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दोनों शैव थे। उस जमाने में एक घर के अन्दर कुछ लोग जैन और कुछ लोगों का शैव रहना स्वाभाविक था । मंत्री और रानी इन दोनों ने कई तरह के षड़यन्त्रों के द्वारा राजा को शैव बना लिया। उनके राज्य-काल में शैव और जैनों का हमेशा संघर्ष होता था । जैन और शैवों को भिड़ाकर राजा तमाशा देखता था । अन्ततः उन दोनों में वाद-विवाद (शास्त्रार्थ ) का निर्णय लिया गया । उस वाद-विवाद में तर्कवाद से निर्णय लेना चाहिए था, परन्तु शैव लोगों ने चालाकी से 'अनलवाद-पुनलवाद' को निर्णय करा लिया । अनलवाद का अर्थ है कि अग्नि में ताड़पत्र को डालना, पुनलवाद का अर्थ है कि पानी में ताड़पत्र को डालना । जिसका ताड़पत्र अग्नि में जल जाये और पानी में बह जाये, उस पक्ष को हारा हुआ माना जायेगा । जिसका जला नहीं और बहा नहीं, उसे जीता हुआ माना जायेगा । वस्तुतः यह शास्त्रार्थ नहीं था बल्कि धोखा था । षड़यंत्र रचकर जैनियों पर हार की छाप लगा दी गई। जैनियों के पक्ष में आठ हजार मुनिराज थे और शैवों के पक्ष में अकेला 'संबन्धन' था। राजा तो शैव मतानुयायी हो गया था, फिर क्या था ? मनमानी चली । जैनियों पर हार की छाप लगाकर आठ हजार मुनिराजों को (शैव मत को स्वीकार न करने के कारण) शूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। यदि तर्कवाद से जैनियों के साथ हम शास्त्रार्थ करते तो जैनियों को तीनों काल में जीत नहीं सकते थे। शैवों ने अपने शास्त्र में लिखा है कि 'तर्क समणरगल' और 'सावायुं वायुसेय समणरगल' अर्थात् जैन लोग तर्कवाद में दक्ष और मरते दम तक वाद-विवाद करने वाले होते हैं । आज भी उनके तेवार ग्रन्थ में ये वाक्य मिलते हैं । इस तरह की भयंकर हत्या की बातें पेरियपुराणं (शैव) में स्पष्ट देखी जा सकती है।
इससे यह अनुमान किया जाता है कि वाद-विवाद की ये बातें वस्तुतः हुई नहीं । अपने मत प्रचार के लिये गढ ली गई। तमिलनाडु और कर्नाटक में विद्वेषियों के द्वारा जैनियों के ऊपर अकथनीय अत्याचार हुए । निष्कर्ष यह है कि कई तरह (मारना, पीटना, भगाना और छीनना) से जैनत्व को नष्ट किया गया था । इस तरह के अत्याचार से डरकर बहुत से जैन लोग शैव बन गये और मुसलमान भी। इसका विशद विवेचन आगे भी किया जायेगा । काल दोष के कारण जैन धर्म को किस-किस तरह से नष्ट किया गया, यह समझने की बात है ।
ऊपर के विषयों से अच्छी तरह पता चलता है कि तमिल प्रान्त में प्राचीन काल से ही जैन धर्म प्रचलित था और अनगणित जैन अनुयायी लोग थे। इसी पवित्र भूमि में तर्कचूडामणी महान आचार्य समन्तभद्र महाराज का जन्म हुआ था। उन्होंने साठ जगहों पर अन्य मत वालों से शास्त्रार्थ कर जैन धर्म का डंका बजाया था । उन महान् आचार्य का कहना है कि 'शास्त्रार्थ विचराम्यहं नरपते शार्दूलविकीडितं ' अर्थात् हे राजन् ! शास्त्रार्थ के लिए मैं शार्दूल (सिंह) के समान निडर होकर संचार कर रहा हूँ । कोई भी मेरे साथ शास्त्रार्थ करने के लिये आवें, मैं तैयार हूँ । इस तरह चुनौति देकर
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