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________________ 3লা কাল : (9) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित आदिपुराण की प्रस्तावना में सम्पादक व अनुवादक डॉ.पन्नालाल जैन साहित्याचार्य ने पृ.२२ पर आचार्य मानतुंग को ७ वीं शताब्दी का लिखा है। (२) संस्कृत-कवि-दर्शन नामक पुस्तक में पृ.४८३-४८४ पर डॉ.भोलाशंकर व्यास का आलेख है, 'भक्तामर स्तोत्र नामक काव्य के कर्ता मानतुंग दिवाकर भी बाण के साथ हर्ष की राजसभा में थे।' हर्षवर्धन का राज्याभिषेक इतिहासज्ञों के अनुसार ई.सन् ६०७ (विक्रम संवत् ६६४) में हुआ था। (३) संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता डॉ.ए.वी.कीथ. ने मानतंग स्वामी को बाण कवि के समकालीन अनुमानित किया है । (A history of sanskrit literature 1941 p.214-215) (४) सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं.गौरिशंकर हीराचन्द ओक्षा ने अपने 'सिरोही का इतिहास' नामक गन्थ में मानतुंग का समय हर्षकालिन माना है। (५) ज्योतिषाचार्य स्व. डॉ.नेमीचन्द शास्त्री ने अपने लेख “कवीश्वर मानतुंग" में लिखा है, 'भोज का राज्यकाल ११ वीं शताब्दी है, अतएव भोज के राज्यकाल में बाण और मयूर के साथ मानतुंग का साहचर्य कराना संभव नहीं है । आचार्य कवि मानतुंग के भक्तामर स्तोत्र की शैली मयूर और बाण की स्तोत्र शैली के समान है। अतएव भोज के राज्य मे मानतुंग ने अपने स्तोत्र रचना नहीं की है। भक्तामर स्तोत्र के आरंभ करने की शैली पुष्पदन्त के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्रायः मिलती है । प्रातिहार्य एवं वैभव-वर्णन में भक्तामर पर पात्र केसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है । अतएव मानतुंग का समय ७ वीं शती है। यह शती मयूर, बाणभट्टा आदि के चमत्कारी स्तोत्रों की रचना के लिये प्रसिद्ध भी है। अतः स्पष्ट है कि चमत्कार के युग में वीतराग आदिजिन का महत्त्व और चमत्कार कवि ने युग के प्रभाव से ही दिखलाया है।' (६) जैन दर्शन साहित्याचार्य पं. अमृतलाल शास्त्री के कथनानुसार, 'हर्षवर्धन सम्राट का राज्यकाल ई. ६४७ तक सुनिश्चित है, अतः आचार्य मानतुंग का भी यही समय सिद्ध होता है।' कतिपय लेखक उन्हें भोजकालीन बताते हैं। आचार्य मानतुंग की विद्धता : आचार्य मानतुंग स्वामी के प्राकृत भाषा में निबद्ध भयहर स्तोत्र (अपरनाम नमिऊण स्तोत्र) द्वारा पार्श्व जिनेन्द्र की भी स्तुति की है, जिसमें २३ गाथायें हैं, दूसरे से लेकर सत्रहवें पद्य तक क्रमशः दो- दो पद्यों में कुष्ठ, जल, अग्नि, सर्प, चोर, सिंह, गज और रण दन आठ भयों का उल्लेख है और इक्कीसवीं गाथा में मानतुंग शब्द भी श्लेषात्मक दिया है। जैन दर्शन-साहित्याचार्य पं.अमृतलाल शास्त्री के अनुसार दोनों स्तोत्रों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि रचनाकार संस्कृत-प्राकृत के ज्ञाता होने के साथ-साथ वेद, व्याकरण, साहित्य, अलंकार-शास्त्र एवं जैन-जैनेतर वाङ्मय के अन्य विषयों पर भी पूर्ण अधिकार रखते थे। उनकी विद्वत्ता का वास्तविक परिचय तो स्वयं उनकी रचना ही है । 110 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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