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________________ अब आचार्यदेव भयों का निर्मूलन करते हुए कहते हैं : ३८. 'हे भव्यशरण ! जो इन्द्र के वाहन ऐरावत जैसा मोटा तगड़ा है, जिसके मद जल से मटमैले व हिलते-डुलते गालों के आस पास गन्ध से आकर्षित भ्रमर मंडरा रहे हैं और उनकी गुंजार से जिसका गुस्सा और भड़क रहा है, ऐसे मदमस्त हाथी को अपने सामने आता देख, आपके शरणागत लोग नहीं डरते।' ३६. ' हाथियों के मस्तक को फाड़कर गज मुक्ताओं को धरती पर विखेरने वाला और ऊपर छलांग मारने को तैयार सिंह भी अपनी चपेट में आये हुए आपके भक्त पर उपद्रव नहीं करता।' ४०. 'प्रलयकालीय अग्नितुल्य ज्वाला व चिनगारियों वाली तथा समूचे विश्व को निगलने की इच्छुक सरीखी जंगली आग आपके अग्निशामक नाम का कीर्तन करने से पूर्णतः बुझ जाती है।' ४१. 'आपका नाम सर्प को वश में करने वाली दवा है, उसे अपने हृदय में रखने वाला सर्प से नहीं घबड़ाता । यदि लाल आंखों वाला भंयकर काला नाग भी रूष्ट होकर फन फैलाकर सामने आ रहा हो, तो वह निडर पुरूष यमराज के उस विश्वस्त प्रतिनिधि को दोनों पैरों से लांघ जाता है।' ४२.४३ - आपके कीर्तन से शुत्रसेना तितर-बितर हो जाती है और यदि युद्ध ज्यादा विकट हो, तो शत्रु को ही हारना पड़ता है।' ४४. तूफान से भड़के हुए भंयकर घड़ियाल और विशाल मछलियाँ जिसमें विद्यमान हैं, भीतर स्पष्ट बड़वानल सुलग रहा है और जिसकी ऊँची लहरों की चोटी पर यात्रियों के जहाज खड़े हो गये हैं, मानो पलटने को हों, उस भयानक समुद्र में आपके भक्तजन आपके स्मरण मात्र से भयमुक्त होकर अपने गन्तव्य को पा लेते हैं, जलयात्रा को निर्विघ्न सम्पन्न करते हैं।' ४५. 'डरावने जलोदर के भार से जिनकी कमर टेढ़ी हो गई है, जिनकी अवस्था बड़ी दयनीय है और जिनके बचने की कोई आशा नहीं रह गई है, ऐसे रोगी मनुष्य आपके चरणकमलों की अमृततुल्य पवित्र चरणरज को शरीर पर लगाकर, कामदेव जैसे रूपवान और स्वस्थ हो जाते हैं।' ४६. 'हे पूज्य ! जो नीचे से ऊपर तक भारी जंजीरों से जकड़े हुए हैं, कसी हुई विशाल बेड़ियों के किनारों से घिसकर जिनकी पिंडलियाँ बुरी तरह छिल गई हैं और जो भंयकर पीड़ा का अनुभव कर रहे है, वे भी आपके नामरूप मन्त्र का निरन्तर स्मरण कर शीघ्र ही बन्धनमुक्त हो जाते हैं।' पश्चात् आचार्य महाराज स्तोत्र पाठ की महिमा बताते हैं : ४७. 'हे नाथ ! आध्यात्मिक रूप से भी कालरूप हाथी, पापरूप व पंचानन सिंह, काम क्रोधरूप अग्नि, भोगरूप भुजंग, अन्तरंग संग्राम, भवसमुद्र, कर्मरोग और स्नेह-वैर के बन्धन से उत्पन्न हुआ भय स्तोत्रपाठ से भयभीत होकर तत्काल समाप्त हो जाता है, हाँ, पाठकर्ता आस्थावान हो ! ४८. 'हे वृषभ जिनेन्द्र ! मैने भक्ति पूर्वक नाना अक्षररूपी रंगबिरंगे पुष्प पिरोकर आपके गुणरूपी डोर से यह स्तोत्र रूपी माला बनाई है। जो इसे हमेशा गले में पहनकर रखेगा, उस सम्मानित मनुष्य का वरण विवश होकर लक्ष्मी को स्वयं करना पडेगा । तात्पर्य यह है कि जैसे माल्यार्पण द्वारा सम्मानित पुरुष शोभा द्वारा वरा जाता है। शोभायमान होता है वैसे ही भक्तामर स्तोत्र रूपी माला को गले में पहनने वाला, कंठस्थ रखने वाला 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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