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भौतिकता की चकाचौंध में अमर्यादित लालसाओं के कारण संग्रहवृत्ति में आकण्ठ निमग्न हो रहा है और इसके लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अतितृष्णा को अपनाने में तनिक भी नहीं हिचकता । इससे उसके हृदय में एक प्रकार के आंदोलन एवं संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है फिर उसके परिणाम चोरी, लूटमार, युद्ध, हिंसा, विद्वेष, छल, कपट, मिलावट घुसखोरी के विविध रूपों में प्रगट हो रहे हैं । आज पर पदार्थों में ममत्व बुद्धि इनती बढ़ गई है कि मनुष्य दूसरों की सम्पत्ति पर अपना अधिकार जमाने में जरा भी चूकता नहीं । संसार के समस्त पापों का मूल यह परिग्रह या मूर्छाभाव ही है। इससे ग्रस्त हुआ व्यक्ति जघन्य से जघन्य कार्य करने में तनिक भी संकोच नहीं करता ।
जैनाचार्यों का उद्घोष है कि सुखी रहने के लिए और सुखी रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने भोग और उपभोग की सामग्री की सीमा बांधनी चाहिए। अपनी सीमित आवश्यकताओं की परिपूर्ति के बाद जो भी बचे उसे जनकल्याण में लगा देना चाहिए । जैन धर्म ने गृहस्थों के पुरुषार्थ द्वारा उत्पादन और उपार्जन पर रोक नहीं लगाई है, उसका तो उतना ही कथन है कि मनुष्य को अपने व्यापारादि सभी कार्य नैतिकता एवं ईमानदारी से करना चाहिए और दुष्कृत्यों से बचना चाहिए । जैन धर्म की मूल शिक्षा समत्व के सर्जन और ममत्व के विसर्जन की है क्यों कि इसकी दृष्टि में ममता या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं की मूल है ।
वर्तमान युग में वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। यह वैचारिक असहिष्णुता धार्मिक, दार्शनिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक समग्र जीवन को विषाक्त बना रही है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में जैन दर्शन का अनेकान्त ही मानव को संकीर्णता से ऊपर उठाने हेतु दिशा निर्देश दे सकता है। अनेकान्त धर्म वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराता है और पक्षपात से ग्रसित लोगों को संकेत करता है कि वस्तु उतनी ही नहीं है जितनी आप कह रहे है। आचार्यों ने वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानकर सत्य को अनेक पहलुओं से समझने का संकेत किया है अतः पक्षपात छोड़कर दूसरों की विचारधारा भी समझनी चाहिए ।
वस्तुतः जैन धर्म एक विशुद्ध धर्म है। इसका तत्त्वज्ञान अनेकान्त पर आधारित है और आचार अहिंसा पर प्रतिष्ठापित । यह धर्म ऐहिक और पारलौकिक मान्यताओं पर अन्ध श्रद्धा रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नहीं है। यह तो प्राणिमात्र के हित में वस्तु स्वभाव व मनोविज्ञान के अति निकट है । इसके सिद्धान्त मानव को शान्ति की ओर अग्रसर करते है, इसलिए तत्त्वज्ञों ने इस धर्म को सर्वोदय तीर्थ कहा है।
इस वर्ष भगवान महावीर का २६०० वां जन्म महोत्सव ६ अप्रैल २००१ से राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है। हमें चाहिए कि भगवान महावीर का सर्वोदय तीर्थ एवं उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त एवं स्याद्वाद सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में किया जाये, जिससे कि विश्व में सुख, शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सके।
।। जैनं जयतु शासनम् ।।
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