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सम्मानोन्नत पुरूष भी स्वर्ग मुक्तिरूपी लक्ष्मी द्वारा वरा जाता है, यह निश्चित है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह मंगलमय स्तोत्र आचार्य की निःस्वार्थ भक्तिभावना का अनुपम प्रतिफल है अतः स्तोत्र रचना के हेतु विषयक अन्यथा कल्पना करना नितान्त अप्रांसगिक है।
भक्तामर-पाठ:
भौतिक चकाचौंध के इस आधुनिक युग में जब किसी के संकट वैज्ञानिक चमत्कारों से भी नही टलते, तब मानव का हताश मन धर्म की शरण लेता है और यह सच है कि जिसके सभी रास्ते बंद हो चुके हैं, उसे भी धर्म शरण देता है। यदि इसी परिस्थिति में कोई वास्तव में धर्म को हृदयगत कर ले, तो धन्य हो जाये ! आंगतुक विपत्ति कर दूर होना, भय का नाश होना, उपसर्ग निवारण, सौभाग्य संपत्ति में वृद्धि, सर्वत्र यश प्राप्ति और लोकप्रियता तो स्तोत्रपाठ के व्यावहारिक लाभ हैं, पारमार्थिक लाभ अलौकिक है। भक्तामर पाठ विषयक कतिपय आवश्यक निर्देश ध्यातव्य हैं ।
उच्चारण :
(१) यह स्तोत्र वसन्ततिलका छन्द में है, प्रत्येक चरण १४ अक्षर युक्त है तथा चारों चरणों में कुल ५६ अक्षर है । ४८ काव्यों के अक्षर मिलाने पर २६८८ होते हैं। तृतीय चरण में लय परिवर्तित होती है। योग्य मौखिक प्रशिक्षण लाभ दायक सिद्ध होगा । शुद्ध उच्चारण का हर संभव प्रयत्न करें ।
(२) भक्तामर को 'भक्ताम्बर या भक्ताम्मर' न कहकर 'भक्तामर' कहें तथा स्तोत्र को इस्तोत्र, स्त्रोत्र, स्त्रोत या स्त्रोत्र न कहें । सर्वप्रथम नाम का शुद्ध उच्चारण करें ।
(३) संयुक्ताक्षर के पूर्व यदि ह्रस्व वर्ण हो, तो उसे कुछ जोर देकर उच्चारित किया जाता है तथा आगामी संयुक्ताक्षर के कारण उसे गुरु माना जाता है । यह एक सामान्य नियम है उदाहरणार्थ देखिये -
__ शिक्षा या रक्षा में 'शि' या 'र', संयुक्ताक्षर 'क्षा' है। * विद्या या विश्वास में 'वि', संयुक्ताक्षर 'या' व 'श्वा' है ।
क्षत्रिय या क्षिप्रा मं 'क्ष' और 'क्षि' संयुक्ताक्षर 'त्रि' व 'प्रा' है। * सत्र या सप्रेम में 'स' संयुक्ताक्षर 'त्र' व 'प्र' है।
* भट्ट या भक्तामर में 'भ' संयुक्ताक्षर 'ट्ट' व 'क्ता' है । इन सभी अक्षरों पर हस्व होने से जोर पड़ता है।
(४) स्तुति और स्पष्ट आदि शब्दों के पूर्व 'इ' न जोड़े। जिह्य को 'स' के उच्चारण- स्थान पर लगाकर फिर वायु की ध्वनिपूर्वक 'तुति या पष्ट को' कण्ठ से उच्चारित करें। 'इ' मिलाने से एक अक्षर बढ़ जाता है । (५) सहन को 'सहस्त्र' न बोलें।
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