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बन जाता है। अतः मोह, विद्या का भी बाधक है। मोह के उदय में व्यक्ति दीक्षा भी धारण नहीं कर सकता है। आज देखा भी जाता है कि बाल सफेद हो गये, मुँह से दांत गिर गये, ऐसा अर्धमृतक शरीर है जिनका, उन वृद्ध महापुरुषों से कहा जाये कि भाई ! अब दीक्षा धारण कर लो तो वृद्ध महापुरुष कहते हैं कि महाराज ! अभी मेरा मकान बनना शेष, अभी मेरा व्यापार भी मंदी में चल रहा है। दीक्षा की बात को हवा में उड़ा दिया और अपनी रामायण गाने लगे और उनका यह भी ठिकाना नहीं रहता है । इसका कारण यह है कि मोह ने उन्हें इस तरह जकड़ के रखा है कि मरण सामने आने के बावजूद भी घर नहीं छोड़ सकते हैं। मोह बंधन का भी कारण है। अगर किसी व्यक्ति को कोई तरूण स्त्री मोहित कर लेती है, तो वह उसी का ध्यान रहता है। खाते, पीते, सोते जागते, उठते-बैठते सिर्फ उसी का ध्यान रहता है। उसी का खरीदा हुआ दास बन जाता है। अतः मोह व्यक्ति को पराधीन बना देता है। एक कहावत भी है कि “पराधीन स्वप्ने सुख नाही" अर्थात पर के आधीन तीन काल में सुख नहीं मिल सकता है । जैसा कि एक व्यक्ति गरीब है जिसे सबह खाने के बाद सायं को खाने की चिंता रहती है। एक समय भी खाना रूखी-सखी मिलती है. ऐसे गरीब व्यक्ति अचानक कोई अपराध करे तो उसे पुलिस बंदी बनाकर जेल में डाल देती है। जेल मे दो समय आराम से खाना मिलता है। चायादि भी उपलब्ध होती हैं। घर से भी अधिक जेल में सुविधा होते हुये भी व्यक्ति जेल मे रहना नहीं चाहता है। बल्कि यह भावना करता है कब जेल से छूटूं और कब मैं घर जाऊं । इसका कारण यह है कि वहाँ सुख की अनुभूति नहीं हो सकती है । इसी प्रकार लक्ष्मी (धन) के संचय करने में दिन-रात लगा रहता है । इसके लिए अच्छे-बुरे सभी काम करता है । उसी चिंता के कारण न विद्यमान सम्पत्ति का उपभोग करता, न ही चैन से सो पाता है, न ही आराम से खाता-पीता है। अधिक क्या कहे लक्ष्मी के मोह से मोहित व्यक्ति स्वकीय पिता तथा जन्मदात्री माता को भी खत्म (हत्या) करने में पीछे नहीं हटता है । अतः मोह से युक्त प्राणी संसार में परिभ्रमण कर रहा है । जिस प्रकार नवनीत (मक्खन) निकालने के लिए एक लकड़ी दो रस्सी के बीच फिरता है उसी प्रकार राग-द्वेष रूपी रस्सी में जीव रूपी लकड़ी फंसकर संसार परिभ्रमण कर रहा है । पूज्यपाद स्वामी कहते है :
रागद्वेष द्वयी दीर्घ, नेत्रा कर्षण कर्मणा ।
अज्ञानात्सुचिरं जीव, संसारब्धौ भ्रमत्यसौ ।।१।। ये प्राणी राग-द्वेष कारण अज्ञानी बना हुआ है और अज्ञानता के कारण संसार में परिभ्रमण कर रहा है। मोह करने से हिंसा भी होती है क्योंकि आचार्य अमृतचन्द्र जी पुरुषार्थ सिद्धि उपाय में कहते है कि आत्मा परिणाम (स्वभाव) का हनन (घात) होने से हिंसा होती है अतः आत्मा का स्वभाव वीतरागता है और मोह करने से उस वीतरागता का हनन होता है। इसलिए मोह करने से हिंसा करने का भी पाप, लगता है। तथा उपर्युक्त गाथा में यह भी बताया है कि जहाँ राग होगा वहाँ नियम से द्वेष भी रहेगा । जैसा कि इष्ट वस्तु के प्रति राग है तो इष्ट वस्तु के बाधक के प्रति द्वेष रहेगा । उदाहरण के तौर पर समझिये नाग नागिन का जोड़ा है, अचानक
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