम्र ध्वजदण्ड है। शिलापट्ट में मन्दिर जीर्णोद्धार का इतिहास है। मन्दिर विशाल है। यहाँ पहले दस दिन ब्रह्मोत्सव होता था। यह मन्दिर आर्चिलोजी डिपार्टमेंट के हाथ में है। वेदारण्यं तम्बाकू (स्वस्तिक) वालों की तरफ से अच्छे ढंग से जीर्णोद्धार हो गया है। अभी दो साल पहले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी हो चुकी है। मन्दिर सुरक्षित हो गया है।
अमणकुडि :- अमण का अर्थ है- निर्ग्रन्थ । इस नाम से पता चलता है कि यहाँ प्राचीन काल में जैन लोग रहते थे। यहाँ राजराजेश्वर मन्दिर (अजैन) का शासन है। उसमें इन सब बातों का विवरण है।
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तंजाऊर जिले में जो शासन मिलते हैं। उनसे जाना जाता है कि बहुत सी जगह जैन लोग निवास करते थे। सब जगह 'पल्लिचन्द' के नाम से दान का महात्म्य बतलाया गया है। कालदोष के कारण सद्धर्म जो अहिंसामय धर्म है, उसका हास हुआ। विद्वेषियों ने हास किया। हिंसामय धर्म की अभिवृद्धि हुई । कलिकाल का दोष ही कहना चाहिए और क्या कहें ?
रामनाथपुरं जिला
अनुमन्तक्कुडि :- रामनाथपुरं के उत्तर में ४५ कि.मी. पर है । इस गाँव में मलवनाथ (मल्लिनाथ) स्वामी का जैन मन्दिर है। यहाँ पर एक शासन है । यह ई.१५३५ का है। विजयनगर साम्राज्य के काल में लिखा गया है। इसमें 'जिनेन्द्रमंगलं' गाँव का नाम है। यहाँ अब भी जैनों के २ घर है । एक जैन मन्दिर है । उनमें चार धातु की प्रतिमायें हैं ।
मदुरै (मदुराई) जिला
मदुरै महानगरी वास्तव में दिगम्बर जैन पर्वतों की नगरी थी । यहाँ के २१ पर्वत तीर्थंकरों की उत्कीर्ण मूर्तियां ध्यान गुफाओं एवं शयन-पाषाण-पद्यों से युक्त थे। सर्वत्र निरन्तर धार्मिक एवं सांस्कृतिक वातावरण था । यहाँ का प्रसिद्ध मीनाक्षी मन्दिर उस समय कूष्मांडिनी देवी-मन्दिर के रूप में विख्यात था । अन्य देवियों और तीर्थंकरों की भव्य एवं विशाल प्रतिमायें थी। इसमें पूराने राजमहल तक जाने वाली सुरंग भी है। अब सरकार द्वारा प्रतिबन्धित है।
कहते हैं यहाँ शंकराचार्य (६ वीं शती) के समय में सहस्रों जैन मुनियों को अपमानित कर घानी
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में पेल दिया था । अब भी यहाँ के वार्षिकोत्सव में जैन साधुओं के पुतले जलाये जाते हैं । (संभवतः अब सरकारी प्रतिबन्ध के कारण यह प्रथा बन्द है।) अब कुछ पर्वतों पर ही जैनत्व के अवशिष्ट चिन्ह विद्यमान है । मदुरै के आसपास जो पहाड़ और चट्टान है उनमें ब्राह्मीलिपि में लिखा हुआ एक शासन ई.पूर्व दो शताब्दी का मिलता है। शैव पेरियपुराणं के आधार से पाण्डिय देश में जैन धर्म शोभायमान था । कून पाण्डियन नेडुमारन जैन धर्मानुयायी था । उस समय 'ज्ञानसंबन्धन' ने राजा को रानी के द्वारा शैव बना लिया था। जिसके कारण से हजारों जैन साधु शूली पर चढ़ा दिये गये थे अथवा मार दिये गये थे। ज्ञानसंबन्धन के समय में ही जैन धर्म का हास हुआ , परन्तु सर्वथा नष्ट नहीं हुआ। यहाँ आसपास के पहाड़ों पर जैन साधु तप करते थे। वे आठ पहाड़ हैं । इन पहाड़ पर आठ हजार मुनि लोग रहते थे। उन सब को शूली पर चढाकर मार दिया था। इस बात को शैवपुराणं स्वयं बतलाता है , जैसे- 'एण्णेरुकुन्द्रत्तु एण्णायिरवलं एट्र एरिनारकल' इसका तात्पर्य यह है कि आठ पहाड़ों के आठ हजार मुनि लोग शूली पर चढाये गये । अब इन पहाड़ों के बारे में विचार करेंगे।
यानैमलै :- तामिल भाषा में पहाड़ को मलै कहते हैं । यानै को हाथी, 'यानैमलै' अर्थात् हाथी-पहाड़ । यह मदुरै के पास ६ कि.मी. पर है। यह जैन साधुओं के आठ पहाड़ों में से एक है। इस पहाड़ में गुफा और ब्राह्मीलिपि का शासन है। लिपि अनुसंधान वालों का कहना है कि यह दो हजार साल के पहले का है। इस गुफा में श्रमण साधुगण रहते थे। बाद में जैन मुनिराजों को भगाकर यहाँ एक वैष्णव मन्दिर बनवा दिया गया है। अब भी वह वैष्णव मन्दिर मौजूद है। इस मन्दिर के शासन से पता चलता है कि यह मन्दिर ई. ७७० में बनवाया गया है। एक शासन संस्कृत में है। दूसरा पूरानी तमिल भाषा में है।
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- वैष्णव लोग जैन एवं बौद्ध मन्दिरों को ले लेते और वहाँ वैष्णव मन्दिर बनवाते थे । यहाँ भी यही हुआ । परन्तु इसकी एक कथा जोड़ दी गई । वह यह है कि श्रमण लोगों ने अपनी मंत्र शक्ति के द्वारा मदुरै नगरी को नाश करने के लिए हाथी भेजे । शिव ने उसे बाण के द्वारा मार डाला । वह हाथी पहाड़ के रूप में बच गया । वही आजकल का यानैमले है। इस तरह कपोल कल्पित कथाओं को बनाकर जोड़ दिया था। उसके भक्त उसे सच मानने के लिये तैयार बैठे हैं फिर क्या ? सच-झूठ और झूठ सच बन जाता है। मत या धर्म मोह के कारण लोग अन्धविश्वासी हो जाते हैं उन्हें सुधार नहीं सकते।
नागमलै :- यह भी मदुरै के पास का एक २००० वर्ष प्राचीन पहाड़ है। इसका रूप सॉप के समान होने से इसे नागमलै (सॉप पहाड़) कहते हैं । इस पहाड़ पर भी श्रमण साधुगण रहा करते थे। बाद में हिन्दू लोगों ने श्रमण साधुओं को भगा दिया था। इसके लिए भी एक झूठी कथा तैयार की गई थी। वह है- श्रमण लोगों ने मदुरै नगरी को खत्म करने के लिए अपनी मंत्र-शक्ति के द्वारा बड़े भारी सॉप को भेजा । शिवजी ने अपने बाण से उसे मार डाला । वही सॉप पत्थर के रूप में यहाँ बैठ गया है । इसके अलावा और भी कथायें जोड़ दी गई हैं ।
जनश्रुति है। यहाँ कभी सहस्रों नाग थे। वे सभी परम शान्त और अहिंसक थे। अतः यह पर्वत नागमलै कहलाया ।
इस नागमले पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां हैं। चढाई में एक छोटा सा मन्दिर है। उसमें एक छोटी सी जिन-प्रमिमा है । क्षेत्रपाल, कुष्माण्डिनी और पद्मावती प्रतिमायें भी हैं । इन सभी को अजैन लोग अन्य नामों से पूजते हैं। इसके ऊपर चढ़ने के बाद एक जिन बिम्ब है। पर्वत के शिलाखण्ड में मनोहर आठ प्रतिमायें उत्कीर्ण है । बायीं ओर पहले पहल खड्गासन गोमटेश्वर भगवान् हैं तदनन्तर फणा सहित ४ खड्गासन प्रतिमायें हैं , बीच में पद्मासन महावीर प्रभु हैं और दो पद्मासन प्रतिमायें भी हैं, उनमें से एक को खण्डित कर दिया गया है । इनके नीचे शीतल जल धारा प्रवाहित है । उस के ऊपर जाने पर मन्दिर का भग्नावशेष है ।
इससे आगे खण्डित मानस्तम्भ है। जिनालय का चिहून है । पर्वत के पीछे की ओर एक चट्टान के नीचे छोटी गुफा है उसमें तीन जिन प्रतिमायें हैं , दोनों ओर शासन देवता है। गुफा के द्वार पर चट्टान में पद्मासन महावीर स्वामी विराजमान हैं। यह मूर्ति अष्ट प्रातिहार्य सहित है । पर्वत के ऊपर चढ़कर देखने से चारों ओर सुन्दर नयनाभिराम दृश्य दिखाई देते हैं । अनेकों विदेशी लोग भी देखने आते हैं। पीछे से चढ़ने के लिए कच्ची सड़क है ।
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इडपगिरि :- इसे सोलै मलै भी कहते हैं । 'परिपाडल' नाम के ग्रंथ के अन्दर इसके बारे में बताया गया है। यानैमलै के समान यह पहाड़ भी वैष्णवों का स्थल बन गया है। यानैमलै के सदृश यहाँ भी गुफा और ब्राह्मीलिपि का शिलालेख है । प्राचीनकाल में यहाँ जैन साधुगण निवास करते थे। वृषभ का परिमार्जित रूप ‘इड़प' बना है । वास्तव में यह वृभषगिरि अर्थात् जैनों का वृषभनाथ पहाड़ था । यहाँ से भी जैन धार्मिक साधु महात्माओं को भगा दिया गया था । इस पहाड़ के बारे में भी झूठी कथायें तैयार कर ली गई थी।
पशुमलै :- यह पहाड़ भी मदुरै के पास है ।श्रमणों के द्वारा भेजी गई मायामयी गाय को सोमनाथ शिव के वृषभ ने मार दिया था । इसलिए वह 'पशु यानि गाय' यहाँ पत्थर के रूप में बैठ गई। हर एक बात के लिए शिवजी की वकालत ली जाती है। उन लोगों की कथा का सारांश यह है कि श्रमणों को मारने के लिए और शैव धर्म की रक्षा के लिए साक्षात् शिवजी प्रत्यक्ष होकर काम करते थे। जबकि इस तरह करने वाले तो ये ही लोग थे परन्तु शिवजी पर आरोप कर देते थे ।
तिरुप्परं कुन्ट्रं :- यह मदुरै क पास का पहाड़ ह । इस पहाड़ में श्रमण साधुओं की गुफायें, शय्यायें तथा उनके दर्शनार्थ जिन-बिम्ब और ब्राह्मी शिलालेख है। (१) यहाँ पर शय्यायें करीब ८० है। जिन मन्दिर को तोड़कर शिव मन्दिर बना लिया गया है, २५०० फुट लम्बी चट्टान में २ जिन प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । इसके पास एक छोटा सा मन्दिर है। उसके पीछे चट्टान में जिन प्रतिमायें हैं। कुछ भग्नावशेष भी पड़े हैं । इसकी तलहटी में पानी भरा रहता है । चारों ओर हरियाली दिखती है। सर्वत्र शिला आसन है। शायद मुनिराजों के बैठने के लिये हों । पीछे की ओर सैकड़ों गुफायें हैं। उनमें कई सौ शय्यायें हैं । दुर्भाग्य से वहाँ जाने का रास्ता ठीक नहीं है ।
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मटुपट्टीमलै :- यह मदुरै से ३ कि.मी. पर है । यहाँ मूर्तियां नहीं है । बीस शय्यायें हैं । एक लम्बी गुफा है। उसमें साधुओं के शयन के लिए शयनागार है। यहाँ पर श्रमण साधुगण रहकर तप किया करते थे।
करलीपट्टीमलै :- यह नागमलै के पश्चिम में ५ कि.मी. पर है। चट्टान पर दो प्रमिमायें उत्कीर्ण है । महावीर स्वामी की एक पद्मासन प्रतिमा है , चालीस शय्यायें हैं । एक विशाल गुफा है और एक छोटी गुफा है जो सुन्दर चट्टान पर बनाई हुई है। यहाँ मुनिराज आसीन होते रहते होंगे।
सिद्धर्मले :- इस नाम से पता चलता है कि श्रमण साधुगण यहाँ रहते थे। इसमें गुफायें और पत्थर की शय्यायें हैं। यहाँ सात समुद्र नाम का एक जलाशय है । इसको मेटुपट्टी पहाड़ भी कहते हैं।
समणमलै :- यह मदुरै से १८ कि.मी. पर है। यहाँ का पहाड़ पूर्व-पश्चिम की ओर है। इस एगड़ पर इधर-उधर सब जगह तीर्थंकरों की प्रतिमायें बनी हुई है। इसका अपर नाम अमणर्मलै है। तामिल भाषा में निर्वाण के इच्छुक जैन साधु को अमण कहते है। अमण कहें या श्रमण कहें दोनों एक ही है। इसके पास आलंपट्टी और मुत्तिपट्टी नाम के दो गाँव हैं । इनके पास पहाड़ पर पश्चिम की
ओर 'पंचवरपडुक्कै' पाँच लोगों की शय्या नाम का एक स्थान है। यहाँ की चट्टान में पत्थर की शय्यायें खोदी हुई हैं। ये साधु महात्माओं के लिए रही होंगी ।यह जगह गुफा के समान है। यहाँ पर ब्राह्मीलिपि का शिलाशासन है । यह ईस्वी पहले का है। इन शय्याओं के पास एक पीठ पर जिन भगवान् की प्रतिमा खोदी हुई है। चट्टान के पश्चिम में दो प्रतिमायें बनी हुई हैं। उसके नीचे तामिल शासन है। यह ईस्वी दसवीं सदी का है ।
इस श्रमण पहाड़ के दक्षिण-पश्चिम की ओर एक गुफा है । इसके बायीं ओर चट्टान पर तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमा बनी हुई है। इस प्रतिमा के नीचे तामिल शासन है। वह ई. दसवीं सदी का है। गुफा के अन्दर चन्द्राकार चट्टान पर पाँच मूर्तियाँ हैं । एक शासन देवी है। दूसरी ब्रह्मदेव यक्ष की है। इसके बगल में छत्रत्रय के साथ तीन तीर्थंकर प्रतिमायें हैं। इसके नीचे तामिल भाषा का ई. दसवीं सदी का शासन है।
सेट्टिपोडुवु गाँव के पूर्व में समणमलै पर पेच्चिपल नाम का स्थान है। यहाँ के छोटे पहाड़ पर पंक्ति के रूप में तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमायें बनी हुई हैं । इसके नीचे तामिल शासन है । ये ई. आठवीं या नौवीं सदी के हैं ।
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इस तरह अलग-अलग व्यक्तियों से प्रतिमायें बनवाई गयी है। उन के पूरे नाम लिखने से ग्रंथ बढ़ जायेगा ।
उत्तम पालयम
मदुरै जिले में इस गॉव के उत्तर-पश्चिम पर तीन फर्लांग दूर एक बड़ी चट्टान है । उस पर तीर्थंकर भगवान् की २१ प्रतिमायें बनी हुई हैं। इसके नीचे निर्माताओं के नाम भी अंकित है । इसके पास में एक जलाशय है। लोग उसमें से पानी भर ले जाते हैं। पानी स्वच्छ एवं निर्मल है ।
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मेत्तुपट्टीमलै, करलीपट्टीमलै, तिरूपरनकांड्रम्मलै आदि अनेक पर्वत इस समय ऐसे हैं जिनके ऊपर और अन्दर के अवशेषों एवं उत्कीर्ण बिम्बों आदि से जैनत्व के पुष्ट संकेत मिलते हैं 1 तिरुनेलवेली जिला
अरुगमंगलं :- वैगुण्ड तालुका मारमंगलं गाँव का शासन अरुगमंगलं का विवरण देता है । अरुग का अर्थ है 'अरहंत', इससे पता चलता है कि भगवान् अरहन्तदेव के नाम से यह गाँव रहा होगा । आज भी इस गाँव का नाम अरुगमंगलं है। इससे जान पड़ता है कि पहले यहाॅ जैन लोग रहते थे । तिरुचेन्दूर तालूका में आदिनाथपुरं नाम का गाँव है । आदिनाथ वृषभदेव का नाम है । गाँव का नाम भगवान् के नाम पर है। इससे मालूम पड़ता है कि यहाँ जैन लोग अवश्य रहते थे । इसीलिए गॉव का नाम आज तक भगवान् के नाम पर प्रसिद्ध है ।
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यह गॉव ऐयनार कोविल के नाम से पुकारा जाता है । यह कोविलपट्टी तालूका में है । संकर नयिनार कोयिल के पूर्व में १५ कि.मी. पर है। यहाॅ के पहाड़ की चट्टान
कलुगुमलै
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पर सैंकड़ों जिन प्रतिमायें हैं । सैकड़ों शासन भी है । पूराने जमाने में यहाँ और आसपास में जैन लोग अत्यधिक प्रसिद्धि के साथ रहे होंगे। इस पहाड़ पर सैंकड़ों साधुवृन्द अपने तप, ध्यान में लीन रहे होंगे । यह स्थान जैन एवं जैन मुनियों के लिए केन्द्र था । यहाँ के शासनों में महात्माओं के नाम गिनायें गये हैं।
जैसे कि गुणसागर भट्टारक के शिष्य सातदेव के द्वारा बनवायी गई मूर्ति, श्रीवर्द्धमान के शिष्य श्रीनन्दी शांति से बनवायी गयी मूर्ति, कनकवीर महानुभाव से बनवायी गयी प्रमिमा, शन्तिसेन महानुभाव से बनवाई गई प्रतिमा आदि.. इसके बारे में विशेष रूप से जानना है तो साउथ इण्डिया इन्सकीप्शन ग्रंथ में देख लेवें।
पूराने जमाने में यहाँ जैन सिद्धान्त पढ़ाया जाता था और एक शासन बतलाता है कि दान में इसके लिए जमीन दी गयी थी । यहाँ की प्राकृतिक छटा अत्यन्त मनमोहन है । पर्वत की उपत्यका में एक मन्दिर है। यह गुफा को काटकर बनाया गया है। यहाँ के लोग पहले अष्टान्हिका के समय रथोत्सव मनाते थे। यह जैन परंपरा का प्रतीक है। पर्वत की तलहटी में १५-२० कुण्ड है जिनमें निर्मल जल भरा रहता है । ऊपर यहाँ करीब २०० जिन प्रतिमायें हैं और यक्ष-यक्षिणियां भी हैं । यहाँ पर शासन देवताओं की परंपरा हमेशा रही थी।
गुफा के अन्दर अजैन लोगों ने मुरुगनकोयिल बना रखा है। विशाल चट्टान के सामने वटवृक्ष है जिसकी छाया से यहाँ ठंडी बनी रहती है। इसके सामने अजैनों के तीन मन्दिर है । सुना जाता है कि यहाँ बलि(जीव हिंसा) दी जाती है । जीवरक्षा प्रचार सभा, चेन्नई के प्रयत्न से कहीं भी क्षुद्र देवी-देवताओं को बलि नहीं चढा सकते हैं । ऐसा बिल पास किया गया है। फिर भी छिप-छिपाकर कुछ दूरी पर कर डालते हैं।
विशेष बात यह है कि करीब २० साल के पहले आचार्य निर्मलसागरजी महाराज तामिलनाडु पधारे थे । वे यहाँ सारे स्थानों पर गये थे । कोई भी स्थान बाकी नहीं है जहाँ आचार्य महाराज नहीं पधारे हों । उनके कारण अहिंसा का जोरदार प्रचार हुआ था। उन्होंने कलुगुमले में चातुर्मास भी किया था । एक सौ साल से दिगम्बर जैन मुनियों का विहार न होने के कारण हर जगह उनका विरोध होता था। फिर भी उन्होंने निर्भीकता के साथ सभी स्थानों और सभी गांवों में विहार किया था । उसके बाद करीब १० साल के पहले पूज्य विजयामती माताजी का भी विहार हुआ था । त्यागियों का संचार होता रहे तो जैनधर्म का प्रचार अवश्य होता रहेगा। इसमें कोई शक नहीं है।
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( कोंगुनाडु) सेलम् कोयम्बत्तूर जिला सेलम :- यह जिले का प्रधान शहर है। यहाँ की नदी के किनारे एक जिनमूर्ति थी। दूसरी मूर्ति कलेक्टर के घर (बंगला) के और चर्च के बीच में थी अभी नहीं है। यहाँ एक नवीन मन्दिर है जो कि उत्तर भारत से आये हुए खंडेलवाल दिगम्बर जैनों ने बनाया है। मूलनायक भगवान् महावीर स्वामी है। खंडेलवाल दिगम्बर जैनों के १५ घर हैं। सभी संपन्न हैं और धर्म श्रद्धालु भी हैं । बराबर पूजा भक्ति करते हैं।
विजयमाल :- इराड़ तालूका में विजयमंगल रेल्वे स्टेशन से उत्तर में ५ कि.मी. पर पुत्तूर गॉव में एक जैन मन्दिर है। मूलनायक आदिनाथ भगवान है। यहाँ कई मूर्तियां हैं । विजयमंगलं में चन्द्रप्रभ तीर्थंकर का जिनमन्दिर है । पेरुंकथै नाम के तामिल काव्य के रचयिता कोंगुवेलिर का जन्म स्थान यही था । सिलप्पधिकारं तामिल काव्य के व्याख्याता ‘अडियाक्कुनल्लार' का जन्मस्थान भी यहीं बताया जाता है।
कोंगुवेलिर एक राजा था। संस्कृत और तामिल भाषा का प्रख्यात विद्वान् था । वह पेरुंकथै काव्य का कर्ता भी था । विद्वानों का भारी आदर करता था। इसलिए उक्त मन्दिर में पॉच विद्वानों की मूर्ति बनवाकर स्थापित की थी। आज तक वे मूर्तियाँ मौजूद है । इस राजा के बारे में विदेशी विद्वान् 'टून्निसन' का कहना है कि राजा ने तामिल विद्वानों का संघ ( The ideales of the tamil king) स्थापित किया था। यहीं तामिल संघ का स्थान था। इसके राजमहल की नौकरानी भी तमिल भाषा की विदुषी थी। यह बात आश्चर्य की है।
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दूसरे संघ वालों ने राजा की विद्वत्ता की परीक्षा करने के लिए कविता लिखकर भेजी थी। उसे देखकर उस नौकरानी का जवाब यह था कि इसके लिए राजा के पास क्यों जा रहे हो ? मैं स्वयं बता दूंगी, इतना कहकर तत्क्षण उसका जवाब दे दिया। राजघराने में विद्वत्ता की इतनी महिमा थी। अहो आश्चर्य ! चामुण्डराय की बहन 'पलप्पै' नाम की देवी इस मन्दिर में समाधि सल्लेखना के द्वारा आत्मसाधना कर स्वर्ग सिधारी थी। कोगुमण्डलशतकं नाम का ग्रंथ इन सभी बातों को स्पष्ट करता है। इस गाँव के पास एक छोटा सा पहाड़ है। उसमें गुफा और शासन है । यह ब्राह्मी लिपि में है, जो १८०० वर्ष पहले का है।
इसके पास 'तिंगलूर' में श्रीपुष्पदन्त भगवान् का मन्दिर है 'पूंतुरै' गाँव में भी पार्श्वनाथ भगवान् का मन्दिर है । पद्मावती देवी की मूर्ति है । 'वेल्लेडु' गॉव के पास खेत में आदिनाथ भगवान् का मन्दिर है। वहाँ के लोग भक्ति-भावना के साथ पूजा करते हैं । 'सिन्नावूर' में भी आदिनाथ भगवान का मंदिर है।
इन सभी आधारों से पता चलता है कि यह स्थान जैन धर्म का केन्द्र रहा था। आज वहाँ जैन पुजारी का एक ही घर है । मन्दिर के जीर्णोद्धार की बड़ी आवश्यकता है । महासभा से अनुदान दिया गया है। कार्य चल रहा है।
महाबलीपुरं :- यह जैन स्थल नहीं है । यहाँ चट्टानों पर शिल्प-कला के कई नमूने हैं । उनमें एक अजित तीर्थकर पुराण में कहे गये सगर चक्रवर्ती की कथा को प्रदर्शित करता है। इन उत्कीर्ण की हुई मूर्तियों को आजकल 'अर्जुनतप' कहते हैं । जो कि गलत रूप में कहा जाता है । वास्तविक बात
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यह है कि सगर राजा के पुत्रगण कैलाशपर्वत को घेर लेते हैं। उसके चारों ओर खाई बनाकर उसमें गंगा नदी के प्रवाह को प्रवेश कराते हैं, जिसके प्रवाह से देश, नगर नाश होने लगते हैं । भगीरथ उस प्रवाह को समुद्र में मिला देता है । इस कथा को बड़े सुन्दर ढंग से उस चट्टान पर चित्रित किया गया है। पल्लव राजा के जमाने में इसका निर्माण हुआ था। आजकल यह स्थान पर्यटन क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है । प्रतिवर्ष लाखों दर्शक इसे देखने आते हैं। यह स्थान चेन्नई से करीब ५५ कि.मी. पर है। चित्रकला के नमूने देखने लायक है । यहाँ के मूर्ति शिल्पकार प्रसिद्ध है।
____पांडीचेरी :- यहाँ खंडेलवाल दिगम्बर जैनों के १४० घर है। दो दिगम्बर जैन मंदिर है। नवीन पंचायती मन्दिर की प्रतिष्ठा भी हो चुकी है । स्थानीय दिगम्बर जैन लोगों के करीब २० घर हैं ।
कडलूर :- (ओटी) प्राचीन नगर है। यहाँ दिगम्बर जैनों के १५ घर है। श्री आदिनाथ भगवान् का प्राचीन जिनालय है। पहले यहाँ जैनियों पर बहुत अत्याचार हुए थे । हजारों जैन साधु-साध्वियों को कत्ल कर दिया गया था । पूराने समय में इस शहर का नाम 'पाटलीपुत्र' था । यह जैन धर्म का प्रधान केन्द्र था। यहीं से जैन धर्म का प्रचार होता था । यहाँ के मन्दिरों में कई धातु की मूर्तियाँ हैं। चॉदी की प्रतिमायें भी है। जिनालय शिखर-बद्ध है किन्तु हालत ठीक नहीं है। पूज्य आर्यिका विजयामती माताजी का यहाँ चातुर्मास हुआ था । महासभा से अनुदान दिया गया है । जीर्णोद्धार कार्य चल रहा है।
पनरुटी :- यह भी पूरातन नगर है। पहले यहाँ भी जैन लोग अधिक संख्या में रहे होंगे। स्थानीय जैनों के घर नहीं है परन्तु दिगम्बर खंडेलवाल जैनों के ५ घर हैं । यहाँ एक चैत्यालय है। जिनालय बनकर प्रतिष्ठा भी हो चुकी है।
कुंभकोणम् :- यह बड़ा शहर है। यहाँ स्थानीय दिगम्बर जैनों के करीब १५ घर हैं । यहाँ एक जिन मन्दिर है । मन्दिर छोटा है। जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। पहले यहाँ जैन लोग संपन्न थे परन्तु अब उतने नहीं है । मन्दिर के मूलनायक चन्द्रप्रभ भगवान् है । मन्दिर के पीछे नारियल का बगीचा है। धात् की करीब ४० मर्तियां हैं। शासन देवताओं की मूर्तियां भी है। इस भॉति इस स्मारिका में कई स्थानों का विवरण दिया गया है। प्राचीनकाल से यहाँ जैन धर्म के अनुयायीगण, जैन मन्दिर, जैन तीर्थं और साधु-साध्वियों की स्थिति का विवेचन है। उनकी परिस्थितियां , उत्थान-पतन और संघर्ष आदि की जानकारी भी दी गई है। __इससे पाठकगण समझ सकते हैं कि एक जमाने में तमिलनाडु प्रान्त में जैन धर्म अपना झंडा फहराता था । वह उसका युग हुआ करता था। जो वह अब बीत चुका है । वह अतीत हो गया है ।
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ऐसी परिस्थिति में भी यहाँ जैन लोग रहते हैं, मन्दिर है , धर्म का प्रचार है फिर भी यह याद रहें कि धर्म के उत्थान एवं पतन की ओर विवेक के साथ जागृति की जरूरत है , साथ ही एकता की भी।
१६८१ में श्रवणवेलगोला में भगवान् बाहुबली का महामस्ताभिषेक समाप्त होने पर आचार्यरत्न विमलसागरजी महाराज के आदेशानुसार आर्यिका गणिनि विजयमती माताजी ने अपने संघ को लेकर दक्षिण भारत में विहार करने का निश्चय किया । आर्यिका संघ ने पॉच चातुर्मास तमिलनाडु प्रान्त में करके यहाँ धर्म का प्रचार किया और स्थानीय जैन बंधुओं को सही मार्ग बताकर उनमें धर्म के प्रति जागृति जगाई।
उस समय आर्यिका संघ ने जिनमन्दिरों की दशा देखकर जीर्णोद्धार कराने का संकल्प किया । उसी संकल्प को दिगम्बर जैन महासभा तथा कुछ उत्तर भारत के विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा क्रियान्वयन किया जा रहा है।
आर्यिका संघ के धर्म प्रचार से वास्तविक रूप में, दक्षिण में जो जैन साधुओं की विरक्ति हो गई थी। उसे विराम लगा । उसके पश्चात् अनेक मुनि एवं आर्यिकाओं का दक्षिण भारत में विहार होता रहा और धर्म प्रभावना बढती गई ।
इतना होने के बाद भी यहां के प्राचीन जिन मंदिरों की हालत सुधरी नहीं और उन्हें जीर्णोद्धार की बहुत आवश्यकता है। पिछले ३ साल से अखिल भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थ जीर्णोद्धार कमेटी द्वारा अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है लेकिन यह भी पर्याप्त नहीं है। धन की कमी इस कार्य में रूकावट बनी हुई है।
अतः हम सभी का दायित्व है कि पूर्व आचार्यों की तपोभूमि के इन विशाल प्राचीन जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार में तन-मन-धन से सहयोगी बने ।
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तमिलनाडु के दिगम्बर जैन तीर्थों की चेन्नई से दूरी
(किलोमीटर में)
८८ कि.मी. १०० कि.मी.
10%
कि.मी.
१. अलंगकुलम्
चेन्नई - तिरुतनी मार्ग २. आरपाक्कम
चेन्नई - कांजीपुरम - उथिरामेरूर ३. थिरूपारूथीकुन्द्रम(जिनकांची) कांचीपुरम ४. अगरकोराकोट्टाई कांजीपुरम - वन्दवासी(वंदवासी तीडवनम) ५. विरूअर
कांजीपुरम - वन्दवासी ६. गुडतुर
कांजीपुरम - वन्दवासी ७. एलॉगडू
कांजीपुरम - वन्दवासी ८. कप्पालुर
टीडीवनम - तिरूनामलई - पोलुर ६. कदडमलानूर टीडीवनम - तिरूनामलाई १०. किलनेल्लै
चेय्यार ११. किलपेन्नापुर टीडीवनम - तिरूनामलाई १२. किलसाथमंगलम कांजीपुरम - वन्दवासी १३. किलविल्लिवलम कांजीपुरम - वन्दवासी १४. कोझप्पालूर वालाजापेट - आरनी १५. मद्राकोलापुर कांजीपुरम - वन्दवासी १६. मजापट्ट
कांजीपुरम - वन्दवासी - देसूर १७. मुदालूर
कांजीपुरम - वन्दवासी १८. मल्तिपटु
आरनी - तिरन्नामलाई १६. नल्लावनपालयम तिंडीवनम - तिरूनामलाई २०. नललूर
कांजीपुरम - वन्दवासी २१. नावल
कांजीपुरम - चैयार २२. नोल्लयागुलम कांजीपुरम - वन्दवासी २३. नेथाप्पकम
आरनी २४.ओथाल्वाडी
आरनी - देविकापुरम २५. पोन्नुर
कांचीपुरम - वन्दवासी
१३० कि.मी. ११२ कि.मी. १३५ कि.मी. १२० कि.मी. १६५ कि.मी. १८६ कि.मी. १२६ कि.मी. १७० कि.मी. ११५ कि.मी. १२५ कि.मी. १४७ कि.मी. १२० कि.मी. १३५ कि.मी. ११५ कि.मी. १३८ कि.मी. १७५ कि.मी. १३६ कि.मी. ११० कि.मी. १३५ कि.मी. १४२ कि.मी.
१५७ कि.मी.
१२७ कि.मी.
98
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२६.पेरानामल्लूर २७.सिधारूगानूर २८. सोलाई अरूगानूर २६. सोमासिपाडी ३०.थात्चूर ३१. थेसेंथामंगलम ३२. थिरूमलई ३३. तिरूपानामूर ३४. वैनियानाल्लुर ३५. वनगरम् ३६. वैल्लाई ३७.वेंकुडम ३८. अगालूर ३६.आलाग्रामम ४०. एइयिल ४१. कोल्लाकोलाथुर ४२. काल्लापुलियर ४३. काटुसिथामूर ४४.किल एडयालम ४५. मेलसिथायूर ४६.मोज्ञियानूर ४७.पेरूमुदूर ४८. पेरमपगाई ४६. उप्पुवेल्लूर ५०. थिरूनारंगकीडाई ५१. वालाथी ५२. विदुर ५३. वीरानामूर
वंदवासी - आरनी वंदवासी - देसूर वंदवासी - देसूर चेटपेट तीरूवन्नामलाई वालाजापेट - आरनी कांजीपुरम - वंदवासी वालाजापेट - आरनी कांजीपुरम - वेम्पाक्कम चेयार कांजीपुरम - वन्दवासी चेय्यार वंदवासी तींडीवनम - जिंजी तीडीवनम तींडीवनम - जिंजी तींडीवनम - विलीपुरम तींडीवनम - जिंजी तींडीवनम - जिंजी तीडीवनम - विलपुरम तीडीवनम तीडीवनम तींडीवनम तीडीवनम-जिंजी तींडीवनम चेन्नई-तिरूची-उलुदूरपेट तीडीवनम-जिंजी-चेतपेट तीडीवनम तीडीवनम - जिंजी
१५० कि.मी. १२६ कि.मी. १४० कि.मी. १७८ कि.मी. १४५ कि.मी. १२० कि.मी. १४५ कि.मी. ६५ कि.मी. १०५ कि.मी. ११० कि.मी. १०६ कि.मी. १११ कि.मी. १३२ कि.मी. १२० कि.मी. १४० कि.मी. १२२ कि.मी. १३२ कि.मी. १४५ कि.मी. ११२ कि.मी. १२५ कि.मी. १३५ कि.मी. १२० कि.मी. १२६ कि.मी. १२५ कि.मी. २५० कि.मी. १३३ कि.मी. १२४ कि.मी. १४० कि.मी.
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DIGAMBAR JAIN TEMPLES IN CHENGALPATTU AND CHENNAI DISTRICTS
Gummidipundid
6 Ponneri
Uthukottai
Pallipet
Chinnampedu Stevanpedu)
Anangular
Rod Hill
Tiruttani
Tiruvallur
MADRAS
Saidapet
Sriperumbudur
KANCHIPURAM
Jans Kancha
Mamundos
X
arpakkam
Chengalpattu
Mamallapuram
(Sculptura)
Uthlramerur
Madurantakam
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DIGAMBAR JAIN TEMPLES IN
SOUTH ARCOT AND NORTH ARCOT DISTRICTS
Vaniyambadi
Index to Numbers
1 Mullippatu
2 Nethapakkam
3 Thatchur
5 Renderipattu
6 Mandakolathur
7 Odalavadi
8 Kappalur
9 Vempakkam
10 Thirupparambur
11 keez Nelli
12 Velianallur
13 Vellai
14 Naval
15 Pernamallur
23 Solaiyarugavur
24 Chetharugavur
Tirupattur
16 Kozhappalur
17 Then Senthamangalam
18 Venkunam
19 Birudur
20 Keezsathamangalam
21 Vangaram
22 Ponnur
Gudiyattam
Chengam
25 Gudalur
26 Nelliyangalam 27 Keez Villavalam 33 Eyyil 28 Nallur
34 Valathi
29 Nallavanpalayam 35 Kallapuliyur 30 Somasipadi 36 Viranamur
Vallimala
Tiruvannamala
Kallakurichch
VELLORE
Thirumala
B
Poluro
8
30
Tinuppanmaal R
Thatchampadie
Arni
Thazhanoor
Tirukoilur
31 Keezpennathur 37 Mel Athipakkam 32 Kattumalayanur 38 Ethanemili
39 Agalur 40 Perumbugai 41 Kattusittamur 42 Alagramam
328 48
R
Thunarungkonde
Walajapet
Arcot
188
Korakatte
Thondur
Vedaly 254 Kam 388 Mal Malarsanoor Mahamoo 3817 8 Gingee 40
Ponnurhilis
822
Villupuram
Bas
Vridhachalam
43 Kiledayalam 44 Kallakulathur 45 Uppuvelur 46 Veedur 47 Karadipakkam
Karantha
Arakkonam
Selukki
18 Vandawasi Elangedu 26 24278 28 29
Thiruvathipuram
Vellimadupetta
Elamangalam
82
43
Chidambaram
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तीर्थंकरों के अंगरक्षक यक्ष-यक्षिणिया एका व्यावहारिक दृष्टि
- जयचन्दलाल बाकलीवाल जैन धर्म में प्रत्येक तीर्थंकर के गर्भ-कल्याणक से लेकर मोक्ष-कल्याणक के ठीक पूर्व तक लाखों देव, देवांगनाएँ, यक्ष-यक्षिणियाँ और इन्द्र-इन्द्राणी तक अनेक प्रकार के भक्तिभाव, सेवावृत्ति, अतिशय और चमत्कारों का प्रदर्शन शुद्ध मनोयोग पूर्वक करते हैं। रत्नों की वर्षा, उत्तम जलवायु, समभाव और सुकाल का वातावरण रहता है। अरिहन्त परमेष्ठी (तीर्थकर) के ४६ में से ४२ गुण तो अतिशय और चमत्कार के हैं। स्वयं तीर्थंकर इन्हें समभाव से लेते हैं। स्पष्ट है ये देव, देवांगनाएँ भगवान के निष्काम भक्त है । इनकी उज्ज्वल भक्ति से हम भक्तों को भी अपार प्रेरणा मिलती है । ये सभी महान् पुण्यात्मा है, निर्मल दृष्टि हैं । अतः इन सबके प्रति हमारे मन में आदरभाव और श्रद्धा जगना स्वाभाविक है।
हम एक वकील, पुलिस इन्सपेक्टर, डॉक्टर एवं राजनेता से उपकृत होने पर मस्तक झुकाकर एहसान मानते हैं, नाक रगड़ते हैं। किसी से लाभ होने पर भी कृतज्ञता प्रकट करते ही है । भक्ति तो व्यक्ति के माध्यम से गुणों का ही नमन है। तब एक तीर्थकर भक्त के प्रति हीनभाव रखें और उपेक्षा से देखें तो यह आत्मप्रवंचना के अलावा और कुछ नहीं है। सभी धर्मों में भगवान् के भक्तों के प्रति आदर और श्रद्धा की प्रशस्त परंपरा है । हम यदि इस प्रकट सत्य का उल्लंघन करेंगे तो अव्यावहारिक (अनप्रेक्टीकल) होकर रह जायेंगे और अधिक अल्पमत में आ जायेंगे। हमने लोक पक्ष की उपेक्षा का बहुत मूल्य चुकाया है, अब तो सावधान होना चाहिए । हमारी धार्मिक दृष्टि से देवी-देवता, यक्ष-यक्षिणी के प्रति भक्तिभाव या पूज्यभाव प्रकारान्तर से तीर्थंकर के देव भक्तों के प्रति सम्मान ही है।
भारतवर्ष में जो अतिप्राचीन जिनालय है उनमें अधिकतर दक्षिण में- विशेष रूप से तमिलनाडु एवं कर्नाटक में है। इन जिनालयों में सभी भव्य प्रतिमाओं के साथ यक्ष-यक्षिणी नियम से होते हैं। जब वे जिनेन्द्रदेव के चरणों में पूर्ण भक्ति से विराजमान है तो वे भी भव्य एवं सम्यगदृष्टि है। हमें भी उनसे प्रेरणा मिलती है । लक्ष्य तो आत्म स्वरूप की प्राप्ति ही है। इसलिए हम सब भी हजारों वर्षों से उनका आदर, सम्मान करते आये हैं, आशीर्वाद लेते आये हैं । हम सबका यह परम कर्तव्य है कि जहाँ पर जो परिपाटी हो , जो पूजा-पद्धति हो उनको उसी अनुरूप कायम रखें । देवी-देवता जो प्राचीनकाल से विराजमान है, उनको बराबर आदर देवें, उनसे प्रेरणा लेवे । उनको हटाने का विचार मन में भी न लावें । तभी हमारी संस्कृति कायम रह सकेंगी।
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यक्ष
यक्षिणी
गो वदन महायक्ष त्रिमुख यक्षेश्वर तुम्बरव मातंग विजय अजित
*
ब्रहन,
चक्रेश्वरी रोहिणी प्रज्ञप्ति वज्रश्रृंखला वज्रांकशा चक्रेश्वरी पुरुदता मनोवेगा काली ज्वाला मालिनी महाकाली गौरी गांधारी वैरोटी अनन्तमती मानसी महामानसी
तीर्थंकर नाम
श्री ऋषभदेवजी २. श्री अजितनाथ जी ३. श्री संभवनाथ जी ४. श्री अभिनन्दनस्वामी जी
श्री सुमतिनाथ जी श्री पद्मप्रभ जी श्री सुपार्श्वनाथ जी श्री चंद्रप्रभ जी श्री सुविधिनाथ जी
श्री शीतलनाथ जी ११. श्री श्रेयांसनाथ जी १२. श्री वासुपूज्य जी १३. श्री विमल नाथजी १४. श्री अनंत नाथजी १५. श्री धर्मनाथजी १६. श्री शांतिनाथजी १७. श्री कुन्थुनाथ जी १८. श्री अरनाथजी १६. श्री मल्लीनाथ जी २० श्रीमुनिसुव्रत स्वामी जी २१. श्री नमिनाथ जी २२. श्री अरिष्टनेमि जी २३. श्री पार्श्वनाथ जी २४. श्रीमहावीर स्वामी जी
ब्रहनेश्वर कुहार
षण्मुख
जया
पाताल किन्नर किम्पुरुष गरुण गन्धर्व कुबेर वरुण भ्रकुटि गोमेध पार्श्व मातंग गुहयक
विजया अपराजिता बहुरूपिणी कुष्मांडी
पद्मा
सिद्धायिनी
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भट्टारकों की महनीय परम्परा
अनिलकुमार कासलीवाल
जैन धर्म को जन-जन तक पहुँचाने में ऋषि-मुनियों एवं आचार्यों का सहयोग तो अनन्य रहा ही है साथ ही साथ जैन भट्टारकों ने भी जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना अमूल्य योगदान प्रदान किया है। इस प्राचीन परम्परा के बारे में शास्त्रोक्त एवं प्राचीन आधारों से एकत्रित करने का विनम्र प्रयास किया जा रहा है।
दक्षिण भारत में अभी भी श्रवणबेलगोला, मूडबिद्री, कारकल, हुम्मच, कनकगिरी, तिरूमलाई, मेलचीतामूर एवं महाराष्ट्र में कारंजा, मलखेड़, लातुर, कोल्हापुर, जिन्तुर नारेड़, देवगिरी, नागपुर, आसागाँव तथा राजस्थान में नागोर, प्रतापगढ़, जयपुर, अजमेर, ऋषभदेव, चितोड़, मानपुर, मेरहट, सागवाड़ा, महुआ, डूंगरपुर, ओश मध्यप्रदेश में इन्दोर, ग्वालियर, सोनागिरी में भट्टारकों के केन्द्र रहे हैं एवं उनका धर्म के प्रचार-प्रसार में विशिष्ट एवं महत्नपूर्ण प्रभाव रहा था ।
भट्टारक परंपरा नवम शताब्दि से प्रारंभ होकर लगभग तेरहनीं शताब्दि तक सुस्थिर हुई थी। श्रुतसागरसूरी के अनुसार बसंतकीर्ति द्वारा यह प्रथा आरंभ की गई थी।
साधुओं के आचार-विचार में धीर-धीरे शैथिल्य आने से वि. सं. १३६ में स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय विभेद हो गया था । मुनियों में संरक्षण एवं सम्प्रदाय भेद की प्रवृति बढ़ गई थी। विकासशीलता और व्यापकता का दृष्टिकोण नहीं रहने से भट्टारक परंपरा का उदय हुआ एवं इस वस्त्रधारण प्रथा को मुस्लिम राज्य के समय में अत्यधिक बल मिला । साथ ही साथ श्रावकों का सहयोग भी इस प्रथा के उन्नयन में रहा । श्रावकों द्वारा इन्हें पूजा-पाठ और आवास हेतु मंदिर-मठ, खेत आदि के स्वामित्व का अवसर दिया गया था । उत्तर प्रान्तों में कुछ विद्वानों द्वारा इस प्रथा का मर्यादातीत विरोध होने के कारण यह प्रथा वहाँ बन्द सी हो गई है।
यद्यपि दिगम्बर जैन आम्नाय में मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, श्रावक एवं श्राविका के अतिरिक्त कोई अन्य मूलतः स्वीकृति नहीं है, लेकिन “भट्टारक" का पद इन सबके अतिरिक्त होते हुए भी शताब्दियों से चला आ रहा है । उनके द्वारा जेन परम्परा, शास्त्रों के संरक्षण एवं ज्ञानाराधना के लिए जो केन्द्र स्थापित किये गये उन्हें 'मठ' की संज्ञा दी गई। यह न तो मन्दिर है न मकान ही। इन दोनों के बीच की पवित्र स्थिति का यह मठ दिग्दर्शन है। यह मठ संक्रमण युग की देन है, ऐसा भी
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कहा जाता है। इन्हीं मठों में तो शास्त्र संरक्षण एवं उनका प्रतिलिपिकरण तथा अध्ययन-अध्यापन आदि की समुचित व्यवस्था की जाती रही है ।
कठिन दायित्व संभालने वाले, संस्कार से एकदम विरक्तचित, अगाध वैदुष्य के धनी एवं जिनमें जिनवाणी की सेवा, संरक्षण एवं प्रभावना की उत्कट अभिलाषा हो तथा व्यवस्था में पूर्ण निपुणता हो, ऐसे व्यक्ति को मठों का मठाधीश एवं भट्टारक बनाया जाता रहा है।
___ इन भट्टारकों के मठों में सामान्यतः विद्याभ्यासी छात्रों के अध्ययन-अध्यापन की विशेष व्यवस्था होती थी। इसलिए भी “मठ' की यह परिभाषा प्रसिद्ध हुई है । ( वत्युसार १२६ ) में “मठ मन्दिरतीति" अर्थात् मठ मन्दिर है क्यों कि उसमें ज्ञान की प्रभावना एवं ज्ञान का अभ्यास किया जाता है । इसलिये यह एक ज्ञान का मन्दिर है।
भट्टारक भी त्यागी, गुणी, साधनाशील एवं महापण्डित होते हैं । भट्टारक की विशेषता का वर्णन करते हुए आचार्य इन्द्रनन्दि ने नीतिसार में लिखा है
सर्वशास्त्र कलाभिज्ञो, नानागच्छाभिवर्द्धकः ।
महात्मना यः प्रभावी, भट्टारकः इत्युच्यते ।। अर्थात् जो सभी आगम शास्त्रों और कलाओं के ज्ञाता होते हैं, मूल संघ के अनेकों गण-गच्छों के अभिवर्द्धक महान् धर्मप्रभावक होते हैं वे ही भट्टारक कहलाते हैं ।
आज जो हमारा बहुमूल्य साहित्य एवं ताड़ पत्र आदि के अनेकों आगम ग्रन्थ सुरक्षित मिलते हैं, उनकी सुरक्षा का मूल एवं एक मात्र कारण ये मठ एवं इनके भट्टारक ही रहे हैं । अगर आज इनका संरक्षण नहीं होता तो दिगम्बर जैन समाज का स्वरूप एवं अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जाता । इन भट्टारकों ने हमेशा अपने प्रबंध कौशल से हमारे धर्मग्रन्थों की सुरक्षा की एवं उनका अध्ययन-अध्यापन संचालित किया है । धर्म प्रभावना में इनका योगदान अतुलनीय रहा है । धर्म संरक्षण एवं तीर्थ रक्षण के कार्य से प्रभावित होकर समाज भी इन्हें प्रभूत आदर-सम्मान हमेशा से देते आ रहा है ।
आज कोई कसी घटना या कारण विशेष से सम्पूर्ण भट्टारक परम्परा को यदि कोई लांछित या तिरस्कृत करना चाहता है तो वह उसकी बड़ी भूल होगी। ऐसे संस्कारी दिगम्बर जैन की अवहेलना या तिरस्कार कोई करता है तो उसे विचार लेना चाहिए कि वह दिगम्बर जैन आम्नाय/परम्परा के विरुद्ध कार्य कर रहा है। हमारे आचार्यवर्य ने तो नीतिसार में यहाँ तक लिखा है कि
सगुणो निर्गुणो वापि, रावको मन्यते सदा । नावज्ञा क्रियते तस्य, तन्मूला धर्मवर्तना ।।
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अर्थात् एक सामान्य सवक चाहे वह गुणवान हो अथवा गुणहीन, उसका सदैव सम्मान ही करना चाहिए क्यों कि धर्म की प्रभावना इन्हीं के आधार से होगी तथा धर्म के अध्ययन अध्यापन में मूल योगदान भी ये ही देंगे।
भट्टारक कभी भी जिन धर्म का विरोध नहीं करते । इनकी परम्परा ने जिन धर्म रक्षण का एक इतिहास बनाया है, इनके योगदान की उपेक्षा एवं तिरस्कार सराहनीय नहीं है ।
। हमें अपने इतिहास का एवं अपनी परम्परा का ज्ञान रखना चाहिए, इससे हमारी दृष्टि व्यापक बनती है। क्षुद्र आवेगों में आकर किसी पर आक्षेप नहीं करें। जो व्यक्ति अपनी जाति, धर्म के इतिहास एवं महापुरुषों के यशस्वी कार्यों की परम्परा से अनभिज्ञ होते हैं, वे ही आग परम्परा विरुद्ध कार्य करते हैं । वक्तव्यों में भी यदा-कदा इस प्राचीन भट्टारक परम्परा का विरोध करते हैं, ऐसा करना या कहना कदापि सराहनीय नहीं हैं।
भट्टारकों ने जैन आगम ग्रन्थों एवं सम्पूर्ण संस्कृति की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित किया । भट्टारकों की परम्परा भी यशस्वी एवं महनीय रही है। इस परम्परा के प्रति समाज हमेशा कृतज्ञ था, है एवं रहेगा।
आज भी कर्णाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र राज्य में इस प्रथा का प्रचलन है एवं वहाँ के भट्टारकों के द्वारा किये गये अभूतपूर्व कार्यों की समाज पर अमिट छाप है। वस्तुतः भट्टारकों ने देव, गुरु, धर्म एवं शास्त्र सेवा में अपना पूर्ण योगदान दिया है, दे रहे हैं । इसका प्रमुख उदाहरण श्रवणबेलगोला है, वहाँ भट्टारकजी द्वारा किये गये कार्यों को देखकर सभी नतमस्तक हो जाते हैं । विश्व के प्रख देशों के श्रद्धालु वहाँ आते हैं । इसी भाँति अन्य सभी स्थलों पर भी भट्टारकजी विद्यमान है तथा तीर्थों के संरक्षण एवं अन्य जन कल्याणकारी प्रवृतियों में अपना अमूल्य योगदान प्रदान करते हुए जैन धर्म को उन्नयन कर रहे हैं।
तीर्थ सुरक्षित तो धर्म सुरक्षित
- पूज्य आचार्य श्री वर्धमानसागरजी म.
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भक्तामर नवनीत
भक्ति का माहात्म्य :
भक्त भले तपस्वी न हो, पर भक्ति अवश्य ही तपस्या है। यद्यपि भक्ति में उम्र या जाति वगैरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं, तो भी भक्त बिरले ही होते हैं । बहुसंख्यक होना श्रेष्ठता का मापदण्डक नहीं है । मन लगाने का सर्वोत्तम उपाय प्रभुभक्ति है । भक्ति माँगती नहीं, अर्पण करना चाहती है। भक्त का पवित्र हृदय धार्मिक भावनाओं से परिपूर्ण होता है, तुच्छ लौकिक कामनाओं से नहीं । भगवान स्नेह से अभिभूत होकर भक्त स्वयं को भूल जाता है, उनसे खुलकर बातचीत करता है और उनकी द्विव्यवाणी का श्रवण भी । वह भक्त खुशी से पागल हो उठता है, उसकी भीतरी कुण्ठायें विलीन हो जाती है, उसमें निर्भिकता का संचार होता है और उसका जीवन धन्य हो जाता है। उसे अन्तः प्रकाश की उपलब्धि होती है और मृत्यंजय होने का रहस्य भी प्राप्त हो जाता है । अन्ततः वह पूर्णतया भारमुक्त हो, कृतकृत्य हो जाता
है I
क्षुल्लक श्री ध्यानसागरजी महाराज
के
भक्त के नयनों का अश्रुजल, उसका रोमांचित शरीर, गद् गद् कंठ और भावपूर्ण हृदय आदि समर्पण मूक प्रतीक है । भगवद्भक्ति का आनन्द रसपान करने के उपरान्त वह बड़भागी सांसारिक सुख को नीरस समझता है । जीवन का विकट परीक्षाओं में वह खरा उतरता है। वह संपत्ति में गर्व से नहीं फूलता और विपत्ति में धर्म को नहीं भूलता । सांसारिक वैभव को वह चंद दिनों का ठाठ समझता है और संकटग्रस्त होने पर सोचता है, “रे मन! घबड़ाने की क्या बात है ? यह तो प्रसन्नता का अवसर है जो पुराना कर्ज़ चुक रहा है।” भक्त की तल्लीनता से ऊर्जा का केन्द्रीकरण होता है और उसके भाव विभोर हो जाने पर रोम-रोम से भक्ति की कोई अद्भूत धारा स्वयं प्रवाहित होने लगती है। तब उसका सोया भाग्य जाग उठता है, उदयागत अशुभ कर्म टल जाता है और बड़ी से बड़ी विपत्ति भी तत्काल भाग खड़ी होती है। इसे आम जनता चमत्कार समझकर नमस्कार करती है। वास्तव में भक्ति का लक्ष्य चमत्कार से परे है।
अन्ध भक्ति की निःसारता :
जिन भक्ति अन्धश्रद्धा करना नहीं सिखलाती । यह अटल सत्य है कि कोई कार्य निष्कारण नहीं होता । अन्तरंग एवं बहिरंग कारणों के सुमेल से ही संसार का प्रत्येक कार्य निष्पन्न होता है। कारण के विषय में भ्रमित न होना विवेक की कसौटी है । कारण कार्य व्यवस्था को समझने वाला, चमत्कार से आश्चर्यान्वित नहीं होता और न ही उसे कोई अप्रत्याशित घटना मानता है। भीतर पुण्योदय होने पर बाहर देवता आदि का
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सहयोग भी उपलब्ध हो जाता है। भगवान की भक्ति छोड़कर स्वार्थपूर्ति के लिय अन्य देवताओं को रिझाने का श्रम करना, मूर्खता की पराकाष्ठा है। ऊपरी उपचार से रोग की जड़ ढीली नहीं पडती है। भक्त चमत्कार को नहीं, अपितु भगवान को नमस्कार करता है।
भक्ति, डर या लालच का नहीं, भगवत्प्रेम का मधुर फल है । लघुता तो भक्त के अन्दर कूट-कट कर भरी होती है। वह अपने को भगवान की चरण रज से भी तुच्छ समझता है और सच्चे मन से उस धूलि कण के भाग्य का सराहता है, जिसे प्रभु चरणों की गज रेखा में स्थान प्राप्त हुआ है। अधिक क्या कहा जाये ? वह इतना निष्काम हो जाता है कि मोक्ष की कामना को भी व्यवधान समक्षाता है। किसी ने ठीक ही कहा है, 'ऐ साँसों ! ज़रा आहिस्ता चलो, धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है।' बालकवत् सरल हृदय भक्त अपनी टूटी-फूटी बोली में भगवान का जो गुणगान करता है, वही स्तोत्र है । भक्ति अन्दर से स्वयं उमड़ती है, करनी नहीं पड़ती। साधना और भक्ति:
साधना क्षेत्र में भी भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है । मन को स्थिर करना सहज नहीं है । स्वाध्याय और ध्यान से बाहर आये हुए मन को केवल भगवद्भक्ति ही विषय कषायों से बचा सकती है । साधक जानता है कि साध्य सिद्धि वीतरागता से होगी लेकिन जब तक राग विद्यमान है, तब तक धर्मानुराग द्वारा विषयानुराग से बचना मेरा कर्तव्य है । भक्त साधन तत्व विवेक के साथ प्रवृति विवेक भी रखता है। भक्ति को सर्वथा उपेक्षित करने वाले कई अंहकारी रसातल को प्राप्त हो चुके क्योंकि भावना शून्य वेश या कोरा शब्दज्ञान, संसार के भंयकर कष्टों से बचाने में असमर्थ है । गुणों का इच्छुक मनुष्य गुणानुरागी होता है । आचार्य मानतुंग स्वामी :
जैन जगत् में सर्वमान्य एवं स्तोत्र साहित्य में अत्यन्त गरिमापूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठत श्री आदिनाथ स्तोत्र का प्रभाव अनूठा है। इसका प्रसिद्ध नाम भक्तामर स्तोत्र है । आचार्य मानतुंग स्वामी की पवित्र भावनाओं से
ओत-प्रोत यह स्तोत्र प्रभु व्यक्ति का सुंदर नमूना है। ऐसी प्रसिद्ध है कि इसके प्रभाव से आचार्यश्री के बन्धनमुक्त होने पर महती धर्म प्रभावना हुई तथा विरोधी भी नम्रीभूत हो गये । स्तुति से बेडियों का टूटना अशक्य नहीं लेकिन बेड़ियों को तोड़ने के लिये एक निःस्पृह दिगम्बर साधु स्तुति करे, यह कहना समुचित नहीं जान पड़ता । बेड़ी या कारागार आत्मा के बन्धन हैं ही कहाँ ? फिर जो आत्मा को मुक्त करने चले हैं, उन्हें उनकी क्या चिन्ता ? महापुरूष स्वयं को महान् नहीं समझते । तदनुसार आचार्य देव ने भी अपने आपको बालकतुल्य बताया है, तो भी पद-पद पर बिखरी पद लालित्य की छंटा, भाव-गांभिर्य एवं भाषा की सरसता उनकी उद्भूत प्रतिभा का स्पष्ट परिचय है। वे निःसन्देह एक प्रौढ़ विद्वान रहे । पूज्य श्री के भावों की निर्मलता स्तोत्र में स्पष्ट झलक रही है ।
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3লা কাল :
(9) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित आदिपुराण की प्रस्तावना में सम्पादक व अनुवादक डॉ.पन्नालाल जैन साहित्याचार्य ने पृ.२२ पर आचार्य मानतुंग को ७ वीं शताब्दी का लिखा है।
(२) संस्कृत-कवि-दर्शन नामक पुस्तक में पृ.४८३-४८४ पर डॉ.भोलाशंकर व्यास का आलेख है, 'भक्तामर स्तोत्र नामक काव्य के कर्ता मानतुंग दिवाकर भी बाण के साथ हर्ष की राजसभा में थे।' हर्षवर्धन का राज्याभिषेक इतिहासज्ञों के अनुसार ई.सन् ६०७ (विक्रम संवत् ६६४) में हुआ था।
(३) संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता डॉ.ए.वी.कीथ. ने मानतंग स्वामी को बाण कवि के समकालीन अनुमानित किया है । (A history of sanskrit literature 1941 p.214-215)
(४) सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं.गौरिशंकर हीराचन्द ओक्षा ने अपने 'सिरोही का इतिहास' नामक गन्थ में मानतुंग का समय हर्षकालिन माना है।
(५) ज्योतिषाचार्य स्व. डॉ.नेमीचन्द शास्त्री ने अपने लेख “कवीश्वर मानतुंग" में लिखा है, 'भोज का राज्यकाल ११ वीं शताब्दी है, अतएव भोज के राज्यकाल में बाण और मयूर के साथ मानतुंग का साहचर्य कराना संभव नहीं है । आचार्य कवि मानतुंग के भक्तामर स्तोत्र की शैली मयूर और बाण की स्तोत्र शैली के समान है। अतएव भोज के राज्य मे मानतुंग ने अपने स्तोत्र रचना नहीं की है। भक्तामर स्तोत्र के आरंभ करने की शैली पुष्पदन्त के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्रायः मिलती है । प्रातिहार्य एवं वैभव-वर्णन में भक्तामर पर पात्र केसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है । अतएव मानतुंग का समय ७ वीं शती है। यह शती मयूर, बाणभट्टा आदि के चमत्कारी स्तोत्रों की रचना के लिये प्रसिद्ध भी है। अतः स्पष्ट है कि चमत्कार के युग में वीतराग आदिजिन का महत्त्व और चमत्कार कवि ने युग के प्रभाव से ही दिखलाया है।'
(६) जैन दर्शन साहित्याचार्य पं. अमृतलाल शास्त्री के कथनानुसार, 'हर्षवर्धन सम्राट का राज्यकाल ई. ६४७ तक सुनिश्चित है, अतः आचार्य मानतुंग का भी यही समय सिद्ध होता है।' कतिपय लेखक उन्हें भोजकालीन बताते हैं। आचार्य मानतुंग की विद्धता :
आचार्य मानतुंग स्वामी के प्राकृत भाषा में निबद्ध भयहर स्तोत्र (अपरनाम नमिऊण स्तोत्र) द्वारा पार्श्व जिनेन्द्र की भी स्तुति की है, जिसमें २३ गाथायें हैं, दूसरे से लेकर सत्रहवें पद्य तक क्रमशः दो- दो पद्यों में कुष्ठ, जल, अग्नि, सर्प, चोर, सिंह, गज और रण दन आठ भयों का उल्लेख है और इक्कीसवीं गाथा में मानतुंग शब्द भी श्लेषात्मक दिया है। जैन दर्शन-साहित्याचार्य पं.अमृतलाल शास्त्री के अनुसार दोनों स्तोत्रों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि रचनाकार संस्कृत-प्राकृत के ज्ञाता होने के साथ-साथ वेद, व्याकरण, साहित्य, अलंकार-शास्त्र एवं जैन-जैनेतर वाङ्मय के अन्य विषयों पर भी पूर्ण अधिकार रखते थे। उनकी विद्वत्ता का वास्तविक परिचय तो स्वयं उनकी रचना ही है ।
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भक्तामर वाङ्मय :
भक्तामर पर आधारित लगभग २०-२५ समस्या पूर्तियाँ रची गई हैं। उदाहरणार्थ देखिये
प्राणप्रियं नृपसुता किल रैवताद्रि श्रृङ्गग्रसंस्थितमवोचदिति प्रगल्भम्। अस्मादृशामुदितनीलवियोगरूपेऽ वालम्बनं भवजले पततां जनानम् ।।१।।
[प्राणप्रिय खण्डकाव्य - मुनि रत्नसिंह ]
ऐसे कुल अड़तालीस छन्द इस काव्य में हैं, जिनमें भक्तामर के सभी चतुर्थ चरण समाविष्ट हैं तथा वर्णन भगवान नेमिनाथ का किया है । प्रत्येक चरण की समस्यापूर्ति भक्तामर शतद्वयी में की गई है । वीर भक्तामर, नेमीभक्तामर, सरस्वती भक्तामर, शांति भक्तामर, पार्श्व भक्तामर, ऋषभ भक्तामर आदि अन्य समस्या पूर्तियाँ हैं । स्तोत्र की कतिपय संस्कृत टीकाएँ हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, जर्मन आदि विविध भाषाओं में स्तोत्र के कई गद्यानुवाद एवं पद्यानुवाद हुए हैं। ऋद्धि, मन्त्र, यन्त्र व इनकी साधना विधि (तन्त्र) भी प्रत्येक काव्य के साथ किन्हीं प्रकाशनों में मिलती है । तत्संबंधी महिमा का उल्लेख भक्तामर कथालोक में कथाओं द्वारा किया गया है । संस्कृत भक्तामर कथा के रचनाकार भट्टारक हैं । (वि.१८ वीं शती के) विश्वभूषण भट्टारक और पं. विनोदीलाल ने भक्तामर चरित को रचा। एक भक्तामर महामण्डल पूजा भी है जिसके रचनाकार सोमसेनाचार्य हैं । आज इस स्तोत्र के अनेक संगीतमय कैसट एवं व्रत पूजन विधान भी प्रचलन में हैं ।
स्तोत्र का हृदय :
सर्वप्रथम आचार्य महाराज ने मंगलाचरण पूर्वक अपनी भावना व्यक्त की है, वे कहते हैं । पद्य क्र. १.२. ‘मैं सर्वज्ञ, वीतराग व हितोपदेशी भगवान आदिनाथ जी के चरण युगल को प्रणाम करके उनकी स्तुति करूंगा, जो सकल शास्त्रों के मर्मज्ञ, बुद्धिसंपन्न एवं कुशल इन्द्रों द्वारा उत्कृष्ट व मधुर स्तुतियों से वन्दित थे ।'
हुए
पश्चात् भगवान को लक्ष्य करके अपनी चेष्टा को अविचारित बताते हैं ।
३.४ 'हे प्रभो ! इन्द्र जैसी बुद्धि के अभाव में आपकी स्तुति करने को उत्कंठित होना मेरा लड़कपन है। बालक ही पानी में पड़ी चन्द्रमा की परछाई पर झपटता है। हे गुणों के सागार ! आपके चन्द्रमा सम रूचिकर गुणों को कहने में कौन सक्षम है ? भले ही वह इन्द्र के गुरू बृहस्पति जैसा बुद्धिमान भी क्यों न हो । कुपित जल जन्तुओं से परिपूर्ण प्रलयकलीन समुद्र को हाथों से कौन पार कर सकता है ?
आगे वे कहते हैं कि मैनें यह असंभव कार्य करने का विचार क्यों किया है ?
५.६ 'हे मुनीश ! असमर्थ होकर भी आपकी भक्ति के प्रभाव से मैं स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ जैसे
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हिरनी निर्बल होकर भी बच्चे की प्रीति से सिंह का सामना कर बैठती है ! हे भगवान ! मेरा ज्ञान थोड़ा सा है अतः विद्वज्जन मुझ पर हँसेंगे पर क्या करूँ ? आपकी भक्ति ही मुझे जबरन बातूनी बना रही है । कोयल हमेशा चुप रहती है लेकिन बसन्त में आम्रमंजरियाँ उसे कूकने को विवश कर देती है ।'
आचार्य कहते हैं कि स्तोत्र मंगलमय होता है :
७.८ 'हे देव ! जैसे अमावस का अंधेरा भी प्रभात में सूर्य किरणों द्वारा शीघ्रतया विघटित हो जाता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति से प्राणियों के कई जन्मों का पाप तत्क्षण नष्ट हो जाता है। यही जानकर मन्दबुद्धि होता हुआ भी अब मैं स्तुति शुरू करता हूं ।'
यह स्तोत्र इतना आकर्षक क्यों बना है ? इसका कारण आचार्यश्री स्वयं देते हैं :
८. 'हे नाथ ! यह स्तोत्र आपके प्रभाव से आपका स्तोत्र होने के कारण सर्वप्रिय बनेगा, शब्द भले ही मेरे रहे आये । कमलिनी के पत्तों की संगति पाकर पानी की छोटी सी बूंद मोती की तरह जगमगा उठती है, सबको अच्छी लगने लगती है ।'
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इसके उपरान्त मानतुंग स्वामी अपनी पूर्वकथित बात में संशोधन करते है :
६.१०. ‘हे स्वामी ! आपकी स्तुति को पापनाशक ही समझना मेरी भूल होगी क्योंकि पाप तो केवल आपकी चर्चा ही से नष्ट हो जाते हैं। आपकी निर्दोष स्तुति तो स्तोता को स्तुत्य बनाने वाली है बशर्ते चापलूसी न हों वास्तविक गुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले भक्त स्वयं एक दिन भगवान बन जाते हैं अतः अन्यत्र भटकने से क्या प्रयोजन, जहाँ शरणागत को हमेशा ही शरणागत रहना पड़ता है ?
भगवान के अनुपम सौदर्न्य का चित्रण भी आचार्य देव बड़े अच्छे ढंग से करते हैं :
११.१२ ‘हे रूप सिरताज ! चूंकि आपका रूप शान्ति की कान्ति प्रदान करने वाले दुर्लभ परमाणुओं से रचा गया, इसलिये आपके दर्शनोपरान्त आंखे कहीं और तृप्त ही नहीं होती। यदि वे परमाणु थोड़े और होते, तो कोई दूसरा भी आप सा रूपवान दिखाई देता, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया । क्षीरसागर का मधुर जलपान जिसने किया है, उसे जैसे खारे सागर का जल चखने की ईच्छा नहीं होती वैसा ही हाल मेरा हुआ है आपके बाद अब किसी की झलक पाने को भी जी नहीं करता ।
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१३. 'कवि लोग सुन्दर मुख को चन्द्र कहते हैं लेकिन कहाँ आपका अनुपम चेहरा और कहां बेचारा चन्द्रमा ? उस पर तो काले धब्बे हैं ।'
१४. 'हे ब्रह्मलीन मुनीश्वर ! आपका ब्रह्मचर्य अद्भूत रहा । अप्सराएं आपको तपस्या से बिलकुल न डिगा सकीं क्योंकि आप वैराग्य और तत्वज्ञान की साक्षात् मूर्ति थे, परिस्थितिवश बने हुए साधु नहीं । क्या आंध सुमेरु को हिला सकती है ?”
१६. 'अहो नाथ ! आप कोई दूसरे ही दीप हो क्योंकि आप धुआँ, बत्ती एवं तेल से रहित हो, -तूफान से बुझते नहीं और केवलज्ञान रूप लौ द्वारा सारे जगत को प्रकाशित करते हो । '
१७. 'हे मुनीन्द्र ! आपकी महिमा सूर्य से बढ़कर है तभी तो आप कभी डूबते नहीं, आप पर ग्रहण
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आँध
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नहीं लगता, न ही बादल छाते हैं और आपका तेज इतना अधिक है कि उससे तीनों लोक प्रकाशित हो जाता
१८.१६. 'आपका मुखारविन्द कोई अनोखा चन्द्रमा भासित होता है, जो सदा उचित रहता है, मोहरूपी महातिमिर का नाशक है, बादलों एवं राहु-ग्रह से अप्रभावित है और संसार को प्रकाशित करता हुआ अतिशय शोभित होता है । जब आपके तेजस्वी मुख ने अंधेरे का नाम तक मिटा डाला, तब सूर्य-चन्द्रमा की आवश्यकता ही क्या रही ? फसल पक जाने पर जलपूर्ण मेघों का कोई महत्व नहीं रह जाता ।'
२०. 'हे सर्वज्ञ ! जिस प्रकाश उत्कृष्ट मणियों जैसा तेज कांच में नहीं होता, उसी प्रकार आप जैसा अद्भूत ज्ञान अन्यत्र नहीं है।'
२१.२२. 'हे भगवान ! यह अच्छा रहा जो मैनें आपसे पहले अन्य विभूतियों के दर्शन कर लिये। यदि मुझे सर्वप्रथम आपके दर्शन हो गये होते, तो मुझ सन्तुष्ट-हृदय को अगले जन्म में भी किसी अन्य के दर्शन का अवसर न मिलता ।' (यह बात अनुभवगभ्य है, क्योंकि भक्त के नेत्र ही भगवान का अवलोकन करते हैं) ‘सैकड़ों माताएँ अनेक बार पुत्रों को उपन्न करती हैं पर माता मरूदेवी के सिवाय अन्य किसी ने आप जैसा पुत्र नहीं जना सो ठीक ही है सूर्य को एक प्राची दिशा ही जन्म देती है, अन्य नहीं ।'
२३.२४. 'हे परमात्मा ! मुनिजन आपको परम पुरुष एवं अंधकार नष्ट करने में सूर्य के समान तेजस्वी मानते हैं। आपको ठीक से प्राप्त करके वे मुत्यु पर विजय पा लेते हैं। मुझे तो इसके अतिरिक्त मोक्ष का कोई अन्य मंगलमय पथ नहीं दिखता ।' 'आप अविनाशी हो, विभु हो, चिन्तन से परे हो, संख्या से अतित हो, प्रथम हो, ब्रह्मा हो, ईश्वर हो, काम-विनाशक हो, अनन्त हो और योगियों के नाथ हो । आपका ध्यान जगत्प्रसिद्ध है, आप अनेक होकर भी एक हो, केवल ज्ञानस्वरूप हो और निर्मल हो।' ऐसा सत्पुरुष कहते हैं ।
आराधना में लगा हुआ आराधक अपने आराध्य में सब का दर्शन करता है, इसे आचार्य श्री व्यक्त करते हैं :
२५.२६. 'हे धीर वीर जिनेन्द्र ! आप ही देवों से पूजित ज्ञान के धारक बुद्ध हो, जगत को आनंदित करने वाले शंकर हो, विधि का विधान- मोक्षमार्ग का अनुष्ठान करने वाले विधाता ब्रह्मा हो और स्पष्टता पुरुषोत्तम विष्णु हो । अधिक क्या कहूं ? त्रिभुवन की पीड़ा हरने वाले, वसुन्धरा के जगमगाते आभूषण, त्रिलोक के परमेश्वर तथा भवसागर को सखाने वाले आपको नमन हो ! नमन हो ! नमन हो ।'
____२७. 'हे सर्वगुणसम्पन्न मुनीश ! अन्यत्र स्थान न पाकर समस्त गुणों ने मिलकर आपकी शरण ले ली किन्तु शरण लेना तो दूर, अपने निजी मकानों का गर्व रखने वाले दोषों ने, कभी स्वप्न में भी आपका दर्शन नहीं किया। जिन्होंने आपको दूर से भी नहीं देखा, वे दोष आपके पास कैसे फटकते ?
तदनन्तर आचार्यश्री भगवान के असाधारण वैभव का वर्णन करते हुए उनकी ही महिमा प्रकट करते हैं :
२८. अशोकवृक्ष प्रातिहार्य : 'उँचे अशोकवृक्ष के नीचे विराजमान आप, ऐसे मनोहर लगते हो, जैसे
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बादल के पास स्थित प्रकाशपुंज सूर्य ।'
२६. सिंहासन प्रातिहार्य : 'मणियों की रंगबिरंगी किरणों से व्याप्त सिंहासन पर विराजे हुए आपका सुवर्णसम पीत शरीर, उदायाचल पर आकाश में किरणों को बिखराने वाले उगते सूर्यसम सुन्दर
लगता
३०. चामर प्रतिहार्य : 'जिस पर चमेली जैसे सफेद चँवर ढुराये जा रहे है, ऐसा आपका सोने जैसा आकर्षक शरीर, श्वेत झरनों की जलधारों से युक्त सुमेरूपर्वत के ऊंचे स्र्वणमय तट की तरह सुशोभित होता
३१. तीन छत्र प्रातिहार्य : 'आपके मस्तक के ऊपर चन्द्रमा जैसे मनोहर तथा मोतियों के झालर से और अधिक सुन्दर लगने वाले तीन सफेद छत्र आपको त्रिलोक का परमेश्वर बताते हुए शोभायमान हैं ।'
३२. दुन्दुभि-वाद्य प्रातिहार्य : 'जहां आप विराजमान हो, उस दिशा विभाग को जिसने अपनी जोरदार गंभीर ध्वनि से गुंजायमान कर दिया है, त्रिभुवनवर्ती सर्व प्राणियों तक सत्समागम का प्रचार-प्रसार करने में जो कुशल है, यमराज पर आपने जो विजय पाई, उसका जयघोषक तथा आपका यशोगान करने वाला जो नगाड़ा है, वे आकाश में बजता है।
३३. दिव्य पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य : ' हे त्रिलोकपति ! आपके सामने आकाश से कल्पवृक्षों के विभिन्न दिव्य पुष्पों की अनोखी वर्षा होती है, जो सुरभित जलकणों से मिश्रित होती है और मन्द सुगन्धित वायु के प्रवाह से प्रेरित होती है। धीमे-धीमे गिरती हुए उस मनोरम वर्षा को देखकर ऐसा लगता है मानो आपकी वचनपंक्ति पुष्प बनकर बरस रही है, लेकिन एक भी पुष्प उल्टा नहीं गिरता । आपके चरणों में गिरने वाला अधोमुखी कैसे हो सकता है ?
३४. भामंडल प्रातिहार्य : ' हे प्रभापुंज विभु ! अनेकों अन्तराल विहीन साथ में उगते सूर्यों जैसी उज्ज्वल होकर भी चंद्रमा सी समता रहित और तीनों लोकों के प्रकाशमान पदार्थों को लज्जित करने वाली आपके देदीप्यमान भामंडल की महान् आभा से रात्रि भी हार मानती है, अंधेरा बिलकुल लापता हो जाता है।
___३५. दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य : 'हे हितोपदेशक ! आपकी दिव्य वाणी स्वर्ग मोक्ष का रास्ता श्रावक मुनि धर्म खोजने वालों को इष्ट, तीनों लोकों के लिए सच्चे धर्म का स्वरूप बतलाने में बेजोड़ और स्पष्ट अर्थ को लिए हुए सर्वभाषा रूप बदलने में समर्थ होती है।
३६. भव्य कमल रचना : हे जिनेन्द्र ! आपके विहार की छटा निराली है। जिनकी कान्ति खिले हुए नवीन स्वर्ण कमलों के पुंज जैसी है और दर्पणसम स्वच्छ नखों से आस पास विकीर्ण किरणों के कारण नयनाभिराम हैं, ऐसे आपके चरण जहां डग भरते है, वहां देव सुन्दर कमलों का निर्माण कर देते हैं।
३७. आर्यखण्ड में सर्वत्र तीर्थ प्रवर्तन करने वाले हे तीर्थकर ! इस प्रकार, धर्मोपदेश के समय जैसा आश्चर्य कार्य वैभव आपका रहा, वैसा सिर्फ आपका ही रहा, अन्य का नहीं सो ठीक ही है, जैसी तमनाशी प्रभा सूर्य की होती है, वैसी प्रकाशमान ग्रहमंडल में कैसे हो सकती है ?
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अब आचार्यदेव भयों का निर्मूलन करते हुए कहते हैं :
३८. 'हे भव्यशरण ! जो इन्द्र के वाहन ऐरावत जैसा मोटा तगड़ा है, जिसके मद जल से मटमैले व हिलते-डुलते गालों के आस पास गन्ध से आकर्षित भ्रमर मंडरा रहे हैं और उनकी गुंजार से जिसका गुस्सा और भड़क रहा है, ऐसे मदमस्त हाथी को अपने सामने आता देख, आपके शरणागत लोग नहीं डरते।'
३६. ' हाथियों के मस्तक को फाड़कर गज मुक्ताओं को धरती पर विखेरने वाला और ऊपर छलांग मारने को तैयार सिंह भी अपनी चपेट में आये हुए आपके भक्त पर उपद्रव नहीं करता।'
४०. 'प्रलयकालीय अग्नितुल्य ज्वाला व चिनगारियों वाली तथा समूचे विश्व को निगलने की इच्छुक सरीखी जंगली आग आपके अग्निशामक नाम का कीर्तन करने से पूर्णतः बुझ जाती है।'
४१. 'आपका नाम सर्प को वश में करने वाली दवा है, उसे अपने हृदय में रखने वाला सर्प से नहीं घबड़ाता । यदि लाल आंखों वाला भंयकर काला नाग भी रूष्ट होकर फन फैलाकर सामने आ रहा हो, तो वह निडर पुरूष यमराज के उस विश्वस्त प्रतिनिधि को दोनों पैरों से लांघ जाता है।'
४२.४३ - आपके कीर्तन से शुत्रसेना तितर-बितर हो जाती है और यदि युद्ध ज्यादा विकट हो, तो शत्रु को ही हारना पड़ता है।'
४४. तूफान से भड़के हुए भंयकर घड़ियाल और विशाल मछलियाँ जिसमें विद्यमान हैं, भीतर स्पष्ट बड़वानल सुलग रहा है और जिसकी ऊँची लहरों की चोटी पर यात्रियों के जहाज खड़े हो गये हैं, मानो पलटने को हों, उस भयानक समुद्र में आपके भक्तजन आपके स्मरण मात्र से भयमुक्त होकर अपने गन्तव्य को पा लेते हैं, जलयात्रा को निर्विघ्न सम्पन्न करते हैं।'
४५. 'डरावने जलोदर के भार से जिनकी कमर टेढ़ी हो गई है, जिनकी अवस्था बड़ी दयनीय है और जिनके बचने की कोई आशा नहीं रह गई है, ऐसे रोगी मनुष्य आपके चरणकमलों की अमृततुल्य पवित्र चरणरज को शरीर पर लगाकर, कामदेव जैसे रूपवान और स्वस्थ हो जाते हैं।'
४६. 'हे पूज्य ! जो नीचे से ऊपर तक भारी जंजीरों से जकड़े हुए हैं, कसी हुई विशाल बेड़ियों के किनारों से घिसकर जिनकी पिंडलियाँ बुरी तरह छिल गई हैं और जो भंयकर पीड़ा का अनुभव कर रहे है, वे भी आपके नामरूप मन्त्र का निरन्तर स्मरण कर शीघ्र ही बन्धनमुक्त हो जाते हैं।'
पश्चात् आचार्य महाराज स्तोत्र पाठ की महिमा बताते हैं :
४७. 'हे नाथ ! आध्यात्मिक रूप से भी कालरूप हाथी, पापरूप व पंचानन सिंह, काम क्रोधरूप अग्नि, भोगरूप भुजंग, अन्तरंग संग्राम, भवसमुद्र, कर्मरोग और स्नेह-वैर के बन्धन से उत्पन्न हुआ भय स्तोत्रपाठ से भयभीत होकर तत्काल समाप्त हो जाता है, हाँ, पाठकर्ता आस्थावान हो !
४८. 'हे वृषभ जिनेन्द्र ! मैने भक्ति पूर्वक नाना अक्षररूपी रंगबिरंगे पुष्प पिरोकर आपके गुणरूपी डोर से यह स्तोत्र रूपी माला बनाई है। जो इसे हमेशा गले में पहनकर रखेगा, उस सम्मानित मनुष्य का वरण विवश होकर लक्ष्मी को स्वयं करना पडेगा । तात्पर्य यह है कि जैसे माल्यार्पण द्वारा सम्मानित पुरुष शोभा द्वारा वरा जाता है। शोभायमान होता है वैसे ही भक्तामर स्तोत्र रूपी माला को गले में पहनने वाला, कंठस्थ रखने वाला
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सम्मानोन्नत पुरूष भी स्वर्ग मुक्तिरूपी लक्ष्मी द्वारा वरा जाता है, यह निश्चित है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह मंगलमय स्तोत्र आचार्य की निःस्वार्थ भक्तिभावना का अनुपम प्रतिफल है अतः स्तोत्र रचना के हेतु विषयक अन्यथा कल्पना करना नितान्त अप्रांसगिक है।
भक्तामर-पाठ:
भौतिक चकाचौंध के इस आधुनिक युग में जब किसी के संकट वैज्ञानिक चमत्कारों से भी नही टलते, तब मानव का हताश मन धर्म की शरण लेता है और यह सच है कि जिसके सभी रास्ते बंद हो चुके हैं, उसे भी धर्म शरण देता है। यदि इसी परिस्थिति में कोई वास्तव में धर्म को हृदयगत कर ले, तो धन्य हो जाये ! आंगतुक विपत्ति कर दूर होना, भय का नाश होना, उपसर्ग निवारण, सौभाग्य संपत्ति में वृद्धि, सर्वत्र यश प्राप्ति और लोकप्रियता तो स्तोत्रपाठ के व्यावहारिक लाभ हैं, पारमार्थिक लाभ अलौकिक है। भक्तामर पाठ विषयक कतिपय आवश्यक निर्देश ध्यातव्य हैं ।
उच्चारण :
(१) यह स्तोत्र वसन्ततिलका छन्द में है, प्रत्येक चरण १४ अक्षर युक्त है तथा चारों चरणों में कुल ५६ अक्षर है । ४८ काव्यों के अक्षर मिलाने पर २६८८ होते हैं। तृतीय चरण में लय परिवर्तित होती है। योग्य मौखिक प्रशिक्षण लाभ दायक सिद्ध होगा । शुद्ध उच्चारण का हर संभव प्रयत्न करें ।
(२) भक्तामर को 'भक्ताम्बर या भक्ताम्मर' न कहकर 'भक्तामर' कहें तथा स्तोत्र को इस्तोत्र, स्त्रोत्र, स्त्रोत या स्त्रोत्र न कहें । सर्वप्रथम नाम का शुद्ध उच्चारण करें ।
(३) संयुक्ताक्षर के पूर्व यदि ह्रस्व वर्ण हो, तो उसे कुछ जोर देकर उच्चारित किया जाता है तथा आगामी संयुक्ताक्षर के कारण उसे गुरु माना जाता है । यह एक सामान्य नियम है उदाहरणार्थ देखिये -
__ शिक्षा या रक्षा में 'शि' या 'र', संयुक्ताक्षर 'क्षा' है। * विद्या या विश्वास में 'वि', संयुक्ताक्षर 'या' व 'श्वा' है ।
क्षत्रिय या क्षिप्रा मं 'क्ष' और 'क्षि' संयुक्ताक्षर 'त्रि' व 'प्रा' है। * सत्र या सप्रेम में 'स' संयुक्ताक्षर 'त्र' व 'प्र' है।
* भट्ट या भक्तामर में 'भ' संयुक्ताक्षर 'ट्ट' व 'क्ता' है । इन सभी अक्षरों पर हस्व होने से जोर पड़ता है।
(४) स्तुति और स्पष्ट आदि शब्दों के पूर्व 'इ' न जोड़े। जिह्य को 'स' के उच्चारण- स्थान पर लगाकर फिर वायु की ध्वनिपूर्वक 'तुति या पष्ट को' कण्ठ से उच्चारित करें। 'इ' मिलाने से एक अक्षर बढ़ जाता है । (५) सहन को 'सहस्त्र' न बोलें।
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(६) रेफ बोलते समय आवाज अटकनी चाहिये । जैसे 'दुन्दुभि र्ध्वनति' यहाँ दुन्दभिर् पर अटककर 'ध्वनति' बोलें । ज्यादा अटकने से तालभग होगा। रेफ को पूरे 'र' जैसा न उच्चारित करें। आगामी अक्षर के उच्चारण स्थान से अनुस्वार का उच्चारण करें ।
(७) सरकारी 'स' को शक्कर वाला 'श' न बोलें । 'श' ओर षट्कोण के 'ष' को 'स' न बोले । इसी तरह 'द्य' को 'ध्याध' न बोलें । 'क्ष' को 'छ' या 'ज्ञ' को 'ग्य' भी न बोलें ।
(८) 'फ' का उच्चारण उपरिल दाँत और निचला होठ मिला कर न करें, दोनों ओठ मिलाकर करें । 'ङ' को 'ड' न कहें, न ही 'अंग' बोलें किन्तु जंगल और तीर्थंकर के अनुस्वार बिन्दु जैस उच्चारित करें । विसर्ग ':' की ध्वनि आधे "ह" जैसी हो जैसे दीवार से टकराकर आयी हो ।
(६) “वहि” को “वन्हि” यह वहनि न कहकर वःनि कहें ।
१०) प्रवृत्तः को प्रवर्तः या 'प्रव्रतः' न बोलें अपितु प्रव्रित्तः कहें। मृगेन्द्र को 'भ्रगेन्द्र' न कहें । गाढं को गाढ़ न बोले और निगड को निगड़ न बोलें संस्कृत भाषा में कु, ग, फ, ज़, ड़ या ढ़ नहीं होते ।
नियम :
यदि स्तोत्र पाठ का एक-वर्षीय नियम लेना हो, तो निम्नलिखित बातों को ध्यान दें।
(१) पाठ दोपहर के पूर्व कर लें, सूर्योदय की बेला उत्तम है। बैठक पूर्वभिमुख या उत्तराभिमुख रखें ।
(२) श्रावण, भाद्रपद, कार्तिक, मगसिर (अगहन), पौष और माघमास की पूर्णा (५,१०,१५), नन्दा
(१,६,११), तथा जया (३,८,१३) तिथियाँ नियमारंभ की तिथियाँ हैं। पक्ष शुक्ल हो ।
(३) प्रारंभिक दिन ब्रह्मचर्य पालें और उपवास या एकशन (एक बार आहार जल) का संकल्प निभायें । (४) एक वर्ष तक अभक्ष्य और व्यसनों से पूर्णतः बचें ।
(५) ऋतुकाल में उच्चारण वर्जित है । सूतक आदि का भी विवेक रखें ।
नित्यपाठ शुरू करने के इच्छुकजन निम्नांकित बातों पर ध्यान दें :
(१) चैत्र, जेठ एवं आषाढ़ माह से नित्यपाठ शुरू न करें ।
I
(२) शेष महीनों के शुक्ल पक्ष की १, ३, ५, ६, ८, १०, ११, १३ और १५ तिथियाँ मान्य हैं I (३) मन्दिर में भगवान के सम्मुख पाठ करना अच्छा है या फिर दोपहर से पूर्व किया जा सकता है। (४) विनय और शुद्धि का सामान्य विवेक आवश्यक है। मन, वचन और काया की स्थिरता अपेक्षित है ।
भक्तामर की मन्त्र शक्ति :
भक्तामर स्तोत्र केवल स्तोत्र ही नहीं, अपितु विचित्र तथ्य इस स्तोत्र के विषय में उजागर किया
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मन्त्र शक्ति का खजाना भी है। सहजानन्द वर्णी जी ने एक “इसके प्रत्येक काव्य में वर्णमाला के चार व्यंजन 'म, न, त
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और र' विद्यमान है, प्रकारान्तर से हर काव्य में मन्त्र छुपा हुआ है ।" यह चर्चा काव्यों के साथ दिये हुए पृथक् मन्त्र संबन्धी न होकर प्रत्येक काव्य की निजी मन्त्र शक्ति संबंधी है । मन्त्र का फल कहीं काव्यार्थ से निरपेक्ष है तो कहीं सापेक्ष एक निश्चित क्रम से व्यवस्थित अक्षरों के समूह का विधिवत् शुद्ध जाप करने पर कोई ऊर्जा प्रस्फुटित होती है, जिसकी कार्यक्षमता अद्भूत होती है। यही ऊर्जा मन्त्र शक्ति है। तत्संबन्धी संस्मरणों की एक पुस्तक बन सकती है । जप की सफलता एकाग्रता, पुण्य ओर साहस पर निर्भर है । प्रत्येक काव्य आवश्यकतानुसार किसी भी काव्यकी एक माला प्रातःकाल नियमित फेरी जा सकती है । मन्त्र शक्ति का सर्वत्र प्रयोग करना अनुचित है। जहाँ तक बने, विपत्ति में समता धारण करें ।
प्रकाशित संस्करणों के आधार पर प्रत्येक काव्य की मन्त्र शक्ति का उल्लेख किया जाता है - काव्य क्रमांक
कार्य सर्वविघ्न विनाशक मस्तक पीड़ा नाशक सर्वसिद्धि दायक जलजन्तु-भयमोचक नेत्र रोगहारक . विद्याप्रसारक क्षुद्रोपद्रव निवारक सर्वारिष्ट योग निवारक अभीप्सित-फलदायक/सप्तभय संहारक कूकर विष निवारक आकर्षक कारक/वांछापूरक हस्तिमद निवारक/वांछितरूपदायक संपत्तिदायक/शरीर रक्षक आधि/व्याधिनाशक सम्मान-सौभाग्य-संवर्धक सर्व-विजय-दायक सर्वरोग निरोधक शत्रु सैन्य स्तंभक उच्चाटनादि रोधक संतान-संपत्ति-सौभाग्य दायक सर्वसुख-सौभाग्य-साधक
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४१.
४२.
४३.
४४.
४५.
४६.
४७.
१०.
99.
भूत-पिशाच बाधा निरोधक
प्रेतबाधा नाशक
शिरोरोग नाशक
दृष्टि विष निवारक
आधा सीसी पीड़ा निवारक
शत्रु नाशक सर्वमनोरथ पूरक
पीड़ा निवारक
शत्रु स्तंभनकारक
राजसम्मान प्रदायक
संग्रहणी - निवारक
सर्वज्वर संहारक
गर्भ संरक्षक
ईति भाति निवारक
लक्ष्मी-प्रतिरोधक
दुष्टता-प्रतिरोधक
हस्तिमद भंजक/संपत्ति वर्धक
सर्वग्निशामक
भुजंगभयनाशक
युद्ध भयनिवारक
४८.
सर्वसिद्धि-दायक
नोट : मंगलवाणी पृ. २८०-२८२ पर कुछ काव्यों की मन्त्र शक्ति भिन्न रूप से दी गई है
२.
लक्ष्मी-प्राप्ति / शत्रु-विजय वचन- सिद्धि
खोई वस्तु की पुनः प्राप्ति
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सर्वशान्तिदायक
सर्वापत्ति-निवारक
जलोदरादि रोग नाशक / विपत्ति निवारक
बन्धन मुक्तिदायक अस्त्र-शस्त्रादि-निरोधक
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ब्रह्मचर्य/स्पप्नदोष-निवृति/राजसम्मान/लक्ष्मी वृद्धि/प्रतिष्ठा प्राप्ति जादू-भूत-प्रेत प्रभाव निवारक/रोजगार दायक/भाग्यहीन भी भूखा न रहे
स्वजन परजन प्रेम प्रदायक ४५.
सर्वभय उपसर्ग विनाशक/सर्वरोग शन्ति/तेज प्रताप विस्तारक
राजभय निवारक/ कारागार मुक्ति पं.हँसमुख जैन प्रतिष्ठाचार्य धरियाबाद ने अपने लेख 'मन्त्र-परिचय एवं मन्त्र विधि' में कालशुद्धि के अन्तर्गत जाप प्रारंभ करने का काल बतलाया है, जो निम्न प्रकार है -
(१) वैशाख, श्रावण, आश्विन, कार्तिक, अगहन, माघ और फाल्गुन मास मन्त्रारंभ के लिये श्रेष्ठ हैं। (२) कृष्ण पक्ष में २, ३, ५, ७, १०, १३ और १५ तिथियाँ अच्छी हैं । (३) रविवार, सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार ठीक हैं ।
(४) अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, मघा, पूर्वात्रय, उत्तरात्रय, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, शतभिखा और रेवती नक्षत्र उत्तम हैं।
(५) रविपुष्य, गुरुपुष्य, रवियोग, सिद्धियोग, सर्वासिद्धि योग और अमृत सिद्धि योग इष्ट हैं । (६) रात्रि का तीसरा और चौथा प्रहर अच्छा है।
(७) वृष, मिथुन, सिंह, कन्या, वृश्चिक, धनु, कुंभ और मीन लग्न उत्तम है । भक्तामर-पद्यसंख्या :
दिगम्बर मान्यातानुसार भक्तामर स्तोत्र में ४८ काव्य हैं । मुनिश्री रत्नसिंह कृत 'प्राणप्रिय' खण्डकाव्य में इसके ४८ काव्यों के अन्तिम चरणों की समस्यापूर्ति का उपलब्ध होना तथा 'भक्तामर शतद्वयी' में ४८ काव्यों के प्रत्येक चरण की समस्यापूर्ति का मिलना इसी संख्या को पुष्ट करता है। स्थानकवासी श्वेताम्बराचार्य कविरत्न श्री अमरमुनि आदि ने भक्तामर के पद्यों की संख्या ४८ ही मानी है। श्वे. साध्वी महासती उम्मेदकँवरजी ने भी 'स्वाध्याय सुमन' में ४८ काव्यों को सार्थ दिया है। दुन्दुभि, पुष्पवर्षा, भामंडल और दिव्यध्वनि प्रातिहार्यों का उल्लेख करने वाले ३२ से ३५ काव्यों को छोड़ भक्तामर का यथावत् पाठ श्वेताम्बर संप्रदाय में प्रचलित है। निर्णयसागर प्रेस से मुद्रित सप्तम गुच्छक संपादक महोदय के मतानुसार इन ४ काव्यों की भाषा शैली मूल से मेल नहीं खाती अतः ये आचार्य मानतुंगकृत नहीं हैं । अस्तु । इस पर मीमांसा न करके प्रकृत विषय पर विचार किया जाता है।
कल्याण मंदिर स्तोत्र भी भक्तामर की भाँति दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायों में मान्य है। इसके १६ २६ वे पद्यों मे अष्ट प्रातिहार्यों का वर्णन आता है। श्वेताम्बर वाड्मय में कहीं भी तीर्थकर के चार प्रातिहार्य उल्लिखित नहीं मिलते, सभी ग्रन्थ एक स्वर से अष्ट प्रातिहार्य के स्वीकार करते हैं। जब वस्तु स्थिति ऐसी है, तब भक्तामर जैसे गरिमापूर्ण स्तोत्र में चार प्रातिहार्यों के प्रतिपादक काव्यों को परिगणित न करना अवश्य ही
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विचारणीय हो जाता है । पं. अमृतलाल शास्त्री जैन दर्शन साहित्याचार्य ने इस समस्या के समाधान हेतु जब श्वेतांबर आचार्य प्रभाचन्द्र सूरि रचित 'प्रभावक चरित' (सं. १३३४) का आलोड़न किया, तब उन्हें इसके अन्तर्गत १६६ पद्यों में निबद्ध 'श्रीमानतुङ्ग प्रबन्ध' में एक संभावित समाधान स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ । 'एक मन्त्री के अनुरोध पर सम्राट हर्षवर्धन ने आचार्य मानतुंङ्ग से चमत्कार दिखलाने की इच्छा व्यक्त की तथा निष्ठुर सिपाहियों द्वारा ४४ बेड़ियों से पैरों से सिर तक जकड़ कर उन्हें अन्धकारमय कोठारी में बन्द करवा दिया । तब स्तोत्र रचना के प्रभाव से वे बेड़िया तड़तड़ाकर टूट गई, ताला भी टूट गया और फाटक खुलने पर वे भी बाहर गये । इस घटना ने सम्राट् के भीतर श्रद्धा का बीज अंकुरित कर दिया ।' पं. अमृतलालजी के दृष्टिकोण से ४४ पद्यों की मान्यता का आधार कथानक में आयी हुई ४४ बेड़ियाँ है । भक्तामर के प्रक्षिप्त काव्य :
किन्हीं प्राचीन प्रतियों में चार अतिरिक्त पद्य चार प्रकार से उपलब्ध होते हैं। अनेकान्त, वर्ष २, किरण १ में ४ प्रातिहार्यों की पुनरक्ति है, जैन मित्र फाल्गुन सुदी ६, वि.नि.संवत् २४८६ में स्तोत्र पाठ के फलपूर्वक समाप्ति की गई है, रचना वैषम्य हैं एवं अर्थ भी सुसंगत नहीं है, श्री तिलकधर शास्त्री लुधियाना १८७० की प्रति में 'बीजक काव्य' शीर्षक से दिये गये काव्यों की स्थिति भी उन्हें मूल स्तोत्रकर्ता की रचना प्रमाणित नहीं करती और चतुर्थ प्रति में भी छन्दोभंगादि विसंगतियाँ हैं अतः मनीषियों ने भक्तामर के ४८ काव्य ही माने हैं, ५२ नहीं
मृगो
भक्तामर में पाठभेद : जैन निबंध रत्नावली (१) एवं भक्तामर रहस्य में निम्नलिखित पाठान्तरों की जानकारी मिलीः श्लोक.क्र. चरण प्रचलित पाठ
पाठ भेद भवजले
भवनिधि विबुधार्चित पाद विबुधार्चित पाद पीठं
मृगी तच्चाम्रचारू
तच्चारूचूत प्रभावात्
प्रसादात् नात्युद्भूत
अत्यद्भुतं रपवर्जित
रपि वर्जित तेजः स्फुरन्मणिषु तेजो महामणिषु नैवं तु ।।
काचोद्भवेषु न तथैव विकासकत्वम्।। पवित्र
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पुरस्तात् त्रिजगत: को विस्मयोऽत्र भानुकरप्रतापम् त्रिजगतः शुभ भूति वनति प्रपाता वचसां शुभत्प्रभा भूरि लोकेत्रये द्युति सोम सौम्याम् गुणैःप्रयोज्यः ऐरावताभमिभमुद्धत क्रमगतं संश्रित ते नागदमनी बलवतामपि नक्रचक्र भवतः स्मरणाद् भुग्नाः मा स्मरतः सद्यः तस्याशु नाश यस्तावकं विविध
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परस्तात् त्रिजगती चित्रं किमत्र भानुकरप्रभावम् त्रिजगती शिव/सुख भूरि नंदति प्रयाता वचसां चंचतत्प्रभा भूति लोकेत्रयधुति सोमसौम्या गुणैःप्रयोज्यः ऐरावताभमिभमुत्कट क्रमगतान् संश्रिताँस्ते नागदमनो बलवतामरि नक्रचक्रे तव संस्मरणाद् भुग्नाः सद्यो स्मरन्ति नाथ ! तस्य प्रणाश यस्तेऽनिशं रूचिर
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पूछे अपने आत्मा से कि ...
हम दुःखी क्यों ? - उपाध्याय मुनिश्री गुणधरनंदीजी
संसार में दुःख का जड़ राग है। राग का जीव को दुःख उत्पन्न होता है। जैसा कि हम प्रतिदिन पत्रिका पढ़ते हैं, उसमें लिखा रहता है कि अमुक देश, अमुक प्रांत में १०० व्यक्ति मरे, आप उस समाचार को पढ़कर दुःखी नहीं होंगे परन्तु उसी समाचार में आपके पुत्र के मरने की खबर होती तो आप तुरंत रोना प्रारम्भ करेंगे तथा आपका मन उसी क्षण दुःख से द्रवित हो जायेगा । आपको अत्यंत दुःख उत्पन्न होगा। इसका कारण यह है कि अपने पुत्र के प्रतिराग है इस कारण आपको दुःख होता है और १०० व्यक्तियों के प्रति आपका राग (मोह) नहीं है इस कारण से १०० व्यक्ति मरने के बावजूद भी आपको दुःख नहीं है । इसका कारण है- राग। राग आग है, संसार में इसके समान आग नहीं है ।
आग तो फिर भी थोड़ी देर में जला के खत्म हो जाती है। परन्तु यह राग जो है आत्मा को अनन्त काल जलाता रहता है। यह आग मानव को जर्जरित कर देता है। एक बार भगवान महावीर स्वामी से गौतम गणधर ने प्रश्न किया- हे भगवन्त मुझे केवलज्ञान कब उत्पन्न होगा? भगवान का प्रत्युत्तर था- जब तुम्हारे अंदर विद्यमान राग खत्म हो जायेगा, उसी क्षण तुम्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो जायेगा । अतः जब तक मोहरूपी राजा विद्यमान रहता है तब तक जीव को संसार बंधन से छुटकारा नहीं मिल सकता है। जब मोहनीय कर्म नष्ट होता है तब उसके अन्तर शेष ३ घाति कमों का विध्वंस होता है। अतः कर्मों का राजा मोह ही है । जब तक मोह रूपी राजा को परास्त नहिं किया जाता तब तक शेष कर्मों को नष्ट नहीं होता तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः केवल ज्ञान का बोध, यह मोह ही है । पांडुनंदन पांडव एक दिन संसार से विरक्त हो गये
और राज पाट को त्याग करके पाचों पांडव ने एक साथ जिनेश्वर (दिगम्बर) दीक्षा को अंगीकार किया तथा एक साथ ही पाँचों पांडव तपस्या में तल्लीन हो गये । एक दिन उनका शत्रु आया और पाँचो पांडव पर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, पहले पांडवों को लोहा गरम करके चिपकाया तो भी पांडव कुछ नहीं बोले फिर उसने लोहे को पूर्णतः गरम करके कानों में कुंडल की तरह पहनाया, लोहे का जठोगीत बना कर बाजु में बांधा और लोहे को गरम करके पैर में पायजामा के रूप में पहनाया । इस प्रकार वह शत्रु पांडवों पर घोर उपसर्ग होने लगा तो नकुल और सहदेव के मन में थोड़ा सा राग का चिंगारा उदयमान हुआ। वह इस प्रकार उत्पन्न हुआ। नकुल और सहदेव सोचने लगे हम दोनों तो जवान है, हम दोनों का अभी यौवन अवस्था है। अतः इस उपसर्ग को हम दोनों सह सकते, परंतु भीमादि ३ पांडवों का शरीर वृद्धावस्था को प्राप्त हो चुका है। अतः वृद्ध अवस्था में इस संसार कारण बन गया फिर हम लोग परिवार, धन, वैभवादि से अत्यन्त मोह करें तो हमारी क्या दशा होगी ? आचार्य
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पूज्यपाद स्वामी संसार का कारण बताते हुये लिखते हैं :
मोहन संवृत्त ज्ञानं स्वभाव लभते नहीं ।
मत पुमान्पिदार्शलां, यथा मदन क्रोद्रर्वेः।। यह जीव मोह रूपी मदिरा पी के अपने स्वरूप भूल चुका है, जैसे मदिरा पान किया हुआ व्यक्ति कभी स्त्री को माता कहता है, और माता को स्त्री। वह शराबी यथार्थ वस्तु स्वरूप को समझ नहीं पाता । उसी प्रकार मोह रूपी शराब पीया हुआ प्राणी अपने स्वरूप को जान नहीं पाता । पं. दौलतरामजी ने भी इसी बात का उल्लेख इस प्रकार किया है :
ताहि सुनो भवि मन थिर आन जो चाहो अपनों कल्याण।
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादी ।।३।। हे भव्य जीवों ! यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो इस परम, पवित्र, दुःख निवारक और सुखदायक शिक्षा को मन स्थिर करके सूनो । यह जीव अनादि काल से मोह रूपी मदिरा पान कर अपने आत्मा को भूल कर मोहरूपी मदिरा से उन्मत होकर इधर-उधर चारों गति में परिभ्रमण कर रहा है। इसी प्रसंग में मुझे एक दृष्टान्त याद आ रहा है- एक व्यक्ति अपनी पत्नी से बहुत डरता था । वह मदिरा-पान करके पत्नी के समक्ष नहीं जाता था। एक दिन घटना यह घटी, जब वह मदिरा सेवन करके अपने घर में प्रवेश करने जा ही रहा था कि अचानक दरवाजे के सामने पत्नी खड़ी दिखलाई दी। यह देखकर उसके पांव तले से धरती खिसकने लगी। उसे आभास हो गया कि अब तो पत्नि को पता चल जायेगा कि मैं शराब पीया हूँ। शराबी ने सोचा कि पत्नी नाराज होगी अतः उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिये। वह मदिरा के मद में चर था. दरवाजे के सामने भैंस बंधी हई थी. शराबी ने भैंस की पंछ पकडी और कहने लगा- हे प्रिये ! हमेशा तम दो करती हो, आज एक ही चोटी क्यों की है ? जिस प्रकार यह शराबी मदिरा से उन्मत होकर भैंस को पत्नी मान बैठा उसी प्रकार मोहरूपी मदिरा से उन्मत प्राणी स्वरूप न जानकर पर पदार्थ में अहं बुद्धि रखता है, तथा पर आत्मा, शरीरादि को अपना मानता है। इसी कारण चौरासी लाख योनि में भ्रमण कर रहा है। और इन योनियों में दुःख ही होगा, दुःख के सिवाय अन्य कुछ नहीं हो सकता है। जिस प्रकार विष जब भी और किसी को भी पिलाया जाय वह मारने के सिवाय अन्य कार्य नहीं कर सकता है, उसी प्रकार मोह भी किसी के भी प्रति क्यों न हो वह दुःख का ही कारण होता है ।
मोह में विद्याध्ययन भी नहीं होता क्योंकि मोहित विद्याभ्यास नहीं करने देता । इसी कारण से पूर्व काल में (रामनवमी के समय से ) बच्चों को घर में नहीं पढ़ाया जाता था । १२ वर्ष तक गुरुकुल में विद्या अध्ययन कराया जाता था, इसका कारण यह है कि घर में बच्चा रहेगा तो बच्चा का मोह परिवार के प्रति बढ़ेगा तथा पारिवारिक जनों का भी स्वभावतः बच्चे के प्रति मोह बढ़ेगा । लाड़-प्यार मे पढ़ नहीं सकता है। बल्कि उदण्ड
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बन जाता है। अतः मोह, विद्या का भी बाधक है। मोह के उदय में व्यक्ति दीक्षा भी धारण नहीं कर सकता है। आज देखा भी जाता है कि बाल सफेद हो गये, मुँह से दांत गिर गये, ऐसा अर्धमृतक शरीर है जिनका, उन वृद्ध महापुरुषों से कहा जाये कि भाई ! अब दीक्षा धारण कर लो तो वृद्ध महापुरुष कहते हैं कि महाराज ! अभी मेरा मकान बनना शेष, अभी मेरा व्यापार भी मंदी में चल रहा है। दीक्षा की बात को हवा में उड़ा दिया और अपनी रामायण गाने लगे और उनका यह भी ठिकाना नहीं रहता है । इसका कारण यह है कि मोह ने उन्हें इस तरह जकड़ के रखा है कि मरण सामने आने के बावजूद भी घर नहीं छोड़ सकते हैं। मोह बंधन का भी कारण है। अगर किसी व्यक्ति को कोई तरूण स्त्री मोहित कर लेती है, तो वह उसी का ध्यान रहता है। खाते, पीते, सोते जागते, उठते-बैठते सिर्फ उसी का ध्यान रहता है। उसी का खरीदा हुआ दास बन जाता है। अतः मोह व्यक्ति को पराधीन बना देता है। एक कहावत भी है कि “पराधीन स्वप्ने सुख नाही" अर्थात पर के आधीन तीन काल में सुख नहीं मिल सकता है । जैसा कि एक व्यक्ति गरीब है जिसे सबह खाने के बाद सायं को खाने की चिंता रहती है। एक समय भी खाना रूखी-सखी मिलती है. ऐसे गरीब व्यक्ति अचानक कोई अपराध करे तो उसे पुलिस बंदी बनाकर जेल में डाल देती है। जेल मे दो समय आराम से खाना मिलता है। चायादि भी उपलब्ध होती हैं। घर से भी अधिक जेल में सुविधा होते हुये भी व्यक्ति जेल मे रहना नहीं चाहता है। बल्कि यह भावना करता है कब जेल से छूटूं और कब मैं घर जाऊं । इसका कारण यह है कि वहाँ सुख की अनुभूति नहीं हो सकती है । इसी प्रकार लक्ष्मी (धन) के संचय करने में दिन-रात लगा रहता है । इसके लिए अच्छे-बुरे सभी काम करता है । उसी चिंता के कारण न विद्यमान सम्पत्ति का उपभोग करता, न ही चैन से सो पाता है, न ही आराम से खाता-पीता है। अधिक क्या कहे लक्ष्मी के मोह से मोहित व्यक्ति स्वकीय पिता तथा जन्मदात्री माता को भी खत्म (हत्या) करने में पीछे नहीं हटता है । अतः मोह से युक्त प्राणी संसार में परिभ्रमण कर रहा है । जिस प्रकार नवनीत (मक्खन) निकालने के लिए एक लकड़ी दो रस्सी के बीच फिरता है उसी प्रकार राग-द्वेष रूपी रस्सी में जीव रूपी लकड़ी फंसकर संसार परिभ्रमण कर रहा है । पूज्यपाद स्वामी कहते है :
रागद्वेष द्वयी दीर्घ, नेत्रा कर्षण कर्मणा ।
अज्ञानात्सुचिरं जीव, संसारब्धौ भ्रमत्यसौ ।।१।। ये प्राणी राग-द्वेष कारण अज्ञानी बना हुआ है और अज्ञानता के कारण संसार में परिभ्रमण कर रहा है। मोह करने से हिंसा भी होती है क्योंकि आचार्य अमृतचन्द्र जी पुरुषार्थ सिद्धि उपाय में कहते है कि आत्मा परिणाम (स्वभाव) का हनन (घात) होने से हिंसा होती है अतः आत्मा का स्वभाव वीतरागता है और मोह करने से उस वीतरागता का हनन होता है। इसलिए मोह करने से हिंसा करने का भी पाप, लगता है। तथा उपर्युक्त गाथा में यह भी बताया है कि जहाँ राग होगा वहाँ नियम से द्वेष भी रहेगा । जैसा कि इष्ट वस्तु के प्रति राग है तो इष्ट वस्तु के बाधक के प्रति द्वेष रहेगा । उदाहरण के तौर पर समझिये नाग नागिन का जोड़ा है, अचानक
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स्कूटर के नीचे नाग की मृत्यु हो गई, उसी समय नागिन क्या चुप बैठेगी,नहीं ! मृत्यु का बदला लेने के लिए उस स्कूटर का पीछा करेगी और स्कूटर वाले को मार डालेगी, इसका कारण यह है कि नाग के प्रति होने वाले आघात से स्कूटर वाले के प्रति द्वेष हो गया । अतः इससे सिद्ध होता है मोह वैर एवं द्वेष का भी उत्पादक है। इसके साथ ही यह मोह अंहकार (मान) का भी जन्मदाता है। जैसा कि अपना शरीर सुन्दर है और शरीर के प्रति मोह है तो हमें निश्चित रूप से अहं भाव पैदा होता है कि अरे मेरे जितना सुन्दर शरीर और किसी का नहीं है। मोह लोभ का भी कारण है, जैसा कि धन से हमार स्नेह है तो धन को संग्रह करने की इच्छा होती है। अतः धन संग्रहित कने का भाव ही लोभ है और लोभ ही पाप का बाप है । लोभ पाप को जन्म देता है और पाप दुःख के सिवाय अन्य क्या दे सकता है ? उपर्यक्त बातों से सिद्ध होता है कि मोह से चारों कषायों की उत्पत्ति होती है। कषाय आत्मा को कलुषित करती है। आत्मा का परिणाम कलुषित होने से पाप बंध भी होगा । पाप बंध होने से पाप उदय में भी नियम से आयेगें और पापोदय से दुःख प्राप्त होगा। अतः जहाँ से भी देखों, किसी भी नियम से देखो, मोह जो है वह दुःख का ही कारण है और हम दुःखी मोह के कारण ही हो रहे हैं और सारा दुःख का खजाना मोह ही है । अतः मोह का जितना बने उतना त्याग करने का प्रयत्न करें । मोह से रहित होकर सुखानुभव का प्रत्येक जीव अनुभव करे इसी पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।
जय महावीर !
जिन मंदिर हमारे जिन धर्म की अनादिकाल की
परम्परा को बताने वाले है । - पूज्य आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी
जैन धर्मके तीर्थों एवं मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए चिंतन करे तभी हमारी संस्कृति सुरक्षित रह सकती है।
- पूज्य आचार्य श्री वर्धमानसागरजी म.
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कर्म से ही नहीं जन्म से भी महान्
मानव कर्म से ही नहीं जन्म से भी महान् है, आज जन-जन में एक भ्रम धारणा बन चुकी है कि मानव जन्म से नहीं अपितु कर्म से महान् है, जैन शासन में २४ तीर्थंकर जिस समय गर्भ मे आते है, गर्भ में आने के छः माह पूर्व ही कुबेर सुन्दर नगरी की रचना करता है। गृहांगन में रत्नों की वर्षा होती है। माता सोलह मंगल स्वप्नों को देखती है । इन्द्र की आज्ञा से अष्ट देवियाँ श्री, ही, धृति आदि व ५६ कुमारिकाएं माता की सेवा करती हैं यह सब क्यों ? इसका समाधान है कि गर्भ में आने वाला बालक कर्म से नहीं जन्म से ही अथवा गर्भ से ही महान् है । इतना ही नहीं जो जीव नरकायु को छोड़कर मध्यलोक मे तीर्थंकर होने वाले होते हैं उनके लिए नरक में भी ६ माह पूर्व नारकी उपद्रव नहीं कर पाते । देवलोक के जीव उनकी सुरक्षा में कोट लगा देते है । यदि जन्म लेने वाले जन्म से महान् नहीं होते तो नगर की रचना, रत्नों की वर्षा, साढ़े बारह करोड़ बाजों का बजना, इन्द्र द्वारा देवियों को माता की सेवा में भेजना, जन्मते बालक का सुमेरू पर्वत पर देवों द्वारा अभिषेक होना, जन्मजात शिशु के समक्ष एक भवावतारी सौधर्म इन्द्र का नतमस्तक होना उनके समक्ष नृत्य करना आदि अद्भुत कार्य, कैसे हो सकते हैं ?
- आर्यिका श्री स्याद्वादमती जी
तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेवादि महापुरुष जन्म से महान् हैं और कर्म से तो महान् है हीं । विचारणीय प्रश्न यह भी है कि एक महान् जीव के गर्भ में आने पर घर-परिवार मे सुख-शान्ति-वैभव में वृद्धि होती हैं माता के चेहरे पर मुस्कान होती है तथा उसे अच्छे-अच्छे दोहद उठते है । दुष्ट जीव के गर्भ में आने पर घर-परिवार में विपत्ति आती है, घर की रूचि अशुभ कर्मों में लगती है तथा मां को भी अनिष्ट दोहद उठते हैं । इन सभी विचारणीय चिन्हों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि मानव जन्म से भी महान् है, कर्म से भी महान् है ।
सत्यता की ओर दृष्टिपात करें, गहराई में प्रवेश करें तो जो जन्म से महान् नहीं है वह कर्म से भी महान् नहीं हो सकता । उच्च कुल में उत्पन्न हुआ मानव दिगम्बरावस्था को प्राप्त कर मुक्ति श्री का वरण कर सकता है, अन्य नहीं । जन्म से जिसका कुलादि उत्तम है उसकी वाणी, उसका व्यवहार, उसका रहन-सहन आदि अपने आप में विशेषता लिए होता है । अतः कर्म की महानता में प्रथम जन्म की महानता आवश्यक है । जन्म से महान् होने में अनेकों जन्मों का पुरुषार्थ कारण है ।
जिस भव्यात्मा ने पूर्व भव में प्राणीमात्र के उत्थान का विचार किया है, जिसके परिणामों में प्राणीमात्र के कल्याण की भावना सदा रही है, ऐसी महान् आत्मा तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है वह जन्म से भी नहीं
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गर्भ से महान् होता है ।
त्रिलोक्याधिपति तीर्थंकर भगवान मध्यलोक में जन्म लेने वाले है, इन्द्र अवधिज्ञान के द्वारा जब ऐसा जानता है तब वह कुबेर को आज्ञा करता है कि तुम मध्यलोक में जाकर सुन्दर, उत्तम नगरी की रचना करो । श्री ही आदि अष्ट देवियों को भी इन्द्र आज्ञा देता है कि तुम लोग तीर्थंकर जननी की सेवा करो ।
इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर नव योजन चौड़े और बारह योजन लम्बे सुंदर विशाल नगर की रचना करता है । कुबेर भक्ति के साथ गर्भ में आने के छह माह पूर्व ही दिन मे चौदह करोड़ रत्नों की वर्षा भी प्रारम्भ कर देता है ।
श्री ही धृति आदि आठ मुख्य देवियों के साथ छप्पन कुमारिका देवियां भी माता की सेवा करती है। जिनमाता पिछली रात्रि में १६ स्वप्नों गजराज, श्वेत वृषभ, सिंह, लक्ष्मी का कलश के द्वारा अभिषेक, दो माला, रवि, शशि, दो मीन, कनक घट, जलयुक्त सरोवर, कल्लोल मालाओं से युक्त समुद्र, सिंहासन, रमणीक देव विमान, धरणेन्द्र भवन, रूचिकर रत्नराशि और निर्धूम अग्नि को देखती है ।
प्रातःकाल शुभबेला में उठकर नित्य क्रिया से निर्वृत्त हो राजा के पास जाकर वह जिनमाता पतिदेव को विनयपूर्वक नमस्कार करके स्वप्नों का फल पूछती हैं। राजा स्वप्नों का फल कहकर रानी को संतुष्ट करते हैं तथा कहते हैं - प्रिये तुम्हारी कोख से तीनलोक का नाथ ऐसा तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न होगा।
भगवान तीर्थंकर को गर्भ में आया जानकर इन्द्र मध्यलोक में आता है और नगर की तीन प्रदक्षिणा देकर माता-पिता को नमस्कार करके उनकी फल पुष्पों से पूजा करता है। तथा उसी समय साढ़े बारह करोड़ वादित्र बजने लगते है ।
देवांगनाएं माता से अनेक प्रकार के गूढ़ प्रश्न पूछती है तथा माता भी गर्भस्थ महानात्मा से ज्ञान के प्रभाव से गूढ़ प्रश्नों का उत्तर देती है । बालक तीर्थंकर जनम से भी नहीं गर्भ से ही महान् होते है उसी महानता का फल माता पर भी पड़ता है। माता की सेवा देवियां करती है। कोई माता को नहलाती है, कोई श्रृंगार करती है, कोई दर्पण दिखलाती है। यदि स्वीकार न करें तो क्या अन्य नारी में यह में विशेषता देखने में आती है । इस प्रकार अनेक प्रकार से देव-देवांगनाएं गर्भालय मनाती है, उनको गर्भ कल्याण कहते हैं ।
मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान के अवधारक तीर्थंकर भगवान् का जिस समय जन्म होता है उस समय तीन लोक में आनन्द और शान्ति छा जाती है उसका वर्णन अवर्णीय है। देवियां माता की सेवा करने में तत्पर रहती है । पुत्र जन्म के समय माता को थोड़ा सा भी कष्ट नहीं होता। उस समय नाभिमंडल अत्यंत स्वच्छ हो । आकाश से कल्पवृक्ष के सुगन्धित पुष्पों की वर्षा होती है । दुंदुभि बाजे बजते है । प्रकृति भी उस समय मानों हर्ष से नाच उठती है ।
जाता
है
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तीर्थंकर भगवान के जन्म के समय दस अतिशय होते हैं ...
अतिशयरूप, सुगन्धतन नाहि पसेव निहार, प्रिय हित वचन अतुल्य बल रुधिर श्वेत आकार । लक्षण सहसरु आठ तन समचतुरस संस्थान,
बज्रवृषभनाराज जुत ये जनमत इस जान ।। तीर्थंकर बालक के शरीर में खून दूध के समान सफेद होता है । कषायवान हिंसक प्राणियों के भावों में कलुषता के कारण उनका शारीरिक खून लाल होता है, किन्तु तीर्थकर भगवान के परिणामों में प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव होता है तथा परिणामों में अशुभ लेश्या का अभाव होता है, इसी कारण उनका खून सफेद होता है।
प्रभु के जन्म के समय भवनवासियों के भवन में शंखध्वनि, व्यन्तरों के यहाँ भेरीनाद, ज्योतिषयों के यहाँ सिंहनाद तथा कल्पवासियों के घर घंटे बजने लगते है ।
प्रभु के जन्म के महाप्रभाव से इन्द्र का आसान कम्पित होता, इन्द्र अवधिज्ञान से जानता है कि मध्यलोक में तीर्थंकर प्रभु ने जन्म लिया है । वह हर्ष विभोर हो उठता है। सिंहासन से उठकर “जयतां जिनः" ऐसा कहकर हाथ जोड़कर भगवान् को परोक्ष नमस्कार करता है । इन्द्र की आज्ञा प्राप्तकर चतुर्निकाय के देव सौ गर्म इन्द्र की सभा में उपस्थित होते हैं । कुबेर सात प्रकार की सेना सहित अभियोग्य जाति के देव को ऐरावत बनने को आदेश देता है। कबेर की आज्ञा पाते ही विक्रिया शक्ति से सम्पन्न वाहन जाति का दवे एक लाख योजना का गजाकार वैक्रियिक शरीर बनाता है । उस गजराज के बत्तीस मुख होते हैं । एक-एक मुख में आठ-आठ दांत और प्रत्येक दांत पर एक-एक सरोवर, प्रत्येक सरोवर में एक-एक कमलिनी, एक-एक कमलिनी सम्बन्धी बत्तीस-बत्तीस कमल । प्रत्येक कमल के बत्तीस-बत्तीस पत्र रहते हैं। प्रत्येक पत्र पर देवांगनाएं मनोहरी नृत्य करती है।
चतुर्निकाय देव के साथ सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर प्रभु के जन्म स्थान पर पहुंचते हैं। सर्वप्रथम इन्द्र नगर की तीन प्रदक्षिणा देकर राजांगण में प्रवेशकर इन्द्मणी को प्रसूति घर में जाकर प्रभु को लाने की आज्ञा देता है ।
देवराज की आज्ञा पाकर इन्ह्मणी प्रसूतिघर में जाकर प्रभु के प्रथम दर्शन कर आल्हादित होती है, प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करती है। प्रथम दर्शन करने का महाभाग्य इन्द्राणी को प्राप्त हुआ, अहो पुण्य की महिमा अद्भूत है । प्रभुदर्शन से इन्द्राणी के नयनचकोर पुलकित हो उठे, हृदय में कल्पनातीत हिलोरे उठने लगी। इसी प्रथम दर्शन की भक्ति का महाफल वह इन्द्राणी एक भवावतारी होती है। इन्द्राणी माता की भक्ति कर माता के पास मायामयी बालक को रखकर प्रभु को गोदी में लेकर बाहर जाती है और इन्द्र की गोद में प्रभु को अर्पण करती है।
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इन्द्र भी प्रभु के दर्शनकर एक दृष्टि से निहरता हुआ प्रभु को अपल्क निरखता है तथा विशाल सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ बड़े-बड़े कलशों से प्रभु का अभिषेक करता है । इन्द्राणी भी प्रभु का अभिषेक कर श्रृंगार करती है, वस्त्राभूषण पहनाती है। प्रभु को पुनः जन्म स्थान में लाकर, माता-पिता को सौंपकर इन्द्र ताण्डव नृत्य करता है और प्रभु की सेवा में देवों को नियुक्त कर स्वर्गस्थान में चला जाता है। इस प्रकार जन्म से ही महान् तीर्थंकर प्रभु की देवकृत पूजा अभिषेक आदि क्रियाओं को जन्म कल्याणक महोत्सव कहते हैं ।
बालक तीर्थंकर दूज के चन्द्रमा की तरह बड़े होते हुए समस्त सुखों को भोगते हुए भी निमित्त पाते ही संसार से विरक्त हो जाते हैं। तभी उनके वैराग्य की अनुमोदन करने पंचम स्वर्ग से लौकान्तिक देव आते हैं । लौकान्तिक देव प्रभु के वैराग्य की अनुमोदना कर नमस्कार करते है एवं पुनः स्वर्ग चले जाते हैं । तभी चारों निकाय के देवों सहित इन्द्र आता है और क्षीरसमुद्र के जल से भगवान् का दीक्षाभिषेक करके सुन्दर वस्त्राभूषण से उन्हे सुसज्जित करता है । पश्चात् देवरचित पालकी में बैठाकर वन में ले जाता है ।
पालकी से नीचे उतरकर सर्व परिग्रह को त्याग चन्द्रकान्तमणि की शिला पर आरूढ़ होकर उपवास धारणकर “ऊँ नमः सिद्धेभ्यः” ऐसा उच्चारण कर भगवान् पंचम गति की प्राप्ति के लिए पंच परावर्तनों का मूल विच्छेद करने के लिए पंचमुष्टी केशलोंच कर मोह शत्रु के सेना को उखाड़कर फेंक देते है । प्रभु के पावन केशों को इन्द्र रत्न पिटारे में रखकर उत्साह व भक्ति के साथ क्षीर समुद्र में विसर्जित करता है। प्रभु दो, तीन, चार आदि दिनों में पारणा के लिए आते हैं, राजा के घर आहार करते हैं । राजांगण में रत्नों की वर्षा होती है, दुंदुभि-वादित्र बजते हैं, पुष्प-वृष्टि, जय-जय ध्वनि और गंधोदक की वर्षा रूप पंचाश्चर्य होते हैं । इस प्रकार तीर्थंकर प्रभु की वैराग्य अवस्था को दीक्षाकल्याणक कहते है ।
जिनदेव ध्यानाग्नि के द्वारा घातियां कर्म का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । केवलज्ञान प्राप्त होते ही प्रभु पृथ्वीतल से ५००० धनुष ऊपर चले जाते हैं। प्रभु के दर्शनार्थ समीप में जाने के लिए इन्द्र विशाल समवशरण की रचना करता है। समवसरण में आठ भूमियां हैं
प्रासाद चैत्य निलया परिखात वल्ली । प्रोद्यानकेतु सुरवृक्षकृहाड्ड गणाश्च ।। पीटत्रयं सदसि चस्यं सदा विभाति ।
तत्मे नमस्त्रिभुवन प्रभवे जिनाय ।। ३।।नं.भ. ।।
(१) चैत्य प्रासाद भूमि (२) खातिका भूमि (३) लता भूमि (४) उपवन भूमि (५) ध्वजा भूमि (६) कल्पभूमि (७) भवनभूमि और (८) श्रीमण्डप भूमि ।
अष्टम श्री मण्डप भूमि में १२ कोठे होते हैं उनमें क्रमश मुनिराज आदि विराजमान होते हैं
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निर्ग्रन्थ मुनिवर कल्पवनिता आर्यिका हैं सोहती । ज्योतिषी व्यन्तर भवन की देवियां मन मोहती ।। भवन व्यन्तर ज्योतिषी अरु कल्पवासी देव हैं
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मनुज पशु सब जिन चरण में झुक रहे सिर टेक हैं ।।
श्री मण्डप की भूमि के मध्य वैडूर्य भूमि निर्मित प्रथम पीठिका हैं । उस पीठिका पर अष्ट मंगलद्रव्य भृंगार, ताल, कलश, ध्वज, स्वस्तिक, छत्र, दर्पण, चमर, और यक्षराज के मस्तक पर स्थित हजार आरों वाला धर्मचक्र हैं । प्रथम पीठिका के ऊपर स्वर्ण निर्मित दूसरी पीठिका है उसके ऊपर चक्र, गज, वृषभ, कमला, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और माला चिन्ह से युक्त निर्मल ध्वाजाएं हैं ।
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तीसरी पीठिका पर तीन छत्र से शोभित, मणिमय वृक्ष के नीचे सिंहासन पर अन्तरिक्ष जिनेन्द्र भगवान स्थित रहते हैं। इस समवसरण सभा में बीस हजार सीढ़ियां रहती हैं । भगवान् के दोनों तरफ चौसठ चमर दुलते हैं । भगवान के पीठ पीछे रात दिन के भेद को नष्ट करने वाला भामंडल है । अमृत के समुद्र सदृश निर्मल भामण्डल रूप दर्पण में सुर-असुर तथा मानव अपने सात सात भव देखते हैं । केवल ज्ञान होते ही जिनेन्द्र देव में अतिशय होते हैं
योजन शत इक में सुभिख गगन गमान मुख चार । नहि अदया उपसर्ग नहीं, नाहि कवलाहार ॥
सब विद्या ईश्वर पनो, नाहि बढ़े नख केश ।
अनिमिष द्दग छाया रहित दस केवल के वेश ।।
समवशरण में विराजमान तीर्थंकर भगवान के केवलज्ञानोत्सव की पूजा करने व भगवान के दर्शन करने के लिए ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो इन्द्र इन्द्राणी अपने सब परिवार के साथ आते हैं और चतुर्निकाय के देवों के साथ दिव्य वस्तुओं के द्वारा जिनदेव की भक्ति पूर्वक पूजा करते हैं
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समवशरण में स्थित प्रभु की प्रभातकाल, मध्याहूनकाल, सायंकाल तथा मध्यरात्रि में छह-छह घड़ी तक दिव्य वाणी सर्वांग से खिरती है। भगवान की वाणी को गणधर झेलते हैं । प्रभु की दिव्यवाणी में सप्त तत्वों का कथन होता है जिसको सुनकर भव्यजीव सन्तुष्ट होते हैं तथा अनेक प्रकार के व्रत, नियम, संयम धारण कर आत्मकल्याण करते हैं ।
तीर्थंकर प्रभु अपने विहार के विभिन्न देशों को पवित्र करते हैं । विहार के समय देवगण प्रभु के चरण-कमलों के नीचे दो सौ स्वर्णमय कमलों की रचना करते हैं। इस प्रकार केवलज्ञानोत्पत्ति के समय इन्द्र द्वारा समवशरण रचना होना, केवल ज्ञान की पूजा होना, दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य जीवों का कल्याण होना आदि सब केवलज्ञान कल्याण महोत्सव हैं ।
तीर्थंकर भगवान से विभिन्न देशों में जिनधर्म की अपूर्व प्रभावना करते हुए, धर्मोपदेश की वर्षा करते हुए अन्त में समवशरण स्वरूप बहिरंग लक्ष्मी का त्यागकर अपनी अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी में सुशोभित होते हुए योगों का
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निरोध कर शुक्ल ध्यान रूप अग्नि के द्वारा अघातिया कर्मों का क्षयकर परम विशुद्ध सिद्धावस्था को / मोक्ष को प्राप्त करते
युक्त हो जाते है ।
। एक समय में ही ऋजुगति से गमन कर वे लोकाग्र में स्थित हो अष्टगुणों आयु पूर्ण होते ही तीर्थंकर भगवान का परमौदायिक शरीर कपूर की भाँति उड़ जाता हैं । चतुर्निका के देव आकर सर्वप्रथम आनन्द नामक नाटक करते हैं। अग्निकुमार देव अपने मुकुट से अग्नि उत्पन्न कर नखऔर केशों का दाह संस्कार करते हैं । तदनन्तर निर्वाण स्थान पर भगवान की पूजा-स्तुति, नमस्कार करके देव अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं ।
स्पष्टतः सिद्ध है कि जन्म से महान् आत्मा ही पंचकल्याणक विभूति को प्राप्त करता है। जन्म से महान् आत्मा कर्म से ही महान् बनकर अपने परमपद को तथा अनन्त सुख को प्राप्त करता है ।
भीतर से धर्मी बनो, छोड़ो मायाचार । करनी-कथनी एक हो, यही धर्म का सार ।।
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महावीर का अनुपम अवदान अपरिग्रह
नीरज जैन, सतना
परिग्रह की तृष्णा को अपने लिए अहितकर समझकर अंतरंग और बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रहों से ममत्व-भाव हटाना, परिग्रह का भार कम करने के उपाय करना और अपनी आवश्यकता के अनुरूप उनकी सीमा निर्धारित करके उससे अधिक संग्रह का त्याग कर देना, यही परिग्रह परिमाण-अणुव्रत की परिभाषा है। यह अपनी अंतहीन इच्छाओं को सीमित करने का कौशल है अतः इसका दूसरा नाम इच्छा-परिमाण व्रत भी है। यह भगवान महावीर के उपदेशों का प्राण तत्व है । परिग्रह के प्रकार :
परिग्रह चौबीस प्रकार का कहा गया है। चौदह अंतरंग और दस ब्राह्य । मिथ्यावाद या अविद्या, क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य रति-अरति भय-जुगुप्सा और शोक तथा स्त्री और नपुंसक वेद सम्बन्धी वासना, यह चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह है। दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि चेतना में उठने वाली विकार की सभी तरंगे अंतरंग परिग्रह हैं । कामनाओं का ही दूसरी नाम है- अंतरंग परिग्रह ।
बाह्य परिग्रह के दस भेद है- क्षेत्र-वास्तु, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, शयनासनयान, कुप्य और भाण्ड । इन सब अंतरंग और बहिरंग परिग्रहों में, अपनी शक्ति, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार सीमा बांध कर उनके बाहर जो अनन्त पदार्थ हैं उन सबका मन-वचन और काय से त्याग कर देना “परिग्रह परिमाण-अणुव्रत” है।
परिग्रह परिमाण व्रत का दूसरा नाम इच्छा परिमाण व्रत है। इच्छाओं का विस्तार असीम है । यदि उन्हें सीमित न किया जाये तो इच्छाएं मानव को दानव के समान भयावह और विवेकहीन बना देती हैं ।
मनुष्य जब अपनी इच्छाओं के अधीन हो जाता है तब वह चाहता है कि सबसे अधिक सुखसुविधाएं और साधन उसी के पास हों । सारा वभैव, यश और खुशियां उसे ही मिलती रहें। मजे की बात यह है कि जैसे इच्छाओं की पूर्ति होती है, वैसे ही वैसे उनका दायरा बढ़ता जाता है । तृष्णा की यही विशेषता है कि वह कभी समाप्त नहीं होती । वह ऐसी आग है जो बुझना जानती ही नहीं।
आज समाज में जो शोषण-वृत्ति, अविश्वास, ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट, दुख-दारिद्र्य, लूट-मार और शोक-संताप ऊपर से नीचे तक व्याप रहे हैं । उनका प्रमुख कारण परिग्रह वृत्ति, जमाखोरी, मुनाफाखोरी या संग्रह की भावना ही है। परिग्रहवृत्ति हिंसा का मूल कारण है। इससे बचना या इस पर नियंत्रण रखना ही हितकर है, इसीलिए गृहस्थ श्रावक को इच्छा-परिमाण व्रत का परामर्श दिया गया है ।
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भाव हिंसा और द्रव्य-हिंसा की तरह परिग्रह में भी भेद करना चाहिए। पदार्थों के साथ मन में लगाव रखना, उनके व्यामोह की मूर्च्छा में खो जाना भाव-परिग्रह है। मनचाही वस्तुओं का स्वामित्व प्राप्त कर लेना, उन पर काबिज हो जाना द्रव्य परिग्रह या भौतिक परिग्रह है ।
भौतिक परिग्रह मेरा बना रहे और भीतर से उसकी लोलुपता छूट जाये ऐसा कभी नहीं हो सकता । इसीलिए ब्राह्य परिग्रह का त्याग साधक के लिए अनिवार्य है। अंतरंग में जितना ममत्व-भाव हो इतने पदार्थ मिल ही जायें, ऐसा नियम तो नहीं हैं, परन्तु बाहर जितना हमने जोड़कर, संजोकर रखा है, जिसकी रक्षा के लिए हम दिन-रात चिंतित हैं, नियम से उसकी ममता हमारे भीतर होगी। धान का ऊपरी मोटा छिलका चढ़ा रहे और भीतर का महीन लाल छिलका उतर जाए यह कैसे संभव है ?
परिग्रह परिमाण - अणुव्रत में विक्षेप उत्पन्न करने वाले पांच अतिचार हैं अतिविस्मय, अतिलोभ और अति भारवाहन । इनकी व्याख्या इस प्रकार होगी
१. अधिक लाभ की आकांक्षा में शक्ति से अधिक दौड़-धूप करना । दिन-रात उसी आकुलता में उलझने रहना और दूसरों से भी नियम-विरुद्ध अधिक काम लेना अतिवाहन
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२. अधिक लाभ की इच्छा से उपभोक्ता वस्तुओं का अधिक समय तक संग्रह करके रखना । अर्थात् अधिक मुनाफाखोरी या जमाखोरी की भावना रखकर संग्रह करना अतिसंग्रह है ।
३. अपने अधिक लाभ को देखकर अहंकार में डूब जाना और दूसरों के अधिक लाभ में विषाद करना, जलना-कुढ़ना और हाय-हाय करना अतिविस्मय है। अपनी निर्धारित सीमा को भूल जाना या बढ़ाने की भावना करना भी उसमें शमिल है ।
अतिवाहन, अतिसंग्रह,
४. मनचाहा लाभ होते हुए भी और अधिक लाभ की आकांक्षा करना, क्रय-विक्रय हो जाने के बाद भाव घट-बढ़ जाने से, अधिक लाभ की सम्भावना हो जाने पर उसे अपना घाटा मानकर संक्लेश करना अतिलोभ है ।
५. लोभ के वश होकर किसी पर न्याय से अधिक भार डालना, तथा सामने वाले की सामर्थ्य के बाहर अपना हिस्सा, मुनाफा, ब्याज आदि वसूल करना अति भारवाहन है ।
पांच इन्द्रियों के माध्यम से स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द-स्वर आदि का ज्ञान होता है । इसी माध्यम से वस्तुओं के संग्रह की भावना बढ़ती है, अतः पांच इन्द्रियों के विषयों पर नित्य नियंत्रण की भावना रखना परिग्रह - परिमाण व्रत ही भावना है
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हिंसा- झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह ये पांच पाप दुख रूप हैं। जिसके साथ हिंसा आदि का व्यवहार किया जाता है, वह तो दुःखी होता ही है परन्तु इन्हें करते समय, पाप करने वाले को भी कई प्रकार से दुख झेलने पड़ते है । पाप दुख रूप है। आगामी काल में इन पापों का दुष्फल भोगना पडेगा, तब भी तरह तरह दुख जीव को उठाने पड़ेंगे अतः पाप दुख के बीज भी है 1
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वध बंधन और पीड़न जिस प्रकार मुझे अप्रिय हैं, उसी प्रकार वे दूसरे प्राणियों को भी अप्रिय और कष्टकर होंगे। किसी के कठोर और कटु वचन सुनकर या झूठी बातों से मुझे दुःख होता है, वैसे ही दूसरों को भी दुःख होता होगा । मेरी किसी वस्तु की चोरी हो जाने पर, या ठगे जाने पर मुझे जैसी पीड़ा होती है, वैसे ही दूसरे लोग भी वस्तु के वियोग में पीड़ित होते होंगे। मेरे परिवार की स्त्रियों का जरा सा भी तिरस्कार हो जाये तब मुझे जैसा मानसिक कष्ट होता है, वैसा ही अपनी माता-बहिन-पत्नी या पुत्र को लेकर दूसरों को भी होता होगा। परिग्रह-प्राप्ति में बाधा आ जाने पर या प्राप्त परिग्रह के नष्ट हो जाने पर जैसे मुझे वांछा और शोक आदि का दुख उठाना पड़ता है, वैसा ही सभी को होता होगा ।
बार-बार ऐसा चिन्तवन करने से यह आस्था बनेगी कि हिंसादिक पाप केवल दूसरों के लिए ही दुखद नहीं है, वे मेरे लिए भी वर्तमान में दुःख रूप हैं तथा भविष्य के लिए दुख के बीज हैं । आज बोते समय भले ही क्षणिक सुख का आभास इनमें होता है, परन्तु कालान्तर में जब मुझे वह फसल काटनी पड़ेगी, तब तक यातनाओं, पीड़ाओं और संक्लेशों के चक्रव्यूह में मेरी आत्मा अकेली ही होगी । उस समय मेरा कोई सहायी नहीं होगा।
.... नहीं, अब मुझे यह कटीली फसल बोनी ही नहीं है । अपने कुरुक्षेत्र को सुलगने नहीं देना है। पांच ग्राम देकर यह संघर्ष, टलता हो तो यह अवसर खोना नहीं है। क्या सचमुच परिग्रह पाप है..?
शास्त्रों में पग-पग पर परिग्रह को पाप बताया गया है । जिसने भी आत्मकल्याण का संकल्प लिया उसने सबसे पहले परिग्रह का ही त्याग किया है । प्रायः सभी धर्मग्रन्थों में परिग्रह की निन्दा की गई है। परन्तु बात कुछ समझ में आती नहीं । सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराने की सामर्थ्य रखने वाली सम्पदा पाप कैसे हो सकती है ? कुछ लोग उसे पुण्य का भी तो कहते हैं। पुण्य का फल और पाप यह कैसे हो सकता है ? ऐसे अनेक प्रश्न परिग्रह को लेकर मन में उठते हैं । परिग्रह पाप है तो उसका जहरीलापन समझा जाना चाहिये । उसे सही परिप्रेक्ष्य में पहचाना जाना चाहिये । इसलिए परिग्रह पर कुछ और विचार करेंगे। अपरिग्रह-संरक्षक -
एक व्यक्ति मकान बनवाना चाहता था। उसने वास्तकार से अपने मन का नक्शा तैयार करवाया। नक्शा सचमुच बहुत अच्छा बना था । उसके साथ निर्माण के लिए तकनीकी परामर्श ( वर्किंग डिजाइन्स) भी साथ में दी गई थी। इस सब के लिए धन्यवाद देते हुए वास्तुकार से प्रश्न किया गया - कभी-कभी नये मकान में भी पानी टपकने लगता है। आप इतनी कृपा और करें कि इस नक्शे में उन स्थलों पर निशान लगा दें जहां पानी टपकने की हालत में मरम्मत करानी चाहिए।
प्रश्न सुनकर वास्तुकार चकित था । अपने व्यावसायिक जीवन में पहली बार ऐसे प्रश्न से उसका
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सामना हुआ था । उसने कहा- बन्धु ! यदि मेरी डिजाइन के अनुसार निर्माण होगा तो मकान में पानी टपकने का कोई प्रश्व ही नहीं है । परन्तु यदि किसी कारण से, कभी, छत टपकने ही लगे तो उस समय कहां मरम्मत करानी होगी, वह आज नक्शे में कैसे रेखांकित किया जा सकता है ? जब पानी टपके तभी आप देख लें कि पानी कहां से टपकता है, बस वहीं मरम्मत करानी होगी ।
भगवान महावीर ने हमें अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए भी एक ऐसा नक्शा दिया था जिससे एक छिद्र रहित भवन हम बना सकते थे। उन्होंने जीवन निर्माण के लिए कुछ ऐसे तकनीकी परामर्श दिये थे जिन पर यदि अमल किया जाता तो एक निष्पाप और निष्कलंक व्यक्तित्व हमारा बन सकता था । हमारे जीवन में पाप का प्रवेश हो ही नहीं सकता था ।
परन्तु हम चूक गये । अपने व्यक्तित्व का प्रासाद खड़ा करते समय हमने महावीर के निर्देशों का पालन नहीं किया । इसी का फल है कि हमारे जीवन में पांच पापों का प्रवेश हो रहा है। यदि हमारा जीवन उनकी बताई हुई पद्धति पर गढ़ा जाता तो उसमें पाप के रिसाव का कोई प्रश्न ही नहीं था ।
अब हमारे सामने समस्या यही है कि अपने सछिद्र व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाने के लिए हम क्या उपचार करें ? हमारे जीवन में जगह जगह पाप का मलिन जल टपक रहा है, किस तरफ से उस चुअन रोकने का प्रयास करें ?
पाप प्रवृत्तियों से बचने के लिए महावीर का यही परामर्श है कि निरंतर आत्म-अवलोकन करते रहें । जिस आचरण के माध्यम से हमारे जीवन में पाप प्रवेश होता दिखे, उस आचरण को पूरी सतर्कता के साथ अनुशासित करने का प्रयत्न करें ।
पाप की जड़- लिप्सा
आज हमारे जीवन में परिग्रह ही शेष चार पापों के द्वार खोल रहा है। आज वही कैन्सर की व्याधि बनकर हमारे मन मस्तिक पर छाया हुआ है। जीवन में प्रवेश करती हुई पाप की धारा को रोकने के लिए, हमें पहले अपनी परिग्रह लिप्सा पर अंकुश लगाना होगा, तब उस दिशा में आग बढ़ा जा सकेगा ।
हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील से हम सब घृणा करते हैं, परन्तु परिग्रह से कोई घृणा नहीं करता । उल्टे उसके सान्निध्य में हम अपने आप को सुखी और भाग्यवान समझने लगे हैं। यह परिग्रह-प्रियता हमें भीतर तक जकड़ रहीं हैं, यह हित-अहित का विवेक भी हमसे छीन रही है । आज परिग्रह के पीछे मनुष्य ऐसा दीवाना हो रहा है कि उसके अर्जन और संरक्षण के लिए वह करणीय और अकरणीय, सब कुछ करने को तैयार है ।
हम अनजाने में भी हिंसक नहीं होना चाहते, परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिए जितनी भी हिंसा करनी पड़े हम करते जा रहे हैं। हम स्वप्न में भी झूठ और चोरी कमें अपनी प्रतिष्ठा नहीं मानते ।
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उनके बिना अपने आपको दुखी भी नहीं मानते । परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिए जितना झूठ बोलना पड़े, हम बोलते है। जिस-जिस प्रकार की चोरी करना पड़े हम करने को तैयार बैठे है ।
आज हमारी जीवन पद्धति में व्यभिचार और कुशील निन्दनीय माने जाते हैं। कोई कुशील को अपने जीवन में समाविष्ट नहीं करना चाहता । परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिए जितना कुशील -मय, व्यवहार करना पड़े, हममें से प्रायः सब, उसे करने के लिए तैयार बैठे हैं 1
परिग्रह को लेकर कहीं अनुज, अग्रज के सामने आँखे तरेर कर खड़ा है, उसकी अवमानना और अपमान कर रहा है। कहीं अग्रज अपने अनुज को कोर्ट कचहरी तक घसीट रहा है । परिग्रह को लेकर ऐसे तनाव प्रगट हो रहे हैं कि बहिन की राखी भाई की कलाई तक नहीं पहुंच पा रही । परिग्रह के पीछे पति-पत्नी के बीच अनबन हो रही है और मित्रों में मन-मुटाव पैदा हो रहे हैं
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ये होने के पहले ही टूटते हुए रिश्ते, ये चरमराते हुए दाम्पत्य, परित्यक्त पत्नियों की ये सुलगती हुई समस्याएँ और दहेज की वेदी पर झुलसती जलती ये कोमल-कलियाँ, हिंसा झूठ और चोरी का परिणाम नहीं है ? ये सारी घटनाएं व्यभिचार के कारण भी नहीं घट रहीं है ? ये सारी घटनाएं व्यभिचार के कारण भी नहीं घट रहीं ? मानवता के मुख पर कालिख पोतने वाले, और समाज में सड़ाध पैदा करने वाले ये सारे दुष्कृत्य, हमारी परिग्रह लिप्सा के ही कुफल हैं। गहराई में जाकर देखें तो इनमें से अधिकांश घटनाओं के पीछे हमारा लोभ, हमारी लालच, और भौतिकता के लिए हमारी अतृप्त आकांक्षाएँ ही खड़ी दिखाई देंगी ।
महावीर की संहिता में परिग्रह की लोलुपता को, सभी पापों की जड़ बताते हुए कहा गया “मनुष्य परिग्रह के लिए ही हिंसा करता है। संग्रह के लिए ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है । कुशील भी व्यक्ति के जीवन में परिग्रह की लिप्सा के माध्यम से आता है । इस प्रकार परिग्रह की लिप्सा आज का सबसे बड़ा पाप । उसी के माध्यम से शेष चार पाप हमारे जीवन में प्रवेश पा रहे हैं । लिप्सा ही वह छिद्र है जिसमें से होकर हमारे व्यक्तित्व के प्रासाद में पाप का रिसाव हो रहा है ।
संग णिमितं मारइ, भणई अलीकं, करेज्ज चोरिक्कं, सेवइ मेहुण-मिच्छं, अपिरमाणो कुणदि जीवो।
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- समणसुत्तं
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सर्वोदय तीर्थ
- राजकुमार बड़जात्या
भगवान महावीर का तीर्थ सर्वोदय तीर्थ है। किसी भी तीर्थ या धर्म में सर्वोदयता तभी आ सकती है, जब उसमें सामप्रदायिकता, पारस्परिक वैमनस्य, ईर्ष्या और हिंसा आदि के लिए कोई स्थान हो । आज समाज एवं देश में चारों ओर अशान्ति, अभाव और वैर-विरोध के बादल मंडरा रहे है । इसके कारणों की खोज करें तो ज्ञात होगा कि आज मानव ने मानवता और धर्म भावना को तिलांजलि देकर अधर्म, अनैतिकता, हिंसा, संग्रहवृति और विवाद को अपना लिया है, किन्तु यदि व्यक्ति अहिसा, अपरिग्रह ओर अनेकान्त को अपना लें तो आज भी घर, समाज, राष्ट्र और विश्व में शांति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है। परस्पर सहायता, सहानुभूति, एकता, उदारता, प्रेम, प्रामाणिकता, संतोष तथा संयम सदृश सद्गुणों की यदि अभिवृद्धि हो जाये तो सर्वत्र शान्ति, सौहार्द एवं सौमनस्य का वातावरण स्थापित हो सकता है।
अहिंसा एक ऐसी सुन्दर व्यवस्था है जो प्राणीमात्र को बिना भेदभाव के अपना पूर्ण विकास करने के समान अवसर प्रदान करती है। प्राणीमात्र का हित सम्पादन करने वाली अहिंसा मानव को मानवता का पाठ पढ़ाती है तथा उसे सत्यनिष्ठ, निश्चल, निर्लोभ, क्षमाशील और आत्मोन्मुख बनने का संकेत प्रदान करती है। अहिंसा मानव को विश्वप्रेम एवं विश्व बंधुत्व के अवसर प्रदान कराती है। जिसमें भय, कायरता, घृणा, द्वेष, निराशा, शोषण, मायाचार, निर्दयता, झूठ और बेईमानी आदि कुप्रवृतियों का अभाव रहता है।
भगवान् महावीर की वाणी का दिव्य उद्घोष यही है कि जीव मात्र में स्वतंत्र आत्मा का अस्तित्व विद्यमान है। प्रत्येक जीव को जीवित रहने का और आत्मस्वातंत्र्य का उतना ही अधिकार है जितना दूसरों को । जैसे अपने जीवन में तुम्हें कोई बाधा सह्य नहीं उसी प्रकार दूसरों के जीवन में भी आप बाधक मत बनो । अहिंसा में आस्था रखने वाले साधक की यही भावना रहती है -
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वं ।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।। अहिंसा के आधार है - प्रेम, करुणा, आत्मीयता, त्याग और ममता । जहाँ अहिसा है वहाँ अभय है, करुणा है । जहाँ प्रेम है, वहाँ भय कैसा ? आज का मनुष्य एवं समाज अहिंसा के गुणगान तो बहुत करता है परन्तु वह अहिंसा लोगों के पारस्परिक व्यवहार में नहीं उतर सकी है। आज कथनी और करनी में बहुत अन्तर आ गया है । अहिंसा का यथार्थ स्वरूप राग-द्वेष, क्रोध-मान-माया-लोभ, भीरूता, शोक और घृणादि विकृत भावों का परित्याग करना है। संसार के सभी धर्मों ने अहिंसा की महत्ता को स्वीकार किया है ।
अपरिग्रह और परिग्रह परिमाण व्रत सर्वोदय तीर्थ का दूसरा आधार स्तम्भ है । आज का मानव
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भौतिकता की चकाचौंध में अमर्यादित लालसाओं के कारण संग्रहवृत्ति में आकण्ठ निमग्न हो रहा है और इसके लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अतितृष्णा को अपनाने में तनिक भी नहीं हिचकता । इससे उसके हृदय में एक प्रकार के आंदोलन एवं संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है फिर उसके परिणाम चोरी, लूटमार, युद्ध, हिंसा, विद्वेष, छल, कपट, मिलावट घुसखोरी के विविध रूपों में प्रगट हो रहे हैं । आज पर पदार्थों में ममत्व बुद्धि इनती बढ़ गई है कि मनुष्य दूसरों की सम्पत्ति पर अपना अधिकार जमाने में जरा भी चूकता नहीं । संसार के समस्त पापों का मूल यह परिग्रह या मूर्छाभाव ही है। इससे ग्रस्त हुआ व्यक्ति जघन्य से जघन्य कार्य करने में तनिक भी संकोच नहीं करता ।
जैनाचार्यों का उद्घोष है कि सुखी रहने के लिए और सुखी रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने भोग और उपभोग की सामग्री की सीमा बांधनी चाहिए। अपनी सीमित आवश्यकताओं की परिपूर्ति के बाद जो भी बचे उसे जनकल्याण में लगा देना चाहिए । जैन धर्म ने गृहस्थों के पुरुषार्थ द्वारा उत्पादन और उपार्जन पर रोक नहीं लगाई है, उसका तो उतना ही कथन है कि मनुष्य को अपने व्यापारादि सभी कार्य नैतिकता एवं ईमानदारी से करना चाहिए और दुष्कृत्यों से बचना चाहिए । जैन धर्म की मूल शिक्षा समत्व के सर्जन और ममत्व के विसर्जन की है क्यों कि इसकी दृष्टि में ममता या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं की मूल है ।
वर्तमान युग में वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। यह वैचारिक असहिष्णुता धार्मिक, दार्शनिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक समग्र जीवन को विषाक्त बना रही है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में जैन दर्शन का अनेकान्त ही मानव को संकीर्णता से ऊपर उठाने हेतु दिशा निर्देश दे सकता है। अनेकान्त धर्म वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराता है और पक्षपात से ग्रसित लोगों को संकेत करता है कि वस्तु उतनी ही नहीं है जितनी आप कह रहे है। आचार्यों ने वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानकर सत्य को अनेक पहलुओं से समझने का संकेत किया है अतः पक्षपात छोड़कर दूसरों की विचारधारा भी समझनी चाहिए ।
वस्तुतः जैन धर्म एक विशुद्ध धर्म है। इसका तत्त्वज्ञान अनेकान्त पर आधारित है और आचार अहिंसा पर प्रतिष्ठापित । यह धर्म ऐहिक और पारलौकिक मान्यताओं पर अन्ध श्रद्धा रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नहीं है। यह तो प्राणिमात्र के हित में वस्तु स्वभाव व मनोविज्ञान के अति निकट है । इसके सिद्धान्त मानव को शान्ति की ओर अग्रसर करते है, इसलिए तत्त्वज्ञों ने इस धर्म को सर्वोदय तीर्थ कहा है।
इस वर्ष भगवान महावीर का २६०० वां जन्म महोत्सव ६ अप्रैल २००१ से राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है। हमें चाहिए कि भगवान महावीर का सर्वोदय तीर्थ एवं उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त एवं स्याद्वाद सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में किया जाये, जिससे कि विश्व में सुख, शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सके।
।। जैनं जयतु शासनम् ।।
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तमिलनाडु में जैनधर्म
-महेन्द्रकुमार जैन (धाकड़ा)
जैन धर्म विश्व धर्म है । यह अनादि एवं सभी धर्मों में उत्कृष्ट है। जैन धर्म को कई नामों से जाना जाता है, यथा- अर्हत् धर्म, अनेकान्त धर्म, स्याद्वाद धर्म आदि । जैन धर्म के आराध्यदेव को जिन कहते है। जिसका अर्थ है- जीतने वाला। जिसने विकारों पर विजय प्राप्त करली, वह जिन है ।
जीवात्मा और परमात्मा में इतना ही अन्तर होता है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम क्रोधादि विकारों के कारण कर्मों से घिरा रहता है, अतः स्वाभाविक गुण- अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख प्रकट नहीं हो पाते । जब वह उन कर्मों को क्षय कर देता है, तब वह परमात्मा बन जाता है। उन्हीं परम पूज्य परमात्माओं के जिन बिम्ब हमारे भव्य जिनालयों में स्थापित करते हैं उनके गुणों की पूजा करके अपने कर्मों का नाश करते है ।
आईये, अब तमिलनाडु में जैन धर्म एवं उसकी परिस्थिति पर विचार करेंगे। आज जितना तमिलनाडु प्रान्त है, यह प्राचीन काल में कई गुणा विस्तृत था । आज के विभक्त तमिलनाडु, कर्णाटक, केरल एवं आन्ध्र- ये सभी प्रदेश सम्मिलित होकर एक विशाल प्रांत की सीमा रेखाएं निर्धारित करते थे, जिसे द्रविड़ के नाम से जाना जाता था । द्रविड़ जैन धर्मावलम्बियों का प्रमुख केन्द्र था । जैन एवं जैनेतर सभी इतिहासकारों का यही मत है । यहाँ महान् आचार्य कुंदकुंद, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य अकलंक आदि विद्वद् शिरोमणियों का जन्म स्थान एवं प्रचार स्थल होने के कारण जैन धर्म जगमगाता रहा। ये सभी आचार्य ज्ञानसिन्धु एवं गरिमा के प्रतीक थे ।
तमिलनाडु जैन सिद्धान्त और जैनत्व के अति प्राचीनतम भग्नावेश का स्थानभूत प्राचीन देश है । यह प्रदेश जिनबिम्ब, जिनालय, शिलालेख, विज्ञान, कला आदि से ओतप्रोत है । यहाँ पर जैनत्व के अनमोल जवाहरात बिखरे पड़े हैं। इन रत्नों का परिचय होना जैन समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक है । यहाँ के खण्डहरों का अवलोकन करेंगे तो स्पष्ट विदित होगा कि एक समय में जैन समुदाय के लोग कितनी तादाद में रहे होंगे और उन लोगों ने जैन धर्म की आराधना की होगी। यहाॅ की पवित्र तपोभूमियां त्यागी महात्माओं के त्याग के रजकणों से भरी पड़ी है। जिस प्रकार हमारे तीर्थंकर परम देवों ने उत्तर भारत को दिव्य चरणों से पवित्र किया है तदनुसार अत्यन्त उद्भट महती प्रभावना से ओतप्रोत आचार्यों ने तमिल प्रान्त को एकदम पवित्र बनाया है । इस प्रदेश में दिगम्बर जैनाचार्यों के संचार ने जैन संस्कृति को अत्यन्त प्रगतिशील बनाया है, मगर कारणवश उसका पतन हुआ है ।
आचार्य भद्रबाहु महाराज के साथ १२ हजार मुनियों का विचरण दक्षिण भारत में हुआ । उनमें से आठ
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हजार साधु गणों ने तमिलनाडु में विचरण किया। उनके विहार से पवित्रित यह भूमि भग्नावशेषों के द्वारा आज भी उनकी पवित्र गाथाओं की याद दिलाती हुई शोभित हो रही है ।
भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् उनके पदानुगामी आचार्य कुन्दकुन्द महाराज की तपोभूमि इसी प्रान्त में है, उसका नाम पुन्नूरमलै है । यह पवित्र स्थान उनके महत्व की याद दिलाता हुआ शोभायमान हो रहा है । अकंलक बस्ती आह्वान करता हुआ बता रहा है कि आओ और महात्माओं के चरण-चिह्नों से आत्मशोधन कर प्रेरणा प्राप्त कर लो । मदुराई आदि जिलों में यद्यपि जैन धर्मावलम्बी नहीं है परन्तु यहाँ के सुरम्य पर्वतों की विशाल चट्टानों पर उत्कीर्ण जिनेन्द्र भगवान् के बिम्ब और गुफाओं में बनी हुई बस्तिकायें तथा चित्रकारी आदि सबके सब २००० वर्षों पूरानी अपनी अमर कहानी सुनाती रहती है । यहाँ सैंकड़ों साधु-साध्वियों के निवास, अध्ययन, अध्यापन के स्थान, आश्रम आदि के चिह्न पाये जाते हैं । सिद्धानवासन, यानेमलै, कलगुमलै आदि पहाड़ है। वे दर्शनीय होने के साथ-साथ आत्मतत्व के प्रतिबोध के रूप में जाने जाते हैं।
प्राचीनकाल में तमिलनाडु में जैन धर्म राजाओं के आश्रय से पनपता रहा । चेर, चोल, पाण्डय और पल्लव नरेशों में कतिपय जैन धर्मावलम्बी थे और कुछ जैन धर्म को आश्रय देने वाले थे। इसका प्रमाण यहाँ के भग्नावशेष और बड़े-बड़े मन्दिर है। चारों दिशाओं के प्रवेशद्वार वाले जितने भी अजैनों के मन्दिर है वे सभी एक समय में जैन मन्दिर थे । वे सब समवसरण पद्धति से बनाये हुए थे । अब भी बहुत से अजैन मन्दिरों में जैनत्व के चिहून पाये जाते हैं । इस पवित्र भूमि में जगत् प्रसिद्ध समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, सिंहनन्दी, जिनसेन, वीरसेन और मल्लिषेण आदि महान् ऋषियों ने जन्म लिया था । यह पावन स्थान उन तपस्वियों के जन्म स्थान होने के साथ-साथ उनका कर्मक्षेत्र भी रहा । यहाँ कोई ऐसा पहाड़ नहीं है जो जैन संतों के शिलालेखों, शय्याओं, बस्तिकाओं आदि चिह्नों से रिक्त हो।
तमिलनाडु में जैनाचार्यों द्वारा विरचित नीति-ग्रंथ बहुत है, जैसे- तिरुक्कुरल, नालडियार, अरनेरिच्चार आदि । जैन ग्रंथों को अजैन लोग भी प्रकाशन में लाते हैं क्योंकि जैन धर्म के ग्रंथ उत्तमोत्तम है , उसका उदाहरण नीलकेशी, जीवकचिंतामणी, मेकवरपुराण आदि है । जैन-अजैन सभी इन ग्रंथों को अत्यन्त उमंग एवं उल्लास से पढ़ते हैं।
यहाँ पर भट्टारकों की भी मान्यता है । यह प्रथा एक समय में भारतवर्ष में थी । उत्तर भारत में कम होती जा रही है। दक्षिण में यह प्रथा बनी हुई है। वर्तमान में मेलचितामुर में लक्ष्मीसेन भट्टारकजी है एवं तिरुमले में धवलकीर्तिजी भट्टारकजी है। तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में भट्टारकों की मान्यता बराबर चलती आ रही है। जैन धर्म की रक्षार्थ यह मान्यता आदिशंकराचार्य के जमाने से हुई थी, बाद में मुगलों के अत्याचारों के कारण भी धर्म रक्षार्थ मुनियों को भट्टारक वेश धारण करना पड़ा था। आदिशंकराचार्य जैन धर्म के विरोधी थे। उन्होंने शैव मठ की स्थापना कर कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक हिन्दू धर्म का प्रचार
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किया । जैन धर्म का ह्रास देखकर जैन लोगों ने भी दिल्ली, कोल्हापुर, जिनकांची, पेनुगोडा आदि स्थानों में मठ की स्थापना कर जैन संस्कृति की रक्षा की थी । वर्तमान में दक्षिण में भट्टारक प्रथा होने से जैन संस्कृति अक्षुण्ण बनी हुई है । तामिल प्रान्त में आज भी यह प्रथा है कि जैनियों के लड़के-लड़कियों को पहले-पहल भट्टारकों से ही पंच नमस्कार दिया जाता है। लड़कों को पंच नमस्कार मंत्र का उपदेश देते समय जनेऊ पहनाया जाता है । तामिलनाडु में इस समय तिरुमलै के भट्टारक श्री धवलकीर्तिजी स्वामीजी की देखरेख में पूराने क्षेत्रों की खोज हुई है। भट्टारक स्वामीजी ने न केवल जीर्णोद्धार के कार्य में पूर्णरूप से जुटे हुए हैं अपितु यहाॅ की हजारों वर्षों की परंपरा को भी पूर्ण गौरव के साथ बनाये रखने में भी प्रयत्नशील है ।
वर्तमान में यहाँ के मन्दिरों का जीर्णोद्धार के लिए भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (धर्म-तीर्थ) महासभा ने काफी कार्य किया है । करीब २५ लाख रुपये विभिन्न मन्दिरों के जीर्णोद्धार के लिए लगे हैं। करीब १५ साल पहले १०८ आचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज ने तामिलनाडु में ६ साल विचरण करके अत्यन्त धर्म प्रभावना की । बाद में १०५ आर्यिका श्री विजयमति माताजी ने ५ साल भ्रमण करके विभिन्न विधान पूजाओं से अवगत कराया और उनका महात्म्य बताया। कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी कराई । १०५ आर्यिका सुप्रकाशमति माताजी ने भी ४ साल भ्रमण करके धर्म प्रभावना की । वर्तमान १०८ गुरु श्री आर्जवसागरजी महाराज पिछले ४ सालों से विहार कर रहे हैं । पूज्य महाराज ने अनेक प्रतिष्ठायें करायी। सैंकड़ों लोगों को पूजा-पाठ, ब्रह्मचर्य एवं अनेक नियम दिलाये । पहले पूजा-पाठ पूजारी से करवाते थे, अब श्रावक स्वयं करने लगे हैं। उनके यहाॅ रहने से काफी धर्म प्रभावना हो रही है ।
तमिलनाडु के जिनालय जितने विशाल है उतने ही अनुपम कला से शोभित है। मूर्तियों की सौम्य एवं विशाल छवि अनुपम, अद्वितीय है । उनको सुरक्षित रखना प्रत्येक जैनी का परम कर्तव्य है । हमारी संस्कृति के आधार ये जिनालय है जो हजारों वर्षों से हमारे आचार, विचार, त्याग, तपस्या एवं आत्म-शोधन के साध् ानों का संरक्षण करते आ रहे हैं। प्राचीन संस्कृति के स्मारक इन जीर्ण भवनों का संरक्षण, जीर्णोद्धार करना हम सब का अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है। हम सबको एकजुट होकर तन-मन-धन से इस कार्य में लगना होगा, नहीं तो यह हमारे अन्धेर खाता होगा । अपने ही हाथों अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा । आशा है हम सब उनकी रक्षार्थ अपने को समर्पित करने का प्रण लें, नहीं तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं
करेगी ।
जैन धर्म की जय ।
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