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________________ ___ इस तरह पट्टावली इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार के आधार पर श्रीधरसेनाचार्य का समय वीर निर्वाण संवत् ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है । इस प्रकार धरसेनाचार्य के उपकार से ही आज हमें षट्खण्डागम ग्रन्थ स्वाध्याय करने को मिल रहा है । दिगम्बर संप्रदाय की मान्यता के अनुसार षट्खण्डागम और कषायपाहुड ऐसे ग्रन्थ है जिनका सीधा संबन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। धरसेनाचार्य के इतिहास से हमें यह ज्ञात होता है कि ये आचार्य ही एकमात्र अंग और पूर्वो के ज्ञाता थे। मंत्र-शास्त्र के भी अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने चिरकाल तक चन्द्रगुफा में निवास किया था तथा योग्य मुनियों को श्रुतज्ञान पढ़ाया था। शिष्यों को मंत्र-सिद्ध करने हेतु प्रोत्साहित किया था। जिस दिन षट्खण्डागम की रचना पूर्ण हुई उस दिन चतुर्विध संघ ने मिलकर श्रुत की पूजा की थी, उस दिन ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी थी। अतः उस पंचमी को आज श्रुतपंचमी कहकर सर्वत्र श्रुतपूजा करने की प्रथा चली आ रही है। उसे विशेष पर्व के रूप में मनाने के साथ-साथ श्रुत के गुरु पूज्य धरसेनाचार्य पुष्पदन्त तथा भूतबली आचार्य की पूजा भी करनी चाहिए । इससे ज्ञात होता है कि षट्खण्डागम सिद्धान्त की सुरक्षा में द्राविड़ देश (तमिलनाडु) के आचार्य द्वय पुष्पदन्त और भूतबली की सेवा अविस्मरणीय है । इसका तात्पर्य यह है कि धरसेनाचार्य रूपी हिमालय से पुष्पदन्त और भूतबली की धारा निकलकर अविच्छन्न रूप से बहती आ रही है, यह अहोभाग्य है। यहाँ पर और एक ध्यातव्य है कि आचार्य भद्रबाहु के शिष्यगण ने तमिलनाडु में विचरण प्रारंभ किया, तद्नन्तर ही जैन धर्म तमिलनाडु में प्रचलित हुआ, उस के पहले नहीं था। यह बात भी यहां खण्डित हो जाती है अर्थात् ई. सन् ७३ में तमिलनाडु के अन्दर जैन धर्म था, यह बात आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबली के आधार से निर्णीत हो जाती है। तमिलनाडु का प्रागैतिहासिक इतिहास सभी धर्मों में जैन धर्म सर्वोत्कृष्ट है । इसके कई नाम है, जैसे आर्हत् धर्म, निग्गंत (निर्ग्रन्थ) धर्म, अनेकान्त धर्म और स्याद्वाद धर्म आदि । जैन धर्म के आराध्य देव को जिन कहते है। जिन का अर्थ है 'जयतीतिजिनः' अर्थात् जो कर्मों को जीतता है, उसे 'जिन' कहा जाता है । कर्म, संसार-सागर में डुबाने वाला एवं दुःख देने वाला है। ऐसे कर्मो को जीतने से या नष्ट करने से ही आत्मा को शाश्वत सुख मिलता है। ऐसे जिन को जो नमन करते हैं, वे जैन कहलाते है । जिन को 'अर्हत्' भी कहते 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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