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________________ सहयोग भी उपलब्ध हो जाता है। भगवान की भक्ति छोड़कर स्वार्थपूर्ति के लिय अन्य देवताओं को रिझाने का श्रम करना, मूर्खता की पराकाष्ठा है। ऊपरी उपचार से रोग की जड़ ढीली नहीं पडती है। भक्त चमत्कार को नहीं, अपितु भगवान को नमस्कार करता है। भक्ति, डर या लालच का नहीं, भगवत्प्रेम का मधुर फल है । लघुता तो भक्त के अन्दर कूट-कट कर भरी होती है। वह अपने को भगवान की चरण रज से भी तुच्छ समझता है और सच्चे मन से उस धूलि कण के भाग्य का सराहता है, जिसे प्रभु चरणों की गज रेखा में स्थान प्राप्त हुआ है। अधिक क्या कहा जाये ? वह इतना निष्काम हो जाता है कि मोक्ष की कामना को भी व्यवधान समक्षाता है। किसी ने ठीक ही कहा है, 'ऐ साँसों ! ज़रा आहिस्ता चलो, धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है।' बालकवत् सरल हृदय भक्त अपनी टूटी-फूटी बोली में भगवान का जो गुणगान करता है, वही स्तोत्र है । भक्ति अन्दर से स्वयं उमड़ती है, करनी नहीं पड़ती। साधना और भक्ति: साधना क्षेत्र में भी भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है । मन को स्थिर करना सहज नहीं है । स्वाध्याय और ध्यान से बाहर आये हुए मन को केवल भगवद्भक्ति ही विषय कषायों से बचा सकती है । साधक जानता है कि साध्य सिद्धि वीतरागता से होगी लेकिन जब तक राग विद्यमान है, तब तक धर्मानुराग द्वारा विषयानुराग से बचना मेरा कर्तव्य है । भक्त साधन तत्व विवेक के साथ प्रवृति विवेक भी रखता है। भक्ति को सर्वथा उपेक्षित करने वाले कई अंहकारी रसातल को प्राप्त हो चुके क्योंकि भावना शून्य वेश या कोरा शब्दज्ञान, संसार के भंयकर कष्टों से बचाने में असमर्थ है । गुणों का इच्छुक मनुष्य गुणानुरागी होता है । आचार्य मानतुंग स्वामी : जैन जगत् में सर्वमान्य एवं स्तोत्र साहित्य में अत्यन्त गरिमापूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठत श्री आदिनाथ स्तोत्र का प्रभाव अनूठा है। इसका प्रसिद्ध नाम भक्तामर स्तोत्र है । आचार्य मानतुंग स्वामी की पवित्र भावनाओं से ओत-प्रोत यह स्तोत्र प्रभु व्यक्ति का सुंदर नमूना है। ऐसी प्रसिद्ध है कि इसके प्रभाव से आचार्यश्री के बन्धनमुक्त होने पर महती धर्म प्रभावना हुई तथा विरोधी भी नम्रीभूत हो गये । स्तुति से बेडियों का टूटना अशक्य नहीं लेकिन बेड़ियों को तोड़ने के लिये एक निःस्पृह दिगम्बर साधु स्तुति करे, यह कहना समुचित नहीं जान पड़ता । बेड़ी या कारागार आत्मा के बन्धन हैं ही कहाँ ? फिर जो आत्मा को मुक्त करने चले हैं, उन्हें उनकी क्या चिन्ता ? महापुरूष स्वयं को महान् नहीं समझते । तदनुसार आचार्य देव ने भी अपने आपको बालकतुल्य बताया है, तो भी पद-पद पर बिखरी पद लालित्य की छंटा, भाव-गांभिर्य एवं भाषा की सरसता उनकी उद्भूत प्रतिभा का स्पष्ट परिचय है। वे निःसन्देह एक प्रौढ़ विद्वान रहे । पूज्य श्री के भावों की निर्मलता स्तोत्र में स्पष्ट झलक रही है । 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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