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शास्त्रार्थ करने वाले महान् साधु समन्तभद्र की पवित्र भूमि यही थी। बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराने वाले तार्किक शिरोमणि, त्यागदेवता अकलंकदेव की जन्मभूमि भी यही थी । इसी पवित्र भूमि में आचार्य पूज्यपाद ने जन्म लिया था । प्राभृतत्रय के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने इसी पवित्र भूमि में मूल संघ की स्थापना कर सारे तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार किया था। इस तरह तमिलनाडु कई आचार्यवर्यो एवं संतों का जन्म स्थान, निवास स्थान और तपोभूमि रहा है ।
कुछ भ्रमग्रस्त इतिहासवेत्ताओं का कहना है कि दक्षिण में प्राचीनकाल से जैन धर्म नहीं था । श्रुतकेवली भद्रबाहु महाराज के दक्षिण में आने के बाद ही यहाँ पर जैन धर्म प्रचलित हुआ। इसमें सोचने की बात यह है कि जैन धर्म के चौबीस तीर्थकरों का (भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर वर्धमान पर्यन्त) उत्तर भारत में ही जन्म हुआ और तप धारण कर कर्मों को नष्ट करते हुए मोक्षधाम सिधारे । परन्तु भगवान् महावीर स्वामी ने घातिया कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद समवसरण के द्वारा सारे देशों में अर्थात् ५६ देशों में विहार कर जैन धर्म का प्रचार किया । उन देशों में द्रविड़ देश का नाम भी मौजूद हैं। जब सारे द्रविड़ देश में भगवान् महावीर का समवसरण आया और जैन धर्म का प्रचार किया गया तो दक्षिण में जैन धर्म कैसे नहीं रहा होगा ? दूसरी बात यह है कि जहाँ पर धर्मानुरागी लोग रहते हैं, वहीं समवसरण जाता है, अन्यत्र नहीं। इसका मतलब यह निकला कि भगवान् महावीर से पहले भी दक्षिण में जैन धर्म मौजूद था और उसके अनुयायी श्रावकगण भी रहते थे । इसीलिए भगवान् महावीर का समवसरण यहाँ आया । यदि केवल पहाड़ और जंगल ही होता तो वहाँ समवसरण क्यों आता ? अतः भगवान् महावीर के समय से पूर्व ही दक्षिण भारत में विशेषतः तमिल प्रान्त में जैन धर्म मौजूद था। यह बात निर्विवाद सिद्ध है।
महान् आचार्य भद्रबाहु ई. पूर्व ३६ से २६७ तक जैन धर्म के आचार्य रहे । वे जगत् प्रसिद्ध सम्राट् मौर्य चन्द्रगुप्त (प्रथम) के धर्मगुरु भी थे। यह चन्द्रगुप्त सिकन्दर का समकालीन था। चन्द्रगुप्त सम्राट अशोक के पितामह थे । सम्राट् चन्द्रगुप्त के जमाने में उत्तर भारत में बारह साल तक भंयकर अकाल पड़ा । जिसके कारण श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के नेतृत्व में बारह हजार मुनिराजों के विशाल दि. जैन मुनि संघ ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया । भगवान् श्रुतकेवली के अद्वितीय शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त संसार की असारता को जानकर अपने मणिमौली किरीट के साथ महान् साम्राज्य को त्यागकर अपने गुरुदेव के चरणों का अनुसरण करते हुए पीछे-पीछे चलने लगे । सारा संघ कर्नाटक के श्रवणबेलगोला आने के बाद श्रुतकेवली महाराज ने अपने दिव्यज्ञान के द्वारा अपनी आयु का अवसान जाना । फिर अपने शिष्यगण/साधुओं को विशाख नाम के मुनिराज के नेतृत्व में चेर-चोल-पाण्डव देशों की ओर गमन करने का आदेश दिया । उस संघ में आठ हजार मुनिराज थे। बाद में भद्रबाहु महाराज
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