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भट्टारकों की महनीय परम्परा
अनिलकुमार कासलीवाल
जैन धर्म को जन-जन तक पहुँचाने में ऋषि-मुनियों एवं आचार्यों का सहयोग तो अनन्य रहा ही है साथ ही साथ जैन भट्टारकों ने भी जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना अमूल्य योगदान प्रदान किया है। इस प्राचीन परम्परा के बारे में शास्त्रोक्त एवं प्राचीन आधारों से एकत्रित करने का विनम्र प्रयास किया जा रहा है।
दक्षिण भारत में अभी भी श्रवणबेलगोला, मूडबिद्री, कारकल, हुम्मच, कनकगिरी, तिरूमलाई, मेलचीतामूर एवं महाराष्ट्र में कारंजा, मलखेड़, लातुर, कोल्हापुर, जिन्तुर नारेड़, देवगिरी, नागपुर, आसागाँव तथा राजस्थान में नागोर, प्रतापगढ़, जयपुर, अजमेर, ऋषभदेव, चितोड़, मानपुर, मेरहट, सागवाड़ा, महुआ, डूंगरपुर, ओश मध्यप्रदेश में इन्दोर, ग्वालियर, सोनागिरी में भट्टारकों के केन्द्र रहे हैं एवं उनका धर्म के प्रचार-प्रसार में विशिष्ट एवं महत्नपूर्ण प्रभाव रहा था ।
भट्टारक परंपरा नवम शताब्दि से प्रारंभ होकर लगभग तेरहनीं शताब्दि तक सुस्थिर हुई थी। श्रुतसागरसूरी के अनुसार बसंतकीर्ति द्वारा यह प्रथा आरंभ की गई थी।
साधुओं के आचार-विचार में धीर-धीरे शैथिल्य आने से वि. सं. १३६ में स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय विभेद हो गया था । मुनियों में संरक्षण एवं सम्प्रदाय भेद की प्रवृति बढ़ गई थी। विकासशीलता और व्यापकता का दृष्टिकोण नहीं रहने से भट्टारक परंपरा का उदय हुआ एवं इस वस्त्रधारण प्रथा को मुस्लिम राज्य के समय में अत्यधिक बल मिला । साथ ही साथ श्रावकों का सहयोग भी इस प्रथा के उन्नयन में रहा । श्रावकों द्वारा इन्हें पूजा-पाठ और आवास हेतु मंदिर-मठ, खेत आदि के स्वामित्व का अवसर दिया गया था । उत्तर प्रान्तों में कुछ विद्वानों द्वारा इस प्रथा का मर्यादातीत विरोध होने के कारण यह प्रथा वहाँ बन्द सी हो गई है।
यद्यपि दिगम्बर जैन आम्नाय में मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, श्रावक एवं श्राविका के अतिरिक्त कोई अन्य मूलतः स्वीकृति नहीं है, लेकिन “भट्टारक" का पद इन सबके अतिरिक्त होते हुए भी शताब्दियों से चला आ रहा है । उनके द्वारा जेन परम्परा, शास्त्रों के संरक्षण एवं ज्ञानाराधना के लिए जो केन्द्र स्थापित किये गये उन्हें 'मठ' की संज्ञा दी गई। यह न तो मन्दिर है न मकान ही। इन दोनों के बीच की पवित्र स्थिति का यह मठ दिग्दर्शन है। यह मठ संक्रमण युग की देन है, ऐसा भी
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