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साल शैव लोग इसकी स्मृति रूप में दस दिन उत्सव मनाते है।
कांजीपुर के पास 'तिवत्तूर' में इस तरह का कलह हुआ था । वहाँ के शैव मन्दिर में यह दृश्य उत्कीर्णित रूप में मौजूद है । चोल नरेश के 'परैयार' में भी यही हुआ था । इसका उल्लेख शैव तिरुत्ण्डर पुराण ग्रंथ में है। तिरुवारुर में भी इस तरह का कलहकारी कार्य हुआ था । जैनों के मठ, पाठशाला, घर-बार आदि छीन लिए गये थे। यह बात शैव पेरियपुराणं में है।
‘पन्नुं पालि पलिल कुलं मूल करै पड़त्तु (शैव पेरियपुराणं ) छीनकर तालाब बनाया गया था । इस तरह जैनों के मठ पाठशाला आदि छीनना, उनको शूली पर चढ़ाना, हाथी के पैरों तले दबाकर मारना, गॉव से भगाना, जमीन जायदाद छीन लेना आदि भयंकर अत्याचार एवं कलह हुआ था ।
करीब पाँच सौ साल के पहले साउथ आर्काड के 'जिंजी' नगर में ई. १४७८ के समय 'वेंकटपति नायकन' नाम का एक छोटा सा राजा राज करता था । उसे 'दुबालकृष्णप्पनायकन' के नाम से भी पुकारते थे। यह विजयनगर साम्राज्य के अधीन तेलुगू वंश का था। उसका विचार था- ऊँचे कुल वाले की लड़की से शादी करना । उसने ब्राह्मणों को बुलाकर लड़की देने हेतु पूछा । उन लोगों की राजा को लड़की देने की इच्छा नहीं थी किन्तु राजा के सामने मना नहीं कर सकते । इसलिए उन लोगों ने चालाकी से यह कहा कि हम लोगों से श्रमण अर्थात् जैन ऊँचे हैं, आप उनसे एक लड़की लीजिये, तब हम भी देंगे । वह राजा मूर्ख एवं अन्यायी था । उसने वैसे ही जैनियों से भी एक लड़की मांगी। जैनों की भी लड़की देने की इच्छा नहीं थी। मना करें तो उपद्रव मचायेगा। इस विचार से एक नतीजे पर आये । राजा से यह कहा गया कि अमुक दिन अमुक जगह पर आइये । वहाँ आपको लड़की मिल जायेगी। तदनन्तर जैनियों ने एक घर को खाली कर साफ सुथरा किया । खूब दीप जलाये । एक 'कुत्तिया' को नहलवा कर तिलक लगवाया और उसे बांधकर चले गये । राजा ने आकर देखा । कोई आदमी नहीं था । सिर्फ कुतिया बॅधी हुई थी।
उसे देखकर राजा को बड़ा गुस्सा आया। उसने इसे अपना अपमान समझा । इसलिये जैनियों को दण्ड देने के विचार से कत्ल करना शुरू किया । जैसे एक का सिर काटकर दूसरे के सिर पर रखना । इस तरह दस-दस आदमियों को मारता जाता था, उन्हें एक आदमी ढोता था। इसे 'सुमन्तान तलै पत्तु' अर्थात् काटे गये दस सिर को ढ़ोने वाला कहते हैं । उस समय हजारों जैन लोग मारे गये । जैन लोगों ने बेमतलब आपत्ति मोल ली थी। उस जमाने में सारे जैन लोग जनेऊ पहनते थे। बहुतसे लोग उसे फेंककर डर के मारे शैव बन गये। अब भी उस जाति वाले शैव के रूप में रहते हैं । उनको 'नैनार' कहते हैं । यहाँ स्थानीय जैनियों को भी नैनार कहा जाता है। दोनों का फर्क
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