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________________ ने ई. पूर्व २६६ में अपनी अन्तिम अवस्था के समय संलेखना धारण कर ली और आत्माराधना के साथ स्वर्गवास को प्राप्त हुए। राजाधिराज चन्द्रगुप्त अपने गुरु महाराज से जिन-दीक्षा धारण कर गुरुदेव के चरणानुगामी बने । इस बात का आचार्य हरिषेण (ई. ६३१) ने अपने ‘कथाकोश' में उल्लेख किया है तथा देवचन्द्रजी (ई. १८३८) ने अपनी 'राजावली कथा' में भी इसे अंकित किया है । इसके अलावा श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पहाड़ पर आचार्य भद्रबाहु गुफा एवं चन्द्रगुप्त बस्ती आज भी मौजूद है । चन्द्रगुप्त बस्ती में भद्रबाहु के ऐतिहासिक चिन्ह, शिल्प-कला के रूप में अंकित है । इसके साथ-साथ वहाँ का शासन (शिलालेख) भी इस बात की पुष्टि करता है । इस तरह ई. पूर्व तीसरी शताब्दी में आचार्य भद्रबाहु के शिष्य विशाखमुनि के द्वारा तमिलनाडु में जैन धर्म का आगमन हुआ, यह एक मत है । पाण्डय देश मथुरा (दक्षिण) जिले के अन्दर एक शिलालेख है। यह ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ जैन लेख है। इसका समय ई. पूर्व तीसरी सदी है। इस बात को आरकोलोजिकल डिपार्टमेंट भी स्वीकार करता है । इससे भी सिद्ध है कि यहाँ ई. पूर्व तीसरी सदी से जैन धर्म का अस्तित्व था । दूसरा प्रमाण यह है कि महावंश नाम का एक बौद्ध ग्रंथ है , उसमें ई. पूर्व तीसरी सदी के पहले से जैन धर्म का अस्तित्व बताया गया है। ई. पूर्व ३७ से ३६७ तक लंका द्वीप पर राजा 'पाण्डुकाभयन' राज्य करता था। उसने अनुराधपुर नाम के नगर में जैन साधुओं के निवास स्थान (गुरुकुल) का निर्माण किया था। उत्तर हिन्दुस्तान का राजा चन्द्रगुप्त और लंका द्वीप का राजा 'पाण्डुकाभयन' दोनों समकालीन थे। उस समय जैन धर्मानुयायी साधु लंका द्वीप में रहे हो, वे तमिल प्रान्त के जरिये ही गये होंगे। उस समय तमिलनाडु और लंका द्वीप इन दोनों में आने-जाने में दिक्कत नहीं थी अर्थात् समुद्र का घेराव नहीं था । पैदल आने-जाने की सुविधा थी। इसलिए ई. पूर्व तीसरी सदी के पहले तमिलनाडु और लंका द्वीप में जैन लोग और साधुगण निवास करते थे। यह बात निःसन्देह स्वीकृत है। ____यहाँ यह समझने की बात है कि दि. जैन साधु-संत सब जगह सभी लोगों से (अन्य साधुओं के समान) आहार ग्रहण नहीं करते । जो श्रावक बड़ी श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ नवधा पुण्य कर्म से आहार देता है तो ग्रहण करते हैं, नहीं तो समता और शांति के साथ उपवास ग्रहण करते हैं । यही उन दि. जैन साधुओं का नियम था । गुरु भद्रबाहु महाराज इसे अच्छी तरह जानते थे। ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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