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________________ उनके बिना अपने आपको दुखी भी नहीं मानते । परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिए जितना झूठ बोलना पड़े, हम बोलते है। जिस-जिस प्रकार की चोरी करना पड़े हम करने को तैयार बैठे है । आज हमारी जीवन पद्धति में व्यभिचार और कुशील निन्दनीय माने जाते हैं। कोई कुशील को अपने जीवन में समाविष्ट नहीं करना चाहता । परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिए जितना कुशील -मय, व्यवहार करना पड़े, हममें से प्रायः सब, उसे करने के लिए तैयार बैठे हैं 1 परिग्रह को लेकर कहीं अनुज, अग्रज के सामने आँखे तरेर कर खड़ा है, उसकी अवमानना और अपमान कर रहा है। कहीं अग्रज अपने अनुज को कोर्ट कचहरी तक घसीट रहा है । परिग्रह को लेकर ऐसे तनाव प्रगट हो रहे हैं कि बहिन की राखी भाई की कलाई तक नहीं पहुंच पा रही । परिग्रह के पीछे पति-पत्नी के बीच अनबन हो रही है और मित्रों में मन-मुटाव पैदा हो रहे हैं | ये होने के पहले ही टूटते हुए रिश्ते, ये चरमराते हुए दाम्पत्य, परित्यक्त पत्नियों की ये सुलगती हुई समस्याएँ और दहेज की वेदी पर झुलसती जलती ये कोमल-कलियाँ, हिंसा झूठ और चोरी का परिणाम नहीं है ? ये सारी घटनाएं व्यभिचार के कारण भी नहीं घट रहीं है ? ये सारी घटनाएं व्यभिचार के कारण भी नहीं घट रहीं ? मानवता के मुख पर कालिख पोतने वाले, और समाज में सड़ाध पैदा करने वाले ये सारे दुष्कृत्य, हमारी परिग्रह लिप्सा के ही कुफल हैं। गहराई में जाकर देखें तो इनमें से अधिकांश घटनाओं के पीछे हमारा लोभ, हमारी लालच, और भौतिकता के लिए हमारी अतृप्त आकांक्षाएँ ही खड़ी दिखाई देंगी । महावीर की संहिता में परिग्रह की लोलुपता को, सभी पापों की जड़ बताते हुए कहा गया “मनुष्य परिग्रह के लिए ही हिंसा करता है। संग्रह के लिए ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है । कुशील भी व्यक्ति के जीवन में परिग्रह की लिप्सा के माध्यम से आता है । इस प्रकार परिग्रह की लिप्सा आज का सबसे बड़ा पाप । उसी के माध्यम से शेष चार पाप हमारे जीवन में प्रवेश पा रहे हैं । लिप्सा ही वह छिद्र है जिसमें से होकर हमारे व्यक्तित्व के प्रासाद में पाप का रिसाव हो रहा है । Jain Education International संग णिमितं मारइ, भणई अलीकं, करेज्ज चोरिक्कं, सेवइ मेहुण-मिच्छं, अपिरमाणो कुणदि जीवो। 137 For Private & Personal Use Only - समणसुत्तं www.jalnelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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