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________________ अर्थात् एक सामान्य सवक चाहे वह गुणवान हो अथवा गुणहीन, उसका सदैव सम्मान ही करना चाहिए क्यों कि धर्म की प्रभावना इन्हीं के आधार से होगी तथा धर्म के अध्ययन अध्यापन में मूल योगदान भी ये ही देंगे। भट्टारक कभी भी जिन धर्म का विरोध नहीं करते । इनकी परम्परा ने जिन धर्म रक्षण का एक इतिहास बनाया है, इनके योगदान की उपेक्षा एवं तिरस्कार सराहनीय नहीं है । । हमें अपने इतिहास का एवं अपनी परम्परा का ज्ञान रखना चाहिए, इससे हमारी दृष्टि व्यापक बनती है। क्षुद्र आवेगों में आकर किसी पर आक्षेप नहीं करें। जो व्यक्ति अपनी जाति, धर्म के इतिहास एवं महापुरुषों के यशस्वी कार्यों की परम्परा से अनभिज्ञ होते हैं, वे ही आग परम्परा विरुद्ध कार्य करते हैं । वक्तव्यों में भी यदा-कदा इस प्राचीन भट्टारक परम्परा का विरोध करते हैं, ऐसा करना या कहना कदापि सराहनीय नहीं हैं। भट्टारकों ने जैन आगम ग्रन्थों एवं सम्पूर्ण संस्कृति की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित किया । भट्टारकों की परम्परा भी यशस्वी एवं महनीय रही है। इस परम्परा के प्रति समाज हमेशा कृतज्ञ था, है एवं रहेगा। आज भी कर्णाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र राज्य में इस प्रथा का प्रचलन है एवं वहाँ के भट्टारकों के द्वारा किये गये अभूतपूर्व कार्यों की समाज पर अमिट छाप है। वस्तुतः भट्टारकों ने देव, गुरु, धर्म एवं शास्त्र सेवा में अपना पूर्ण योगदान दिया है, दे रहे हैं । इसका प्रमुख उदाहरण श्रवणबेलगोला है, वहाँ भट्टारकजी द्वारा किये गये कार्यों को देखकर सभी नतमस्तक हो जाते हैं । विश्व के प्रख देशों के श्रद्धालु वहाँ आते हैं । इसी भाँति अन्य सभी स्थलों पर भी भट्टारकजी विद्यमान है तथा तीर्थों के संरक्षण एवं अन्य जन कल्याणकारी प्रवृतियों में अपना अमूल्य योगदान प्रदान करते हुए जैन धर्म को उन्नयन कर रहे हैं। तीर्थ सुरक्षित तो धर्म सुरक्षित - पूज्य आचार्य श्री वर्धमानसागरजी म. 106 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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