________________
इन्द्र भी प्रभु के दर्शनकर एक दृष्टि से निहरता हुआ प्रभु को अपल्क निरखता है तथा विशाल सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ बड़े-बड़े कलशों से प्रभु का अभिषेक करता है । इन्द्राणी भी प्रभु का अभिषेक कर श्रृंगार करती है, वस्त्राभूषण पहनाती है। प्रभु को पुनः जन्म स्थान में लाकर, माता-पिता को सौंपकर इन्द्र ताण्डव नृत्य करता है और प्रभु की सेवा में देवों को नियुक्त कर स्वर्गस्थान में चला जाता है। इस प्रकार जन्म से ही महान् तीर्थंकर प्रभु की देवकृत पूजा अभिषेक आदि क्रियाओं को जन्म कल्याणक महोत्सव कहते हैं ।
बालक तीर्थंकर दूज के चन्द्रमा की तरह बड़े होते हुए समस्त सुखों को भोगते हुए भी निमित्त पाते ही संसार से विरक्त हो जाते हैं। तभी उनके वैराग्य की अनुमोदन करने पंचम स्वर्ग से लौकान्तिक देव आते हैं । लौकान्तिक देव प्रभु के वैराग्य की अनुमोदना कर नमस्कार करते है एवं पुनः स्वर्ग चले जाते हैं । तभी चारों निकाय के देवों सहित इन्द्र आता है और क्षीरसमुद्र के जल से भगवान् का दीक्षाभिषेक करके सुन्दर वस्त्राभूषण से उन्हे सुसज्जित करता है । पश्चात् देवरचित पालकी में बैठाकर वन में ले जाता है ।
पालकी से नीचे उतरकर सर्व परिग्रह को त्याग चन्द्रकान्तमणि की शिला पर आरूढ़ होकर उपवास धारणकर “ऊँ नमः सिद्धेभ्यः” ऐसा उच्चारण कर भगवान् पंचम गति की प्राप्ति के लिए पंच परावर्तनों का मूल विच्छेद करने के लिए पंचमुष्टी केशलोंच कर मोह शत्रु के सेना को उखाड़कर फेंक देते है । प्रभु के पावन केशों को इन्द्र रत्न पिटारे में रखकर उत्साह व भक्ति के साथ क्षीर समुद्र में विसर्जित करता है। प्रभु दो, तीन, चार आदि दिनों में पारणा के लिए आते हैं, राजा के घर आहार करते हैं । राजांगण में रत्नों की वर्षा होती है, दुंदुभि-वादित्र बजते हैं, पुष्प-वृष्टि, जय-जय ध्वनि और गंधोदक की वर्षा रूप पंचाश्चर्य होते हैं । इस प्रकार तीर्थंकर प्रभु की वैराग्य अवस्था को दीक्षाकल्याणक कहते है ।
जिनदेव ध्यानाग्नि के द्वारा घातियां कर्म का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । केवलज्ञान प्राप्त होते ही प्रभु पृथ्वीतल से ५००० धनुष ऊपर चले जाते हैं। प्रभु के दर्शनार्थ समीप में जाने के लिए इन्द्र विशाल समवशरण की रचना करता है। समवसरण में आठ भूमियां हैं
प्रासाद चैत्य निलया परिखात वल्ली । प्रोद्यानकेतु सुरवृक्षकृहाड्ड गणाश्च ।। पीटत्रयं सदसि चस्यं सदा विभाति ।
तत्मे नमस्त्रिभुवन प्रभवे जिनाय ।। ३।।नं.भ. ।।
(१) चैत्य प्रासाद भूमि (२) खातिका भूमि (३) लता भूमि (४) उपवन भूमि (५) ध्वजा भूमि (६) कल्पभूमि (७) भवनभूमि और (८) श्रीमण्डप भूमि ।
अष्टम श्री मण्डप भूमि में १२ कोठे होते हैं उनमें क्रमश मुनिराज आदि विराजमान होते हैं
Jain Education International
130
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org