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यहाँ जैन धर्म पनपने का और एक कारण यह भी है कि जैनों का प्रचार-प्रसार मातृभाषा तमिल में ही हुआ करता था। उसके सारे अमूल्य ग्रन्थ मातृभाषा तामिल में लिखे गये । इससे स्थानीय लोग जैन तत्वों को आसानी से समझ पाते थे। इसी में धर्म प्रचार कार्य भी चलता था । ब्राह्मण वैदिक लोग अपने ग्रन्थों को संस्कृत भाषा में लिखते थे तथा दूसरों को पढ़ने नहीं देते थे। किन्तु जैन धर्म में किसी तरह की रुकावट न होने के कारण यह धर्म दिनोंदिन फलता-फूलता रहा ।इस तरह विशाल हृदय वाले जैन धर्मावलम्बी तमिल देश के अन्दर तमिल भाषा में अपने धार्मिक सिद्धान्त ग्रन्थों को लिखते थे। इन ग्रन्थों के निर्माण कार्य में साधु लोगों का सहयोग अवर्णनीय रहा। इन लोगों ने लोकोपकार के निमित्त कोष, काव्य, अलंकार, छन्द नीति ग्रन्थ आदि अगणित शास्त्रों का निर्माण कर समाज का महान् उपकार किया। यह भी जैन धर्म की अभिवृद्धि का कारण बना ।
जैन साधुओं की सहायता तामिल प्रान्त में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार का भार अधिकांशतः जैन साधुओं पर निर्भर था । वे साधुगण संघ के माध्यम से सभी स्थानों पर जाकर जैन धर्म की प्रभावना के कार्य में संलग्न रहते थे। संघ के साधु-संत सच्चरित्र के साथ नग्न दिगम्बर मुद्राधारी रहा करते थे। उन त्यागी महात्माओं को आहार के सिवाय और किसी तरह की चीजों की आवश्यकता नहीं होती थी। सिर्फ उन तपोधनों के लिए जप-तप-ध्यान और स्वाध्यायार्थ एकान्त निवास स्थान की आवश्यकता होती थी। वे साधु-संत पहाड़ों और गुफाओं में निवास किया करते थे । केवल उन्हें आहार के समय नगर आना पड़ता था। लेकिन धर्मात्मा लोग ऐसे साधु महात्माओं के सानिध्य में जाकर धर्मलाभ लेते हुए- अपने जीवन को सफल बनाते थे। उन त्यागी महात्माओं के निवास स्थान स्वरूप जो पहाड़ और गुफाएँ हैं उनमें उन महापुरुष त्यागीगणों के नामों से अंकित पाषाण-शिलाएँ आज भी कई जगह मौजूद है। इस तरह साधु-महात्मा लोग तमिलनाडु में जैन धर्म और जैन सिद्धान्त का प्रचार करते थे। उसके साक्षी अगणित शिलालेख हैं।
प्राचीनकाल में मद्रास बड़ा शहर नहीं था, छोटे-छोटे गांवों में बसा हुआ था, जैसे सैदापेट, चिन्ताद्रिपेट और वासरमेनपेट आदि । कांजीपुरम्, तंजाउर और मधुरै (दक्षिण) आदि शहर ख्याति प्राप्त थे। कलुगुमलै शिलालेख यह बतलाते हैं कि श्रामण संलगण समणर्मलै, कलुगुमलै, तिरुच्चारत्तुमलै आदि स्थलों को केन्द्र बनाकर विद्यापीठों की स्थापना करते हुए जैन सिद्धान्त, अहिंसा और करूणा आदि सार्वजनिक धर्मों का भेद-भाव के बिना प्रचार किया करते थे। ये निस्वार्थी, त्यागी महात्मा लोग तन-मन
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