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________________ निरोध कर शुक्ल ध्यान रूप अग्नि के द्वारा अघातिया कर्मों का क्षयकर परम विशुद्ध सिद्धावस्था को / मोक्ष को प्राप्त करते युक्त हो जाते है । । एक समय में ही ऋजुगति से गमन कर वे लोकाग्र में स्थित हो अष्टगुणों आयु पूर्ण होते ही तीर्थंकर भगवान का परमौदायिक शरीर कपूर की भाँति उड़ जाता हैं । चतुर्निका के देव आकर सर्वप्रथम आनन्द नामक नाटक करते हैं। अग्निकुमार देव अपने मुकुट से अग्नि उत्पन्न कर नखऔर केशों का दाह संस्कार करते हैं । तदनन्तर निर्वाण स्थान पर भगवान की पूजा-स्तुति, नमस्कार करके देव अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं । स्पष्टतः सिद्ध है कि जन्म से महान् आत्मा ही पंचकल्याणक विभूति को प्राप्त करता है। जन्म से महान् आत्मा कर्म से ही महान् बनकर अपने परमपद को तथा अनन्त सुख को प्राप्त करता है । Jain Education International भीतर से धर्मी बनो, छोड़ो मायाचार । करनी-कथनी एक हो, यही धर्म का सार ।। 132 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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