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बादल के पास स्थित प्रकाशपुंज सूर्य ।'
२६. सिंहासन प्रातिहार्य : 'मणियों की रंगबिरंगी किरणों से व्याप्त सिंहासन पर विराजे हुए आपका सुवर्णसम पीत शरीर, उदायाचल पर आकाश में किरणों को बिखराने वाले उगते सूर्यसम सुन्दर
लगता
३०. चामर प्रतिहार्य : 'जिस पर चमेली जैसे सफेद चँवर ढुराये जा रहे है, ऐसा आपका सोने जैसा आकर्षक शरीर, श्वेत झरनों की जलधारों से युक्त सुमेरूपर्वत के ऊंचे स्र्वणमय तट की तरह सुशोभित होता
३१. तीन छत्र प्रातिहार्य : 'आपके मस्तक के ऊपर चन्द्रमा जैसे मनोहर तथा मोतियों के झालर से और अधिक सुन्दर लगने वाले तीन सफेद छत्र आपको त्रिलोक का परमेश्वर बताते हुए शोभायमान हैं ।'
३२. दुन्दुभि-वाद्य प्रातिहार्य : 'जहां आप विराजमान हो, उस दिशा विभाग को जिसने अपनी जोरदार गंभीर ध्वनि से गुंजायमान कर दिया है, त्रिभुवनवर्ती सर्व प्राणियों तक सत्समागम का प्रचार-प्रसार करने में जो कुशल है, यमराज पर आपने जो विजय पाई, उसका जयघोषक तथा आपका यशोगान करने वाला जो नगाड़ा है, वे आकाश में बजता है।
३३. दिव्य पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य : ' हे त्रिलोकपति ! आपके सामने आकाश से कल्पवृक्षों के विभिन्न दिव्य पुष्पों की अनोखी वर्षा होती है, जो सुरभित जलकणों से मिश्रित होती है और मन्द सुगन्धित वायु के प्रवाह से प्रेरित होती है। धीमे-धीमे गिरती हुए उस मनोरम वर्षा को देखकर ऐसा लगता है मानो आपकी वचनपंक्ति पुष्प बनकर बरस रही है, लेकिन एक भी पुष्प उल्टा नहीं गिरता । आपके चरणों में गिरने वाला अधोमुखी कैसे हो सकता है ?
३४. भामंडल प्रातिहार्य : ' हे प्रभापुंज विभु ! अनेकों अन्तराल विहीन साथ में उगते सूर्यों जैसी उज्ज्वल होकर भी चंद्रमा सी समता रहित और तीनों लोकों के प्रकाशमान पदार्थों को लज्जित करने वाली आपके देदीप्यमान भामंडल की महान् आभा से रात्रि भी हार मानती है, अंधेरा बिलकुल लापता हो जाता है।
___३५. दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य : 'हे हितोपदेशक ! आपकी दिव्य वाणी स्वर्ग मोक्ष का रास्ता श्रावक मुनि धर्म खोजने वालों को इष्ट, तीनों लोकों के लिए सच्चे धर्म का स्वरूप बतलाने में बेजोड़ और स्पष्ट अर्थ को लिए हुए सर्वभाषा रूप बदलने में समर्थ होती है।
३६. भव्य कमल रचना : हे जिनेन्द्र ! आपके विहार की छटा निराली है। जिनकी कान्ति खिले हुए नवीन स्वर्ण कमलों के पुंज जैसी है और दर्पणसम स्वच्छ नखों से आस पास विकीर्ण किरणों के कारण नयनाभिराम हैं, ऐसे आपके चरण जहां डग भरते है, वहां देव सुन्दर कमलों का निर्माण कर देते हैं।
३७. आर्यखण्ड में सर्वत्र तीर्थ प्रवर्तन करने वाले हे तीर्थकर ! इस प्रकार, धर्मोपदेश के समय जैसा आश्चर्य कार्य वैभव आपका रहा, वैसा सिर्फ आपका ही रहा, अन्य का नहीं सो ठीक ही है, जैसी तमनाशी प्रभा सूर्य की होती है, वैसी प्रकाशमान ग्रहमंडल में कैसे हो सकती है ?
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