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भक्तामर नवनीत
भक्ति का माहात्म्य :
भक्त भले तपस्वी न हो, पर भक्ति अवश्य ही तपस्या है। यद्यपि भक्ति में उम्र या जाति वगैरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं, तो भी भक्त बिरले ही होते हैं । बहुसंख्यक होना श्रेष्ठता का मापदण्डक नहीं है । मन लगाने का सर्वोत्तम उपाय प्रभुभक्ति है । भक्ति माँगती नहीं, अर्पण करना चाहती है। भक्त का पवित्र हृदय धार्मिक भावनाओं से परिपूर्ण होता है, तुच्छ लौकिक कामनाओं से नहीं । भगवान स्नेह से अभिभूत होकर भक्त स्वयं को भूल जाता है, उनसे खुलकर बातचीत करता है और उनकी द्विव्यवाणी का श्रवण भी । वह भक्त खुशी से पागल हो उठता है, उसकी भीतरी कुण्ठायें विलीन हो जाती है, उसमें निर्भिकता का संचार होता है और उसका जीवन धन्य हो जाता है। उसे अन्तः प्रकाश की उपलब्धि होती है और मृत्यंजय होने का रहस्य भी प्राप्त हो जाता है । अन्ततः वह पूर्णतया भारमुक्त हो, कृतकृत्य हो जाता
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क्षुल्लक श्री ध्यानसागरजी महाराज
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भक्त के नयनों का अश्रुजल, उसका रोमांचित शरीर, गद् गद् कंठ और भावपूर्ण हृदय आदि समर्पण मूक प्रतीक है । भगवद्भक्ति का आनन्द रसपान करने के उपरान्त वह बड़भागी सांसारिक सुख को नीरस समझता है । जीवन का विकट परीक्षाओं में वह खरा उतरता है। वह संपत्ति में गर्व से नहीं फूलता और विपत्ति में धर्म को नहीं भूलता । सांसारिक वैभव को वह चंद दिनों का ठाठ समझता है और संकटग्रस्त होने पर सोचता है, “रे मन! घबड़ाने की क्या बात है ? यह तो प्रसन्नता का अवसर है जो पुराना कर्ज़ चुक रहा है।” भक्त की तल्लीनता से ऊर्जा का केन्द्रीकरण होता है और उसके भाव विभोर हो जाने पर रोम-रोम से भक्ति की कोई अद्भूत धारा स्वयं प्रवाहित होने लगती है। तब उसका सोया भाग्य जाग उठता है, उदयागत अशुभ कर्म टल जाता है और बड़ी से बड़ी विपत्ति भी तत्काल भाग खड़ी होती है। इसे आम जनता चमत्कार समझकर नमस्कार करती है। वास्तव में भक्ति का लक्ष्य चमत्कार से परे है।
अन्ध भक्ति की निःसारता :
जिन भक्ति अन्धश्रद्धा करना नहीं सिखलाती । यह अटल सत्य है कि कोई कार्य निष्कारण नहीं होता । अन्तरंग एवं बहिरंग कारणों के सुमेल से ही संसार का प्रत्येक कार्य निष्पन्न होता है। कारण के विषय में भ्रमित न होना विवेक की कसौटी है । कारण कार्य व्यवस्था को समझने वाला, चमत्कार से आश्चर्यान्वित नहीं होता और न ही उसे कोई अप्रत्याशित घटना मानता है। भीतर पुण्योदय होने पर बाहर देवता आदि का
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