Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 02
Author(s): Purushottamlal Menariya
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक–पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि [ सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ] ग्रन्थाङ्क ५२ राजस्थानी साहित्य - संग्रह भाग २ [ देवजी बगडावतारी, प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी नै वीरमदे सोनोगरारी वात ] राजाका प्राव्यतिप्रतिष्ठान GOODH OMGao राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR जोधपुर ( राजस्थान) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक-पुरातत्वाचार्य जिनविजय मुनि सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान याच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । ग्रन्थाङ्क ५२ राजस्थानी साहित्य - संग्रह भाग २ [ देवजी बगडावतारी, प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी नै वीरमदे सोनोगरारी वात ] प्रकाशक राजस्थान राज्य-संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR जोधपुर ( राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यत: अखिल भारतीय तथा विशेषत: राजस्थानदेशीय पुरातनकालोन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि प्रधान सम्पादक पुरातत्वाचार्य जिनविजय मुनि [ ऑनरेरि भेम्बर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी ] सम्मान्य सदस्य भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य-सभा, अहमदाबाद; विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध-सस्थान, होशियारपुर; निवृत्त सम्मान्य नियामक ( प्रानरेरि डायरेक्टर ), भारतीय विद्याभवन, बम्बई । ग्रन्थाङ्क ५२ राजस्थानी साहित्य-संग्रह ___ भाग २ [ देवजी बगडावतारी, प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी नै वीरमदे सोनोगरारी वात ] प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी साहित्य-संग्रह भाग २ सम्पादन कर्ता पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए., साहित्यरत्न राजस्थानी शोध सहायक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्था) विक्रमाब्द २०१७) प्रथमावृत्ति १००० भारतराष्ट्रीय शकाब्द १८८२ विस्ताब्द १९६ ( मूल्य २.७५ मुद्रक-श्री हरिप्रसाद पारीक, साधना प्रेस. जोधपर.. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAJASTHAN PURATANA GRANTHAMALA PUBLISHED THE GOVERNMENT OF RAJA HAN A series devoted to the Publicaion of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa, Old Rajasthani-Gujarati and Old Hindi works pertaining to India in general and Rajasthan in particular. GENERAL EDITOR ACHARYA JINA VIJAYA MUNI, PURATATTVACHARYA Honorary Member of the German Oriental Society, Germany; Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona; Visvesvrananda Vaidic Research Institute, Hosiyarpur, Punjab; Gujarat Sahitya Sabha, Ahemdabad; Retired Honorary Director, haratya Vidya Bhawan, Bombay; General Editor, Gujarat Puratattva Mandir Granthavali; Bharatiya Vidya Series; Singhi Jain Series etc. etc. No. 52 RAJASTHANI SAHITYA SAMGRAHA Pt. 2. WITH INTRODUCTION, NOTES, APPENDIXES, ET Published Under the Orders of the Government of Rajasthan By The Director, Rajasthana Prachy Vidya Pratisthana (Rajasthan Oriental Research Institute ) JODHPUR (RAJASTHAN ) V.S 2017 ] All Rights Reserved ( 1960 AD. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAJASTHANI SAHITYA SAMGRAHA Pt. 2 Edited WITH INTRODUCTION, NOTES, APPENDIXES ETC. By SHRI PURUSHOTTAM LAL MENARIA, M.A., Sahity Ratna Rajasthani Research Asst. Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur. Published Under the orders of the Government of Rajasthan By The Director, Rajasthan Oriental Research Institute Jodhpur ( Rajasthan ) V. S. 2017 ] ( 1960 A.D. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - तालिका विषय १. सञ्चालकीय वक्तव्य २. सम्पादकीय प्रस्तावना ३. देवजी बगडावतांरी वात ४. प्रतापसिंह म्होकर्मासघरी वात ५. वीरमदे सोनीगरारी बात ६. परिशिष्ट पृष्ठ संख्या १-२४ १- १५ १६-६७ ६८-६६ १००-१०८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य - - राजस्थानमें और अन्यत्र ज्ञान-भण्डारोंमें सैंकड़ों ही राजस्थानी कथाएं प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंमें लिखित प्राप्त होती हैं, जिनमें हमारो पुराकालीन रीति-नीति, आचार-व्यवहार एवं मनोभावादिसे सम्बद्ध सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, भाषावैज्ञानिक और साहित्यिक परम्पराअोंके सुस्पष्ट दर्शन होते हैं, अतएव इन कथाओंका हमारे साहित्य में विशेष महत्त्व है। अनेक राजस्थानी कथाएं संस्कृत और अपभ्रशादि कथाओंके अनुवादोंके रूपमें प्राप्त होती हैं तथा अनेक कथाएं मौलिक कल्पना और ऐतिहासिक घटनाओं एवं चरित्रों पर आधारित हैं। अनेक कथाओंका उद्देश्य धर्म-प्रचार और शिक्षा है तो कई कथाएं मनोरन्जन मात्रके लिए लिखी गई हैं। शैलीकी दृष्टिसे भी राजस्थानी कथाओंमें विभिन्नताओंके दर्शन होते हैं, जिनका विशेष अध्ययन हमारे विद्वानोंके लिये अपेक्षित है। ___ राजस्थानी कथा-साहित्यके विशेष महत्त्वको दृष्टिगत रखते हुये हमने प्रतिष्ठानकी प्रमुख प्रकाशन-श्रेणी राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालामें राजस्थानी साहित्य-संग्रह भाग १के अन्तर्गत श्रीयुत प्रो. नरोत्तमदास स्वामी एम. ए. द्वारा सम्पादित तीन वस्तुवर्णनात्मक राजस्थानी कथाओंका प्रकाशन किया था। "राजस्थानी साहित्य-संग्रह, भाग २"के अन्तर्गत तीन विशेष राजस्थानी कथानों-१ देवजी बगड़ावतारी वात, २ प्रतापसिंह म्होकमसिंघरी वात और ३ वीरमदे सोनीगरारी वातका प्रकोशन किया जा रहा है जिनका सम्पादन हमारे शोध-सहायक श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया एम. ए., साहित्यरत्नने परिश्रमपूर्वक किया है। पाठ-सम्पादनमें यथासाध्य वार्तामोंकी प्राप्त विविध प्रतियोंका उपयोग किया गया है तथा पाठान्तर्गत टिप्पणियोंमें आवश्यक ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक ज्ञातव्य प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे सम्पादकके सम्बद्ध विषयोंके Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष अध्ययन और योग्यताका परिचय मिलता है। साथ ही सम्पादकने वार्तामोंसे सम्बद्ध प्रतियों और विषयों पर परिशिष्ट एवं भूमिकामें अध्ययन-पूर्वक विस्तारसे लिखा है जिससे पाठकोंको अध्ययनमें विशेष सुविधा प्राप्त होगी। प्रस्तुत पुस्तकके प्रकाशन-व्ययका अर्धांश केन्द्रीय भारत सरकारने प्रादेशिक भाषा-विकास-योजनाके अन्तर्गत प्रदान करना स्वीकार किया है तदर्थ हम आभार प्रदर्शित करते हैं । आशा है कि राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालाके हमारे प्रिय पाठकोंको प्रस्तुत प्रकाशन रुचिकर प्रतीत होगा। मुनि जिनविजय सम्मान्य सञ्चालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर जयपुर, ता० १२ अक्टूबर '६० ई. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय प्रस्तावना साहित्य, संगीत, चित्र, मूर्ति और वास्तु-कला प्रादिके माध्यमसे प्रात्माभिव्यक्ति करना मानव-प्रकृतिको एक प्रधान विशेषता रही है। साथ ही प्राप-बीती कहना और पर-बीती सुनना भी मानव-समाजकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है, जिसके परिणामस्वरूप कथा-साहित्यका उदय और विकास हुआ है। पूर्व पुरुषों और अनुभवी व्यक्तियोंके ज्ञान का लाभ प्राप्त कर अपने अनुभव एवं ज्ञानका लाभ पाने वाली पीढ़ियों को प्रदान करते रहने की परंपरासे मानव-संस्कृति सदा ही विकासोन्मुख रही है। इस प्रक्रियाके लिये कथानोंका विशेष उपयोग हुआ है, क्योंकि कथानोंके माध्यमसे कोई भी विचार सुगम एवं सुबोध रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है। हमारे समाजमें साहित्य, दर्शन, इतिहास, धर्मशास्त्र आदि अनेकानेक विषयों का ज्ञान कथानोंके माध्यमसे करानेकी अति प्राचीन परंपरा है, जिसके परिणाम-स्वरूप सम्बद्ध विषयोंकी कथाएँ प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होती हैं। __ प्राचीन भारतीय कथा-साहित्य वैदिक कालसे ही भारतमें कथा-साहित्य किसी न किसी रूपमें प्राप्त हो जाता है। साथ ही प्राचीन भारतीय कथानोंका प्रचार विदेशों में भी हुआ है। उदाहरणके लिए एञ्चत्रिका प्रथम विदेशी अनुवाद पहलवी अर्थात् प्राचीन ईरानी भाषामें ईरानके सम्राट खुशरोके दरबारी हकीम बुर्जुए द्वारा सन् ५३१ से ५७६ ई. के बीच किया गया था। इसके पश्चात् पञ्चतंत्र के अनेक अनुवाद यूरोपीय और चीनी आदि भाषाओं में हुए। पञ्चतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर प्रादिका प्रभाव मध्य एशिया, युरोप, अरब, और चीन प्रादि देशोंके कथा साहित्य पर भी दृष्टिगत होता है। __ऋग्वेदके स्तुतिपरक सूक्तोंमें "अपालाकी कथा" प्राप्त होती है। हमारे उपनिषदोंमें भी कई कथाएँ निगुम्फित हैं। उदाहरणके लिये केनोपनिषदमें देवताओंकी शक्तिपरीक्षा, कठोपनिषद्म नचिकेताके साहस और छान्दोग्य उपनिषद् में सत्यकाम एवं जानश्रुवा, बृहदारण्यक्में गार्गी और याज्ञवल्क्य. तैत्तिरीयमें प्राश्विनी तथा मुण्डकोपनिषदमें महाशल्य, शौनर और अङ्गिराको कथाएँ कही गई है। रामायण और महाभारतमें इतिहास, धर्म और कल्पनाके आधार पर अनेक कथानोंका समन्वय हुआ है। रामायण और महाभारत सम्बन्धी कथानों द्वारा कालान्तरमें कितने ही कमनीय काव्योंका प्रणयन हुआ है । १ श्री एजर्टन द्वारा सम्पादित-"पंचतंत्र रिकन्स्ट्रक्टेड" और डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का वक्तव्य (पञ्चतन्त्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) पृष्ठ सं०६। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] भारतीय कथा-साहित्यमें 'जातक' का भी विशेष स्थान है क्योकि इसमें भगवान बुद्ध के जन्म-जन्मान्तरोंसे सम्बद्ध ५७७ कथानोंका समावेश हुआ है। गुणाढ्य द्वारा ईसाको प्रथम शताब्दि रचित बृहत्कथासंग्रह अब प्राप्त नहीं है किन्तु हर्षचरित्. काव्यादर्श, बृहत्कथामञ्जरी और कथा-सरित्सागर प्रादिसे इसकी सूचना अवगम्य है । कथासरित्सागर (११ वीं शताब्दि ई०) भारतीय कथानोंका एक अनूठा संग्रह है । संस्कृतके अन्य कथा-ग्रन्थों में वैतालपञ्चविंशति, शुकबहुत्तरी, सिंहासनद्वात्रिंशशिका और हितोपदेश विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। प्राकृत और अपभ्रंशके कथा-साहित्य में लीलावई कहा, पउमचरिउ, कथाकोश, समाराइच्चकहा, भविष्यदत्त कथा, ज्ञाताधर्म कथासूत्र और वसुदेव-हिण्डी आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। प्राचीन राजस्थानी कथा-साहित्य राजस्थानी भाषामें संस्कृतका प्रायः संपूर्ण कथा साहित्य अनुवाद-रूपमें प्राप्त हो जाता है। पञ्चतंत्र, हितोपदेश, सिंहासनबत्तीसी, वेताल पच्चीसी और रामायण-महाभारत प्रादिसे सम्बद्ध कथानोंके तो कई अनुवाद विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारोंमें प्राप्त होते हैं, जिनमें से कई सचित्र भी हैं। अभी तक यह वाङमय अप्रकाशित ही है। - मनोरञ्जन, धर्मप्रचार और शिक्षाप्रसारमें कथाएँ बहुत सहायक होती हैं अतः राजस्थानी भाषामें प्राचीन कथाओंके अनुवादोंके अतिरिक्त नवीन कथाएँ भी पर्याप्त संख्यामें रची गई है। बालकों और प्रौढ़ोंको विभिन्न विषयोंका ज्ञान भी प्रायः परंपरानुगत कथानोंके माध्यमसे दिया जाता रहा है इसलिये मौखिक कथाओंको लिपिबद्ध करनेके प्रयत्न भी पहले अनेक हुए हैं, जिनके परिणामस्वरूप हमारे ग्रन्थ-भण्डारोंमें राजस्थानी कथाओंके संग्रह पर्याप्त मात्रामें मिल जाते हैं। हमारे समाजमें प्रचलित परंपरागत मौखिक कथाओंको लिपिबद्ध करनेका आज कोई व्यवस्थित प्रयत्न नहीं हो रहा है और दुःख है कि महत्त्वपूर्ण कथाएँ धीरे-धीरे विस्मृतिके कराल गालमें लुप्त होती जा रही हैं। प्राचीन राजस्थानी साहित्यकी रास, प्रबन्ध, चउपई, मंगल, वेलि आदि रचनामों में भी कई कथाएं मिलती हैं किन्तु वे पद्य-प्रधान हैं। वार्ता, हाल, विगत, वचनिका, ख्यात आदि साहित्यिक रूपोंमें गद्यात्मक राजस्थानी कथाओंकी प्रचुरता है । जैनागमोंको बालावबोध गद्य-कथानोंमें संवत् १४११ वि०में रचित तरुणप्रभ सूरिकी "षडावश्यक बालावबोध" विशेष उल्लेखनीय है, जिसकी कुछ कथाएँ पुरातत्त्वाचार्य श्रीमान् मुनि जिनविजयजीने स्वसम्पादित "प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ" में प्रकाशित की हैं । . १ कुछ राजस्थानी कथाओंकी सूची श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारीजी चूडावतने अपनी " माँझळ रात" नामक कथा-पुस्तक ( साहित्य संस्थान. विद्यापीठ, उदयपुर ) में प्रकाशित की है। तदुपरान्त श्रीयुत नाराणसिंहजी भाटीने “राजस्थानी बात संग्रह" परम्परा प्रकाशन (राजस्थानी शोधसंस्थान, चौपासनी, जोधपुर) में भी राजस्थानी कथाओंकी सूचीका प्रकाशन किया है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-लेखकोंमें बहुज्ञता-प्रदर्शन और सम्बद्ध विषयोंका साङ्गीपाङ्ग वर्णन करनेकी, विशेष प्रवृत्ति रही है, जिसके परिणामस्वरुप विस्तृत वस्तु-वर्णन और नामोंको पूर्णता.. भी कई कथाओंमें प्राप्त होती है। ऐसी रचनात्रोंमें पृथ्वीचन्द्र चरित्र, सभा-शृङ्गार, कुतूहलम्, खींची गंगेव नींबावतरो बेपहरो और राजान राउतरो वातवणाव विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। राजस्थानी कथाओंको निम्नलिखित भागोंमें विभक्त किया जा सकता है१ वीरता सम्बन्धी कथाएं। २ प्रेम विषयक कथाएँ। ३ धार्मिक कथाएँ। ४ हास्य कथाएं, और ५ प्रकीर्ण कथाएं, जिनमें अनेक स्फुट विषयोंका समावेश अथवा मिश्रण होता है। जैसे-नीति, पशु-पक्षियों सम्बन्धी और कहावत आदिको कथाए। प्रस्तुत पुस्तक राजस्थानी साहित्य-संग्रह, भाग २के अन्तर्गत तीन महत्त्वपूर्ण कथानोंका समावेश किया गया है जिनमें से 'देवजी बगड़ावतारी वात' का लेखक अज्ञात है और जिसकी एकमात्र प्रति अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर में प्राप्त हुई है। दूसरी कथा 'रावत प्रतापसिंघ म्होकसिंघ हरीसिंघोतरी वात' बहादुरसिंहजी किशनगढ़ महाराजा द्वारा रचित है, जिसके सम्पादनको प्रेरणा श्रीयुत पं. गोपालनारायणजी बहुरा, एम. ए. उप सञ्चालक राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानसे प्राप्त हुई है। तीसरी कथा अज्ञात कर्तृक 'वीरमदे सोनोगरारी वात' है। देवजी बगड़ावतारी वात 'देवजी बगड़ावतारी वात' में प्रथम बगड़ावतों और तदुपरान्त देवजीके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। देवजी और बगड़ावतोंसे सम्बद्ध एक काव्य भी राजस्थानमें मुख्यतः गुर्जरों द्वारा गाया जाता है। इस काव्यके सम्बन्धमें महामहोपाध्याय श्री हरप्रसाद शास्त्रीने लिखा है कि भाट जातिमें सन् १२०० ई.के आसपास छोळू नामक कवि हुआ ___ १ इनमें से अन्तिम दो वार्तामोंका प्रकाशन श्रीयुत् पं. नरोत्तमदासजी स्वामी द्वारा सम्पादित "राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग १" में (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) हो चुका है। २ राजस्थानी कथा-साहित्य सम्बन्धी कार्योंके विषय में श्रीयुत् अगरचन्दजी नाहटाका, निबन्ध (वरदा वर्ष २, अङ्क २, विसाऊ, पृष्ठ ६८-१०८) ष्टव्य है। ३ देवजीको पूजा राजस्थानके कई भागोंमें लोक देवताके रूप में होती है। विशेष देखिये श्रीयुत झाबरमलजी शर्माका निबन्ध राजस्थान के लोक-देवता 'मरु-भारती, पिलानी,, वर्ष ३, अङ्क ३, पृष्ठ २। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने सर्वप्रथम वीर बगड़ावत बन्धुओंके विषयमें कोति-श्लोक लिखे जिनकी संख्या १५००० पताई जाती है। ___राजस्थानमें लोकमान्यतानुसार 'बगड़ावत' प्रति रात्रि तीन प्रहर गाया जाने पर ६ माहमें पूर्ण होता है। बगड़ावत काव्य वरतुवर्णन, चरित्रचित्रण, इतिहास और काव्यसौष्ठवको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है किन्तु अब तक इसका संकलन, सम्पादन और प्रकाशन तो क्या किसी भी साहित्यिक-इतिहासमें उल्लेख तक नहीं हुआ है। अब तक पूर्णरूपेण लिपिबद्ध न होनेसे इसमें क्षेपकोंका होना भी स्वाभाविक है। - 'देवजी बगड़ावतारी वात' के प्रारंभमें 'वीसलदे चहुवांण' के राज्य-कालमें बगड़ावतोंके मूल पुरुष "हररांम चहवांण" का उल्लेख है। वीसलदे चौहानको यदि अजमेरका विग्रहराज चतुर्थ मान लिया जावे तो उसका शासन-काल वि. सं. १२१० से वि. सं. १२२१ माना जाता है। तदनुसार बगड़ावतका निर्माणकाल १३ वी सदी विक्रमी ज्ञात होता है। मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् १८६१ ई०में भी देवजीका जन्म संवत् १३०० होनका उल्लेख है। देवजीके जन्मसे पूर्व अवश्य ही वगड़ावत बन्धुओंकी वीरता और वैभवका प्रचार हो गया होगा, जिनके विषयमें प्रसिद्ध है - माया मारणी बगड़ावतां, के लाखै फूलाणी। रही सही सो मारण गौ, हर गोविंद नाटाणी ।। अर्थात् माया (धन-ऐश्वर्य) का उपभोग बगड़ावतोंने किया। तदुपरान्त लाखा-फूलाणीने भी प्रानन्दोपभोग किया। तत्पश्चात् जो धन अवशेष रहा उसका आनन्द हरगोविन्द नाटाणीने प्राप्त किया। लाखा फूलाणी कच्छके प्रसिद्ध वीर और ऐश्वर्यशाली व्यक्ति थे । हरगोविन्द नाटाणी जयपुर महाराजा सवाई ईश्वरीसिंहके दीवान थे। उक्त दूहेमें 'कै लाखे फूलाणीके स्थान पर 'जग सारे जाणी' पाठ भी मिलता है। देवजी बगडावतका एक मन्दिर महाराणा सांगाने चित्तोड़में निर्मित करवाया था। कहते हैं कि उक्त महाराणाको देवजीका इष्ट था ।' राजस्थानमें 'वगड़ावत' और 'देवना. i Preliminary Report on the Operation in scarch of Mss. of Bardic Chronic.ils, Asiatic Society, Calcutta, Page 10. २ अजमेर हिस्टोरिकल एण्ड डिस्क्रिप्टिव (हरविलास शारदा) पृष्ठ १४८, १५३-१५४ । ३ मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् १८६१ ई., भाग ३, पृष्ठ ४६ । ४ श्रीयुत् पं. गोपालनारायणजी बहुरा, एम. ए. द्वारा सम्पादित और अनुवादित फार्बस कृत रासमाला" भाग प्रथम पूर्वाद्ध पृष्ठ १०२-१०४।। ५ जयपुर राज्यका इतिहास, लेखक पं. हनुमान शर्मा पृष्ठ १८१ । . ६ “राजस्थान के लोक देवता" पं. झाबरमलजी शर्मा, मरुभारती, पिलानी वर्ष ३, मङ्क ३। ७ मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् १८६१ ई. भाग ३, पृष्ठ ४६ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायण' सम्बन्धी लोक-नाटकोंका अभिनय होता रहा है, जिनका प्रकाशन भी हो चुका है। देवजी बगड़ावतकी पूजा राजस्थान में कई स्थानों पर होती है किन्तु इनकी पूजाका मुख्य केन्द्र आसीन्द मेवाड़ में है। बगड़ावतों द्वारा निर्मित एक सरोवर फतहनगर (उदयपुर) के समीप गांव गवारड़ीमें है और एक बावड़ी बीलाड़ाके समीप है। पाबूजीरा पवाड़ा, निहालदे सुल्तान आदि राजस्थानी लोक काव्योंकी भाँति 'बगड़ावत' का पूर्ण सङ्कलन, सम्पादन और प्रकाशन भी अब तक संभव नहीं हो सका है। वास्तव में इन काव्योंका सौष्टव और ऐतिहासिक महत्त्व प्रसिद्ध 'पृथ्वीराज रासो' से न्यून नहीं है। यह कवि चन्द रचित 'रासो' भी 'बगडावत' प्रादि राजस्थानी काव्योंकी भांति प्रारंभमें मौखिक ही प्रचलित रहा और इस तथ्यकी अोर ध्यान नहीं जानेसे विद्वानोंने पृथ्वीराज रासोका निर्माण-काल १८ में शताब्दि तक निश्चित करनेका प्रयत्न किया है। पृथ्वीराज रासोका निर्माण कवि चन्दने पृथ्वीराज चौहानकी वीरतासे प्रभावित होकर पृथ्वीराजके मृत्युकाल सं. १२४६ विक्रमीके लगभग ही किया होगा। कई वर्ष मौखिक रहनेसे ही पृथ्वीराज रासोमें परिवर्तन और परिवर्द्धन हो गये जिससे उस पर अप्रामाणिकताके आक्षेप किये गये। इस कथनके प्रमाणमें निम्नलिहित तथ्य संक्षेपमें विद्वानोंके विचारार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं१ पृथ्वीराज रासोको धारणोजमें लिखित प्रति संवत् १६६४ वि० को उपलब्ध हो चुकी है जिससे इस कालसे पूर्व पृथ्वीराज रासोका निर्माण सर्वथा सिद्ध है। यह प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरमें सुरक्षित है। २ रासो अथवा "रास" शब्द ही मूलतः गेय काव्यका प्रतिबोधक है। राजस्थान मध्यभारत और गुजरातमें "रास" शैलीमें गेय काव्य लिखनेकी प्राचीन परंपरा है जिसके अन्तर्गत सैकड़ों ही "रास" कृतियां उपलब्ध होती है। ३ पृथ्वीराज रासोके मौखिक रहनेसे ही इसके लघुत्तम, लघु, बृहत् और बृहत्तर रूप प्रचलित हो गये। ४ भारतीय ही नहीं कई विदेशी भाषाओं में भी प्राचीन प्रारंभिक साहित्य मुख्यतः मौखिक वीर काव्यों (Ballads) के रूपमें प्रचलित रहा है। ५ मुनि श्री जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्यको "पुरातन प्रबन्ध संग्रह" में प्राप्त हुए पृथ्वीराज रासोके छन्दोंसे चन्द कविके प्रस्तुत कान्यकी प्राचीनता और लोकप्रियता सिद्ध होती है। १ राजस्थानके लोक नाट्य, श्रीयुत् देवीलालजी सामर एम. ए., पृष्ठ ५३, और "राजस्थान के लोक नाटक" श्रीयुत् अगर च-दजी नाहटा, लोक-कला, भारतीय लोक-कला मंडल, उदयपूर भाग १, अङ्क २ । श्री बंशीधर शर्मा, किशनगढ़ने भी उक्त विषयमें दो ख्याल लिख कर प्रकाशित किये हैं। ___ २ श्रीयुत् डॉ. मोतीलालजी मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य पृष्ठ ६३ । ३ श्रीयुत् डॉ० गौरीशङ्क-जी हीराचन्दजी ओझा-पृथ्वीराज रासोका निर्माणकाल (कोशोत्सव स्मारक ग्रन्थ, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी)। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तवमें कुछ विशेष राजपरिवारों से सम्बद्ध होनेसे "पृथ्वीराज रासो' को महत्त्व मिल गया किन्तु उसके समान महत्त्वके काव्यों "पाबुजीरा पवाड़ा", "निहालदे सुल्तान" और "बगड़ावत” प्रादिका हमारे साहित्यिक इतिहास-लेखकोंने कहीं उल्लेख तक नहीं किया। इसका मुख्य कारण इनका अब तक अप्रकाशित रहना और सम्बद्ध इतिहासकारोंका अज्ञान ही है। आशा है कि शीघ्र ही राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा श्रद्धेय मुनि श्री जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्यके मार्गदर्शनमें ऐसे काव्यों के पूर्ण सङ्कलन, सम्पादन और प्रकाशनका परम महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान प्रारंभ किया जावेगा । प्रस्तुत पंक्तियोंके लेखकने कई वर्ष पूर्व 'बगड़ावत' काव्यका संक्षिप्त रूप एकत्र किया था जिसके कुछ अंश श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटाने अपने एक निबन्धमें प्रकाशित भी किये है1 । पुस्तकके परिशिष्टमें वार्ता सम्बन्धी बगड़ावतके कुछ विशेष अंशोंको साहित्य-संसारमें सर्वप्रथम प्रकाशित किया जा रहा है। बगड़ावतका कर्ता 'छोडू' विशेष समर्थ कवि ज्ञात होता है इसीलिये इसकी तुलना महाकवि चन्दसे की जाती है-- 'अोछूने छोछू मिल्यो पृथीराजने चन्द ।' छोछू जातिसे भट्ट अर्थात् भाट था जैसा कि बगड़ावतको निम्न पंक्तियोंसे ज्ञात होता है-- 'चांद सूरज तो तप, मोर करे विलाप । हजूरने बिड़दावे छोळू भाट। छोछू भाट उदलजीरी वरदावली करै ।।' प्रोछू या उदलजी संभवतः बगड़ावतोंमें प्रधान भोजाका पुत्र उदयराव है। ___महाकवि चन्द, नरहरि महापात्र और संभवतः सूरसागरके कर्ता सूरदास (सूरनचन्द) जैसे प्रसिद्ध कवि भी भाट ही थे। राजस्थानमें १५ वीं शताब्दि तक इन कवियोंका विशेष मान था। तत्पश्चात् इनका प्रभाव कम हो गया जिसका मुख्य कारण इनका राजस्थानी काव्य शैली डिंगलको छोड़ पिंगलको और भुकाव ज्ञात होता है। आज भी राजस्थानमें कई जातियोंके भाट काव्य-रचनाको परंपरा अपनाये हुए हैं। श्रीयुत अगरचंदजो नाहटाने अपने निबन्धमें बगड़ावत काव्यका कर्ता "छोछु" के स्थान पर "चोचू" लिखा है । "चोचू" नाम वास्तवमें शुद्ध नहीं है क्योंकि बगड़ावत काव्यमें, जैसा कि उक्त उद्धृ त अंशोंसे प्रकट है "छोछू” नाम ही मिलता है। यह भूल श्री हरप्रसाद शास्त्रीको उक्त अंग्रेजी टिप्पणीमें दिये गये नामका हिन्दी रूपान्तर करते समय "ch" अंग्रेजीके "च" और "छ" पाठका अन्तर नहीं करने के कारण हुई ज्ञात होती है। .. देवजी बगड़ावत सम्बन्धी वार्ताको प्रतिलिपि हमें श्रीयुत अगरचंदजी नाहटाके सौजन्य द्वारा अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेरसे प्राप्त हुई है। प्रस्तुत कृति उक्त ग्रन्थालयके "केटलग प्राफ दो राजस्थानी मेन्युस्क्रिप्टस्" में पृष्ठ सं० १०१ पर "वात" विषयके . १ मरुभारती (बिड़ला ट्रस्ट, राजस्थानी शोध-विभाग, पिलानी) वर्ष ५, अङ्क २ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७] अन्तर्गत १०वें ग्रन्थ "फुटकर वाता" में ७३वीं रचनाके रूपमें अङ्कित हुई है। इस ग्रन्थमें वार्तामोंकी पूर्ण संख्या १४० है । अब तक ज्ञात हुई यह एकमात्र कृति है इसलिये विशेष महत्त्वपूर्ण है। ___बगड़ावतमें महाभारत काव्यको भौति अनेकों उपकथाओं और घटनाओंका काव्यात्मक अङ्कन है । बगड़ावतको सुविस्तृत कथावस्तुको देखते हुए प्रस्तुत वार्ता अत्यन्त संक्षिप्त है और “गागरमें सागर" भरनेका प्रयत्न लक्षित होता है। संभवतः विभिन्न विषयक १४० वार्ताओंका लेखन-कार्य करनेमें लेखकको विस्तार में जानेका अवकाश नहीं प्राप्त हुआ है । वार्ताके प्रारंभमें "राजा बोसळदे चहवांण राज्य करें" का उल्लेख है। अजमेरका वीसलदे चौहान प्रसिद्ध "वीसलदे रास" नामक प्रेमाख्यानका नायक भी है। अजमेरके चौहान शासकोंमें वि० सं० १२२१ तक चार वीसलदे हुए हैं । इसलिये निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि कथामें लिखित बगड़ावतोंका मूल पुरुष "हररांम चहवांण" किस वीसलदेका समकालीन था। संभवतः यह विशेष प्रसिद्ध वीसलदे चतुर्थका समकालीन हो, जिसका शासनकाल सं० १२१० से १२२१ विक्रमी माना गया है । कथाके प्रारंभमें ही अजमेरके कोका साहको बालविधवा पुत्री तपस्विनी लीलाके हरराज चहुवाणसे दृष्टि-सम्पर्क द्वारा ही गर्भको घटनासे पाटकोंका कथाके प्रति श्रौत्सुक्य जागृत हो जाता है । प्रागे लीलाके नृसिंहरूपमय बाघाजी नामक पुत्र उत्पन्न होता है और फिर तीजके त्यौहार पर वाटिकामें भूलनेके लिये आगत १२ विभिन्न जातीय कन्याओंसे बाघाजीका विवाह नाटकीय रूपमें होता है तो पाठकोंमें कथाके प्रति विशेष आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। बाघाजीके २४ पुत्र हुए जो 'बगड़ावत' नामसे प्रसिद्ध हुए। इन २४ पुत्रोंके विवाह गुर्जर कन्याओंसे हुए। इस प्रकार बगड़ावतोंकी वृद्धि हुई। बाघापुत्रसे बाघापुत्त>बाघाउत और बघावतके स्थान पर 'बगड़ावत' शब्दमें 'डा' ध्वनिका आगम संभवतः एक ही परिवार में विभिन्न जातियोंका मेल होनेसे उपेक्षावृत्तिका सूचक है। राजस्थानके डूंगरपुर-बांसवाड़ा क्षेत्रका 'वागड़' नामकरण भी 'बगड़ावतों से सम्बद्ध हो सकता है। यह भी संभव है कि बगड़ावतोंके मूल पुरुष हरराजके शिकारी एवं व्याघ्र-अरि होनेसे इस क्षेत्रका नाम बाधारि> वागड़ हुआ हो अथवा वागड़ क्षेत्रमें बाधा-अरि अर्थात् बगडावतोंका कोई शत्रु रहता हो। बहुत संभव है बाघको रावत उपाधि हो जिससे वह बाघ रावतके नामसे प्रसिद्ध हो गया हो और 'बाघ रावत' से 'बगड़ावत' शब्द प्रचलित हुआ। ___कथामें अतीत (सन्त) और भोजाके वार्तालापमें उर्दू का प्रभाव प्रकट किया गया है। जैसे 'मैं चलूगा', 'मैं माया', 'तुझकु' प्रादि । प्रस्तुत कथाकी भाँति अन्य कई राजस्थानी कथाओंमें मुस्लिम प्रभाव बतानेके लिये उर्दू प्रयोगोंकी विशेष प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह प्रवृत्ति मुसलमानी शासनके कारण 'उर्दू' के विशेष प्रचारको द्योतक है।। प्रागे अतीतके पारसरूप होने, बगड़ावतोंकी ऐश्वयं-वृद्धि, जेलूके रूपमें देवीका अवतार ग्रहण करने, उदयरावके जन्म, भिनाय राणाको पराजय और देवनारायणके लुप्त होने आदिको अलौकिक और पाश्चर्यमयी घटनाओं के साथ कथा पूर्ण होती है । ऐतिहासिक तथ्योंके साथ अलौकिक घटनाएं प्रस्तुत करनेकी प्रवृत्ति सामान्यतः अनेक कथाओंमें लक्षित होती है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] संग्रह-ग्रन्थमें अधिकाधिक वार्तामोंको लिखनेके मोहसे प्रस्तुत वार्तामें चरित्र-चित्रण, घटना-विवरण और पृष्ठ-भूमि-अङ्कनका विस्तार नहीं दिया गया है। संभवतः लेखकने इनकी आवश्यकता बगड़ावतोंके व्यापक प्रभाव के कारण भी नहीं समझी है। प्रस्तुत वार्ता कई भारतीय कथानक रूढ़ियों और अभिप्रायों (Motieves) का समावेश भी कलात्मक रूपमें हुप्रा है। जैसे दृष्टि-सम्पर्कसे गर्भधारण, नृसिंहरूपी बालकका जन्म, बालक-बालिकाओं द्वारा खेल हीमें विवाह कर लेना, उबलते हुए तेल में गिरना और पारस होना, अन्यायकी प्रांच शेष नागके लगना, देवीका अवतार ग्रहण करना, कमलसे बालकका उत्पन्न होना, होनहार व्यक्ति पर सर्प द्वारा छाया करना, बालकको सिंहनी द्वारा दूध पिलाना, गायोंकी रक्षाके लिये युद्ध करना, आदि । उक्त प्रसङ्ग अनेक भारतीय कथाओंमें मिल जाते हैं। प्रस्तुत वार्तामें भी इन चमत्कारिक घटनाओंका कलात्मक रूपमें समावेश हुआ है। . प्रतापसिंघ म्होकमसिंघ हरीसिंघोतरी वात पुस्तकमें ग्रहीत दूसरी कथा 'प्रतापसिंघ म्होकसिंघ हरीसिंधोतरी वात' एक ऐतिहासिक वार्ता है, जिसका उपयोग स्व डॉ. गौरीशङ्कर हीराचन्द प्रोझाने भी राजपूतानाका इतिहास लिखने में किया है । प्रस्तुत वार्ताको हमें पांच प्रतियां उपलब्ध हुई हैं, जिनमें से दो प्रतियां (क. और ख.) राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालयसे, एक (ग. प्रति) महाराजकुमार डॉ रघुबीर सिंहजी एम ए, डी लिट् एम. पी. के सौज्यन्यसे, श्री रघुबीर लायब्ररी सीतामऊ द्वारा, एक (घ. प्रति) श्रीयुत नारायणसिंहजी भाटी द्वारा राजस्थानी शोध-संस्थान, चोपासनीसे और एक प्रति (ङ) श्रीयुत गोपालनारायणजी बहुरा एम. ए. उपसञ्चालक रा. प्रा. वि. प्र. के सौजन्यसे श्री लाधूरामजी दूधोडिया द्वारा प्राप्त हुई है। प्रतियोंका परिचय प्रति-क. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरकी प्रति, प्रन्थ संख्या ७८७४ । प्राकार ८.६x६ इञ्च । गुटका, पत्र संख्या ३० । प्रति पत्रमें पंक्ति संख्या १६, १७ और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर संख्या १४ से १७ । लिपिकाल संवत् १८६५ चैत्र विद १३ । लिपिस्थानजयपुर । वात के अन्तमें कर्ताका नाम इस प्रकार लिखित है-- "ईती श्रीरावत म्होकमसींघ हरीसींघोतरी बात म्हाराजधिराज म्हाराज श्री बहादुरसीघजी क्रत संपूर्ण किसनगढ राजस्थान ।" प्रतिके अन्तमें बहादुरसिंहजीके विषयमें तीन कवित्त, एक गीत और मुंहणोत शिवदास कृत "सूर-सती-संवाद" एवं महाराज नागरीदास कृत चोसर दोहा हैं । तीनों कवित्तों और गीतोंसे बहादुरसिंहजीके विषयमें महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। प्राप्त प्रतियोंमें यह विशेष विश्वसनीय है इसलिये मुख्य पाठ इसी प्रतिका ग्रहण किया गया है। प्रति-ख. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरको प्रति, ग्रन्थ संख्या ६७१६ । प्राकार ४.५४२६ इञ्च । गुटका पत्र संख्या ७० । प्रति पत्रमें पंक्ति संख्या ७ और प्रत्येक पंक्तिमें १. प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ १८५। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर संख्या १३ से १५ । लिपिकाल अज्ञात है। प्रतिमें कर्ताके नाम आदिका उल्लेख नहीं है और पाठ भी अशुद्ध है। प्रति-ग. श्री रघुवीर लायब्ररी सीतामऊसे प्राप्त प्रतिलिपि । प्रतिलिपिके प्रारंभमें निम्नलिखित उल्लेख है-- "श्री रघुवीर लायझरी, सीतामऊके लिये प्रतापगढ़ राज्यमें प्राप्य प्रतिसे नकल करवाई गई।" संभवतः स्व० डॉ० गौरीशङ्कर होराचंद अोझाने भी "प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास" लिखने में इसी प्रतिका उपयोग किया हो।। मूल प्रति २२ पत्रोंकी है जैसा कि प्रस्तुत प्रतिलिपिसे प्रकट होता है । प्रतिके प्रारंभमें ही कर्ताका नाम इस प्रकार लिखित है "महाराज बादरसिंघजी किसनगढ़रा राजारी करी" प्रतिके लिपिकर्ता और लेखन-कालका उल्लेख इस प्रकार है-- "ईति श्री वारत समपुरण लोषीतं ग भ्राह्मांमण अोदीच मगनेस दौलतरांम श्री कल्याण रस्तु सुभं भवस्तु ॥ श्री श्री ॥ संवत १९८' 'प्रसाड सुद ३ त्रीतीया भोमवासर ॥ श्री ॥ श्री ॥श्री॥ श्री॥ ॥ गाथा ॥ काठलधर कमनीये नगर प्रताप दुर्गजह नपती ।। उदयसिंह अभिधानं ॥ भानुवंस भूषन कुल रान ।। १ ।। या वार्ता भवाया मगनीरामका हातसूं लिषारणी ।। प्रतिमें उक्त ज्ञातव्य मह प्रति-घ. यह राजस्थानी शोध-संस्थान, चौपासनी, जोधपुरसे प्रतिलिपि रूपमें प्राप्त हुई है। प्रतिलिपिके अन्तमें निम्नलिखित उल्लेख है - "लिखितं महडू राजूराम जोधनयर मध्ये कवराजा श्री भारथदांनजी वाचनार्थं ॥ श्री॥ समत् १६०३रा चैत्र सुद ११ सोमवासुरे ॥ श्रीरस्तु ॥ सुभं भवत् ॥ कल्याण महत् ।। वाचे सुणै तिणांसू राजूमामरा श्री राम-राम बांचसी। राजस्थान रिसर्च सोसाइटीके लिये भगवतीप्रसादसिंघ वीसेन । जोधपुर, कातिक सुद ३, बुधवार, संवत १९६३ वि. ता. ३० अक्टूबर, १९३५॥" इस प्रतिलिपिकी मूल प्रति अप्राप्य है। प्रतिलिपिका मूलसे मिलान नहीं हुआ है और पाठ भी संदिग्ध है। १ स्व० डॉ० गो० ही० अोझाने उक्त वार्ता प्राप्त होनेका उल्लेख किया है। प्रतापगढ़राज्य का इतिहास, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ सं० १८५ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] ' प्रति-ऊ. यह प्रति श्रीलाधूरामजी दूधोडियासे प्राप्त हुई है। प्रतिको पुष्पिका इस प्रकार है "ईति श्री रावत मोहकमसिंघ हरीसिंघौतरी वात संपूर्ण । मिति असाढ वदि १२ सवत्त १८६७रा फतेग [6] मध्येः लिखितं वैष्णवै मगनीरामः" वार्ता ६.५४७ इन्च आकारके १२ पत्रों में पूर्ण हुई है। प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या २६ और प्रति पंक्ति अक्षर सं० २५, २६ हैं। प्राप्त प्रतियों में यह प्राचीनतम है किन्तु इसके पत्र सं० ५, ६ और ६ अप्राप्त हैं । प्रति जीर्ण और तेलसे भरी हुई भी है। उक्त कारणोंसे पूर्ण पाठ केवल क. प्रतिका ही ग्रहण किया गया है और विशेष पाठान्तर अन्य प्रतियोंके दिए गए हैं। . पाठकी दृष्टिसे अ. वर्गकी क और ख. प्रतियां एक माताकी और प्रा. वर्गकी ग. घ. ऊ. प्रतियां अन्य माताको पुत्रियां ज्ञात होती हैं। अर्थात् क. ख. सगी बहिनें और ग. घ. ङ सगी बहिनें हैं । अ. और प्रा. प्रतियां एक दूसरे वर्गको मोसेरी बहिनें हैं। वार्ता-लेखक बहादुरसिंहजी राजस्थानके राज-परिवारों में अनेक व्यक्ति साहित्यकारोंके आश्रयदाता और साहित्यके प्रेमी ही नहीं स्वयं साहित्यकार भी हो गये हैं, जिनका रचित साहित्य प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होता है। ऐसे ही प्रतिष्ठित परिवारों में राजस्थानके मध्य भाग में स्थित किशनगढ़का राज-परिवार भी है, जिसमें प्रसिद्ध सन्त और साहित्यकार नागरिदास अपर नाम सांवतसिंहका नाम विशेष उल्लेखनीय है। सांवसिंहका जन्म सं० १७५६ वि० और मृत्यु-समय सं० १८१४ वि० है। इनकी छोटी-बड़ी ७७ रचनामोंका संग्रह प्रकाशित भी हो चुका है। सांवतसिंह अपने पिता महाराजा राजसिंहजीके देहान्तके समय (सं० १८०५ वि०) दिल्लीचे थे। किशनगढ़ राज्यके उत्तराधिकारी होनेके नाते बादशाह अहमदशाहने नागरिदासको किशनगढ़का शासक घोषित कर दिया। इसी समय किशनगढ़में नागरिदासको अनुपस्थितिमें इनके लघु-भ्राता बहादुरसिंह राज्य-सिंहासन पर प्रारूढ़ हो गये और अपने बल एवं कौशलसे लगभग ३३ वर्ष (सन् १७४६ ई० से १७८२) ई० तक राज्य किया।' उक्त बहादुरसिंह, किशनगढ़ महाराजा ही प्रस्तुत वार्ताके रचयिता थे, जो किशनगढ़ राज्यके संस्थापक किशनसिंह राठौड़की ५वीं पीढ़ीमें राज्यके उत्तराधिकारी बने । नागरिदासको सहायताके लिए प्रागत विशाल बादशाही सेनाको भी वीरवर बहादुरसिंहूने पराङ मुख कर दिया, जिससे इनके रण-कौशलका परिचय मिलता है। बहादुरसिंह ६ वर्ष तक अपने सिंहासनको सुरक्षाके लिए सफल संघर्ष करते रहे। इसी बीच नागरिदासने राज्य-प्राप्तिको पाशा छोड़ कर वृन्दावनवास और साहित्य-सेवा स्वीकार की। तदुपरान्त नागरिदासके पुत्र सरदारसिंहकी सहायताके लिए चढ़ाई कर आई हुई सेनासे बहादुरसिंहने नीतिपूर्वक संधि कर सरदारसिंहको सरवाड़, फतहगढ़ और रूपनगरके परगने दे दिये और राज्य में शान्ति स्थापित की । उक्त घटनाओंसे बहादुरसिंहके उदात्त चरित्र पर विशेष प्रकाश पड़ता है । १ मारवाडका इतिहास, भाग २, पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ, पृष्ठ सं० ६८६ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. प्रतिके अन्तमें लिखे गये निम्न कवित्तादिसे भी बहादुरीसहके चरित्रकी अनेक विशेषताएं प्रकट होती हैं कवित्त- दुरजनसौं जीत, असजनसौं नीत, गुरदेवनसौं प्रीत, तोहि सुजस कृपांनी को। धर्मनिको साधक, अधर्मनिको बाधक , सु हरिको अराधिक, पचोध सावधांनीको। संगरको सूर, दारिदकौं दूर, सुभ गुननको पूर, मान मिल अभिमानीको। हंसबंसभूषन, बहादुर नरेस बली, न्याव तेरो असौ ज्यौ नवेरो दूध-पानीको ।। १ मेर मजबूतीहको, रूप रजपुतीहूको, थाइक समुद्र, मन चाहक मुनींनको। दिनको करैया, राग रूपको रिझया, भूप परतिय तजिया, अरु पालक दुननिको। थंभ पातसाहीको, सिपाहीको पिछांनहार, असी गत काहू माझ कानन सुनी न को। हाय अब गुनहूको तूट गौ है देषो तरु, उठ गो बहादुरेस, गाहक गुनींनको ॥ १।२] छल बल जाके आगे, दुर्जनकौं दाब लेह. तेज सम तूल जाको, राजत दिनेसको। पुन्य नीत थाप के, उथाप्यो पाप अवनीको, दुष्टनकौं मार के, उतारयो भार सेसको । भारी राज वारे भूप चाहत है भीर जाह. प्रजनको पालक, अरु नासक कलेसको। काज सिद्ध मांहि जैसे, लीजिये गनेस नाम, जुद्ध काज नाम त्यौ, बहादुर नरेसको। १[३] गीत- डंडे षांनरो मेवास, दिली आगरो स्याहरो डंडे, प्रान रोकी गिणां बिहु राहरो अनेक । प्रांटीपणौं सोबादार सतारानाथ आष, हिंदुवामैं मांटीपणौं राजांनरो हेक ।। १ छंडे पाव पाछा जंगा पेस दे छूटिया छत्री, आधा पाछा देस नेस लूटिया अनूप । कहै सेनापती मैं पहादरेस कीधा केई, भू लोक अनमी ओ बहादुरेस भूप ॥ २ तोपांरा अग्राजा मांहे संजियो न कोट कितां, महाबीर साजां मांहे भंजीया अमाव । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] मारहटो कहे मैं गंजिया लोक पाजां मांहे, राजा मांहे गंजी रंजियो मारू राव ॥ ३ सतारानाथनूं समाचार लिषे येम सोबो, जदां पाछो कागजांमैं मोकले जबाब । मांनरा पोतरा हूं'त उषेलो मांडजो मती, बीज राई तणा नषँ उरो लीजो बाब ।। ४ उक्त गीत और कवित्तोंसे प्रकट है कि बहादुरसिंह परम वीर नीतिवान, धार्मिक, विद्याव्यसनी, रणकुशल, दानी, न्यायकर्ता, कला-प्रेमी, शुभ चरित्रवान, प्रजापालक, चतुर और योग्य सैनिकों की परीक्षा में कुशल शासक थे । उन्होंने दिल्ली- श्रागरेकी शक्तिको हो पराजित नहीं किया, वरन् मराठा वीरोंनें भी अपनी वीरताकी धाक जमा दी थी। प्रस्तुत वार्ता में उत्तर मुगल काल में प्रचलित युद्ध-प्रणालीका विशेष वर्णन है जिससे बहादुर सिंहकी युद्ध - सम्बन्धी विस्तृत जानकारीका परिचय मिलता है और इस दृष्टिसे वार्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है । उक्त कवित्तों और गीतके काव्य-सौष्ठवसे ज्ञात होता है कि तत्कालीन डिंगल और पगल शैलीके परम कुशल कवियोंसे बहादुरसिंहका सम्पर्क रहा था । 'रावत प्रतापसिंघ महोकमसिंघ हरीसिंधोतरी बात' में देवलिया रावत हरीसिंह के पुत्र प्रतापगढ़ के संस्थापक रावत प्रतापसिंह और इनके अनुज महोकमसिंहका वीरतापूर्ण चरित्र वर्णित है । रावत प्रतापसिंह और महोकमसिंह बहादुरसिहते सम्बन्धोंके विषय में इतिहासग्रन्थ मौन हैं। रावत प्रतापसिंह, प्रतापगढ़ का शासन-काल सन् १६७३ ई० से सन् १७०८ ई० का माना जाता है और महाराजा बहादुरसिंह, किशनगढ़ सन् १७४६ ई० से सन् १७८२ ई० तक शासक रहे ।" इसलिए यह तो स्पष्ट है कि बहादुरसिंह रावत प्रतापसिंह और महोक सिंहकी वीरतासे प्रभावित हुए थे । 'रावत प्रतापसिंघ महोकमसिंघ हरीसिंघोतरी बात' प्रतापसिंह और महोक सिंहके वीरतापूर्ण चरित्रों पर प्राधारित एक वर्णनात्मक कथा है । वार्ता में सर्वप्रथम राजस्थानी कथा-परंपरानुसार रावत प्रतापसिंहका श्रेष्ठ क्षत्रिय शासकके रूपमें चित्रण है । तदुपरान्त महोक सके वीर चरित्रका वर्णन हुआ है । फिर एक उपद्रवी भीलके महोकमसिंह द्वारा मारे जाने की घटनाका विस्तृत और अनूठा वर्णन है । इस उदाहरण द्वारा महोक र्मासंहकी वीरता प्रकट की गई है । तदुपरान्त कथाकारने औरङ्गजेबकी शासन-नीतिका वर्णन करते हुए उसके शाहजादे मुज्जमके द्वितीय पुत्र श्रजीमुश्शानकी बंगालकी सुबेदारीका उल्लेख किया है। कथाकारने लिखा है कि औरङ्गजेबने एक खुफिया खबरनवीस श्रजीमुश्शान के लिए नियुक्त किया था जिससे अजीमुश्शानका वैमनस्य था और औरङ्गजेब हर बातमें खबरनवीसका ही पक्ष लेता था । तब अजीमुश्शानने अपने सेवक शेरबुलंदखां द्वारा खबरनवीसको मरवा दिया और रावत १. प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास ( स्व० डॉ० गौरीशंकरजी हीराचंदजी श्रोझा ) पृष्ठ १७७, १८८ । २. मारवाड़का इतिहास, भाग २, ( पं० विश्वेश्वरनाथजी रेऊ) पृष्ठ सं० ६८६ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] प्रतापसिंहसे शेरबुलंबखांको शरण देनेका आग्रह किया। रावत प्रतापसिंहने महोकसिंहके विशेष आग्रहसे औरङ्गजेबके कुपित होनेकी चिन्ता छोड़ कर शेर बुलंदखांको अपने प्राश्रयमें रख लिया । इस घटनासे रावत प्रतापसिंह और महोकसिंहको विशेष ख्याति मिली प्रतीत होती है जिसका उल्लेख स्व० डॉ. गौरीशङ्करजी हीराचंदजी ओझाने भी अपने इतिहासमें किया है। कथाकारने अन्तमें पीपलोदा गांवके उपद्रवी डोडिया राजपूतोंसे हुए प्रतापसिंह और महोकसिंहके संघर्षका वर्णन किया है । डोडिया राजपूतोंने प्रतापसिंहके दरबारसे दक्षिणाके रूपमें धन प्राप्त कर लौटते हुए एक पण्डितको मार दिया। रावत प्रतापसिंहके समझाने पर भी डोड़ियोंने विपरीत उत्तर ही दिया कि उदयपुरके महाराणा और मुगलशासक भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते_ 'रांणैजी पर सूबो में भी म्हास टालो दे छ । वारी धरतीम म्हे चाहा सो कर छा पण म्हारो नाम न ले छे । रावतजी- प्रावणो छै तो बेगा कीजै असवारी। भली भांत मनवार करस्यां। डोड़ियोंसे हुए संघर्षके प्रसंगमें कथाकारने अपनी युद्ध-सम्बन्धी जानकारीका विस्तृत परिचय दिया है । प्रस्तुत प्रसंगमें कथाकारके कविहृदयका परिचय भी भली भांति प्राप्त होता है। वार्ता में वीररसका परिपाक करने हेतु कथाकार वीररसमें उमङ्गित होकर अनेक गीत, दूहा और कवित्त लिख देता है। उक्त युद्ध-प्रसंगमें उत्तर मुगलकालीन युद्धोंको प्रणाली और पतनोन्मुखी स्थितिका भी वास्तविक परिचय प्राप्त होता है। तब युद्धक्षेत्र में सेनाके साथ दास-दासियों और तवायफोंको संख्या सैनिकोंसे भी अधिक होती थी। इस विषयमें वार्ताकारने लिखा है--- 'एक हाथसू गळ बांही न्हाष्या एक हाथसू ही गोळी बाहै छ। x x x बंदुकां पर प्याला एकण साथ भर रह्या छ।' ___ अन्तमें कथाकारने महोकसिंहको युद्ध-क्षेत्रमें प्रकट हुई विशेष वीरता और विजयका सजीव चित्रण किया है। वीरमदे सोनीगरारी वात - तीसरी कथा 'वीरमदे सोनोगरारी बात' अर्द्ध ऐतिहासिक है। मुसलमान इतिहासकारोंने अल्लाउद्दीन खिलजीको जालोर-विजयका संक्षिप्त उल्लेख मात्र किया है। वास्तवमें जालोरका साका राजस्थान ही नहीं, समस्त पश्चिमोत्तरी भारतको एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक १. प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास (वैदिक यंत्रालय, अजमेर) पृष्ठ सं० १८५ । २. समकालीन मुख्य इतिहासकार जियाउद्दीन बनि जालोर विजयका उल्लेख इन शब्दोंमें किया है-'रणथंभोर, चित्तोड़, मण्डलखेड़, धार, उज्जैन, मांदुखर, अलाईपुर, चन्देरी, एरिज, सिवाना तथा जालोर, जिनकी गणना सुव्यवस्थित प्रदेशोंमें न होती थी वालियों तथा मुक्तोंके सिपुर्द हो गए (तारीखे फीरोजशाही, पृष्ठ ८६, खलजीकालीन भारत, सै० अतहर अब्बास रिज़वी द्वारा सम्पादित)। वालीसे तात्पर्य प्रांतीय अधिकारीसे और Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] घटना है । इस युद्ध के अवसर पर हजारों ही वीराङ्गनाओंको जौहर व्रतका पालन करते हुए अग्निप्रवेश करना पड़ा था और कान्हड़दे, वीरमदे, राणकदे जैसे अगणित वीरोंको मातृभूमिको रक्षाके लिये प्रात्मोत्सर्ग करना पड़ा था। इस युगके विषयमें परम प्रादरणीय श्रीमान् मुनि जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्यने, अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए लिखा है____ 'वह समय भारतके लिए बड़ा भयङ्गर प्रलयकाल सा था । भारतको प्राचीन संस्कृति और समृद्धिका सर्वनाश करने वाला वह असाधारण विकराल काल था। उस कालदैत्यके कोपानलसे शताब्दियोंसे सञ्चित और सजित भारतको उस संसार-मोहिनी संस्कृति, समृद्धि, सार्वभौमता और सुरक्षितताका बहुत बड़ा भाग, कुछ ही क्षणोंमें भस्मीभूत-सा हो गया । पूर्वदेशका पाल-साम्राज्य, मध्यदेशका गाहडवाल साम्राज्य, दिल्ली-लाहोरका तोमर-राज्य, अजमेर-सपादलक्षका चाहमान राज्य, अणहिलपुरका चालुक्य महाराज्य, अवंती-मालवका प्रमार साम्राज्य, एवं दक्षिण-देवगिरिका यादव राज्य - इस प्रकार भारतके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण जैसे चारों खण्डोंमें, कई शताब्दियोंसे अपनी बलवान सत्ता जमाये हुये बड़े बड़े राज्य और उनके शासक राजवंश इस दुष्ट दावानलकी दुर्दैवी ज्वालानोंसे कुछ ही दिनोंके अन्दर देखते देखते दग्ध हो गये । अपार समृद्धिसे भरे हुए उनके असंख्य राज्यभाण्डार घड़ियों में लुट गये। ___ अलाउद्दीनने अपनी दूषित मनोवृत्तिसे प्रभावित होकर भारतमें अनेक युद्ध किये, जिनमें हुए रक्तपात, लूट और अत्याचार वर्णनातीत हैं। ऐसे भीषण संघर्षोंके अवसर पर भी राजस्थानमें चित्तोड़, रणथंभोर, सिवानां और जालोरके शूरवीरों तथा वोराङ्ग नामोंने अनुपम प्रात्मोत्सर्ग कर अपनी मानमर्यादा एवं गौरवाभिमानकी रक्षा की थी। चित्तोड़, रणथंभोर और सिवाना युद्धोंके विषयमें तो मुस्लिम इतिहासकारों और इनके अनुयायी अन्य युरोपीय एवं भारतीय इतिहासकारोंने यत्किञ्चित् प्रकाश डाला है किन्तु जालोरयुद्धके विषयमें 'कान्हडदे प्रबन्ध' के अतिरिक्त इस पुस्तकमें प्रकाशित 'वीरमदे सोनीगरारी वात', मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग १ (पृष्ठ सं० २१२ से २२६), वांकीदासरी ख्यात (पृष्ठ सं० मुक्ताका अर्थ जागीरदार है । यह याबिन अहमद सरहिन्दी नामक एक अन्य इतिहासकारने भी अलाउद्दीनकी सेना द्वारा जालोर विजयका उल्लेख इन शब्दोंमें किया है- 'उसी वर्ष [७०० हि०, १३०००-१३०१ ई०] कमालुद्दीन गुर्गने [अलाउद्दीनका एक सेनापति] जालोर पर अधिकार जमा लिया और विद्रोही कस्तमरदेवको [कान्हडदेसे तात्पर्य है] नरक भेज दिया। [तारीखे मुबारकशाही, खलजीकालीन भारत से० अतहर अब्बास रिजवी, पृष्ठ २२४) । हमारे अन्य भारतीय और पश्चिमी इतिहासकारों ने भी भारतीय भाषाओंमें और मुख्यतः राजस्थानी भाषामें प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रीकी उपेक्षा करते हुए उक्त विषयमें विशेष विवरण नहीं दिया है । १. कान्हडदे प्रबन्धका (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित) प्रास्ताविक वक्तव्य, पृष्ठ ५६ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] १५० - १५१) जैसे राजस्थानी इतिहास ग्रन्थों में वर्णित प्रसंगोंकी अोर अभी तक इतिहासकारोंका ध्यान नहीं प्राकर्षित हुआ है।1 ___ उक्त संघर्षोंमें प्रकट किये गये राजस्थानी वीराङ्गनाओंके बलिदानसे प्रभावित होकर अनेक समर्थ कवियोंने काव्य-ग्रन्थोंके रूपमें अपने उद्गार व्यक्त किये और अनेक गद्यलेखकोंने वार्तामोंकी रचना की । इनमेंसे प्रमुख उल्लेखनीय प्राचीन कृतियां इस प्रकार हैं विषय चित्तोड़ युद्ध रचना १ मुहम्मद जायसीकृत पदमावत (र का. १५६७ वि० सं०) २ हेमरतनकृत गोरा वादल पदभिणी चऊपई (र. का. १६४६ वि०)३ ३ लब्धोदयकृत पद्मिनीचरित (र.का. १७०२ वि० सं०) ४ जटमलकृत-गोराबादल वार्ता (ले. का. १८२८ वि० सं०) ५ भाग्यविजयकृत गोराबादल चोपाई (ले. का. १८०३ वि० सं०) ६ अज्ञात कर्त क-गोराबादळ कथा। १ नयचन्द्रसूरिकृत-हमीर महाकाव्यम् (ले. का. १५४२ वि० सं०) २ जोधराजकृत-हमीर रासो अपर नाम हमीरायण । ___ (र. का. १७८५ वि० सं०) ३ ग्वालकविकृत-हमीर हठ ४ चन्द्रशेखरकृत-हमीर हठ रणथंभोर युद्ध - १. वांकीदासरी ख्यात (सम्पादक, श्रीयुत नरोत्तमदासजी स्वामी) और मुंहता नैरणसीरी ख्यात, भाग १ ( सम्पादक, श्रीयुत बदरीप्रसादजी साफरिया ) नामक ग्रंथोंका प्रकाशन 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा श्रीमान् मुनि जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्यके प्रधान सम्पादकत्वमें किया जा चुका है । २ श्री रुद्रकाशिकेय, प्रधान संपादक 'राजा बलदेवदास बिड़ला ग्रंथमाला', नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसीने इस कृतिका रचनाकाल भ्रमवश सं० १७६० दिया है (बिड़ला ग्रंथमालामें प्रकाशित छिताई वार्ता, परिचय पृष्ठ २२) । वास्तवमें इसकी रचना महाराणा प्रतापके दीवान भामाशाहके लघु भ्राता ताराचंद कावड़याकी प्राज्ञासे सादड़ी नामक स्थानमें वि० सं० १६४६ में हुई थी। सं० १७६० प्रतिका लेखन-काल हो सकता है। यह कृति 'राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला' में प्रकाश्यमान है । बिड़ला ग्रंथमालामें प्रकाशित उक्त वार्ताको देखनेसे प्रकट होता है कि कान्हडदेप्रबन्ध और हम्मीर महाकाव्यम् जैसे इस विषयके प्रसिद्ध ग्रन्थोंकी जानकारी भी उक्त ग्रन्थमालाके सम्पादकको नहीं है । ३ जटमल कृत 'गोरा बादळ वार्ता' को श्रीरामचन्द्र शुक्लने भ्रमवश वि० सं० १६८० की माना है। हिन्दी साहित्यका इतिहास, पृष्ठ सं० ४२३, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, दसवां संस्करण। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जालोर युद्ध - १ कवि पद्मनाभकृत-कान्हडदे प्रबन्ध (र.का. १५१२ वि० सं०) २ अज्ञातकर्तृक-वीरमदे सोनीगरारी वात (ले का. वि० सं० १७६१) सिवाना युद्ध के विषयमें अब तक कोई रचना प्रकाशमें नहीं आई है। अल्लाउद्दीनके उक्त युद्धोंके विषयमें राजस्थानी भाषामें अनेक वीर गीत, कवित्त, दूहादि भी चुर मात्रामें प्राप्त होते हैं, जिनमेसे अधिकांश अप्रकाशित हैं। 'वीरमदे सोनोगरारी बात' के हमें ४ पाठ उपलब्ध हुए हैं। इनका परिचय निम्नलिखित है प्रति-क. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरके हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रहमें गुटका क्रमाङ्क ३५५५में पत्र सं० १६२से १६८ तक लिखित । लेखनकाल वि० सं० १८२६ । प्राकार ११४६५ इन्च । प्रतिपृष्ठ पंक्ति संख्या ३२ । प्रति पंक्ति अक्षर संख्या २८-२६ । यह पाठ प्राचीन कृतियों के साथ शुद्ध रूपमें लिखित है अतः इसको आदर्श मानते हुए पूर्ण रूपमें लिया गया है। प्रति-ख. राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर के हस्तलिखितग्रन्थसंग्रह में गुटका क्रमांक १२७०६ में १३ पत्रों में लिखित । प्राकार ६४५.४ इन्च । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या १६ । प्रति पंक्ति अक्षर संख्या ३६-४० । इस गुटके में दो कृतियोंके अन्तमें लेखनकाल वि० सं० १७६१ दिया हुआ है अतः लिपि भिन्नता होते हुए भी 'वीरमदे सोनीगरारी वात' का लेखनकाल भी यही ज्ञात होता है । इसके विशेष पाठातर टिप्पणियोंमें दिये गये हैं। प्रति-ग. राजस्थानी ग्रन्थमाला, पिलानीके, प्रथम ग्रन्थ स्व० श्रीसूर्यकरणजी पारीक द्वारा सम्पादित 'राजस्थानी वातां' में, सन् १९३४ ई० में प्रकाशित चतुर्थ वार्ता । यह पुस्तक अब अप्राप्य है। वार्ता प्रतिलिपिकर्ताको भूलसे कुछ अंश छूट गये हैं। साथ ही वार्ता सम्बन्धी विशेष विवरण भी नहीं दिया गया है । यह पाठ किस हस्तलिखित प्रतिसे ग्रहण किया गया है, यह भी नहीं लिखा गया है। इसके विशेष पाठान्तर भी टिप्पणियोंमें ग्रहण किये गये हैं। प्रति-घ. राजस्थानी शोध-संस्थान, चोपासनी, जोधपुर के हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रहमें क्रमाङ्क १२५ पर लिखित गुटका । प्राकार ६४५ इन्च । प्रतिपृष्ठ पंक्ति संख्या १४ । प्रतिपंक्ति अक्षर संख्या १५-२० । लेखनकाल 'संवत १८३६ वर्षे फागुण वदि ११ बुधवासरे श्रीगुंदवच नगर मध्ये। यह प्रति हमें श्रीयुत नारायणसिंहजी भाटीके सौजन्यसे प्राप्त हुई है। प्रयत्न करने पर भी यह प्रति हमें सम्पादनके समय नहीं मिल सकी अतएव इसका विशेष उपयोग नहीं किया जा सका। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] प्रस्तुत वार्ता एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना पर आधारित है किन्तु इसके विकास-क्रममें कल्पना एवं कथानक रूढ़ियोंका भी प्रचुर प्रयोग किया गया है। कथाके प्रारंभमें ही एक प्रस्तर पुत्तलिकाके अप्सरा रूप प्राप्त करने पर पाठक चमत्कृत हो जाते हैं। तदुपरान्त कान्हडदेके अप्सरासे विवाह और कुमार वीरमदे उत्पन्न होने, अप्सराके पुनः अन्तर्ध्यान होने, जैसलमेरके भाटो रावल लाखणसीजी द्वारा सूचित होने पर कान्हडदेके विषपानसे बचने, कान्हडदे द्वारा अपनी कुमारीका रावल लाखणसौजीसे विवाह करने आदि घटनाओंका वर्णन हुआ है । __ रावल लाखणसीजी अपनी प्रथम रानी सोढीके कहने में आ कर विवाह के समय सोनीगरोंको अपने अनुचित व्यवहारसे रुष्ट कर देते हैं। सोनीगरी राजकुमारी भी "हथलेवो तो सोनोगरीरो सपरो पीण सोढीरो होड न करै।" सुन कर लाखणसीजीसे रुष्ट हो जाती है और श्वसुरालय जाते समय परम वीर नींबा सिवालोत द्वारा हरण कर ली जाती है। आगे लाखणसीजी द्वारा लोहारोंको आज्ञा दी जाती है -- 'इसो भालो घड़ो तिणसुएथ बैठा निबलानं मारा।' कहने मात्रके लिए भाला तैयार होता है किन्तु एक प्राशङ्का रहती है कि रावलजी वृद्ध हैं और नींबा युवक है। यदि कई मील दूरीसे मारे जाने वाले भालेको नींबा छीन कर पुनः वार कर देगा तो क्या उपाय होगा? पुनः लोहारोंको पारिश्रमिक दिया जाता है और जो भाला बना ही नहीं है, उसको तुड़वाये जानेकी प्राज्ञा दी जाती है। इस प्रकार 'रावलजी सोनिगरी गमाय बैठा ।' कथामें प्राप्त उक्त हास्य-प्रसङ्ग से पाटकोंका अनायास ही मनोरञ्जन हो जाता है। प्रागे वीजड़िया सेवक, जिसका पिता राजड़िया नींबाजी द्वारा सोनीगरी-हरणके अवसर पर हुए संघर्ष में मारा जाता है, नींबाजी पर प्राणान्तक प्रहार करता है और नींबाजी भी मरते-मरते वीरतापूर्वक वीजड़ियाको मार गिराते हैं । घाव-दाव सिखाने वाला पजू पायक वीरमदेका विश्वासपात्र शिक्षक था और इसके द्वारा ही नींबाजी कान्हडदेके यहां उनकी दूसरी राजकुमारीके विवाह में सम्मिलित हुए थे, जहां उनको विश्वासघात कर मार दिया गया था। इस घटनासे वीरमदेके वीरचरित्र पर कलङ्क ही नहीं लगता वरन् यह घटना जालोर-पतन और सोनीगरोंके विनाशका मूलकारण भी बनती है। पंजू पायक रुष्ट होकर तत्कालीन दिल्ली-सुलतान अलाउद्दीनके पास पहुंच जाता है और अपनी विद्याका प्रदर्शन करता है। यहीं अलाउद्दीन पंजूसे प्रसन्न होकर पूछता है कि तेरे बराबर खेलने वाला कोई दूसरा भी है ? ___पंजू उत्तर देता है कि जालोरके राव कान्हडदेका पुत्र वीरमदे मुझसे सीखा हुआ है किन्तु मुझसे भी बढ़कर है। यह सुनने पर अलाउद्दीन वीरमदे को दिल्ली आमन्त्रित करता है। वीरमदेसे खेलते हुए पंजू पायक मारा जाता है। वीरमदेको रण-चातुरी प्रसिद्ध होती है। इसी अवसर पर अलाउद्दीनकी पुत्री, जिसका नाम नहीं दिया गया है, वीरमदेसे अपना पूर्व-भवका वैवाहिक सम्बन्ध बताती हुई वीरमदेसे विवाहकी इच्छा प्रकट करती Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] है। इसी प्रसङ्गमें काशीके साहूकार पुत्रको एक अन्तर्कथा भी दी गई है । विवश होकर अलाउद्दीनको भी उक्त विवाहके लिए अपनी सहमति देनी पड़ती है । __ तदुपरान्त कान्हडदे और वीरमदे विवाह-खर्चके नामपर प्रचुर धन ले कर जालोर आते हैं और दुर्ग-निर्माणके साथ ही युद्धकी तैयारी करते हैं। राणकदे थोड़े समय पश्चात् तगा मुगलको मारकर शाही नजरबन्दीसे अपने देववंशी घोड़े झीथड़े पर सवार हो जालोर भागता है। इसी बीच झीथड़ेके मरनेकी और भैसेको अन्तर्कथाएं दी गई हैं। बलखके बादशाहने दिल्ली एक मोटा भैसा भेजा, जिसके सींग बढ़ कर पीठ तक आये हुए थे। बलखको सूचनाओंके अनुसार दिल्लीका कोई भी अमीर इस भैसेको झटकेसे नहीं मार सका । लौटते समय जालोरके निकट वीरमदेने अपने पराक्रमसे भैसेको सींग सहित काट दिया । तदुपरान्त अलाउद्दीनकी चढ़ाईका और जालोरमें युद्धको तैयारीका वर्णन है । बारह वर्ष जालोरका घेरा रहा किन्तु दुर्ग अजेय रहा। दुर्ग वालोंने एक युक्ति की। वीरमदेकी कुतिया ब्याई थी, उसके दूधसे खीर बनव ई और पत्तलोंके लगा कर नीचे शत्रुओंको ओर गिराई। सुलतानने देख कर सोचा - अभी तक तो दुर्ग वाले खोर खाते हैं। यह दुर्ग नहीं जीता जा सकता। इस प्रकार अलाउद्दीन घेरा छोड़ कर पुनः दिल्लीकी ओर चल पड़ता है। प्रागे कथा पुनः एक नवीन मोड़ ग्रहण करती है । वीरमदे और इसके बहनोई दहियाराजपूतके प्रीतिभोजमें कहा-सुनी हो जाती है। भूल वीरमदेकी होती है, क्योंकि वह एक अपराध मार कर लटकाये हुए दो दहियोंकी अोर सङ्केत कर अपने बहनोई दहियासे व्यंग करता है। दहिया राजपूत जाकर अलाउद्दीनसे मिलता है और वह पुनः लौटकर दुर्ग घेर लेता है। तदुपरान्त वाघा वानर प्रादि राजपूतोंके वीरतापूर्वक युद्ध और दुर्गके विजित होनेका वर्णन है। वीरमदे युद्धके अन्तमें पकड़ा जाता है किन्तु उसने अपना पेट काट लिया था, अतः मृत्युको प्राप्त करता है। शाहजादी हिन्दूरीतिसे वीरमदेके मस्तकको गोद में ले कर सती होती है और इसके साथ ही कथा पूर्ण की जाती है । उक्त जालोर - युद्धके विषय में प्राप्त प्राचीनतम राजस्थानी-प्रबन्ध कवि पद्मनाभविरचित 'कान्हडदेप्रबन्ध' है। इस काव्यमें जालोर-युद्धका मुख्य कारण अलाउद्दीनकी सेना द्वारा गुजरात पर आक्रमण करना और सोमनाथ मन्दिरको तोड़कर मूर्तिको दिल्ली लेजाना बताया गया है। इस सम्बन्ध में कान्हडदेकी प्रतिज्ञा इस प्रकार है-- करी प्रतग्या राउल कान्हडि - तउ जिमीसइ धान । मारी मलेछ देव सोमईउ अनइ छोडाविस बान ॥ १८२1 'मुंहता नैणसी द्वारा भी उक्त मतकी पुष्टि होती है 'पातसाहरो डेरो सकरांणे जालोररै गांव जालोरसू कोस ६ हुवो । प्रा खबर कानड़देनू हुई जु महादेव सोमइयानू बांधने पातसाह सकरांण प्राय उतरियो; तरै पातसाह १. कान्हडदे प्रबन्ध, पृष्ठ ३८ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] कनै कांधळ प्रालेचो रजपूत ४ बीजा भेळा मेलिया। थे पातसाहजीनू कहने प्रावौ - जु अतरा हिंदुस्थान मार बंदकर महादेव सोमइयो बांधने म्हारै गढ़ निजीक म्हारै गांव उतरिया सु भली न की । मोनू रजपूत न जांणियो ।' 1 कांधळ भी सोमनाथकी मूर्ति बंधी हुई देखकर प्रतिज्ञा करता है'पाणी तो विगर पिये सर नहीं नै धान राज छूटां खासां ।' अलाउद्दीनकी सेनासे हुए कान्हडदेके प्रथम युद्ध में कान्हडदेको विजय हुई। इस विषय में नैणसी लिखता है-- पातसाहन भांजनै कानड़देजी सोमइया कनै प्राया। महादेवजीरी पोंडी हाथ घातनै उपाड़िया सु तुरत उपड़िया सु महादेवजीरो लिंग सकरांण थापियो। ऊपर देहुरो करायो। कांनडदेजी हिन्दुस्थांनरी बड़ी मरजाद राखी ।' उक्त विवरणसे ज्ञात होता है कि युद्ध के कारणमें वार्ता-लेखकका मत कवि पद्मनाभ और नैणसीसे नहीं मिलता। सुलतान अलाउद्दीनके हरममें कर्णदेवी जैसी कुछ हिन्दू बेगमें भी थीं, उनमें से किसीको शाहजादीका वीरमदे जैसे वोरसे विवाह करनेकी इच्छा प्रकट करना अस्वाभाविक नहीं है। ___ 'फुतुहस्सालातीन' नामक प्रसिद्ध खिलजीकालीन इतिहासग्रन्थके लेखक 'एसामी' ने देवगिरीके राजा रामदेवकी पुत्री मिताईका अलाउद्दीनकी बेगमके रूपमें उल्लेख किया है। इसी झिताईके विषयमें नारायणदास और रतनरंगने 'छिताई वार्ता' लिखी है . छिताईका उल्लेख कवि केशवदास (१६१२-१६७४ वि० सं०) ने करते हुए लिखा है-- साहि छिताईको ले जाई । मलिक मुहम्मद जायसीने भी अपने पदमावतमहाकाव्यके बादशाहचढ़ाई खण्डमें छिताईका उल्लेख किया है बोलु न राजा आपु जनाई । लीन्ह उदैगिरि लीन्ह छिताई ।” १. मुहता नैणसीरी ख्यात, भाग १, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, - पृष्ठ २१६-१७ । २. वही, पृष्ठ २१८ । ३. वही, पृष्ठ २१६ । ४. खिलजीकालीन भारत, सैयद रिजवी, पृष्ठ २०८ । चौहानकुलकल्पद्रुममें अलाउ हीनकी पुत्रीका नाम 'सीताई' दिया गया है, जिसने वीरमदेसे विवाह करनेकी इच्छा प्रकट की। ५. छिताई वार्ता, राजा बलदेवदास बिड़ला ग्रंथमाला, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी। ६. वीरसिंह देवचरित, छंद सं० ३८-३६, आर्यभाषा पुस्तकालय, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी। ७. पदमावत, सं. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, साहित्यसदन, चिरगांव, झांसी, पृष्ठ ५१२ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] इसीप्रकार मुस्लिमकवि जानने "कथा छीताको" लिखी जिसमें उक्त विषयका विवेचन है। चन्द्रशेखरकृत हम्मीरहठमें अलाउद्दीनकी एक हिन्दू बेगम मरहट्ठीका उल्लेख है "बेगम महति मरहट्टी माहताब जैसी" जागती जुन्हाई जाके जोबन तरंग में। (छन्द सं. २६) कवि जोधराजने हमीररासो में अल्लाउद्दीनकी "चिमना" बेगमका उल्लेख कया है __“चिमना बेगम एक और चितामनि साहौ"2 अमीरखुसरोने भी गुजरातके राजा कर्णकी पुत्री देवलदेवी और अलाउद्दीनके शाहजादे खिज्रखां सम्बन्धी एक प्रेमाख्यानकी रचना की थी। आगे चल कर हिन्दू लेखकोंका यथार्थ अथवा कल्पनाके आश्रयसे अलाउद्दीनकी हिन्दू बेगमोंकी पुत्रियोंका संबंध हिन्दू राजकुमारोंसे जोड़ना स्वाभाविक ही हुआ। अलाउद्दीन जैसे शासकोंको क्रूरता और नृशंसताके वातावरण में अनेक जैन और मल्लिक मुहम्मद जायसी जैसे सूफी संतोंने भारतीय प्रेमाख्यानोंके आधार पर प्रेम और सौहार्दकी धारा प्रवाहित की, जिससे अन्य लेखक विशेष प्रभावित हुए और इन्होंने स्वमतानुसार एतद्विषयक आख्यानों और काव्योंकी रचनाएं की। “वीरमदे सोनोगरारी वात" इसी प्रकारको एक प्रमुख रचना है। इसका पूर्वार्द्ध कल्पना और यथार्थका मिश्रण है, जिसमें अनेक भारतीय कथानक रूढ़ियोंका समन्वय हुआ है किन्तु इसका उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक भित्ति पर आधारित है, जिसका समर्थन अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थोंसे होता है। उदाहरणार्थ वांकीदासरी ख्यात और नैणसीरी ख्यातको लिया जा सकता है। वांकीदासरो ख्यातका उल्लेख इस प्रकार है १. हिन्दुस्तानी एकेडेमी. प्रयागके संग्रहमें सुरक्षित । २. हमीर रासो, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी । नीलकण्ठ विरचित । 'चिमनीचरित्रम्' नामक एक संस्कृत प्रेमाख्यान भी प्राप्त हुआ है, जिसका सम्बन्ध म्लेच्छाधीश अलावर्दी खानकी बेगम मानिकी और पं० दयादेव शर्मा के प्रेम प्रसङ्गसे है । राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ग्रन्थ-संग्रह, ग्रन्थाङ्क १२२६४ । ३. फाबर्सने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ रासमलामें लिखा है कि देवगढ़के (देवगिरिके) राजा शंकरदेवसे कर्ण वाघेलाकी पुत्री देवलदेवीका विवाह निश्चित हो गया था किन्तु वह अलाउद्दीनके सेनापति अलफखां द्वारा हरली गई और बादमें इसका विवाह खिज्रखांसे कर दिया गया । भाग प्रथम, उत्तरार्द्ध, सम्पादक श्रीयुत् गोपाल नारायणजी बहुरा, मंगल प्रकाशन, जयपुर, पष्ठ ३६३-३६६ । ४. 'हिस्ट्री आफ दी खिलजीज़' के लेखक डॉ. किशोरीशरण और श्री रामचन्द्र शुक्ल आदिने चित्तोड़की पद्मिनी सम्बन्धी कथाकी कल्पनाका श्रेय जायसीको दिया है जो सत्य नहीं जानं पड़ता। वास्तवमें चित्तोड़के वीरों और वीराङ्गनागोंके संघर्षकी कथा जनतामें प्रचलित हो गई थी जिसका प्राधार जैन, सूफी और अन्य अनेक लेखकोंने लिया। इसकी पूरी जानकारी श्री शुक्ल आदिको नहीं रही। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] "१७७८ -- चहुवाण कान्हड़दे सांवसिंघरो बेटो जिण संवत १३६८ वैसाख सुद६ गुरुवार जाळोगढ़ साको कियो । १७८० - सांचोर १, थिराद २, काकरणधर ३, वाराही ४, कछ ५, गेहड़ी ६, ऊमर कोट ७, वीकमपुर ८, जैसलमेर ६, वधनोर १०, पारकर ११, पूगळ १२, मारोठ १३, साळकोट १४, जांगळू १५, जाजासहर १६, सारण १७, हांसेर १८, वावरो १६, सोजत २०, डोडियाळ २१, रीणक २२, काछेल २३, त्रिसींगड़ो २४, प्राबू २५, भीलड़ी २६, सिवाणो २७, तारंगो २८, राङद्रह २६, इंधो ३०, मेहवो ३१, भाद्राजण ३२, मंडोवर ३३, सूराचंद ३४ इत्यादिक ठिकाणांसू कान्हड़दे भड़ तेडाया । १७८१ - सोनगरा कान्हड़देसू जाळोररा महाजनां अरज कीवी । रामो साफड़ियो बोलियो - मूग चोखा जव काठा गेहूं साठ वरस ताई हं पूरीस । जैतसी दोसी कहे - कपड़ा साठ वरस हूं पूरीस । भोळे साह कयौ - असी वरस तेल हूं परीस मोलहण साह बोलियो-तीस वरस इंधण हंपरीस। भीमै साह कहयोम्हारै इतो गुळ है, अठार वरस ताई ढीकली गुळरा होज गोळा चलावो । सादू साह कहै - म्हारै दहीरा पहल भरिया है। १७८२ - जाळोररो गढ़ दहिये वीक भेळायो अलाउद्दीनरा नायबांसूमिळनै । १७८३ - सोनगरा कान्हडदेरा भड़- भाई मालदे १, बेटो वीरमदे २, जैत वाघेलो ३, जैत देवड़ो ४, लूणकरण माल्हण ५, सोभित देवड़ो ६, अजैसी ७, सहजपाळ ८, इत्यादिक ।"1 मुहता नैणसीरी ख्यातसे भी वार्ताके उत्तरार्द्ध का पूर्णरूपेण समर्थन होता है । साथ ही जालोर टूटनेकी तिथि 'सं० १३६८ वैसाख सुदि ५ बुधवार' दो गई है। युद्धमें मारे जाने वाले प्रमुख योद्धानोंके नाम भी 'सोनगरा जाळोररा धणियांरी ख्यातवार्ता' के आधार पर दिये गये हैं। इस वार्तामें अलाउद्दीनको बहुत उदार और हिन्दुनोंके प्रति सहानुभूति रखने वाला लिखा गया है । वास्तवमें वार्ताका लेखन मुगल सम्राट अकबर अथवा जहांगीरकी उदारतासे प्रभावित है। इसीलिये अलाउद्दीनके लिये 'पातसाहिजी' जैसा सम्बोधन है और उसके 'सिरोपाव' देनेका तथा कान्हडदे द्वारा उसके संमुख 'पातिसाह दीन-दुनीरा छो। हं पारियो घररो धणी रजपूत छू' प्रादिका उल्लेख है। प्रस्तुत वार्तासे स्पष्ट होता है कि मुगलकालके मध्य में हमारे अनेक लेखक अलाउद्दीनके अत्याचारोंको भूल चुके थे और हिन्दुनों एवं मुसलमानोंके बीच पारस्परिक सौहार्द-सम्बन्धोंको दृढ़तर करने में संलग्न थे। १. वांकीदासरी ख्यात, संपादक, श्रीयुत् नरोत्तमदासजी स्वामी, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, पृष्ठ १५० । २. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग १, संपादक, श्रीयुत् बदरीप्रसादजी साकरिया, राज स्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, पृष्ठ २१६ से २२६ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] हमारे लेखकोंका यह प्रयत्न किसी सीमा तक सफल भी हुआ था और तब हमारे देशसे हिन्दू - मुस्लिम संघर्षका अन्त हो गया था । ___ अन्त में हम पुस्तक में प्रकाशित वार्तामोंको प्रमुख विशेषताओंकी अोर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं १. कथानोंका प्रारंभ परम अाकर्षक रूपमें हुआ है। "देवजी बगड़ावतारी"और "वीरमदे सोनीगरारी" वार्तामों के प्रारंभ में क्रमशः दृष्टि-दोषसे तपस्विनीके गर्भ रहने और पाषाण पुत्तलिकाके सजीव अप्सरा रूप होनेके प्रसङ्ग हैं तो "प्रतापसिंघ म्होकसिंघरो" वातमें वर्णनात्मक राजस्थानी दहे और अन्य सरस प्रयोग हैं । २. इन कथानोंमें लौकिक और अलौकिक घटनाग्रोंका प्रसङ्गानुसार सफल सामञ्जस्य हुआ है। "देवजी बगड़ावतारी" और "वीरमदे सोनीगरारी" बातमें अलौकिक घटनाओंका बाहुल्य है जिसका प्रधान कारण सम्बद्ध कथा-वस्तुओं की प्राचीनता है । परंपरित कथानक - रूढ़ियोंका सफल प्रयोग एवं सामञ्जस्य भारतीय कथाओंकी प्रधान विशेषता रही है । तदनुसार सम्बद्ध कथा-लेखकोंके लिये "असंभव" जैसी कोई घटना नहीं है। प्रसङ्गानुसार ऐसी घटनामोंका भौचित्य सिद्ध कर पाठकों अथवा श्रोताओंका विश्वास प्राप्त करना कटिन होता है। उक्त दोनों ही कथानोंके अज्ञात लेखकोंको इस कार्यमें पूर्ण सफलता मिली है। ३. तत्कालीन ऐतिहासिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियोंका सरल, सरस एवं स्वाभाविक यथातथ्य चित्रण भी इन बातों में मिलता है और सम्बद्ध विषयों के अध्ययनमें इनसे पूर्ण सहायता प्राप्त होती है । ४. तीनों ही वार्ताएं मूलतः राजस्थानके भिन्न-भिन्न भागों में लिखी गई हैं। जैसे- "देवजी बगड़ावतारी वात" पर बीकानेर क्षेत्रका, 'प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी" वात पर जयपुर-किशनगढ़ श्रेत्रका और "वीरमदे सोनीगरारी वात" पर जैसलमेरका प्रभाव लक्षित होता है किन्तु इससे इन वार्ताओंके राजस्थानी भाषा-सौन्दर्य में कोई प्रभाव नहीं परिलक्षित होता और न अनेकताके हो दर्शन होते हैं। ५. दास्तवमें तीनों ही वार्ताओंकी भाषा पूर्ण साहित्यिक राजस्थानी है और कुशल लेखकों द्वारा लिखित है । 'प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी वात' तो राजस्थानी भाषाको एक परम उत्कृष्ट कृति है। इस वार्ताको ग. और घ. प्रतियों के अनुसार इसमें सर्वत्र दवावतका प्रयोग हुआ है। रघुनाथ रूपक और रघुवरजसप्रकास जैसे ग्रन्थों में गद्य बंध और पद्यबंध नामक दो प्रकारके दवावैतोंका विवरण मिलता है । हमारी रायमें राजस्थानी भाषामें दवावैतका प्रयोग फारसी 'दुबेती' के प्रभावसे हुआ है। गद्यमें तुक मिलानेकी प्रवृत्ति इस्लामी साहित्यके प्रभावको भी सूचित करती है।' वार्ता में प्रथसे इति तक दवावैतका स्वाभाविक निर्वाह कुशल कलाकारका ही कार्य होता है। ६. प्रस्तुत कथानोंमें विशुद्ध भारतीय कथा-शैलीके दर्शन होते हैं। कालान्तरमें भारतीय कथा साहित्यका विकास राजस्थानी भाषामें लिखित ऐसी सहस्त्रों विभिन्न विषयक १. विशेष देखिये - दवावत सज्ञक हिन्दी रचनाओंकी परंपरा, श्रीयत् अगर चन्दजी नाहटा, भारतीय साहित्य, विश्वविद्यालय, अागरा, अप्रेल १६५६, पृष्ठ २१७ । तारीख फिरोजशाहीमें भी उल्लेख है कि दिल्ली सुलतान जलालुद्दीन खिलजी "दुबेती" लिखता था। खिलजीकालीन भारत, पृष्ठ १५ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] कथानों में ही परिलक्षित होता है। भारतीय कथा-लेखकोंको पश्चिमी कथा-शैलीके अन्धानुकरणको छोड़ कर ऐसी ही भारतीय कथाओंसे मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए जिससे वे भारतीय मौलिकताको रक्षा करते हुए अपनी रचनाओंकी अनपेक्षित विदेशी प्रहारसे रक्षा कर सके । ७. पश्चिमी शैलीमें लिखित कथाएं ८-१० वर्षों में ही समयके विपरीत 'असामयिक' हो जाती हैं किन्तु ऐसी राजस्थानी कथाओंका सौन्दर्य एवं आकर्षण सैकड़ों ही वर्षोंसे बना हुआ है। आधुनिक युगको संक्रान्तिकालीन परिस्थिति एवं चकाचौंधमें भी प्रस्तुत कथाएं पाठकोंका मनोरञ्जन कर उन्हें उद्देश्यके अनुरूप प्रभावित करनेकी क्षमता रखती हैं। श्रेष्ठ कलाकृति सदा ही प्रभावशाली बनी रहती है। ऐसी कथाओं की श्रेष्टताका इससे अधिक क्या प्रमाण हो सकता है ? ८. इन कथाओंसे पाठकोंका कोरा मनोरञ्जन ही नहीं होता वरन् जीवन-क्षेत्रमें कर्तव्यपरायणता, कष्टसहिष्णुता, आत्मत्याग एवं बलिदान, सत्यनिष्ठा, वीरता, वचननिर्वाह, विद्याप्रेम, नीतिमत्ता, कौशल, कलाप्रेम और न्यायप्रियता आदि सद्गुणोंकी सहज प्रेरणा भी प्राप्त होती है । आधुनिक पश्चिमी शैलीकी कथाओं में प्रायः ऐसे तत्त्वोंका अभाव होता है । ९. राजस्थानी कथानों में प्रसङ्गानुसार पद्यांश देनेकी प्रवृत्ति भी परिलक्षित होती है । प्रस्तुत कथाओं में भी यथाप्रसङ्ग एवं यथास्थान पद्यांश लिखे गए हैं और इनसे कथा-प्रवाहमें अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करने में लेखकोंको सहायता मिली है । १०. इन कथानोंमें पात्रोंका चरित्र-चित्रण और घटना-संगठन पूर्ण मनोवैज्ञानिक रीतिसे हुआ है। घटना-विशेष अथवा चरित्र-विकासके पूर्व कारण स्पष्ट हो जाते हैं जिनसे पाठकोंको किसी प्रकारको अस्वाभाविकताका बोध नहीं होता। ११. रूप-वर्णन और दृश्य-चित्रणमें लेखकोंको विशेष सफलता मिली है । ऐसे प्रसङ्गोंके अवसर पर लेखकोंने चित्रकार जैसी सूक्ष्म अभिव्यक्तिका अवलम्बन लिया है। वस्तु-नाम परिगणनासे कहीं-कहीं ऐसे शब्द-चित्र बोझिल अवश्य बन गये हैं किन्तु परम्परानुसार ऐसे प्रयोग पाठकोंको अरुचिकर नहीं प्रतीत होते । १२. कथा अथवा कहानीको प्रमुख विशेषता यह है कि उसको सुन कर भी प्रानन्द प्राप्त किया जा सके । कहानीसे तात्पर्य यही है कि वह कही जा सके। प्रस्तुत राजस्थानी कथाएं इस कसौटी पर भी खरी उतरती हैं क्योंकि इनको मौखिक परम्परासे ही हमारे लेखकोंने प्राप्त किया है। ऐसी हजारों कथाएं हमारे विद्याप्रेमी पूर्वजोंके प्रशंसनीय प्रयत्नोंसे लिपिबद्ध हुई थीं और हजारों कथाएं अब तक मौखिक परंपरासे प्रचलित हैं। राजस्थानी कथा साहित्यमें भारतीय ज्ञान-विज्ञानका प्रखण्ड कोष आज भी सुरक्षित है और यह इस वैज्ञानिक युगमें प्रकाशनको प्रतीक्षा करता हुमा धीरे-धीरे कालके कराल गालमें समाता जा रहा है, इसलिए सम्बद्ध समस्त व्यक्तियोंको तुरन्त ही तत्परतासे प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। १. क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः । --कालिदास, अभिज्ञान-शाकुन्तल। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] ___ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान द्वारा राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालाके अन्तर्गत राजस्थान सरकार और केन्द्रीय शासनको संयुक्त सहायतासे चालू आर्थिक वर्षमें ही प्रस्तुत पुस्तकका प्रकाशन किया जा रहा है। पाठान्तर्गत शब्दार्थ, टिप्पणियाँ और परिशिष्टमें आवश्यक ज्ञातव्य पाठकोंको सुविधाके लिए प्रस्तुत किये गये हैं। ___ प्रतिष्ठानके संमान्य सञ्चालक परम श्रद्धेय पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजीने राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग २ के अन्तर्गत प्रस्तुत पुस्तकको प्रकाशित करनेकी अनुमति प्रदान कर मुझे प्रोत्साहित किया है जिसके लिए मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूं। साथ ही प्रतिष्ठानके उपसञ्चालक श्री गोपालनारायणजी बहुरा, एम. ए. ने इस कार्यमें मेरा मार्ग-प्रदर्शन किया है तदर्थ मैं उनका विशेष आभारी हूं। पुस्तक-सम्बन्धी सामग्री प्रदान कर सम्पादन में सहयोग देने वाले सज्जनोंके प्रति भी मैं हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है । राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान. जोधपुर, दशहरा पर्व, सं० २०१७ वि० । पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए., साहित्यरत्न Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतारी श्रथ वात' देवजी " बगडावतांरी" 4 सहर अजमेर वडौ गढ । तेथ राजा वीसलदे चहवांण राज्य करे । वीसलदेरे वास' हररांम चहवांण रहै । सु वडौ सिकारी, शब्दवेधी | सु सिकार नित्य खेलै । तिण नगर माहै कोको साह रहे । तिरै बेटी नांम लोलां । सु बालरंड' । तिका तपस्या करें पोहकररा पाहड़ां मां है । सु इसड़ी तपस्या करें । मास मास अंन न खावै । निरवस्त्र रहै । धूप सीत वरषा माथै° सहै । एक दिन पाछिली राति लीलां पोहकरजी में स्नान करि नींसरी १. बात - सं. वार्ता, कथा, राजस्थानी गद्य साहित्यका एक प्रकार | राजस्थानी साहित्यमें हजारों ही वार्ताएँ लिपिबद्ध और मौखिक रूपमें प्राप्त होती हैं । २. देवजी - देवनारायण, राजस्थान के एक लोक देवता जिनकी उपासना मुख्यतः राजस्थान, मध्यभारत और गुजरातके गुजर जातिके स्त्री-पुरुष करते हैं । देवजी, बगडावतों में प्रमुख भोजाकी गूजर स्त्री सेढके पुत्र थे । देवजीका विवाह परमार क्षत्रिय कन्यासे हुआ था । ३. बगडावतांरी - बगडावतोंकी, अजमेरके हररांम चौहानका एक पुत्र बाधा हुआ । बाघा २४ पुत्र सं. बाघापुत्र > बाघापुत्त > बाघाउत > बाघावत > बगडावत नामसे प्रसिद्ध हुए । बाघड़ा पुत्रसे प्रथवा 'बाघ रावत' से बगड़ावत कहे गये । बगडावत बन्धुनोंके are afraसे सम्बन्धित एक महाकाव्य राजस्थानमें श्राज भी गाया जाता है । ४. वीसलदे चहवांण – प्रजमेरका प्रसिद्ध चौहान शासक विग्रहराज, जो वीसलदे रासका नायक भी है। ५. वास सं. निवास, यहां संरक्षणमें रहनेसे तात्पर्य है । ६. शब्दवेधी - शब्द ध्वनि सम्बन्धी स्थान पर अचूक निशाना लगाने वाला । ७. बालरंड - बालविधवा । ८. पोहकर पाहड़ा मांहै - पुष्करके पहाड़ों में | 8. इसड़ी - ऐसी । १०. माथै - मस्तक पर । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] वात देवजी बगडावतांरी हररांमसीह मारि माथौ वाढि' ले सांम्हौ विपरीत रूप प्रायो । ईयैरी नजर पड़ीयो । ईयैरै पेट गरभ रह्यौ । परमेश्वरजीरी प्राग्या हुई ताहरां पेट वधीयौ | ताहरां लोकां मांहे बात हुई । कथ कथ हुई॰ । युं करतां राजा वीसलदेनुं खबरि हुई । ताहरां कहै — राजा श्रावात किसी जु लीलांनुं गरभ छे । जिका इसड़ी तपसिण तिकेंनुं गरभसु कासूं जांणीजै । ताहरां राजा लीलांनुं बोलाई । बोलाइ नै वात पूछो । थारी तपस्या भंग क्युं हुat | मोनुं' साच कहि । ताहरां लीला कहै । महाराज जो होणी हुती सो हुई पिण मोनुं दोष नहीं लागे छै । श्री परमेसरजी रची सु क्युं मिटै । ताहरां राजा कहै छै । कहौ । ताहरां लीलां कहै । हुं पाछिली राति उठि नै श्री पोहकरजी स्नांन करी नै तीर्थ महा नीसरी 1 तिण समईयै एक पुरुष विपरीत रूप हुयौ सोहरो माथो लीयै मोनु . मिलीयौ । तीयेरे दरसणसुं' मोनुं गरभ रह्यो । 10 1 1 1 राजा विचारी जु कासूं रूप प्रौ । लोक हजूर " कहण लागा । माहाराजा परमेस्वरजीरी लीला कौण जांण । कीये " ठाकुरांरी गति पाई छै । ताहरां राजा कहै । खबर करो जु कुंण मरद हुतौ । ताहरां सिगळांनुं खबर हुती जु सीह एक हररांम चहवांण मारीयो 12 १. वाढि - काट कर । २. ईयैरी - इसकी । ३. ताहरां - तब, तदुपरान्त । ४. वधीयौ - वद्धित हुना, बढ़ा । ५. कथ कथ हुई - बार-बार चर्चा होने लगी । ६. बोलाई - बुलाई। ७. मोनुं - मुझे। ८. तिरण समईये - उस समय । ६. तीयेरे दरसणसुं - उसके दर्शन से । १०. लोक हजूर - दरबारी लोग | ११. कीर्य - किसने । १२. सिगळांनुं - सबको । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतांरी हृतौ । मास ५-६ हूवा । आ वात सरब' लोक जांणै छै । ताहरां राजा कह्यौ जुहररांम चहवांणनुं बुलावौ । ताहरां हररामनुं बुलाय ल्याया | हररांम प्राय राजारो मुजरो कीयौ ' । ताहरां राजा हररांमनुं पूछीयौ जु हररांम तै सोहरौ सिकार कीयां कितरा मास हूवा । कह्यौ माहाराजा मास ५।६ हुवा | कह्यौ माहाराजा हुं सिकार रोज करूं छु ं । दिन ऊगतै सुं सिकार करि अपूठौ प्राऊं छु | ताहरां राजा कहै । सीह मारीयो तीये दिन तै क्युं दीठौ । ताहरां हररांम कहै । माहाराजा लीलां तपस्विण स्नांन करि तीर्थ महा नोसरतो दीठी | सीहरौ माथौ लीयै हुं दीठौ । 3 ताहरां राजा विचारोयो जु हररांमसु लीलांनुं गरभ रह्यौ । ताहरां राजा हररांमनुं कहै । हररांम तुं ना घरे वास * । घरे ले जाह ज्युं थारौ दुहुवांरी पण रहै" । 1 ताहरां हररांम कहै । माहाराजा मोमै दोष कोई छै नहीं । श्री परमेश्वरजी जांणै छै । हुं किस वासते ईयेनुं ले जाऊं । ताहरां राजा कहै म्हांहरौ कह्यौ मांनि ईयनुं घरे ले जाह । ताहरां हररांम घरे ले गयौ । हिवै? लीलां खूण बैठी रहै । 7 10 .12 पूरा दिन हुया ज्युं बेटो जायौ । ज्युं छोरु' दीठो मुंहडौ " सीहरौ पिंड मनुष्यरौ । ताहरां दायां नाठ्यां । कह्यौ औौ कौण सरूप | ताहरां सिगळां सुणाय । कह्यौ जी कपडै लपेटि नांखि द्यौ' । ताहरां लपेटि नै 3 १. सरब - सर्व, सभी । २. मुजरी कीयो- अभिवादन किया । ३. अपूठौ आऊं छु - उलटे मुंह आता हूं । ४. आ घरे वास - इसको घरमें बसा, इसके साथ घर वास कर । ५. थारौ रहे - तुम दोनोंका प्रण रहे । ६. मोमै मुझमें । ७. हिवै - अब । ८. खुरी - कोने में । ९. छोरु- बालक । १०. मुंहडी - मुंड, मुंह । ११. पिंड - शरीर । १२. नाठ्यां - भागी । १३. नांखि द्यौ - डाल दो । [ ३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] वात देवजी बगडावतांरी जांगलमै नांखि आया । ईयै ऊपरि समली छाया कीधी । नाग आय माथै छत्र करीयो । अंगूठा चूसण लागौ । तितरै लोके दीठौ । गांव मांहै षबर हुई । लोक देष-देष आवै । सीह जाय सहर माहे । लोक सरब कहण लागा । राजानुं खबरि हुई | स्त्री सीह जायो' | ताहरां राजा हररांमनुं बोलायौ । पूछीयौ । हररांम हकीकत कही । ताहरां राजा कहै । हररांम टाबर" ले आवौ । नांखौ नां । ताहरां हररांम अरज की । महाराजा श्री मोटो हुसी । सवारे बूंन करिसी । ताहरां महाराजा मारिस्यो । ताहरां म्हांहरो वास छूटि । सीहिवारूं काची व्याधि छै' । परहौ मरौ । म्हांनुं कोई दुख न सुख । ताहरां राजा वीसलदे कहै | म्हांनुं देषणो छै । देषां प्रका ऊपजै | किस वै । तैरै वास्तै राषां छां । थे निसंक पालौ । थांनुं ईनुं तीन गुनह रोज माफ छै । I ताहरां हररांम बांह बोल' लेने घरे आयौ जायनै जंगळ महासुं ले आयौ । धाय राषी । ईयैनं पाळीयौ । मोटो हूवौ । रमे -बेलै ' । छोकरां नास जाय' । कोई बीहतौ " बोलै नहीं । वरस १०।११ रौ हूवौ । सांवणरी तीज आई । छोकऱ्यां रमण नीसरीयां 11 | आगे होंडा " हुता सु वाघे ऊंचा नांखि दीया " I 2 १. संमली - सांवली, चील । २. ग्रस्त्री सीह जायौ - स्त्रीने सिंह उत्पन्न किया । ३. टाबर - बालक । ४. वास छूटि - निवास, घर छूट जावेगा । ५. सीहिवारू काची व्याधि - सिंहका बालक प्रभी कच्ची व्याधि है । ६. गुनह - गुनाह, अपराध । ७. बांह बोल - प्रण, वचन, ८. रम पेल - खेलता है । ६. नास जाय भाग जाते हैं । १०. बीहती - - डरता हुश्रा, भयसे । ११. छोकरयां रमरण तीसरीयां लड़कियां खेलने निकली । १२. हींडा - भूले । १३. मांषि दीया - डाल दिये । -- प्रतिज्ञा 1 । प्रायने वात कही । - 1 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतांरी [ rasai' या ईयेनुं कहै । वाघा म्हांनुं हींडण दे | दांत का | निहोरा करै । है 3 कहींडण न देऊ । ताहरां छोकरयां सलांमां करै । है हींडण दे । ताहरां कहै हींडण कहीं देही । ताहरां कहै मो दोला फेरा ल्यौ तौ हुं हींडण देऊ । ताहरां छोकरचां कह्यौ । लेस्यां । रह्यौ घरे जायने वात मत कह्या । तौ कह्यौ जिके परणियां छैतिके पसवाड़े ठो । कवारयां छै तिके जुद्यां हुवौ । ताहरां छोकरयां वा दोला फेरा च्यार लीया । ताहरां बांभण १ पांगुली प्रोथ पड़ीयौ हुतौ ' तिकेनुं वाघै कह्यौ । रे तूं बांभण छै । जे भणीयौ' छै तौ तूं वेद पढ । का मारीस । ताहरां बांभण बीहते क्युं भणीयौ । 8 ताहरांहीं उतार दी । छोकरयां हींडण लाग्यां । रमण पेलण लाग्यां । रम बेल घरे गयां । 0 हिवै ईयांरा साहा सूभै नहीं । घणुं हीं " ढूंढि धाया । वरस १।२ हूवा । छोकरयांरा साहा ऊघडै नहीं " " । ताहरां लोक चिंतातुर हूवा | लोकांनुं वडो सोच हूवौ । साहो सू नहीं । 12 .1 3 ताहरां वडेरा " लोक एकठा हूवा । दावड्यां तेडीयां'" । वात १. दावड्यां- लड़कियां । २. निहोरा करें - प्राग्रह करती हैं, गरज करती हैं । ३. आडै आंक - कभी नहीं; किसी भी अवस्था में, 'ग्रांक' से तात्पर्य विधाताके लेखोंसे है अर्थात् विधाताके लेख विरुद्ध होने पर भी । ४. मोल्यौ - मेरे चारों श्रोर फेरे लो। फेरा-प्ररिक्रमा, विवाह सम्बन्धी एक प्रथा । ५. पसवाड़े - पीछे । ६. पांगुली हुती - पैरोंसे क्षीण उस स्थान पर पड़ा था । ७. भरणीयौ - पढ़ा हुआ । ८. बीहते - डरते हुए । ६. ईयां नहीं - इनके विवाह लग्न नहीं दिखाई देते । १०. घणुं हीं - बहुत ही । ११. ऊघडै नहीं- निकलते नहीं, प्रकट नहीं होते । १२. वडेरा - बड़े । १३. तेडीयां - बुलाया । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] वात देवजी बगडावतारी पूछी। घणौ आग्रह कीयौ। ताहरां दावड्यां कहै । एक दिन म्हांनुं चीता आवै छ । जु ईयै वाघलै डाकिण षाधै म्हांनुं कह्यौ जे झाडषौ दोळा फेरा ल्यो तो थान हींडण देऊ। ताहरां मैं भोल्यां समझ्यां नहीं। प्रो झाडषौ पकड़ि ऊभौ । म्हांन कह्यौ फेरा ल्यौ । ताहरां म्हां फेरा लीया । पछ हीड उतारि दी। म्हे ही. हीडीयां । एक उ वात चीता आवै छै । बीजी' कांई जांणां नहीं। ताहरां लोक एकठा हूवा । जाइनै राजा वीसलदे प्रागै पुकारीया। राजा तो तीन गुनहा माफ कीया हुता सु राजा काटूं कहै । ताहरां राजा कहै ईयारै भागरी वात । एक टाबर मर जाह छ । जांणीया मरि गयां । अ टाबर ईयै- द्यौ । ताहरां हररांमनुं तेडीयौ। तेड़ाइन कह्यौ। थारै बेटे ईयारयां बेटयां दोला फेरा लीया । हिवै हुवणहार । अ दावड्यां थारै बेटैy परणाय नै ईयांरौ भरण पोषण तू कर। ताहरां हररांम सोच कीयौ जु राजा तो आ वात कही। हिवै हररांम घरे आयौ । आइनै चिंता करण लागौ। इतरयांन षवाडीजै कठा' । कपडा कठा दीजै । बैठौ सोच करै छ । ताहरां वाघो प्रायौ। कहण लागो । चिंता न करौ। हुं भला करीस । म्हारी दाइ आइसी1° तितरयां परिणीजीस । वाकी रयां छोडि देईस । कुंवारी सौ वरां। __ताहरां में राजी हूवा । भली कही। ताहरां सरब लोक जाइ १. म्हांनु' 'छ - हमें याद आती है, हमें स्मरण होता है। २. डाकिण खाध - दुष्ट ; डायन द्वारा खाये गये, अपशब्दोंके रूप में एक प्रयोग । ३. बीजी- दूसरी, द्वितीय सं. >बेय>बीजी। ४. जाइन - जा करके। ५. गुनहा - अपराध । ६. टाबर - बालक । ७. ईयारचां-इनकी। ८. परणाय नै – विवाह करके, परिणय सं.-परणबो राज. । ६. खवाडीज कठा - भोजन कहांसे दिया जावे ? १०. दाइ आइसी - सुविधा होगी, इच्छा होगी। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतारी [७ आपरयां दावड्यां ले आया। आंणि ऊभ्यां कीयां । ताहरां इयै उवां छोकरयां महा १३ टाळियां । बीज्यां मूंगां पुसी भराय नै छोडि दीयो । कह्यौ जावौ । मैं थांसु काम कोई नहीं। ताहरां बांमण दौडीयौ। कह्यौ मैं वेद भणीयौ हुतौ। सु मोनुं ही काई दे। ताहरां वाघो बोलीयौ। कह्यौ झै १३ छै। ईयां महा एक तूं लै टाळिनै। ताहरां ईयै बांभण एक जाइनै फूटरी देषिनै टाळि लीधी। बांभण षोडो हुतौ तिकै प्रांणिनै घर वासी । पछ उवा जातरी ढेढणी हुई। तीयैरै पेटरा गरुडा हूवा । ढेढांरा गुरु हूवा । ईये बारह १२ परणी। तीयांरा बेटा २४ हूवा । झै वधीया घणा हूवा। हिवै ईयै वाघेरा बेटा २४ हुवा छै। सु ईयारी सगाई कोई न करै । ताहरां राजा कन्है गया । जाइ राजासु अरज की । महाराजा म्हांसुं सगाई कोई न करै। ताहरां राजा सिंगळानुं पूछीयौ । सु कहै। ईयांसुं सगाई कहै न करां । ताहरां राजा गूजर तेडीया। कह्यौ ईयांन बेटयां द्यौ। ताहरां अ बेटी न दे। ताहरां राजा जोर घालीयौ । कह्यौ ईयांनु परणावौ छोडुं नहीं। __ ताहरां गूजरां हाकारो भणीयौ । कह्यौ रे एक छोरू11 मरि जावै छै । राजा कहै छै तौ परणावौ । ताहरां कह्यौ जी परणाविस्यां। ताहरां राजा गूजर छाडीयां। पछै वघडावतांसुं गूजरां सगायां १. ऊभ्यां कीयां - खड़ी की। २. मूगां'''भराय नै - मूंगे (एक प्रकारका रस्म) हाथों में दे कर । ३. फूटरी-- सुन्दर। ४. घर वासी - घर में बसाया। ५. ढेढणी - एक प्रकारको पिछड़ी जातिको ! ६. कन्है - पास, समीप । ७. सिंगळांगें - सभीको। ८. गूजर - गूजर, एक जाति जो मुख्यतः कृषि और पशुपालनका कार्य करती है। ६. जोर घालीयो-जोर डाला, दबाव डाला। १०. हाकारो भरणीयौ - स्वीकार किया। ११. छोरू - बालक । १२. सगायां - विवाह-सम्बन्ध । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5] वात देवजी बगडावतारी कीयां। साहौ' थापि परणाया। अ परणिया। हिवै वधीया । आदमी घणा हुवा। अजमेर माहि मावै नहीं। ताहरां वास करण- ठोड़ जोवण लागा । ताहरां रांण भणाय* रांणो वाघट पडिहार राज करै । ऊवैनुं जाय मिळीया। कह्यौ म्हांन बास करणनुं २४ ठांम" द्यौ । म्हे थाहरी चाकरी करिस्यां नै हासिल' ही देस्यां। ___ताहरां रांणेजी दीठौ । प्रा वात भली। चाकरी करै नै हासल पिण देव । अ रजपूत भला वासीजै । ताहरां रांणै घणी दिलासा देने सिरपाव देनै वासीया। २४ सांगें चौवीस थंडा मंडाइ दीया । ईयां २४ गांम वसाया । तिके २४ से वघडावतांरा गोठ' कहीजै । ईयारै घणी भेंसि घणी गाइ वडौ वधारौ साहिबी करै छै । हिवै एक अतीत पाहडां माहे तपस्या करै । वडौ सिध । ईयैरी सेवा भोजौ करै। सिगळां भाईयां माहे वडेरौ भोजौ छै । सुअतीतरी सेवा करै । एक दिन अतीत कह्यौ । भोजा "मैं चलंगा। तुं परभाते का पाए। ____ौ सवारो ही ऊठिनै अतीतरै दरसण- गयौ। प्रागै अतीत ऊभौ छै । कडाहै माहे तेल ऊकळे छै । तेल लाल रंग हूवौ छै । प्रागै अतीतरे पगे लागै। अतीत कह्यौ। बाबा भोज आव। कह्यौ नाथ १. साही- लग्न । २. हिवै वधीया- अब बढ़े। ३. ठोड लागा - जगह देखने लगे। ४. भणाय - भिनाय, अजमेरके समीप एक प्राचीन जागीरी ठिकाना । ५. पडिहार - परिहार, एक क्षत्रिय जाति । ६. ठाम - स्थान सं. >थाण>ठांम । ७. हासिल - कृषि कर। ८. दिलासा - तसल्ली। ६. थंडा''दीया - निवास स्थान बनवा दिये। १०. गोठ - सं. गोष्ठि, यहां समूह या मिलनसे तात्पर्य है । ११. अतीत - तपस्वी। १२. वडैरै - बड़ा। १३. ऊभौ छ - खड़ा है। १४. ऊकळं छै - उबलता है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतारी [६ "मैं पाया ।" ताहरां जोगी कहै । भोज तीन फेरा ले ज्यं मैं "तुझकुं" विद्या देऊ। ____ ताहरां भोज कहै “नाथजी पहली फेरा गुरु लै नै मुझकुं दिखावै तौ मे लेऊ ।" ताहरां जोगी फेरा लैण लागौ । ताहरां भोज जोगीनु कडाह माहे नांषि दीयौं'। पडतौ जोगी कहै छै मैं तौ तोघात घाली हुती' पिण तूं समधो (झ्यौ) पिण म्होरो माथौ साबतौ राणे । हाथ पग वाढे। फेर आइ जासी थारा वडा भाग। हुं सोनैरो पोरसौ' हुईस । जोगी तेल माहे पडीयौ। सोनै रौ पोरसौ हूवौ। हिवै ईयां पोरसौ घरमैं आणि राषियौ। सोनो बेचीजे । खाईजै विद्रवीजै । हिवै दारू काढीजै'। भठ्यां राति दिन तपत्यां रहै । अध्रम' कीजै । बाकरा मारीजै । दारू पीजै । पाठ पहर छकीया रहै । डूंम गावै । प्रांधा हुवा हाले। रांण ही षातरमै प्राण नहीं11 । ईयां निपट अन्याव मांडीयो । सेसरै माथै जाइनै अगनि लागी । ताहरां परमेश्वरजी आगै पुकार हुई । जु मतलौक माहा वघडावत बुरी चाल चालै । ईयांनुं सझा दोजै। ताहरां बीडो फिरीयौ । ताहरां माताजी बीडो झालीयौ । हु ईयांनु छेतरीस14। पिण ईयारौ १. नांषि दीयौ - डाल दिया । २. तोनु हुती - तुझे मारना निश्चित किया था। ३. साबतौ राषे - साबित, पूरा सुरक्षित रखना। ४. वाढे - काटना। ५ पोरसौ - पारस पत्थर । लोक-मान्यतानुसार पारसके लगनेसे लोहा भी सोना हो जाता है। ६. विद्रवीजै - बांटते। ७. दारू काढीज - मदिरा तैयार करते। ८. भठ्यां 'तपत्यां रहै - मदिरा तैयार करनेकी भट्टियां रात-दिन गरम रहती। ९. अध्रम - अधर्म। १०. बाकरा मारीजै - बकरे मारते। ११. रांग ही नहीं - राणाका (भिनायके शासकका) भी अनुशासन नहीं रखते । १२. सेसरै लागी - शेष नागके मस्तक पर जाकर अग्नि लगी। १३. बीडो झालीयौ - बीड़ा ग्रहण किया, काम करना स्वीकार किया। १४. हुं छेतरीस - मैं इनको छलूंगी। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] वात देवजी बगडावतारी वैर कुण लेसी । ताहरां ठाकुरां फुरमायौ हुं लेईस । ताहरां माताजी ईहड सोलंकीरै घरे अवतार लीयौ । ___ युं करतां माहे वरस १२ री हुई। ताहरां सगाईरी अटकळ मांडी' । ताहरां राणे भणायरे धणीनुं नाळे र मेल्हीयौ । राणे नाळे र झालीयौ । हिवै वीमाह साहो थापि मेल्हीयौ । ताहरां रांणे जांन* करि परणीजणर्नु चालीयौ। ताहरां वगडावतांनुं आदमी मेल्हीयौ जु राणैजी परणीजण, चढीया छै । थे वैगा" आवौ । ताहरां ईयां कहायौ म्हे आविस्यां पिण म्हांहरो सभाव छै । बीजी तरहरौ छै । म्हे षरचिस्यां । दारू पीस्यां। थे सांसहिस्यौ नहीं । म्हांनु मतां ले जावो। ताहरां रांणै कहाडीयौ' जे थे खरचिस्यौ तौ सोभा म्हांन हुसी । थे वेगा अायौ । ___ ताहरां अ वणाव करि प्रापरौ साथ लेनै हालिया। प्राइन रांणैजीरो मुजरौ कीयौ। सु ईयै भांतर' आया सुं राणैरौ साथ छिप गयौ। नजर अावै नही। अ हीज दोसै । आपरो साथ पसवाडै10 चाले । डेरा पिण जुदा करै । क्युं रांण विच ईयांरौ साथ भलौ दीसै । ईयुं करतां ईहडरै गांम जाय पहुता। ___सांमेहळो13 पिण आयौ सांम्हा। इतरैमै जेलू14 पिण दीठौ । १. अटकळ मांडी - युक्ति की। २. भणायरे मेल्हीयो - भिनायके स्वामीको नारियल भेजा। ३. हिवं 'मेल्हीयौ - अब विवाह-लग्न निश्चत कर भेजे। ४. जान -बरात, सं. यान । ५. वैगा-वेगसे, तुरन्त । ६. सांसहिस्यों नहीं - सहन नहीं करोगे। ७. कहाडीयौ - कहलाया। ८. हालीया - चले। ६. ईयै भाँतर - इस भांतिसे । १०. पसवाडे -पीछे। ११. डेरा' 'कर- ठहरनेका स्थान भी अलग करते।। १२. जाय पहुता- जा पहुंचे। १३. सांमेहळो - सामने जाकर स्वागत करनेको प्रथा। १४. जेलू - ईहड सोलंकीकी पुत्री जो देवीका अवतार मानी गई है। जेल अथवा जळू मागे वगड़ावतोंके विनाशका कारण बनी जिससे कहावत प्रचलित है-'जेळू थे तो घणा वगडावत खपाया' जेळू ! तुमने बहुत बगड़ावतोंका विनाश कर दिया। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतारी [ ११ भोज बांवळी' घोडी चढीयौ दीठौ। ईयां साथ दीठौ ताहरां जेलू कहै । हुं भोजन परणीजीस । इयुं करतां आय तोरण वांदीयौ । सु जेलू परणीजणमै रांगनुं नही जाणे । भोजनुं परणीजु । ताहरां हठ घणौ ही हूवौ । ताहरां भोजै जेलूनुं कहायौ । थे हठ न करो। रांणेनुं परणीजौ । परणीयां पछै हु थांनु ले जाईस । ताहरां जेलूरी छोकरी हीरू तिका विचै फिरै । वातां करै। ताहरां भोज बांह बोल दीया । हुं थार्नु पर्छ ले जाईस । वचन दीयौ। ताहरां जेलू राणेनु परणीया । युं करतां भोजौ परवाह रांणैसु दणी दिन्ही।। हिवै हालीया। रांण भणाय प्राय पहुता। हिवै पैसारो करि रांणो घरे गयौ। हिवै जेलू भोजैसुपरधानां करै। थारै बोलीयेनुं पाल करि। ताहरां भोजै भाई पूछिया। ताहरां भाई कहै जे जेलू आवै छै तौ श्रावण द्यौ । आप अपूठी नही फेरां'। ताहरां ईयां बांह बोल दीया। जेलू ईयार घडो भरि पाई। ईयां आधी लीधी। रांणौ फौज करि पायौ । लडाई हुई । २३ भाई काम आया । एक भाई तेजै नांमै तिको नायौ। बीजा सरब काम आया। दूहौ-बूढा हूवा हो तेजा जेठजी, थांहरै सल पडोया गाले । कदे न पाया पाहुणा; ढलकती ए ढालै ॥ १ भोजो पडीयौ ताहरां जेल भोजरो माथौ लेनै ऊडी। ले जाइनै १. बांवळी - बाई पोरकी (?) २. तोरण वांदीयौ - तोरण बांधा, विवाह सम्बन्धी एक प्रथा । ३. बांह बोल दीया - प्रतिज्ञाकी वचन दिये। ४. परवाह - दान । ५. पैसारो - सं. प्रसार, यहां विवाहके बाद गृहप्रवेश-सम्बन्धी प्रयासे तात्पर्य है। ६. परधानां - परामर्श, बातचीत । ७. अपूठी नहीं फेरा - विमुख नहीं करेंगे। ८. घडो भरि - घड़ा भर कर । ६. आधी - पागे। १०. काम आया - मारे गये। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] वात देवजी बगडावतांरी ठाकुरां आगे मेल्हीयो । कयौ हुं कांम करि आई छू ताहरां भोजै लार सेदू' सती होवण आई । सत कीयौ हुतौ । ताहां जेलू प्राय कह्यौ । तुं सती मतां हुए । थारै बेटा हुसी । ताहरां ढू है | म्हारे बेटो कठा होसी । हुं तौ जनमरी वांझ । सुं ताहरां जेलू कहै तूं वाग माहे धूप दीप ले जाए । कमल रो फूल लेनै एकै तले राषे । एक फूल उपरह तूं बैसे । जाहरां बाळसद" हवं ताहरां तूं उठने उर लेई । तूं पाळे । थारो बेटौ हुसी । सखरो हुसी । वैर लेसी | ताहरां प्रा जायने वाग माहे बयठी | ज्युं जेलू कह्यौ हुतौ त्युं कीयो । आप आयनै धूप दीप कीयौ । घड़ी १ हुई । त्युं बाळक साद हूव । ईरै प्राचले पांन्हौ आयो । ईयै उठिनै उरहो लीयो । फूल महा बाळक नीसरीयौ । नांम उदेराव काढीयो । साढू माता लेने घरे आई । एथ' अँ ईयेनुं पाळे | मोटी करें । जी घडी उदैरावरौ जनम हूवौ तीयै घडी प्रोळिरा कांगरा गिड पड्या' । ढोलीयैरा साल ४ भागा। ताहरां रांण पूछीयौ । श्रौ किसो उपद्रव । ताहरां पंडित तेडाया । कयौ प्रौ किसौ उपद्रव | ताहां पंडितां कह्यौ वघडावतांरै भोजेरे बेटो जायौ | ताहरां बांभग मेल्हीयौ । षबर कराई । कौ जावा मारौ । ताहरां बांमण ग्राइने साढूनूं पूछीयौ । माता वघडावतारं बेटी । १. सेढू - भोजकी गुर्जर जातिकी स्त्री । यही देवनारायणकी मां हुई । २. बालसद - बाल शब्द, नवजात शिशुका रुदन । ३. उरहौ लेई - पासमें लेना । ४. सषरो - श्रेष्ठ, अच्छा ५. साद - रुदन । ६. पांन्हौ - वात्सल्य के कारण स्तनोंमें होने वाला दुग्ध-प्रवाह । ७. एथ - यहाँ । ८. प्रोळिरा पडचा - द्वार परके कंगूरे गिर पड़े। प्रतापी शिशुके जन्म पर बातों में ऐसा कहने की प्रथा है । ६. ढोलीयैरा भागा - पलंग के पायोंके छिद्रका भाग टूट गया । १०. जायौ - उत्पन्न हुआ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतांरी [ १३ जायौ छै । नांम कढाय' । म्हांनुं दिषाय । माता साढू कहै | म्हांरै 2 बेट काह' । हुं जनमरी बांझ छु । बेटो काह । ताहरां बांभण रसोई मांगे। द्यौ | ताहरां कहै माता रसोई देसुं । तहरां बांभण कहै । म्हे युं रसोई न ल्यां । थेाप जाय जळ प्राणो तो रसोई करा । 1 आप छोकरचा * लेने पाणीनुं गयां । बांभण घर सोझण 5 गया। आगे मांहे पैस' देषै तौ पालणैमैं बाळक हीं छै' । ऊपर नाग छत्र करिनै बैठौ छै । पालण दोळा सरप लपटांणा छै । ताहरां ईयां सरप छेडीयौ | ताहरां सरपे बांभण बाधा । 9 10 इतर मैं माता आई । रैठालां भूलां " । थां बाळकनुं कासूं की यौ । ताई। हां म्हांहरी कमाई पाई । हि म्हांनुं वचाव" । ताहरां बाळक हसीयो । बांभण छुडाया। बांभण परहा गया 11 | जाय vij वात कही । प्रो बाळक न मरै । 12 13 ताहरां माता साढू मालवेनुं कासीद लायौ " । पीहर आया । आइनै ले गया । प्रोथ 18 जाइ वसीया । गायां ग्वाळ सरब ले गया । - माळवे जावतां ऊवां 14 विचारीयौ बाळक नांषि द्यौ । आपे माल 5 बैठा पासां । ताहरां पालणौ नांषि टाबर मेल्हि परहा गया । १. नांम कढाय - २. काह - कहां । ३. आणी - लाभो । ४. छोकरचां - दासियां । ५. सोभर गया - देखनेके लिये गये । ६. मांहे पैस - भीतर प्रवेश करके । ७. पाल मैं बाळक हीडै छै - पालने में बालक झूलता है । ८. पाल दोळा - पालनेके चारों ओर । नाम निकलवानो, नामकरण संस्कार करवाओ । ६. ठालां भूलां - निकम्मे और भूले हुए । १०. वंचाव - बचानो । ११. परहा गया- चले गये, परे, दूर चले गये । १२. मालवेनुं हलायौ - मालवेमें दूत भेजा । माता सांदूका पीहर मालवेमें था । १३. प्रोथ यहां । - ". १४. ऊवां - उन्होंने । १५. नांषि द्यौ - डाल दो । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] वात देवजी बगडावतारी जाहरां मातारै हांचले पान्ही पायौ'। कह्यौ बाळक ल्यावो ज्यु चूघावां । ताहरां कहै माता बाळक म्हां नांषि दीयौ। ताहरां माता 'साढू पाछी घिरी। प्रागै देष तौ छवरे हेठे पालणो राषीयौ तौसु सोहणी * प्राय चूघांवण लागी । ताहरां माता साढू दीठौ । ताहरां कहै हे सीहणी तै म्हारो बाळक विनासीयौ। ताहरां सीहणी अळगी हुई ऊभी रही। ईयै जाय टाबर उरही लीयौ। पालणौ भीलारै कांधे दीयौ । प्राघा हालीया । पीहर गई। उथ सुषसु रहै । एक दिन बांभण- टोघडा दीया। पछै भाटांन दान दीयो। मोटौ हुवो। वरस १० रो हुवौ। ताहरां अपूठा ठिकाणे पाया। आवतो पंमारे परणीयो । हिवै अट रहै । युं करतां गायां चरै । सु जंगळमैं गायां घास चरै । सु लोक पुकारै म्हांहरो घास सरब' चरि गया। ताहरां गायां राणेरै आदमीए रातै कोटमै रोकीयां । ताहरां देवधरम राजा चढीया । ताहरां लडाई हुई। राणैरा लोक मारीया । गायां छुडाया । राणौ भागौ। ताहरां प्राप तौ भागौ पाछै न जावै। ताहरां भुणेनु कह्यौ । भुंणा ईयेनुं पकडि ल्याव । ताहरां भोंणो रांगनुं पकडि ल्यायौ। रांणैर्नु मारीयो । आप पाछा पाया। १. हांचले पान्ही पायौ - प्रांचल में दूध पाया। २. चूधावां - दूध पिलावें । बालकको स्तन-पान करावें। ३. छवरे हेठे - पेड़ की छायाके (?) नीचे । ४. सीहणी - सिंहनी। ५. अळगी हुई - दूर हुई। ६. भोलार - भीलोंके, भील जाति विशेष । ७. टोघडा - गायके बछड़े (?) ८. आवती पंमारे परणीयो - लौटता हुना परमार क्षत्रियकी कन्यासे विवाह किया। ६. सरब - सर्व (सं.), सब, सारा । १०. राणेरै रोकीयां - राणाके अर्थात् भिनाय शासकके प्रादमियोंन रातमें गढ़में रोक ली। ११. भुणेनु - भूणेको । भूणा, रावत भोजाका पहली स्त्रीका पुत्र । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात देवजी बगडावतांरी [ १५ दडावट राजथांन तेथ आया । नीलावर# घोड़े चढीया श्राया । लोप हूवा । देव धरम राजा आज लोक आईने घोडे चढीया पूजा हुवै छै । वड़ौ देव छै । १. दडावट राजधान - दडावत या घड़ावट मेवाड़ में ग्रासींदके निकट एक गांव है। asta नामक स्थान बगड़ावतोंकी राजधानीके रूपमें प्रसिद्ध रहा है ( मरु भारती, पिलानी । वर्ष ३, प्रङ्क ३ में "राजस्थानके लोक देवता" नामक श्री झाबरमल्ल शर्माका निबन्ध ) । २. नीलावर - एक रंग विशेषका घोड़ा । ३. अलोप हूवा - लुप्त हुए । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात श्री गणेशाय नमः ॥ अथ रावत प्रतापसिंघ म्होकसिंघ' हरीसिंघोतरी वात लिष्यतं वात देवगढ रावत प्रतापसिंघ हरीसीघोत राज करै। जिको किसोहेक' । १. ख. प्रतिके जीर्ण होनेसे प्रारंभका पाठ स्पष्ट पढ़नेमें नहीं पाता। संभवतः "प्रथ रावत प्रतापसिंघरी बात" है। "रावत प्रातपसिंघ ने ग. मोहोकसिंघ हरीसिंघोत देवगढ़रा धणीरी महाराज बादरसिंघजी किसनगढ़रा राजारी करी"। "अथ रावत प्रतापसिंघ मौहकसिंघरी घ. [हरी] सिंघौत देवगढ़रा धणीरी बात लिष्यते” । २. रावत प्रतापसिंघ - राजस्थानको एक पूर्व रियासत देवलिया-प्रतापगढ़ के वि. सं. १७३० (ई.स. १६७३) से सं. १७६५ (ई.सं. १७०८) तक शासक रहे। इन्होंने अपने नाम पर वि. सं. १७५५ (ई. सं. १६६६) में प्रतापगढ़ नामक नवीन नगरको स्थापना की, जिससे प्रतापगढ़ देवलिया-प्रतापगढ़ रियासतकी राजधानीके रूपमें प्रसिद्ध हुप्रा । "रावत" अथवा "महारावत" प्रतापगढ़-नरेशोंकी उपाधि है। रावत शब्द संस्कृतके “राजपुत्र" शब्दसे विकसित हुआ है। जैसे-राजपुत्र>राजपुत्त> राजउत>रावउतसे रावत । ३. म्होकमसिंघ - रावत प्रतापसिंघका भाई जिसकी वीरताका प्रस्तुत वार्ता में विशेष वणन किया गया है। प्रतापगढ़का सालिमगढ़ नामक ठिकाना म्होकसिंघ और उसके वंशजोंके हो अधिकारमें रहा है (प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास, स्व. डॉ. गौरीशङ्कर हीराचन्द प्रोझा पृष्ठ सं. १६५) । ४. हरीसिंघोतरी-हरिसिंघके पुत्रोंकी। हरिसिंघ-पुत्र>हरिसिंघउतसे हरिसिंघोत बना है। हरिसिंह वि. सं. १६८५ (ई. स. १६२८) से वि. सं. १७३० (ई. स. १६७३) तक देवलियाके शासक रहे । (वही)। ५. वात - बातके स्थान पर सर्वत्र ग. घ. में दवावत पाठ है। दवावैत-रघुनाथरूपक (संपादक-श्री महताबचन्द्र खारेड़, काशी ना.प्र.स.) और रघुवरजसप्रकास (सम्पादक श्री सीताराम लाळस, राज० प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) के अनुसार-दवावंतके गद्यबंध और पद्यबंध दो भेद हैं। प्रस्तुत वार्ता में गद्यबन्ध दवावंत का प्रयोग हुआ है। ६. देवगढ़ - प्रतापगढ़ राज्यकी प्राचीन राजधानी देवलियासे तात्पर्य है। यह देवगढ़ मेवाड़के प्रसिद्ध ठिकाने देवगढ़से भिन्न है जहांके शासकोंकी उपाधि भी "रावत" ही रही है। ७. जिको किसोहेक - इसके स्थान पर ग. और घ. प्रतिमें "तिको षटदरसणरा दाळद्र हरे" पाठ है । षटदरसणसे यहां तात्पर्य, प्रदर्शनाचार्यों प्रादिसे है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [१७ पातसाहांसू प्राडो'। कंवारी घडांरो लाडो । अड़ संग्रामरो नाटसाल । चक्रवर्ती जिसड़ी बाल । आथरो मांणीगर । षट भाषारो जाणीगर । दातार सूर । जलाहल नूर' । बीराधिबीर । अाजाने बाह' । सरणाई सधीर । नारांरो नाह' । गज घड़ा मोडण । बांका मैवासा तोड़ण'। जिण प्रथ्वीरै ऊपरै बडा बडा जुद्ध कींधा। रिणषेत मांहे प्राय चवदंत हुवा तिकांनू मार लोधा। जिणारे कनै साष साषरा रजपूत रहै । जिके पडतै आसमांननूं भुजां सहै। स्यांमरा सहायक धरारा किवाड़। भावतांरा भांवता । अण १. आडो - मार्ग रोकने वाला, विरोधी। रावत प्रतापसिंह वास्तवमें मुगल शासकोंका सहायक रहा है। प्रतापसिंहके नाम लिखे गये बादशाही फरमानोंसे इस मतको पुष्टि होती है। (विशेष देखिये-प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास; स्व. डॉ. गौरीशङ्कर हीराचन्द ओझा) २. कंवारी घडांरो लाडो - कुमारी सेनाओंका अर्थात् जिस सेनासे युद्ध नहीं किया गया हो, उनका प्यारा । राजस्थानी कथाओं में इस विशेषणका कई बार प्रयोग हुमा है। ३. अड़ संग्रामरो नाटसाल - वीरता पूर्वक युद्ध करने वाला। ४. आथरो माणीगर - अर्थ, धन-वैभवका उपभोग करने वाला। ५. षट भाषारो जाणीगर - षट् भाषानोंका ज्ञाता। षट् भाषानों में संस्कृत, प्राकृत, मागधी, शौरसेनी, पैशाची और अपभ्रंशका समावेश किया जाता है (षड्भाषा चन्द्रिका) ६. जलाहल नूर - सूर्यकी भाँति कांतिमान । ७. प्राजाने बाह - प्राजानुबाहु । घुटनों तक लम्बी बाहों वाला। ८. सरणाई सधीर - शरणागतोंको धीरतापूर्वक रक्षा करने वाला। ६. नाह - नाथ, स्वामी। १०. गज घड़ा मोडण - हाथियोंके समूहोंको मोड़ देने वाला। ११. बांका मैवासा तोडण - शत्रु पक्षके सुरक्षित स्थानोंको तोड़ देने वाला। १२. रिणषेत - रणक्षेत्र, युद्ध भूमि । १३. चवदंत हुवा- प्रसिद्ध हो गया। १४. साष साषरा - शाखा-शाखाके । राजपूतोंको मुख्य शाखाएं ३६ मानी गई हैं (मुंहता नैणसीको ख्यात, भाग २, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी पृष्ठ ४८१)। १५. स्यामरा- स्वामीके ।। १६. धरारा किवाड़ - धरतीके रक्षक । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात भावतारा जड़ा उपाड़' । इण भांतरा तो कनें रजपूत । इसड़ो ही श्राप पिंडा मजबूत । दोहा -धर बंकी बंको धरणी, बंका भड़ बरहास । अरि बंका सूधा करै, बंका रिण बारगास ॥१ अडियो रांगा अमरसूं, अंण गंज' रहियो आप । तड़िता सिर त्रिजड़ा जड़ी', वो रावत परताप ॥२ अरि धंम° भाला उधमैं, अंग पत्रवाट अमाप । अनड़ षगां बगां अचल, वो रावत परताप ॥३ मरद छतो पापह मतो", थप्पै मोटी थाप । रावत वट रतो रहै, वो रावत परताप ॥४ संक मनावै सत्रुवां, असंक सदा रिण प्रांप । बयरण अटका" बोलगो, वो रावत परताप ॥५ १. उपाड़ - उखाड़ने वाला। २. कन-पासमें, समीप। ३. पिंडा- स्वयं । ग. घ. "आप पिडा" के स्थान पर "प्रापै" पाठ है। ४. दोहा - ग. घ. दुहा। राजस्थानी दोहा छन्दके लिये एक वचन हो और बहु. _वचन दूहा या दुहा प्रचलित है। ५. बरहास - घोड़ा। ६. बाणास - तलवार। ७. अंण गंज- अजेय । ८. तड़िता - बिजली। ६. विजड़ा जड़ी-तलवार मारी, तलवारसे प्रहार किया। १०. धंम - धर्म। ११. पत्रवाट अमाप - अतुल क्षत्रियत्व, बड़ी वीरता। १२. अनड़-अनन, नहीं झुकने वाला। १३. बगां - बाग, घोड़की लगाम, यहां सवारी करनेसे तात्पर्य है। १४. छतो- क्षिति, पृथ्वी या छत्रधारीसे तात्पर्य है। १५. आपह मतो- अपने ही मतसे चलने वाला। १६. थप्पै - स्थापित करता। १७. अटका - बिना तोलके, वीरतापूर्ण । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात बात ईण भांतरो रावत परतापसिंघ। जिणरे छोटो भाइ म्हौकमसिघ। जिको किसडोहेक रजपूत । आग ब्रजाग । ताषो नाग । षाग नै त्याग बिषै जगहीसों बढती बाग । रीज पर सारो ही त्याग । कई बार निकल्यौ कवांरी घडामै कढि । समहर भडांसू बढि । धड़ारो धणी पण कई बार अकेलो ही लोहां मिल्यौ' । सोरमै पण रंजक । तिण भांत रजपूतीरी तीषरो तष भष । तिणरो रजपूतीरी तीष। तिको धणी तीषांन1° पण सोष। रेवणनै राड़ पाया थका बधाई बटै। अर बिलकुल नै घणो तातो मिलै । प्रिथिमै घड़ी पिल्लरो11 मिजमांना हवो थको झिलै । दौहा-मरण गिरण तिल मान", हाथ जीव हाजर रहे। ____ो घट"घाट" प्रताल, निराताल न्हा निडर ॥ १ १. बात - ग. घ. प्रतियों में दवावत । २. आग ब्रजाग -- अंगोंमें वज्रकी भांति तेज धारण करने वाला। ३. ताषो- तोष्ण, तेज । ४. पाग नै त्याग बिषे - शस्त्र-सञ्चालन और दानके सम्बन्धमें। ग. प्रतिमें "षागने त्यागरै बिष ताषो नाग" पाठ है । ५. रीज - रोझ, प्रसन्नता। ६. समहर - समान। ७. लोहां मिल्यौ - शस्त्र-धारण कर अथवा शस्त्रधारियोंसे युद्ध किया। लोहेसे तात्पर्य ८. सोरमै पण रंजक - युद्ध में भी प्रानन्द लेने वाला। ६. तष भष - सज-धज । १०. तीषांन -तेज लोगोंको, वीरोंको। ११. घड़ी पल्लरो - घड़ी पलका, थोड़े समयका। १२. मिजमान - मेहमान । १३. झिल - शोभित होता है। १४. तिल मान - तिल मात्र, तिल बराबर, सामान्य । १५. हाथ जीव हाजर रहे - प्राण सदा हाथमें लिये रहता है, मरनेके लिये सदा प्रस्तुत रहता है। १६. घट - शरीर । १७. घाट - स्थान । १८. अताल, निराताल - शीघ्र, बहुत । १६. न्हाष - डाल देता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी वात झोके झाझी झाल', काल चाल झटकै कमो । भटकै क्रौध भुजाल', षटकै उर बूंदालमौ ॥ २ समहर बागां सार', प्रांम्हा सांम्हां आहुई। बधि' म्होकम जिरण बार, षाग झटां षेले षलां ॥ ३ चष मुष अरुण सचोल, बिलकुलतो बाकारतो । धोबझड़ा धमरोल, अरि दल ढाहै हरिदउत" ॥ ४ बात ईसड़ो" तो भाई म्होकमसिंघ । अर ओर भी भाई भतीजा बडा बडा रजपूतवटरा सुभाव लीधा थका रावत प्रतापसिंघरी हजूर रहै । बडी बडी रीझां मोजां हमेसां लहे । तिके किसड़ा हेक । १. झाझी झाल - अधिक ज्वाला। २. कमो- महोकसिंह। ३. भुजाल – भुजाओं वाला, वीर । ४. बूंदालमो - खूदने वाला, उपद्रवी। ५. समहर बागां सार - समान व्यक्तिसे तलवार बजने पर, समान व्यक्तिसे लड़ाई होने पर। ६. पाहुई - पलटते, युद्ध करते। ७. बधि - बर्द्धमान हो, बढ़ कर । ८. झटां-प्रहार। ६. षलां-शत्रु । १०. चष- नेत्र। ११. सचोल - लाल १२. बिलकुलतो - शीघ्रता करता हुआ। १३. बाकारतो- पुकारता हुआ। १४. धीबझड़ा - प्रहार । १५. धमरोल - युद्ध। . १६. हरिदउत – हरीन्द्रपुत्र, हरिसिंहका पुत्र । १७. ईसड़ो- ऐसा। १८. लहे - लेते। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात दोहा-सोहां हंदा छावड़ा', धस समुष षग धार । ____बाहै लजरा बिटिया, सोस गयंदां सार ॥ वात तिण समै भीलांमै एक भील मुदायत । तिको घणांरो आंटायत । सो देवगढरी धरतीरो बिगाड़ करै। तद रावतजी वैनुं मारणरो हुकम कीधौ। सो ो भी एक जायगां न रहै जिण प्रांटै!" न मरै। जे फोजबंधी कर चढे तदि तो ओ भाषारामै11 पैठ । जे दगो बिचारै जदि भो भी सावधान होय बैठे। भील तीस चालीसेकसुं घणी अगम' विषम जायगा रहै। साथरा भील पण बडा आंटा षेटांरा करणहार। निसंक हुवा थका दोड़े अरु मुलकरा धन लहै। दोहा-पग छंटा'" पैरू" निसा, धरियां कर धानख । रषवाला मैवासका", येहा भील असंक ॥ १. छावड़ा-पुत्र। २. बाहै - चलाते। ३. लजरा बिटिया-प्रावेष्ठित । ४. गयंदां- हाथियोंके। ५. सार - तलवार ६. तिण सम - उस समय । ७. मुदायत – मुखिया। ८. घणांरो प्रांटायत - बहुतोंको कष्ट देने वाला। ६. वैनुं - उसको। १०. जिण आंटे - जिसके कारण । ११. भाषरामै - पहाड़ोंमें। १२. पैठे - प्रविष्ट हो, चला जावे । १३. अगम - अगम्य, कठिनाईसे पहुँचनेकी । १४. पेटारा - आखेटोंके, प्रहारके। १५. मुलकरा - मुल्कका, देशका । १६. पग छंटा- छंटे हुए पैरोंके, चुने हुए। १७. पैरू - पहरेदार, सावधान रहने वाले। १८. धानंख - धनुष । १६. मैवासका - जंगलके। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात वात ईण भांत घणा ताषड़ा पणांसु' रहै अर टणकापणरी' बातां चोड़ें कहै। ___एक रजपूत रावतजीकी हजूर रहै। जको आदमी तो पाधरो सो । पण मोटियार पगछंटो सो। रावतजी उणन देष पोतारियो । किण वास्तै । ईणनु पोतारतां अोर भी किणी- चोष तीष' लागै तो उण भीलनु अंगो अंग मारै । दूज्यू प्रो मरै नही। अर मारणौं सही। एकण दिन रावतजी दरबार किया बैठा था। तद भीलरी बात चाली। जद उण रजपूत पौतार कहियो । ओर तो कोई दीसै नहीं' जिकौ उण भीलनूं मारै । जे मारै तो अोहीज' रजपूत मारै । जिण बेला सीसौदियौ जसकरण जौगीदासोत' बैठौ थो सौ जसकरण बडो बीराधबीर' । जिसड़ो धीर पंडीर। दोहो-केई बेला4 धसियो, कल रसियो षग रंग । अरिहां' उर बसियो रहै, वो जसियो अरण भंग ।। १. ताषड़ापणांसुं - बल लिये हुए। २. टणकापरणरी - सामर्थ्यपूर्ण । ३. चोड़े - खुलेग्राम, स्पष्ट । ४. पाधरो सो- सीधा-सा, सरल । ५. पोतारियो - बढ़ावा दिया । ६. चोष - श्रेष्ठता, भलाई । ७. तीष - तीक्ष्णता, तेजी। ८. अंगो अंग - द्वन्दमें, स्वयं युद्ध कर । ६. दीस नहीं - दिखाई नहीं देता। १०. ओहीज - यही। ११. जसकरण जौगीदासोत - जोगीदासका पुत्र जसकरण । १२. बीराधबीर - बीराधिवीर, वीरों में भी बीर । १३. धीर पंडीर - शरीरका धीरजवान, धीर पुंडरि नामक सामन्त जैसा । १४. बेला - समय। १५. धसियो - प्रविष्ट हुआ। १६. कल''रंग - असि-चालनमें प्रानन्द प्राप्त करने वाला श्रेष्ठ रसिक। १७. अरिहां - शत्रुओंके। १८. जसियो - यशस्वी, जसकरणसे तात्पर्य है। १६. अण भंग - अभंग, नहीं भग्न होने वाला, वीर । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ २३ बात सो जसकरण बोलियो । दीवाण' ईसड़ी कांई कहो छो। किण ही रजपूतरी परष भी लहो छो। रावत हरीसिंघरा घर मांहे इसड़ो रजपूत नहीं जको उण भीलड़ेनुं मारै । सो दीवाण तो छत्रपती छो । पण हरीसिघरा घर मांहे ओर भी सषरा रजपूत छै जिके उणनुं अकेलो पैठ अंगो अंग मारै । पर बात उबारै । जिणसू दीवाण ईसड़ी किण बाय' कहणी पावै । आ बात सुणी थकी किण- भावै । ईण भीलड़ारो बूतो कासू । सो नजर चढिया अडै म्हांसू। जिण परे आप ईतरी फुरमावो। इण- मारणौं होय तो किण ही एकणनु कहीजे । थे प्रो काम करि आवो। रावला' घर मांहे छै एक एक ईसा रजपूत। जिकौ बांधै दिली नै चीतोड़सू लड़बारो° सूत"। जिणसूं किणहीने फरमाय हाथ देषीजै। के तो मारि आवां के पकड़ लावां तो रजपूत लेषीजै। १. दीवाण - मेघाड़के महाराणाओंकी उपाधि दीवाण' कही जाती है क्योंकि मेवाड़का राज्य एकलिंग महादेवका और महाराणा उनके दीवान माने जाते हैं। देवलियाप्रतापगढ़का राज्यवंश भी मेवाड़के महाराणा मोकलके पुत्र और महाराणा कुंभाके भाई क्षेमकर्ण (अपर नाम, क्षेमसिंह, खेमा या खींवा) से प्रारंभ होता है। इस प्रकार प्रतापसिंहको भी दीवाण कहा गया है । २. परष - परीक्षा। ३. सषरा - श्रेष्ठ । ४. उबार - उद्धार करे, पालन करे । ५. किरण बाय - किस प्रकार । ६. बूतो- प्राधार। ७. कासू - किससे, क्या। ८. एकणनु - एकको। ६. रावला - अापके, सरकारके । १०. लड़बारो - लड़नेका। ११. सूत - सूत बांधनेका यहां तात्पर्य युद्ध करनेके विचार या उपक्रम करनेसे है। १२. फरमाय - फरमा कर, कह कर । १३. देषी- देखिये। १४. लेषीजै-जानिये। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात 2 ईण तर ईणरो रोस देष साचवट पेष' रावतजी बोलिया । ठाकुर थेई सदा छो । हू पातसाह किनां दीवाणसं पेटो धारूं" । ईण भीलर उपरा थांनू कासू पोतारू । हूं तो म्हारै रावत हरीसीघरा घरकी बात कहूं छु । अर ईण भीलरी बात सुण मन मांहि रोस धार रहूं छू । सो हरीसीघरो नांव सुणतां ही भांई म्हौकमसिंघ बैठौ थो सो सो भभकियो । जाणे दारू गंज' मांहे गरी चिणगी' पड़े । किनां बलती' आग मांहै व्रत न्हाषियो झांल आकास जाय ऊड़े । रुकिये हाथीनुं रोस चड़े किनां उकलता' तेल मांहे पांणीरी बूंद पड़े । जिण भांत षिजाये" नागरी" नै दकालियै 12 बाघरी नांई बोलियो | नै मन माहि रोसरो नै जोसरो ताव हूंतो सो चौड़े पोलियो । दोहा - कथ इम सुरण कोपे कमों, अंग अंग प्रगटी आग | बांगी ई बिध बोलियो, जांरण षिजायो नाग ॥ 7 8 3 1 14 बात 6 कहियो दीवाण ईसड़ी" काह" कहो छो । किण ही रजपूतरी १. साचवट पेष - सचाई देख कर । २. पेटो घारू - युद्धका, संघर्षका विचार रखता हूं | ३. पोतारू - बढ़ावा दूं, प्रोत्साहित करूं । ४. ईसो - ऐसा । ५. दारू गंज - मदिरा के संग्रह में । ६. चिरणगी - चिनगारी । ७. बलती - प्रज्वलित होती हुई, जलती हुई । ८. रुकिये - बलात रोक रक्खे गये । ६. उकलता - उबलते हुए । १०. षिजाये - चिढ़ाये हुए । ११. नागरी - सांपकी । १२. दकालियै - ललकारे हुए । १३. नांई - तरह । १४ कथ - कथन । १५. कमो - महोकमसिंह | १६. ईसड़ी - ऐसी । १७. काह - क्या । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ २५ परष भी लहो छो। कहो छो रावत हरीसिंघरा घर मांहे ईसड़ो रजपूत नही सौ उण भीलडैनु मारै । सो दीवाण तो छत्रपती छो पण उणरा घर माहे बी सषरा' सषरा रजपूत छै जिके उणने अकेलो पैठ अर अंगो अंग मारे । अर बात उबारे । ___ ईण तरै सुणनै जिण बेळारो म्होकमसिंघरो जोस नै रोस देष रावतजी बोलिया। बाप बाप हूं थानुं तो न कहू छू । हूं तो म्हारा पिंडरी कहू छु । इतरी कह मोहकमसिंघनु थथोपियो । पण प्रो तो कोपियो सो कोपियो। मुंहडै अण-मापरो रोस ब्यापियो । मन मांहि भीलड़ेनुं मारणरो दाव रोपियो । ईण संकोचसू बोलियो तो नही। जाणियो दीवाण जावण न देसी । हर' जाणसी जाय छै तो ही गया थकां पाछो बुलाय लेसी । ईण भांत दिन पांच सात प्राडा घातनै एक तो साथ रजपूत अर येक चाकर सो भी मजबूत । दोय आदमी साथ लेनै जिण मैवासामै भील रहतो तठे ही आप जाय पहौंतो' । __ पछै रावतजी- षबर हुई सौ पाछो बुलावणरो तलास तो घणो ही कीधो । पण ईणरो सोध किण ही न लीधो। १. परष - परीक्षा । परख<परक्ख. परीक्खा <परीक्षा। २. सषरा - श्रेष्ठ । ३. जिरण बेळारो- जिस समयका। ४. म्हारा पिंडरी- मेरे शरीरकी, स्वर्षकी । ५. थथोपियो - स्थिर किया, शान्त किया। ६. मुंहडे - मुंह पर । ७. ब्यापियो - व्याप्त हुना, फैला । ८. रोपियो - निश्चित किया। ६. जावरण न देसी - जाने नहीं देंगे। १०. हर - और। ११. प्राडा घातन -- सामने डाल कर, व्यतीत कर । १२. मैवासाम - वन प्रान्तमें, जंगल में । १३. तठे हो - वहीं । १४. पाँतो - पहुंचा। १५. सोध - शोध, खोज। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात अर भीलनै षबर हुई । म्होकमसिंघ इण बनीमै आदमी दोयसू आयो छ। सो ओर तो कांम कोय दीस नही मोनें ही मारणY ध्यायो छै। पण अबरकै षबर पड़सी। देषां किण बाय मोसू अड़सी' । तीन आदम्यांरी कासूं बात । जिके मो सारीसा छळ बळ दाव जाणे जिकणसू' करै घात । ईतरी बात धार रावत प्रतापसिंघ- कहायो। ईसा दावांसू तो हूं न मरस्यूं । प्रो म्होकमसिंघ जीकुं हांसीमैं11 जहर चार्ष छै'। मैं तो मोटा सिरदार छ । पण ठीकरी घड़ान फोड़ न्हापै छ । सो म्होकमसिंघ तो बड़ी धक' अर तलासमैं लाग रह्यो छ । झाड़ झाड़ पहाड़ पहाड़ हेरतां थकां रात दिन एक सौ क्रोधमै जाग रह्यो छै। पण एक दिन ईसड़ो दईव संजोग हुवो सो म्होकमसिंघ तो हिरणरी सिकार मूळ'' बैठो थौ। अर साथरो रजपूत हिरण टोळबानें बन १. बनीमै - वन में। २. प्रादमी दोयसू - दो प्रादमियोंके साथ। ३. कोय दीस नही - कोई दिखाई नहीं देता। ४. मारगनुं ध्यायो छै - मारनेको दौड़ा है। ५. अबरक - अबकी बार । ६. वाय-भांति, तरह। ७. मोसू अड़सी - मुझसे पड़ेगा, मुझसे लड़ेगा। ८. सारीसा - जैसे। ६. जिकणसू- जिससे । १०. दावांसू- दावों से, चालोंसे । ११. हांसीमैं - हंसी में। १२. चाष छ- चखता है। १३. ठीकरी "न्हा - मिट्टीके बर्तनका एक छोटा टुकड़ा भी घड़ेको तोड़ देता है। एक ___ कहावत है, जिसका तात्पर्य है कि सामान्य व्यक्ति बलवानको हरा सकता है। १४. धक - जोश, उत्साह । १५. हेरतां थकां - ढुंढते हुए। १६. दईव संजोग - देवयोग । १७. मूळ – शिकारगाह, शिकार करनेका स्थान । १८. टोळबाने -घेरने के लिये। शिकारमें जानवरको घेरा डाल कर या प्राधाज कर शिकारगाहके पास लाया जाता है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ २७ मांहि पैठो थो। चाकर कनै थो जिकण कनां जांमगी कळरै लागी थी। अर भीलरी काळरी घड़ी प्राय बागी थी। इतरामैं वो भील अचाणचको उण हीज गैलै आयो। चाकर देषियो पर मन भायो। चाकर कन बंदूक थी। अर जामगी कलरे लागी थी। सो रोसरी धकधार" पर कही। रावतजी सलामत ओ भीलड़ो हरामषोर । प्रथीरो चोर । काळरो षादो। मोतरी जेवड़ीरो बांधो । प्रो पावै । ईणनूं देषीजै। अरु हुकम होय तो गोळीरी दीजै । तद वां देषनै कहियो। गोळीरी तो न देणी। इण लौंडरी' भी मजबूती देषणी । सांचवटसू अंगो अंग बाकारनै मारणो। अरु प्रथी प्रतीष चोषको बचन उबारणो। १. कनै – निकट । २. जांमगी - मध्यकालीन तोप या बन्दूकको चलानेके लिये उसमें भरी हुई बारूदको बारूद लगे हुए धागेसे जलाया जाता था। ऐसे बारूद लगे हुए धागेको जामगी कहा जाता है। ३. कळरै - कलके, बन्दूकके चलने वाले भागके । ४. बागी - बजी। ५. अचाणचको - अचानक । अचानक शब्दका सम्बन्ध "अज्ञान" से जोड़ा जाता है, जैसे अचानक <अजाणक<अज्ञानक<अज्ञान । एक मतसे अचानकका सम्बन्ध 'प्रचाणक्य' से भी माना जाता है अर्थात् ऐसा कार्य जिसकी सूचना चाणक्य जैसे तीन बुद्धिके व्यक्तिको भी न हो । वास्तवमें 'अचानक' उर्दू शब्द है । ६. गैल-मार्गमें । ७. रोसरी धकधार-क्रोधके प्रावेशमें । ८. मोतरी 'बांधो-मौतको रस्सीसे बंधा हुआ । मुंज या सण की बनी रस्सी को जेवड़ी कहते हैं। ६. लौंडरी - लौंडेको, सामान्य लड़केके लिये तिरस्कारयुक्त अभिव्यक्ति । १०. सांचवटसू- सचाईसे। ११. अंगो अंग - अंगसे अंग भिड़ा कर, शरीर-युद्ध में । १२. बाकार - ललकार कर, सचेत कर । १३. प्रथी - पृथ्वी। १४. प्रतीष चोषको-प्रत्यक्ष भलाईका । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात दोहा-चित जिण मोटी चूक', अरि बिन बाकारे पड़े। बिढियो न्हाष बंदूक, इण प्रांट हरियंद तरण ॥१ असमर' बोडण साह , मारण पिसरणां" मलफियो । म्होकमरा मन मोह, चोष तणी अति चटपटी ॥२ बात ईण भांत बंदूक न्हांष ढाल तरवार लेने भीलरै सांम्हो हीज धायो नै पांवडा बीस तीसर॑ वाकारियो। रोसरो रूप परतष धारियो। सो बाकारतां ही भीलड़ो भी पर मालारोषांणहार' । उधारा प्रांटारो लेणहार । देस देसरा प्रांटा बेटा जारिया बैठो थो सो जोमरो मारियो नै रावतरो अध्रियावण रूप होय सांमोहीज आयो। नै बांह चढाय धंणी चठठाय रावत साम्हो तीर चलायो । सो अछंटरौ” रावतरा पगरै फूट पार जाय पड़ियो। अर तीर चलाय सांम्ही ही षड़ियो18 तीर पगरे फूटां थका जिण भांत आकाससूं बीज तूट" तिण १. चूक - भूल, अपराध । २. बिढियो - बढ़ियो, आगे बढ़ा, लड़ा। ३. न्हाष- डाल कर, गिरा कर। ४. हरियंदतरण - हरिसिंहतनय, म्होकसिंह । ५. असमर - तलवार । ६. बोडण साह - बादशाहको, भी हरा देने वाला। ७. पिसणां - पिशुनोंको, शत्रुओंको। ८. मळफियो- उछला। ६. परतष-प्रत्यक्ष । १०. पर मालारो षांणहार - पराये मालका खाने वाला। ११. प्रांटारो लेगहार - बैरका बदला लेने वाला। १२. पेटा- लड़ाई । । १३. जारिया - किये हुए। १४. जोमरो मारियो - गर्वसे भरा हुआ। १५. अध्रियावणं रूप - भयङ्कर रूप। १६. धंगी चठठाय - धनुष पर तीर चढ़ानेकी ध्वनि कर । १७. अछंटरौ - छूटते ही। १८. षड़ियो - चला। १६. बीज तूट - बिजली गिरे । national Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [२६ भांत भीलरै माथै' तूटि पड़ियो। जिण बेळां' आईहो' म्होकमसिंघ आसमान जाय अड़ियो। भील तरवार बाही । सो तो ढाल उपरां लीधी अर भीलरै माथै तरवाररी बाह कींधी। दोहा-अति पोरस धरि धष उमंग', षग बाही कर पोज । अरी तणां सिर उपरै, बज्ज पड़े किनां बीज ॥१ अरणचंग असमर प्राछटो, हरियंद सुतन हटाल'' । पिसण तणौं सिर पाधरो", तूट पड्यो तिण ताल'' ॥२ मटका जेहो मूंडडो'", पड्यो पाछटे षाग' । तोउ उछटे तूंबड़ो', दड़ो कि दोटे लाग" ॥३ बात इण भांत भीलनूं मार भीलरी साथ दोय च्यार आदमी था जिकांसू भी जाय अडिया। जिके भीलड़ा भी टूकड़ा टूकड़ा होय पड़िया। १. माथै - मस्तक पर, सर पर । २. जिरण बेळां - जिस समय । ३. आईहो - अहिहो, ऐसा। ४. बाही - चलाई। ५. बाह कींधी - प्रहार किया। ६. पोरस धरि - वीरता धारण कर । ७. धष उमंग – उमंगमें भर कर । ८. अरी तणां - शत्रुप्रोंके । ६. बज्ज - वज्र, इन्द्रका शस्त्र। १०. किनां बीज - अथवा बिजली। . ११. अरगचंग पाछटी - तलवारका अचूक प्रहार किया। १२. हरियंद हटाळ - हरिसिंहके हठी पुत्रने । १३. पिसरण तरणौं - शत्रुका। १४. पाधरो - सीधा। १५. तिण ताळ - उस समय । १६. मटका 'मूंडड़ो- मटके, मिट्टीके गोल बर्तन जैसा मुंड। १७. पाछटे षाग – तलवारके लगने पर । १८. तोउ' तूंबड़ो - तो भी तुम्बेको तरह वह उछलता है । १६. दड़ो कि ''लाग -जैसे गेंद प्रहार होने पर उछलती है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात 2 1 दृज्यू' उणरी रजपूती 8 I तिका भीलांरा माथा काटि रावत प्रतापसिंघरा हाथ्यांरा मूढा प्रागें नषाय दीया " । सो ईसड़ा तो चोष तीषरा तमासा म्होकमसिंघ किताई कधा । र ईण भीलड़ारा प्रवाज़ारी बात म्होकमसिंघरी जिताई # सो तो एक चोष तीषरी बात याद आई । दीठां प्रो तो कांसूं' प्रवाड़ी । उणारा तो असंक प्रवाड़ा पण ईण बात मांहे येक ही चाव | ज्यू माठारै बागै चांमठी तातारै लागै घाव " । ईण भांत उण रजपूतनूं पोतारतां नै तीष चोषरो बचन उचारतां " ईणरै तीषरो वचन जाय लागो । तिणसूं अंगो अंग जाय बागो । ज्यू प्रो तो बडी बडी बातांनू बाथ मारे - " । जे प्रका षड़हड़े -" तो एक बार तो आधार । जिणरै बड़े भाई बीजनुं कटारी बाई 14 ईणरी मनमैं तो उणसूं ही तोष सवाई | तिण समैं पातसाह अवरंगजेब पातसाही करें । तिण दोय तीन पातसाहांनु तो पकड़ 0 12 धा । श्रर कितराहेनुं पकड़ण अर मारणरा दाव दीधा । तिणरी धाक ईरान तूरांन रूमस्यांम फिरंग रूस चीन्ह म्हाचीन्ह'' ईण देसादेसांरा पातसाह ईणरा हुकमरा ग्राधीन सारा डरै । परहरै " । डंड भरें ' 17 १. हाथ्यारा प्रागें - हाथियोंके मुंह प्रागे । २. नषाय दीया - गिरवा दिया । ३. प्रवाज़ारी - प्रवादकी, युद्धकी। ४. जिताई - विजितकी, जताई, बताई । ५. दूज्यू - यों फिर दूसरी बात है है कि...। ६. दीठां - देखने पर । ७. कांसूं - क्या, कौनसा । ८. माठारै घाव - एक कहावत, जिसका तात्पर्य है कि व्यंग्यपूर्ण बात शान्त offeet छड़ीकी भाँति लगती है किन्तु तेज व्यक्तिके उससे घाव हो जाता है । ६. पोतारतां - प्रोत्साहित करते हुए, 'हाथियों को पोतारना' प्रसिद्ध है । १०. उचारतां - उच्चारण करते हुए, बोलते हुए । ११. बाथ मारे - हाथ में लेना, सर पर लेना । १२. षड़हड़े - टूट पड़े | १३. आधार - आधारित कर ले, रोक ले । १४. बीजनुं बाई - बिजली पर भी प्रहार किया । १५. म्हाचीन्ह - लेखकका तात्पर्य संभवतः हिन्द चीनसे है जो दक्षिण-पूर्वी एशिया में है । १६. परहर - भागते हैं । १७. डंड भरे - जुर्माना देते हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ३१ ईणनूं रुसाय' कुण आगवण करै। ईणसू आदमी कुण जो अडै । जिणसूं देव दाणव ही बिमुहा षडै । दोहा-संके बंका सात्रुहर, सूर पराक्रम सेर । अवरंग साह अवलिया, जग सहो कीधो जेर* ॥ १ राह दलां रषे रजा', पहो मनह षेपण । अभंग नवू षंड' उपरा, अवरंग फेरी पारण ॥२ बात ईसड़ो अवरंगसोह पातसाह । तिणरो पोतो अजीमसाह । नरनाह । बिजाई° पातसाह ।। दोहा-भारथ पारथ ज्यूं भिड़, सकजापगरी सीमा । गुमर न दूजांचो गिणे, एहो स्याह अजीम ।। बात जिकण अजीमसाहनुं बंगालारो सोबो दे बिदा कीधो। जिण बंगालामैं साठ हजार पठांगांरो फसाद उठियो तिकण मार लीधो। तिकणरी तईनातीमैं नाजर15 १ पातसाह कींधो । जिका पातसाहरो १. रुसाय -- क्रोधित कर। २. बिमुहा षड़े – मुंह फेर कर भागते हैं । ३. बंका सात्रुहर - बांके शत्रु। ४. जग' 'जेर - जिसने सारे जगतको व्यथित कर दिया है। ५. रषे "रजा - सेनाको अपनी प्राज्ञासे रास्ते पर अर्थात व्यवस्थित रखता है। ६. पोह' 'षेपांरण - मन में जबरदस्त ; नाश करने वाला। ७. नवू पंड - पृथ्वीके नव खण्ड, भारत, इलावृत, किंपुरुष, भद्र, केतुमाल, हरि, हिरण्य, रम्य और कुश। ८. पोतो-प्रपौत्र। ६. अजीमासाह - पोरंगजेबके शाहजादे मुअज्जमका द्वितीय पुत्र अजीमुश्शानसे तात्पर्य है। १०. बिजाई - दूसरा हो। ११. भारथ भिड़े - युद्ध में अर्जुनकी तरह लड़ता। १२. सक जापणरी सीम - परम पराक्रमी। १३. गुमर रि.रण - किसी दूसरेका गर्व नहीं मानता । १४. बंगालारो सोबो - बंगालका सूबा। १५. नाजर - शाही महलों में प्रायः नपुंसक नाजिरका (निरीक्षकका) काम करते थे। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात दसतूर जिकाही बसत वा आदमी दोढीमैं जाय जिणांनू देखनै जाबा देवै । घणौ हाजर रहै। किणहीसू स्याहजादो छांनौ बात करै तद भो भी आय कान देव । स्याहजादाकी दोढी प्र घणो तकरार करै । स्याहजादो ईणनूं तकरार कर कहै । थे तकरार करो छो पिण कैदी पातसाह वा कैदी स्याहजादांरो दसतूर छै । हूं सोबो साधू नै सरहद बांधू । तिणरी दोढी पर तकरार न षटावै । अठै तो केई तरैका जुवाब साल पावै। इण तरह मन कीधो' तो भी न मानी। प्रो तो राषै अवरंगजेबकी मरजीदांनी । तरां स्याहजादै उकीलांन' लिष तलास कर इणनूं तगीर करायो । सो पातसाह कनै जाय बहाल होय वाहीज षिजमत" लेर फेर उठे हीज आयो। तिण- पावतो सुण स्याहजादै माथौ धूण्यो नैं सिरबिलंदषांना कहियो। प्रो नाजर पावै छै । ईण- मारो । पण पातसाह न जांण तिका तरह बिचारो । तरै स्याहजादारो हुकम माथै धारियो । नै धीर जमीदार हुँतो तिणरौ नांव १. बसत - वस्तु, चीज। २. दोढीमैं – ड्योढ़ीमें, द्वारमें। महल अथवा घरके मुख्य प्रवेश द्वारको डचोढ़ी कहा ___ जाता है । क्योंकि इनमें मुड़ कर भीतर जाते हैं, सीधे नहीं। ३. छांनी- छिप कर, गोपनीय । ४. दोढी प्र[पर] धरणो तकरार कर - ड्योढ़ी पर बहुत तकरार करता है। ५. न षटावै - नहीं निभती। ६. जुवाब साल - जवाब-सवाल, प्रश्नोत्तर । ७. मनें कीधो- मना किया। ८. मरजीदांनी - कृपापात्रता। ६. तरा- तब। १०. उकीलांन - वकीलोंको। ११. तगीर करायो- बुलाया। १२. वाहीज षिजमत - वही खिदमत, वही सेवा । १३. माथौ धूण्यौ - सिर धुना। १४. सिरबिलंदषांनु - शेर बुलंदखांको। यह प्रोरंगजेबके शाहजादे मुअज्जमके द्वितीय पुत्र अज़ीमुश्शानका एक सेवक था। १५. नांव-नाम। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात ले उण नाजरनूं राहमैं हीज मारियो। पण वो तो पातसाह अवरंगजेब । जिणसूं छिपे नही किणहीरा मनरो फरेब । किणहीरा मनमै जिकोई काम प्रावै जिको नौ अवलिया थको पहली हो पाय जावै । अर हलकारा' घड़ी घड़ीरी षबर हजूर गुजरावै । तिकातूं किण भांत छिपै या बात । हलकारा, वाकानवीस, कुफियानवीस, डाक चौक्यां' अरज लिखै दिन रात । सो पातसाहसुं छिपी अरज पहोंती । सिरबिलंदषांसू रीस ठांणी । पर कैद कर किल चढावणरी मन मांहि प्रांणी। पण अजीमसाह आ मरजी पिछाण सोच कीधो अप्रमाण । स्याहजादो ईणनूं किणरै सरण म्हेल' । अवरंगजेबरी क्रोधानळ कुंण सीस झेलै । ईंण भांत बिचार करनें कहियो। पातसाहरो खूनी प्रागै भी म्होबतषां देवगढ हीज सरणे रहियो । दूजा राजा रांणा राव सो तो पातसाहांसू कोई न रोपै पाव । प्रा बात स्याहजादारे मन भाई । तद देवगढनै सारो हकीकत लिष चलाई । तिको देवगढरो घर किसो हेक ? दोहा-सकज दिली चितोड़सू, प्राडो सदा अभंग । रिण गहलो घर रावतां, जद तद मंडै जंग' । बात सो देवगढनूं हकीकत लीषी। सरबुलंदनै सरण राषीजै। अर १. हलकारा - हरकारा, खबरनवीस । २. गुजराव - विदित करें। ३. वाकानवीस'''डाक चौक्यां - मुगलकालमें समाचार वाकयानवीस, खुफियानवीस (गुप्तचर) और डाक चोकियों द्वारा प्राप्त किये जाते थे। ४. पहोंती - पहुंची। ५. ठांणी - ठानी, निश्चित की। ठांणी, ठाण, थाण, थानक आदि शब्दोंका विकास संस्कृत शब्द 'स्थान' से हुआ है। ६. सोच' 'अप्रमाण - असीम चिन्ता की। ७. किरणर 'म्हेलै - किसकी शरणमें रक्खे। ८. पातसाहांसू रोपं पाव - बादशाहके विरोधमें कोई खड़े नहीं होते । ६. सकज''अभंग - सदा ही अपने कार्यके लिये दिल्ली और चित्तौड़का विरोध करने वाला। १०. रिण ‘रावतां - युद्ध के लिये उन्मत्त रावतोंका घर (प्रतापगढ़) । ११. जद'जंग - जब तब, बार-बार युद्ध करता है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात मोसू ईतरो आसांन दाषीजै । आ हकीकत देवगढ आई । तरां कितराहेक तो बिचार सोच कीधो। अर म्होकमसिंघ सुणनै पहरिया बैठो थो सो सरपाव अर घोड़ो घणों धन षबरदारनूं दीधो। सो ओ तो म्होकमसिंघ उधारा प्रांटांरो लेणहार । सरण पायांरो साधार । दोहा-मंडै रिणथट मेलबै", कांटा काढणहार' । कल सिर उपरा टांकमौं', प्रांटा लेय उधार ॥ १ राव राजा सरणे रौं, महि असहां घड़ मोड़ । अभंग झिलै जग उपरां, अईवो कमां अरोड़:॥२ बात सो म्होकमसिंघ जाय नै उणहीज बेळा13 रावत प्रतापसिंघन कहियो। श्री दीवाण'* हूं घणां दिनातूं मनमैं बाछतो थो तिको मनरो मनोरथ हमै लहिये। मन मांहि आधष' थी सो अवरंगजेबसूं हर १. मोसूदाषी - मुझ पर इतना अहसान प्रकट कीजिये । २. पहरिया - पहिने हुए। ३. सरपाव - शिरोपाव, वस्त्राभूषण। 'सरपाव' को भेंट अादरसूचक मानी जाती है। ४. घणों - बहुत । ५. उधारा आंटांरो लेगहार - शत्रुताका बदला लेने वाला। ६. मंडै ‘मेलबै - युद्ध प्रायोजित कर मेल कराता है। ७. कांटा काढणहार - कांटे निकालने वाला अर्थात् खटकने वाली शत्रुताको नष्ट करने वाला। ८. कळ' ''टांकमौं - सिर पर युद्धको धारण किये रहने वाला। ६. प्रांटा'''उधार - उधार शत्रुता लेने वाला। १०. महि' मोड़ - संसारमें शत्रुओंकी सेनाको पराजित करने वाला। ११. अभंग उपरां - धरती पर अखण्ड रूपमें सुशोभित होता है । १२. अईवो' 'अरोड़ - महोकसिंह ऐसा वीर है। १३. उणहीज बेळां - उसी समय । १४. श्रीदीवाण-हे शिशोदिया रावत प्रतापसिंह। १५ बाछतो- वाञ्छना करता, इच्छा करता। १६. हमै - अब । १७. आधष -प्रबल इच्छा। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ३५. भांत चकमाली कर अड़ा लड़ां तो कै तो सुरगनुं षडां' के षंड बिहंड होय पंतमै पड़ां । हर रजपूतीरा जवाहरांनूं रूपकांमैं जड़ा। तिका परमेसुर अणचीती थकी कीधी । मन मांहे चाहै छा जिका ही आज प्राण बधाई दीधी। अब सरबुलंदषांनुं हूं जायनै ल्याउ । उणनै सरणै राषीजै । अरु मौंने हरोल कीजै नै अवरंगजेबसू लड़ाई अर प्रांटारी बात दाषीजै । जिण बेळारो म्होकमसिंघरो तेज अरु उछाह ईसड़ो दरसावै तिणरो कसुर बाषाण करै' तो ही उछाह अरु प्राक्रमरो पार न पावै । । कवित-कथ सांभल' ईम'' कमो, बिहद उछाह बधारे । बरण अरुण बिलकुले, सूरपरण सरग सधारे ॥ बंण नव जोबन बनौं', चौंप बीबाह करण चित" । किनां जीत संग्राम बले, षल भांज लोध पिता ॥ १. चकमाली लड़ां - छेड़छाड़ कर भिड़ें और लड़ें। २. षड़ां - जावें, चलें। ३. पंड पड़ां - टुकड़े-टुकड़े हो कर रण-क्षेत्रमें पड़ें। ४. हर' 'जड़ा - और राजपूती शूरवीरता रूपी रत्नोंको काव्य रूपी प्राभूषणों में सुशोभित करें। ५. अरणचीत – बिना सोची हुई, कल्पनातीत । ६. मौंन कीजै - मुझे युद्धके अग्रभागमें रखिये । ७. दाषीजै – कहिये। ८. उछाह - उत्साह । ६. कवेसुर''करै - कवीश्वर बखान करें। १०. प्राक्रमरो-पराक्रमका । ११. सांभळ - सुन कर। १२. ईम - ऐसे । १३. बिहद बधारे - बेहद, बहुत उत्साह बढ़ाता है। १४. बरण बिलकुले - लाल वर्ण, दैदीप्यमान होता । १५. सूरपण''सधारे - शरणमें पाए हुएको रक्षा करे । १६. बंग' 'बनौं - नवयौवनसे युक्त दूल्हा बन कर । १७. चौंप चित - चित्तमें विवाहको प्राकांक्षा धारण कर। १८. किनां "षित - अथवा युद्ध में विजयी बन कर और अपने बलसे शत्रुओंको नष्ट कर धरतीको लेता है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात उगियो बदन बारह अरक', बीर रूप सोभा बरण । देषियां हीज आवै बणे, तिण वेला हरियंद तण' ॥१ अंग रोम ऊल्हस तेज, चष मुष रातंबर । मूंछ भुहारां मिले", पांव नह लगै धरा पर ।। भुजा कंध उभार, उवर उछाह न मावै ।। अधर हास वोपवै'", छोह छक'' अति दरसावै ।। उफरणे उमंग गहमह अनत, बीर रूप सोभा बरण' । बे[दे]षियां होज प्राव बणे", तिण बेला हरियंद तरण ॥२ पताहत पाधरै, अरज कोधी तिरण प्रोसर । चित सदा चाहतो, मिल्यौ तिसड़ो हीज मोसर'" ॥ अबरंगसूं करि प्रांट", अडाण षागां दाषीज18 । १. उगियो' अरक - बारह सूर्योके तेजसे समता वाला उसके मुंहका तेज उदित हुआ। २. ग. घ. प्रतियोंमें 'बीर साद बोले वयण' पाठ है। ३. देषियांबणे - देखते ही बनता है । ___ ग. घ. प्रतियोंमें 'इळ वीच क्रीत राषण अमर' पाठ है। ४. हरियंद तण - हरीन्द्र तनय-हरिसिंहके पुत्र महोकसिंहका । ग. घ. प्रतियोंमें यह पाठ है-'गमर सीस लागौ गयण ।' ५. ऊल्हस - उल्लसित होता, सुशोभित होता। ६. चषरातंबर – लाल नेत्र और मुंह । ७. मुंछ मिळे - मूछे भोंहोंसे मिलती हैं। ८. पांव पर - उत्साहमें पैर पृथ्वी पर नहीं टिकते हैं । ६. उवर 'माव - उरमें अर्थात् हृदयमें उत्साह नहीं समाता। १०. अधर'वोपर्व - पोठों पर हास्य सुशोभित होता है । ग. घ. प्रतियोंमें 'वोपवैके' स्थान पर 'प्रोपवे' पाठ है । ११. छोह छक - पूर्ण उत्साह । १२. उफणे गहमह - समूहमें उत्साह उफनता दिखाई देता है। १३. अनत' 'बरण - अद्वितीय वीरता, रूप और वर्णकी शोभा। १४. ग. और घ. प्रतियोंमें 'आवै बणे' के स्थान पर 'वण प्रावही' पाठ है। १५. पताहत 'प्रोसर - उस अवसर पर सीधा प्रतापसिंहसे निवेदन किया । १६. तिसड़ो हीज मोसर - वैसा ही अवसर। १७. प्रांट - वैर। १८. अड़ण षागां दाषीज - तलवारोंसे लड़ना देखिये। ग. घ. प्रतियोंमें 'दाखोजे' के स्थान पर 'भाषीज' पाठ है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ३७ बिलंद जिसो बरयाम', राज सररण राषीजै ॥ संसार की न रहसी सिथर', सत्रा दहण रिण साररी । जावसी नहीं जाता जुगां, औ बातां ईण बाररी ॥३ बात सौ म्होकमसिंघ इसी मोटी बातांनं बाय" मारै । नित धारणा पाहीज धारै । कलिमै बात उबारै। जिण तिण बेढमैं ईणरी हीज पहल होय । इणरी जा बळ न आवै कोय । एक दिन समें जोग रावत प्रतापसिंघ कनै1 एक पंडित पुराणीक11 आयो जिकण बडा बडा ग्रंथारो समुद्रको सो पार दरसायो। तिणसूं रावत धरम सास्त्र पुराण विद्या पंडिताईकी चरचा कराई। १. बिलंद जिसो बरयाम - शेरबुलंदखां जैसे वीरको। __ ग. प्रतिमें 'वीरत धर उर वीच' पाठ है। २. ग. प्रतिमें 'रसा कीरत राषीज' पाठ है। ३. संसार' 'सिथर - संसारमें कुछ भी स्थिर नहीं रहेगा। ___की न' के स्थान पर ग. में 'क्रीत' और घ. में 'मांझ' पाठ है। ४. सत्रा' 'साररी- युद्ध में तलवार चलाने और शत्रुओंको मारनेकी। ग. में 'रिण सार' के स्थान पर 'उरसाल' पाठ है और घ. में 'सत्रा' 'साररी' के स्थान पर 'अभंग सार प्राचाररी' पाठ है। ५. ईण बाररी- इस बारकी, इस समयकी । ६. ग. घ. प्रतियोंमें बातसे पूर्व निम्नलिखित सोरठा दूहा हैं कवियां दाळद काय, लाषां लाष पसाव दे।। उ रावत परताप, हद वातां हरियंदतण ॥१ के केवी सिर काप, देवी हूंता भष दिया। ऊ रावत परताप, सायजादा सरणे रष ॥२ जग राषण जस वास, जु गम पता मोहकम जिसा । ईहगां पूरण प्रास, हद झोषा हरियंदतणा ॥३ ७ बाय - बान, प्रवृत्ति । बायके स्थान पर "बाथ" (बाहु) पाठ अधिक उपयुक्त है। ८. कलिमै - कलहमें, युद्ध में। ६. बेढमैं - युद्ध में। १०. कनै - पास, समीप । ११. पुराणीक - पौराणिक, पुराणोंका जानकार । १२. समुद्रको सो- समुद्र की भांति गहन । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात 1 जिका सारी ही सभाकै अर पंडितांकै दाय आई' । कितराहेक दिनां पंडतनु राष घणौं धन दान दिषणा दे बिदा कीधौ । पंडित भी राजी होय सरबाद दीधो । मन मांहे घणो सिहायो । बिदा होय प्रापरा घरांतु धायो । 3 जठे येक पीपलोद गांव मैवासा मांहे पूत । जिकांरै गढ नै मैवासो भी मजबूत । जिके मैवासी हुवा थका दोड़ धाड़ा' करै । जिण किणहीसूं न डरै । टणकपणा मैं तो भला रजपूत । पण मैवासा सबब करें चोरी गोहरीरो पण सूत । तिके छत्री धरम " तो न बिचारियो । उण पंडतनुं मारियो । घणो धन देष लेणरो लोभ धारियो । 9 0 I आ बात रावत प्रतापसिंघ कनै आई । सो सारां हीनूं न सुहाई । तद रावत वानूं कहायो थे प्रो कासूं" कर्म कीयो । ईसा पंडतां मार धन लीयो । प्रा रजपूतीकी रीत नही जको यां लोगांने लूट अर मारे यांने तो दान दिषणां देवो ही बिचार । थे मैवासी छो तो ओर जायगां दोड़ा-धाड़ो करो | म्हारै कनै आवे जावें जिकणसूं तो डरो । यांको धन तो परो दिरावो । रु ब्रह्महत्याको प्राछत करावो 14 । नही तो पछे ही पिछतावस्यौ । निदांन मारया जावस्यौ1" 1 2 3 15 १. दाय आई - समझमें आई, स्वीकार की गई । २. दिषरणा - दक्षिणा । ३. आसीरबाद - श्राशीर्वाद । ४. सिहायो - सराहना की । ५. मैवासा मांहे - जंगल में, पहाड़ोंमें। ६. डोडिया - राजपूतोंकी एक शाखा । ७. धाड़ा - डाका, चोरी । ८. रणकारणा में - सामर्थ्यमें । ६. चोरी सूत चोरी - डाकेका कार्य भी । १०. छत्री धरम -क्षत्रिय-धमं । १२. कासू - कैसा । १२. यांको - इनका । १३. परो दिरावो - दे दो । 5 । जठै रहै डोडिया' रज • १४. अरु करावो और ब्रह्म हत्याका प्रायश्चित कराओ । १५. पिछतावस्यो- पछताओगे । १६. निदांन जावस्यो- प्रन्तमें मारे जानोगे । - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ३६ जिका तो कयोन कीनौं। हर करड़ो ही उतर पाछो दीनों। कह्यो रावतजी म्हारै उपरै आयनै कासं षाटसी । म्हारी राड़ छै कालरी झाट सी । राणौंजी अरु सूबो में भी म्हांसु टाळो दे छ । वारी' धरतीमैं म्हे चाहा सो करां छा पण म्हारो नांव न ले छै । रावतजी- प्रांवणो छ तो बेगा कीजै असवारी। भली भांत मनवार करस्यां । अठै तो सदाई रहै छै जिण तिणसूं गोठरी तयारी । इण भांत उतर दे मेलियो । रावतजीरो हुकम माथै न झेलियो । सो सुण रावतनु अपरती रीस चढी । तिका रावत, तो आगे ही रीस चढी थी। ईण प्रागै कासू मैवासो नै कासूं गढ गढी थी । पण मोटारी आ ही रीत । चालै सास्त्र हीकी रीत। जिणमारणौ होय तिण-1 एक वार तो कहावै । समझ जाय तो भलाई नहीं तो सज्या" तो पावै ही पावै। ईण रीतरे वासते कहायो । न्ही तो उण- तो उणहीज बेळा रोस आयो। आ बात सुणता ही डेरा १. कयो - कहा हुआ। २. हरदीनों - और फिर कठोर उत्तर ही दिया। ३. षाटसी - कमावेंगे, प्राप्त करेंगे। ४. म्हारी राह झाट सी - हमारी लड़ाई कालके झटकेकी भांति है। ५. राणौंजी अर सूबो- उदयपुरके महाराणा और मुगल-साम्राज्य के सूबेदार । ६. टाळो दे छ - टलते हैं, बचते हैं। ७. वारी- उनकी। ८. नांव-नाम। ६. बेगा - तुरन्त, जल्दी। १०. मनवार करस्यां - मनुहार करेंगे, युद्ध करेंगे। ११. गोठरी तयारी - गोष्ठिकी तैयारी। सम्मिलित प्रानन्द-भोजको राजस्थानमें गोठ ___ कहा जाता है। यहां युद्धसे तात्पर्य है । १२. मेलियो- भेजा। १३. न झेलियो - नहीं रक्खा, नहीं स्वीकार किया। १४. ऊपरती रीस - तेज क्रोध । १५. मोटारी - बड़ोंकी। १६. तिणन - उसको। १७. सज्या - सजा, दंड। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात 6 बार कीधा' । र गढ तोड़बाका सारा ही सामान साथ लीधा । बडी बडी तोपां घणां जूटां स्त्री [ थी ] षीची हालें । जिकांरै पाछे मस्त हाथी टला देणनूं चाले । बाणांरा उट ठाठड्यांका थाट | जिकांमैं बडी छोटी केई घाट । वडा ऊंचा रिण गढ । तिकांसूं गढ लगायनै घणा छछोहा' रजपूत होय जिके तुरत ही जाय चढ़ | नीसरणिया ' गाडा उंटां उपरा धराई । दारु' सीसा" लोह सिणरी " गाडियां ऊपर भार" भराई । बेलदार पर कुहाड़ी बरदार जिकांरी जमात दस हजार । जिके बनकटी' " करें पर मोरचा बणावै । सुरंगां षोदै अरु दमदमा चुनावै । रुईरी बरकियांरा' " गाडा । जिके बंदक भरबानूं आवे आडा" । लकड़ियांरा तिवाव'" । तिकांसू भुरजां ' षोदबारा दाव । छकड़ा भरिया जालियां " फेर देणी कितराहेक 2 .13 4 15 17 18 19 20 १. डेरा बारे कीधा - तम्बुनोंको बाहर निकाला । २. तोड़बाका - तोड़नेके । ३. घरां हाल- बहुत समूहोंसे खींचने पर चिले । ४. टला - धक्का | ५. बारणंका थाट - बाणोंसे लदे हुए ऊंड और ठाठड़ियोंके समूह । ठाठड़ियों में तीर भरे जाते थे । . ६. केई घाट - कई प्रकारकी । ७. छछोहा - तेज, चंचल | ८. नीसरणिया- सीढ़ियां । ६. दारु - बारूद ( दारूका अर्थ मदिरा भी होता है किन्तु यहां बारूदसे तात्पर्य है ) । सीसा - शीशे श्रर्थात् जस्त से बनी गोलियोंसे तात्पर्य है । १०. ११. सिगरी सनकी, जूटकी । तोपों और बन्दूकोंको भरने श्रादिके लिये इसकी श्रावश्यकता होती है। १२. ऊपर भार निकलते बोमें, बहुत । हुए १३. बेलदार'''बरदार - मजदूर और भारवाही श्रादि । १४. बनकटी करे - जंगलोंकी कटाई आदि । - १५. दमदमा - एक प्रकारकी तोपें । १६. बरकियांरा - रूईके जमे हुए परत । १७. श्रावै प्राडा - सहायक बनें । १५. तिवाद - तिपाये । १६. भुरजा - बुजें । २०. जालियां - सामान लादने, बाँधने श्रादिके लिए जालियोंकी ( बकरीके बालोंकी श्रथवा खीपकी बुनी पट्टी) श्रावश्यकता होती है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ४१ . बणसटियांरा ढोल' । महताबां छीकादार अरु चोरमार' । जिकां पर आदमी तईनात पयादा अर असवार । गोफणियांरी देणी च्यारु तरफांसू भाट-भोट" । जिकारै बीच-बोच फिरंगी हुकारी" पण चोट । सुरंगा उडावणरो मुसालो' । तिका लीन्हा हाजर फिरंगी रसालो । जिका फिरंगी हीज गोलंदाज । ज्यां आगै गढ तोड़बारा केई ईलाज । गढ तोड़बारा जूनां ने नवां उपाव' । तिकांरी तयारी करै रावत लागो थको चाव । घणा समर-पंडित तिके नवां नवां अषरा करै । त्यांनूं देषिया नै सुणयां बडा बडा गढपती थरहरै । भांत भांतरा ईलाज साजरी नवी नवी उपंगा उठावै । जके उणहीज बेळा नवी नवी रीझां मोजां पावै। जको म्होकमसिंघ सारो सराजाम आंणनै दीठो। सो भो तो सदाई रोषातो नै निरकुरतो दोठो । तिका देषनै मन मांहि इण भांत आणी। रावतजी तो ईतरो घाट कीधो पण म्हे तो देषता ही गढ उड पड़स्यां। जिण भांत उड पड़े बेदाणी"। प्रो तो थाट सारो पड़यौ हीज रहसी । उठे तो कूद पड़िया पछै कोरड़ी तरवार हीज बहसी । १. बणसटियांरा ढोल - बणके (कपासके पौधोंके) ईठलोंके भार । सं० वणयष्टि । २. महताबा'' 'चोरमार - महताबें जिनको लटका कर प्रकाशित किया जाता और चोरोंको मारा जाता। ३. पयादा अर असवार -पैदल और घुड़सवार । ४. गोफणियारी - गोफनोंकी, पत्थर फेंकनेका एक साधन । ५. भाट-भोट – बहुत, लगातार, तडाभड़ी। ६. फिरंगी हुकारी - हुक्केकी प्राकृतिके विलायती शस्त्रकी। ७. मुसालो - मसाला, बारूद प्रादि । ८. फिरंगी रसालो - विलायती अश्वारोही सैनिक टुकड़ी। ६. गढ'''उपाव – गढ़ तोड़नेके प्राचीन और नये उपाय । तब तक कई यूरोपीय शस्त्र और अन्य युद्धके साधन भी भारतमें प्रचलित हो गये थे। १०. अषरा - अक्षर, लिखित योजनासे अथवा अखाड़ा या व्यूह-रचनासे तात्पर्य है। ११. उपंगा - उपाङ्ग, युद्ध-सज्जाके विभिन्न अङ्गोंसे तात्पर्य है। १२. सराजाम आंगनै दीठो- सरंजाम अर्थात् सामान और प्रबन्ध पाकर देखा। १३. रोषातो 'दीठो - रोषाक्त, क्रोधी, बड़बड़ाने वाला और हठी। १४. ईतरो- इतना। १५. बेदाणी -बाज पक्षी । १६. कोरड़ी बहसी- केवल तेज तलवार ही चलेगी। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात इण भांत म्होकमसिंघ देष हंसनै चल्यो गयो। मूढातूं' तो काई बात न कही। पण मरजीदांन' था जिकां मनरी लही। म्होकमसिंघ गढ देषतां ही उड पड़सी। पर ईणरै माथै घणौं अमांमौं सीरोहीयांरो फूलधारांरो बाढ झड़सी । म्होकमसिंघ डेरे जाय जांगड्या अर ढाढी गवाया। जको मरजीदांन जिकां केयक षंमायची अर केयक सीधूरा दूहा सुणाया। तिण बेळां साथ्यारै छक प्रावै छै । तोणांनु दूणां त्यौणा अमल करावै छै' अर म्होकमसिंघरा मनकी उमंग न मावै छै । उण बेळारो रूप अर चोप देष्या ही बणि आवै छै। ज्यौ छकियौ छैल पर गैलरा साथियांनुं चौंप चाव चितावै छ । ईण भांत हंसतो हंसावतों उमंग उफणावतो थको निपट ताता झांप षाता टापां उपर टापां देता कांछयां पर चढचा' । अरु फोजसू बढया जिका घोड़ा असवारांरो रंग ईसो नजर आवै। प्रागै गढ तो कितेक बात पण दावागीरनै तो उरसमैं जाय झपट ल्यावै। तिको उरसरा खेलणहार। गढांरा भेळणहार । अणपूछिया ही दीसै1 । राड़रा म्होरी अहीज होय बिसवा बीस । तिको प्रो तो सदाई कवांरी घड़ारो भेळणहार । रिणरो रिझवार । चवरी उपर बींद जाय जिण भांत १. मूढासू- मुंहसे। २. मरजीदांन - कृपा-पात्र । ३. घणौं झड़सी - अनेक तलवारोंका असीम प्रहार होगा। सीरोही और फूलधारा तलवारोके भेद हैं। ४. जांगड़यां पर ढाडी - जांगड़ और ढाढ़ी, राजस्थानको विशेष गायक जातियां हैं। ५. केयक' 'सुरणाया – कई खमायची और कई सिंधू रागके दोहे सुनाये । ६. छक - तृप्ति । ७. अमल करावै छै – अफीम खिलाते हैं। ८. पर गलरा' चितावै छ - पीछे रहने वाले अर्थात् निरुत्साही साथियोंमें उत्साह और चाव प्रकट करते हैं। ६. निपट ताता चढ्या - निपट तेज, झांप खाने वाले और टापोंका प्रहार करने वाले कच्छी घोड़ों पर सवार हुए। १०. पण झपट ल्याव - किन्तु विरोधीको तो प्राकाशमें जाकर भी झपट लावें। ११. भेळणहार - नष्ट करने वाले। १२. दीस - दिखाई दें। १३. राडरा' 'बीस-मानो युद्ध में अग्रणी वास्तव में यही हो। १४. कवांरी घड़ारो- नहीं लड़ी हुई, अछूती सेनाको। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ४३ बिहसतौ बिळकुळतो अळवळियो भवर' हुवो थको ताषड़ो कंवरांरा साथनू लेने तुरी तोरिया । जका पैलांरा घणा थाटमै ओघाट घाट जिकण उपर अोरिया । जठे पड़णहार पड़िया। अर सिरोहियांरा सार झड़िया । चढिया घोड़ा गांव भेळ दीधो । नीसांण आपरो षड़ो कीधो। पाछासू तोपषांनों ने हरोळरो साथ' आयौ तिकां गांव तो भेळयौ हीज पायो। रावत प्रतापसिंघ बडा सांमान नै बड़ी फौजारा घसार लीधा थका गढ आंण लागा। पर बिसररां @िबागल ठोड़ ठोड़ बागा। दोहा-षगां उलंघा कर षिवै'", चीत असंगा चाय। वागां सीधू बीर डंक", लग्गा रावत आय ॥१ चडिया छोह बहादुरा, जड़िया जरद जवांन । रूड़िया त्रंबक राडरा, अड़िया भुज असमान' ॥ २ १. अळवळियो भवर - अलबेला युवक । २. ताषड़ो - पुष्ट, तेज, तगड़ा। ३. तुरी तोरिया - घोड़े चलाये। ४. पैलारा' 'प्रोरिया -विरोधियोंकी भारी सेनामें जो विशेष वीर थे उन पर आक्रमण किया। ५. गांव भेळ दीधो- गांव नष्ट कर दिया। ६. नीसांरण - निशान, चिन्ह, ध्वजा । ७. हरोळरो साथ - हरावल अर्थात सेनाके अग्रभागका साथ । ८. घसार - समूह । ६. बिसररां' 'वागा - युद्धके नगारे स्थान-स्थान पर बजे। १०. षगां' "षिवं - अपार वीरतासे तलवारें चमकाते हैं । ११. चीत''चाय - चित्तमें शत्रुओंसे लड़नेको चाहना करते हैं । १२. वागां' 'डंक - सिंधूराग होने पर और युद्ध के नगारे बजने पर । १३. छोह - क्षोभ, क्रोध। १४. जरद - जर्व, रक्त वर्णके, तमतमाते हुए रंगके । १५. रूड़िया त्रंबक राड़रा - युद्ध के नगारे बजे । १६. अड़िया भुज असमांन - भुजाएं पासमानके (माकाशके) जा लगीं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात बात ईण भांत नौबतिया' दो तरफां गड़ी गड़ी । उपड़बा लागी बगतरकी कड़ी कड़ी। हर नाचबा लागी बडी बडी। जिण भांत ढोलड़ी बागां नटनूं नच नची लागै । ईण भांत ईण बेळां रजपूतांरी रजपूतवट जागै । अब धावण ज्याका बधांवणां' । नांवड़ा उबारणां । १. ग. घ. प्रतियों में निम्नलिखित पद्य बातसे पूर्व अधिक हैंकवित्त - नाट वचन नां कहै, झाट दे षागां झोके । दाट देत दाळद्र काट रिम मारग रोके ।। थाट अरिद उथाल, षाट घालिया षिनायै । वाट लूटतां वेढ, लाट पर भोम लिया । जोधार इसा दाष जगत, इलमैं नाव उबारियां। दाव लै घणां बंका दुरंग, तिके पांण तरवारियां ॥ १ सोरठा -रिण जंग वागां रोस, अण भंगरौ दीठो इसौ । 'जिण रंग इसड़ो जोस, जांण भमंगज गावियौ ।। १ डारण समर अडोल, मारण चढयौ मैवासियां । तिण कारण पग तोल, बोल उबारण वसुमती ॥ २ अमर करण प्राषियात, समर लड़ण चढ़ियों सही। मरण न भय तिल मात, डरण करणरी प्रापड़ी ।। ३ कवित्त - दारूरो गंज देख, मरद को अगन मिळावे । कोप्यौ केहर कोप. षांत करने षिजराव।। निरर्ष काळो नाग, पूंछ पर कुण पग मेले । रूठी होवे रुद्र, झाळ तिगरी कुण झेले । इण भांत पतौ रावत अभंग, वाचा सिध प्रोपे बयण । मेवास नास मेलूं मुकर, गुमर धार लागो गयण ॥१ २. नौबतिया - युद्धके नागरे । ३. गड़ी गड़ी - गड़गड़ाये, बजे। ४. उपड़बा लागी - उभरने लगो, उखड़ने लगो। ५. ढोलड़ी 'लाग - ढोलक बजने पर नटको नाचनको प्रबल इच्छा होती है । ६. रजपूतवट जागे - क्षत्रियत्व जागृत होता है। ७. धावण ज्याका बधावणा - दौड़ लगाते हैं अर्थात् वीरता प्रकट करते हैं उनको बधाई दी जाती है। ८. नांवड़ा उबारणा - नाम उबारना, नाम अमर करना । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात हर गीतड़ा' गवावणां । दोहा-उतर घोड़ा प्राविया, उछाछलां अरोठ । अंगा चाक चहोडिया, धिषती तोड़ा ढीठ ॥१ बात ईण भांत बात कहतां तो बार लागे। रंजक जागी । कनां तोपषांनारी ईक पलीती दोगी । हर गोळा छूटी। अर औ पण तोपांरा आगोळां । किनां भूषा नाहरांरा सा टोला' । दागिया बांण किनां आकासरा सिचाणरी नांई तूटा । जिण समैं बीरहाक किलकार बागी' अर महा प्रळे काळरी सी घड़ी जागी । जठै मांहिलो बंदूका छूट छ । जको येक येक गोळी दस दस आदम्यांमैं फूटै छै । लोथ पर लोथ पड़े छै । पर मोतियांकी सी माळा झडै छै। जका लोथियारा पगथिया कर कर घणा हेतू भाई भतीजा बाप बेटा उपरां पग धरता अर घणों हरष" करता कोटमैं पड़ण, धावै छै। त्यां उपरा अपछरांरा बिमाण घणां सांघणां अड़बड़ावै छै । यारो छछोहापण इसो सो अपछरारा १. गीतड़ा - गीत, राजस्थानी भाषामें काव्य सम्बन्धी छन्द विशेष, जिसके कई रूप होते हैं। कहावत है कि 'नाम गीतडांस होवे ।' २. उछाछलां अरीठ- चञ्चल शूरवीर । ३. अंगा चाक चहोडिया - अंगोंमें वीरता धारण कर। ४. धिषती तोड़ा ढीठ - वीरता और दृढ़ता प्रकट होती थी (?) ५. रंजक जागी - बाती जलाई गई (?) ६. ईक पलीती दागी - एक पलीता दागा गया, पलीता-तोप चलाने के लिये जलाया __ जाने वाला कपड़ेका टुकड़ा। ७. नाहरांरा सा टोला - शेरोंके से झुण्ड । ८. सिचागरी नाई तूटा - बाजकी तरह टूटे। सिचाण शब्द सं. सचानका अपभ्रंश ६. बागी - बजी, हुई। १०. पगथिया - सीढ़ियां, सोपान । ११. घणों हरष - बहुत प्रसन्नता । १२. अपछरांरा बिमारण 'अड़बड़ाव है - अप्सरात्रों के विमान बहुत समीप आवाज करते हुए उड़ते हैं। १३. छछोहापरण - तेजी। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात बिमांण ही पाछै रहै छै। अर यांरी कटारियां हंस हालिया पछै कोटनूं जाय जाय बहै छ। तिको अपछरा माळा पकड़ियां चक्रत चित होय रही छै। मन मांहि आधारै छ । म्हे तो ईण- अठै बरियो* पण ईणरी कटारी तो कोटन जाय जाय बहै छै। ईण भांत पड़ता लड़ता लड़षड़ता नीसरणीयां लगायनै चढे छ । कितराहेक पाछै छै तिके आगे होयनै चढ छै । तिके प्रागै चढ्या तिकांरां कांधा पीठ उपरा पग दे दे नै आगार्नु परहरै छ। तठे यारो चाव नै धाव देष जमरांण" पिण डरै छ । मन मांहि यो उसवास' धरै छै । कोटकातूं मलफने मो उपर बाहै पाय । मैं तो आदमी नही कोई महा प्रलयकाळरी लाय" । औ तो ईसड़ा ई बलाय । जिकांसू जम ही टाळी दे जाय। ईण भांत नीसूरणियां चढै छ। अर चढता थकां गोळियां लागै छ सो उलट उलट पड़े छ । दोहा-पिंड गोली लगीया पड़े, भड़ पाछा ऊछाह। जांणक नट उलटिया, पट हुता पछाह" ।। १ १. हंस हालिया पछै - प्राण निकलनेके पश्चात् । हंस प्राणको भी कहा जाता है । २. चक्रत चित - चकित चित्त, भ्रमित चित्त (वीरोंके युद्ध-कौशलसे)। ३. आधार छ - निश्चय करती हैं । धारणा करती हैं। ४. बरियो- वरण किया। ५. परहरै छै - बढ़ते हैं, चलते हैं । ६. जमरांण- यमराज । ७. उसवास - डर, चिन्ता, उच्छ्वास । ८. मलफनै - कूद कर। ६. बाहै - चलावे। १०. लाय - लपट । ११. टाळी दे जाय-बच कर जावे ।' १२. पिंड - शरीर। १३. भड़ आछा अछाह - श्रेष्ठ और उत्साही वीर । १४. जांणक - जानो, मानो। १५. पछाह -पीछे। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात बात तिको बारला तो कठा तक दीजै दाद । पण माहिलारी भी रजपूती हदसूं ज्याद । जिके इण गजब- चाहनै पाहुणां करै । जिके पिण इसडा ईज होय जिको पांणीरो लोटयो रूड़ाहीज भरै। जिको बारला तो निपट अमांमी अनांघात अदभुत अछुती रजपूती करै छै । पण माहिला तो इणरो भै तिल मात भी न धरै छै । घणो गुमर नै बोझ लीधां थकां बांका बचन बरबरे छै'। अर घणी मनवारिय्यां' करै छ । तठे गोळिणारी पड़े छै ताड़। तिको गड़ारी सणक किनां घणां मेहरी बोछाड़ । इण भांत घणी सांघणी मार दे छै । अर दारूरा प्याला लै छै' । घणां बेउ सवाय रस बिलासमै ठाउ हुवा थका आलूधा भंवर। एकसूं एक चढता डोडियारा कवर । घणां नेठाव'' अर घणां चावसूं बादो बाद" गोळिया चलावै छै। चोटरी रीझ पर गोठरी होड' लगावै छ। मनुहारिया कर कर दूणां दोढा : १. बारलांनू - बाहर वालोंको, गढ़ पर आक्रमण करने वालोंको । २. दाद - प्रशंसा। ३. माहिलारी -- भीतर वालोंकी, गढ़वाप्तियोंकी। ४. चाहनै पाहुणां करै - चाह कर महमान बनाते हैं अर्थात् जानबूझ कर लड़ते हैं। ५. भै - भय । ६. गुमर - गर्व । ७. बरबरे छ - बोलते हैं। ८. मनवारिय्यां - मनुहारें। ६. ताड़ - तडातड़, बौछार । १०. गड़ारी सणक - प्रोलोंकी वर्षा । ११. दारूरा' ले छ - मदिराके प्याले पीते हैं। १२. बेउ - दूसरी बार प्रोटाई हुई तेज मदिरा । १३. ठाउ हुवा थका - तृप्त हुए, मस्त हुए। १४. अलूधा - भालुब्ध, लोभी। १५. डोडियारा कवर - डोड़िया राजपूतोंके पुत्र । १६. नेठाव-हठ। १७. बादो बाद - बढ़ा बढ़ी, प्रतिस्पर्धा । १८. गोठरी होड – गोष्ठी अर्थात् प्रीतिभोज वेनेका बराबरीका वचन । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात अमल करावै छै । अर अमांमां' तीरंदाजांनै चोंप चढावणरी बातां बतळावै छै जिणांरी चोट अमांमी लागै छ । तिणांनुं हाथसू प्याला दीजै छै अर रीझा कीजै छै। घणां मीह जामा अतरमैं तिलवाय कीधा तिकांरा बंध छाती उपरासु षोल दीधा छ । जिके पुल रया छ । घणां मोतियांरी माळा नै जवाहरांरा जाळ उर उपर रुळ रह्या छ । माहो माह गुलाब छिड़कीजै छै । चनण अरगजा गातां उपर लगाईजे छै । अपछरा बरण- अर सुरग मांहे बघर करण→ चोप जगाईजै छ । तिको अणपूछिया ही किसडोहेक दीसै । अ तो अपछरा परणे ही बिसवा बीसै । के तो नवल बनां आलीजा पनां' सेजसू रस भीजिया थका अबारूं ही उठ धाया छ । कै चोंप रीझ ठाणबानु' महल रंग माणबा! अब उठ धाया छै । जरकसी बादळांरी पाघां जिकांरा ढीला पेच उपरां लाबा पटांरा पेच बडा पेचांसं बांध राष्या छ । जिकांमैं उळझिया थका मोतियांरी लड़ारा पेच केयां केयां न्हाषिया छ । तिके ईण भांत बणिया थका छैल नजर आवै छै तिकौ झै सारा ही मगरूररा फैल12 । बेपरवाह हुवा थका बाह करै छै । जिण भांत बाग मांहि हदफरी चोट धारै ईण भांत ईण बेळांमै चोप १. अमांमां-तेज, कुशल । २. घरणां मीह - बहुत महीन। ३. तिलवाय कीधा - तर किये। ४. रुळ रह्या छ - बिखर रहे हैं। ५. चोप जगाईजै छै - इच्छा प्रकट की जा रही है। ६. बिसवा बीसै - पूरी तरहसे, अवश्य हो । ७. आलीजा पनां - प्राली जहाँपनाह, पादरसूचक प्रयोग । ८. अबारू ही- अभी ही। ६. ठाणबानु - निश्चयके लिये। १०. महल रंग मारणबानु - महल में प्रानन्दोपभोगके लिये। ११. न्हाषिया छ - डाले हैं। १२. मगरूररा फैल - मगरूरके तुफैल । १३. बाह करै छ - प्रहार करते हैं। १४. हदफरी चोट धारै - चांदमारीका, गोली चलाने के प्रयासका प्रहार करते हैं। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ४६ धारै छै । हाथां पास बंदूकां नवलासी' ज्यौ लीधां फिरै छै । जिका बंदूकार म्हौरीयारे फुलारा हार नै मोतियांरा तुररारा भार बांध दीधा छै । जिके जांणीजै क कंद्रप* कोटेक' रूप कीधा छै । पर प्राप अपरा नीसाण हाथ लीधा छै । कठै कठै ही पिलबतरी रवासां मांहे तीरबारा' । तठै कवर रहै न्यारा न्यारा । जिके गायणयां पातरिया तवायफ थाट' । 6 10 तिकांनूं होळीरा दिना मैं होळीरा ब्याल गावै छै । तिकांने पण प्याला पावै छं । अर गोळियांरी लागां थकां रजपूत नट कुळट षेलै छै |तिकांनूं तमासा दिषावै छै । केई केई तायफ - " लोग न डरै छे । वे पण गोलियां बावरी हौंस धरै छै" । तिको यांसूं ईण भांत ष्याला मैं रंगमैं हंस रह्या छै । महा मगरूरीसुं बीरमैं पर मैसमैं फस रह्या छै । केई केई मोटियार घणां दारूरा माता " 2 । रंगमैं राता । पटा 13 छूट' हुवा | आपरा महला मैं जुवा जुवा 14 । 5 हां या एक हाथ ही गोळी बाहै छं । माहो माह मोतियांरी माळा १. नवलासी - नये प्रकारकी । २. लीधां फिरं छं - लिये फिरते हैं । ३. म्हौरीयार - श्रागके भागोंके । ४. केंद्रप- कंदर्प, कामदेव | ५. कोटेक - करोड़ों । ६. कठै ही तीरबारा - कहीं पड़ाव के निवास में अलग तिबारे है । .. ऐक हाथसूं गळबांही ७. गायणयां थाट - गायिकाओं, पातुरियों और तवायफोंका समूह । पातुरियों आदिके लिये विशेष देखिये मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट भाग ३, सन् १८६१ ई० । ८. ब्याल - खयाल, गीतोंका एक प्रकार, ख्याल राजस्थानी लोक नाटकों को भी कहा जाता है । विशेष देखिये- लोक कला निबन्धावली, भाग १, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर । ६. नटकुळट - एक प्रकारका छलांग मारनंका खेल । १०. तायफ - तवायफ | ११. गोलियां घरै छ - गोलियां चलानेका होंसला रखती हैं। १२. मोटियार माता मदिरा में मदमस्त युवक । १३. पटाछूट - बिखरे बालोंके । १४. जुवा जुवा - अलग-अलग । १५. गळबांही न्हांष्या - गलेमें हाथ डाले । - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात रीझ रीझवार वार न्हापै छै। अरु गोलीरी चोटर्नु सराहे छै। केई केई सिरदार (गोलीरी चोटनु सराहे छै) गौळी बाहतां प्रापरी राणियां ठकुराणिया हेत-हांसीरी' बातां करै छै । जौ अपछरा म्हांनू बरणरी मन माह धरै छै । सो कांई हुवो। अपछरा आसी। थांरी तो हुई रहसी . दासी । पर करसी षवासी। तिको ठकुराणियां भी हसनै कहै छै। अपछरा म्हारी बरोबर मुरातब क्यो कर लहै छै । ईण भांत चोंप चाव माहो माह हित हरष बढावै छै । बंदुकां पर प्याला एकण साथ भर रह्या छै। केई केई बारला आय कोटरी भीतसूं निपट नेडा भिड़िया छ । अर कटारीत्रांसू षोदबान" अड़िया छ । त्यारै उपरै केसर पतंग रंगरी धार पिचकारियां तीरकसांमै घाली थकी छूटै छै । अर बंदुकांरा भी मारिया फूट छै। कांगरां ऊपरांतूं गुलाळां अबीरांरा थैलारी घमरोळ पड़े छ । अर मतवाळा भी गुडै छ । ईण भांत फांग नै षागरों" षेल दोन्यूं ही मांच रह्या छै" । गेहर11 पिण नाच रह्या छ । अर कठे ही म्हाभारथ भी बांच रह्या छै18। केई केईक सासत्रोक बिधान अवसांण समैयारै उपर निरकुरा! १. हेत हांसीरी- प्रेम और हंसीको। २. षवासी-पासमें रहनेकी सेवा। ३. मुरातब - सम्मान, पद । ४. बंदुकां' रह्या छ- बन्दूक और प्याले एक साथ भरे जा रहे हैं। इन शब्दोंसे मुगल शासनके अन्तिम कालके युद्धोंको पतनोन्मुख स्थिति प्रकट होती है। ५. बारला - बाहरके। ६. निपट नेड़ा - बहुत निकट। ७. षोदबाने - खोदनेके लिये। ८. तीरकसांमै - तरकसोंमें । ६. षागरो- तलवारका । १०. मांच रह्या छ - मच रहे हैं। ११. गेहर - होलीके दिनोंमें पुरुषों द्वारा छड़ियां बजाते हुए नाचा जाने वाला एक वृत्त-नृत्य। १२. म्हांभारथ - महाभारत, राजस्थानमें महाभारथ नामक एक कथा गीत अर्थात् पवाड़ा भी प्रचलित है। संभवतः यह प्राचीन महाभारतका ही प्रचलित रूप है। १३. बांच रह्या छ - पढ़ रहे हैं । सं०-वाचन । १४. निरकुरा-वैरागी, उदासीन । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ५१ हुवा था बि सिव इष्ट अरचा करै छै । अर सासरी बिधलीधां थकां तीष चोषरी भी चरचा करै छै । केई केईक तो केसरां करें रंग गहरे छ । अर किलादार जिकां ऊपर किलारो भार । जिका सोनांरी कुंचित्रांरी माळा कर कर पहरै छे । म्हांनूं ईण सहनांणसूं लहसी । रातीपरी बात घणां दीन रहसी । कहै छै कवांड़ बोल जिण बषत तरवारयां बाहां पर कांम आवां तिण बषत तरवारियांरी चोट वाहुता र बहावता ईस्ट सुमरण कर नांव लेणा । अर आधा बधता पांवड़ा देणा । तिको पांवडे पांवडे प्रस्वमेधरो फळ पावां । चोष तीषरी बातां कांम प्रया पछें रूपकां मांहे गवांवा । अरु मुकत तो जावां ही जावां । तिण समैं कोई कहै छै । रजपूतीरा साधिक' नै ईष्टरा अराधिक' ठाकुरे पहली कही थकी तौ ओर सी लागे । पण कहियां बिनां चोष चाव भी न जाये । माथो पड़ियां पछै तो तरवार बहै । पर पड़तौ माथो राम नांम कहै । धड़ने भागली ही धाव रहै तो रजपूत बदज्यो' । कोई कहै छे पड़ते माथै तो कटारी बाहूं | अरु पड़तो माथो हाथ मैं झेल सिवने चढाउ तो रजपूत बदज्यौ । इण भांत चोष चावसूं बातां करै छै । आप प्रापरा ईष्टरो बांनौं अलंकार धरै छै । तुळसीका मंजरांरा मोड़ बणावै छै । ब्रह्मचरज" ले छै । दान दे है अर बेद १. कूंचियांरी चाबियोंकी | २. सहनांगसू - निशानसे । ३. आघा बधता - श्रागे बढ़ते । ४. रूपकां - काव्यों । ५. मुकतमुक्त, मोक्ष । ६. साधिक- साधक । ७. अराधिक - श्राराधक, श्राराधना करने वाला । ८. आगली ही धाव - आगेकी ही दौड़ । ६. बदज्यो – कहना | १०. ब्रह्मचरज - ब्रह्मचर्य । 2 .7 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिघरी वात भणावै छै' । सो ईण भांत तो नेठाव' अर चावसू गढ माहिला लड़े छ । अर बारला तो निपट पाता षड़े छै । झडै छ सो तो झडै छ । अर पड़े छै तिको भी आघोई उळज उळज पड़े छ । बारला कितराहेक तो गोळियांरा मारिया मतवाळा हुवा थका धूम रह्या छै । अर कितराहेक नीसरणींया लूंब रह्या छै । कितराहेक तो फूट गया छै । अर कितराहेकका हाथ पग तूट गया छै । तिको पण बाळकरी तरह गोडार ही बळ ध्यावै छै। कितराहेकांका तिग' तूट गया छै । तिके रिगसता थका लफ लफ कोटरै जाय जाय कटारी लगावै छ। केहक साबता' पगां आग जाय जाय कोटसू लागा छ । तिकांन चौंप जितावै छै । कहै छै देषो ताता षड़ो'। हर कोटमैं जाय पड़ो। म्हे थां पहली घडेक' सूरग जावां छा। पण थांनं भी लेणनै सताबी हीज' आवां छा । वै पण हंसनें कहै छै । ठाकुरां सुरग सिधारीजै । सताबी कीजै । म्हारै वास्तै भी सुरगमैं नवां नवां पारषरा'' बिमाण आछा आछा तजबीज कीजै। म्हे पण पाया। जितरै म्हारा बारा अमतरा प्याला थे हीज लीजो। केहकारै सुमार लागी छै । जिकांमैं बोलणरी तो बकाय' रही १. भरणावै छ - पढ़ाते हैं। २. नेठाव - हठ, दृढ़ता। ३. पाता षडै छ - शीघ्रता करते हैं । ४. नीसरणीया - सीढ़ियां । ५. लूंब रह्या छै - लटक रहे हैं। ६. तिग - तंग, घोड़े पर काठी कसनेका साधन । ७. साबता – साबित । ८. ताता षड़ो- तेजीसे चलो। ६. घड़ेक - घड़ी एक। १०. सताबी हीज - जल्दी ही। ११. पारषरा - परीक्षाके, प्रकारके । १२. म्हारा बाटैरा - मेरे हिस्सेके । १३. केहकार छ - कईके अधिक चोट लगी है। १४. बकाय - बोलनेकी शक्ति । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ५३ नहीं पण मूछां हाथ फेर फेर साथियांन कोटमैं पड़णरी सैन' करै छै । पिंड तो थक्यौ पण जीव तो ईणरो भी कोटमैं पड़णरी धक धरै छै । कोई सुमार लागां पड़तो थको तड़छ षावै छै । तिको भी लुळतो थको कोटरी हीज कांनी जावै छै । दोहा-ईल लु?' फिर उलट्ट, घाव न घटै धीर । सिर सट्ट षट्ट सुजस , नह मिट्ट बरबीर ॥ १ बात ईण भांत कतराहेक नीसरणिया चढे छ। तिकांनूं मांहिला भालांसू साझै छै । जिके दोय दोय तीन तीन आदमी भाला पहर साजणवाळानुं जाय जाय बावै छै । उणां मांहिलाकी गिरवांन' पकड़ पकड़ ल्यावै छै । तिको कुही कुळंगरी सी चोट दिषावै छै । इण भांत कटारियांरी धमरोळ पड़े। लोटपोट हुवा तिको पालात चक्ररी सी लीक बंधी न जाणजे भेळा छै क जुवा जुवा ।। ईण भांत पाप आपरी रजपूतीरी भांत स कोई14 दिषावै । सो बात कहतां तो बार लागे। पण म्होकमसिंघनें कठे सुहावै । कह्यो १. सैन - संकेत। २. पिंड - शरीर। ३. धक धरै छ - उत्साह धारण करता है। ४. तडछ पादै छ - तडाछ खाता है, गिरते हुए चक्कर खाता है । ५. लुळतो थको - झुकता हुअा। ६. कांनी - तरफ, ओर। ७. ईल लुटे - धरती पर लेटते हैं । ८. सिर 'सुजस - सिरके बदलेमें सुयश प्राप्त करते हैं। ६. साझे- सम्हालते। . १०. गिरवान – गरेबान, गलेका कपड़ा। ११. धमरोल -मार। १२. पालातचकरी बंधी - अग्निचक्र जैसी लकीर बंध गई। १३. भेळा - शामिल । १४. स कोई - सभी कोई । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात ठाकुरे घणी हुई। मो उभा' ईतरी बार लागी पर गढ़ तूटयौ । इतरी कही र दोड़ियो । 3 1 सो रंजकरी रपट | बाजरी झपट । लायरी लपट । चीतारी दपट । बज्र कर संकर किना बिह्मनो चक्र छूटो । कैतो ईतरी बात कही र कै दोड़तो चढतो नजर ही न आयो । कोटा मांहि तरवार हीज ही । प्रो मोरचांरा घणां षाढा लागा छा तिकां माथा धूण कियो । ठाकुरे वो म्होकमसिंघ कोटमैं उड पड़चौ । तरवारियांरी कड़ा कड़ सुण्यां । ईण भांत तो बारलां कही । 5 अर मांहिला तो चक्रत चित रह गया । जाण्यो क प्रळेकाळरी बीज' पड़ी । किनां परमेसर पीजियो सो आकाससूं तरवार बही । 9 कवित - मक्र' सीस मेटबा चक्र हो कौप चलावै 1 कनां सक्र कर क्रोध बज्र पहाड़ां पठावे ॥ 10 धरे रोस धज धमल° श्रांचकां करण प्रछटे " 1 12 अंग दहरणं 2 अभंग असुर सिर जांरंग उपटे | कर हाक रीठ देतो कहर, वीर डाक बग्गं समौ । 16 रण संक 14 जोम षड़ियो अनड़" कूद बीच पड़ियो कमौ ॥ १ १. मो उभां - मेरे खड़े रहते । २. ईतरी बार लागी इतनी देर लगी । ३. रंजकरी - बारूदकी । ४. लायरी लपट - श्रागकी लपट । 5 ५. बाता - तेज । ६. उड पड़यों - उड़ पड़ा । ७. प्रळ काळरी बीज - प्रलयकालकी बिजली । ८. पीजियो- क्रोधित हुना । ६. मक्र - मकर, गर्व १०. धज धमळ - अग्रणी योद्धा । ११. प्रांचकांकरण छटे - हाथसे तीर चलाते हैं . । १२. दहणू - जलाने वाला । १३. वीर डाक बग्गं समो वीर-गर्जना करनेके समान । वीर ५२ कहे जाते हैं । १४. रण संक - निशङ्क । १५. षड़ियो - चला । १६. अनड़- अन, नहीं झुकने वाला । - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात . [ ५५ ईष कमौं' अहसत्यां धूज अंग उवर धड़के । बोरझाल बिकराल किनां अरण काल कड़के । मूक सिंधु मरजाद उलट प्रायो अंगपारा । किनां गजब कोई कहर पड़े सिर परम पहारां । हलहले थाट हैकंप हुवो झाट अथगां कर झिले । कोटरै सीस घमचाल कज प्रल काल में ही पड़े ।।२ झलके मंगल झाल ईला फिर गई उथले । पड़ि गोलो अज गैब काल टोलो कर चले ।। धाड़ जम धड़हड़ मेर षड़भड़े अचुके। बीरभद्र बड़बड़े हरणं हड़हड़े हसके ॥ बूठो क असरण रूठो संकर सीह बिछटो हक समो। फूटो क सिंधु तूटो गयण" कोट कूद जूटो कमो ॥ ३ बात अटै सफीलां13 उपरा निपट अमामी तरवारियांरी भड़ाझड़ बागी। तिण भांत होळीरा षेल माहे डडेहड़ारी कड़ाकड़री घाई लागै तिण भांत लागी। घणी अमांमी गजर पड़े छै । जिण भांत १. ईष कमौ - महोकसिंहको देख कर । २. अहसत्यां - कायर । ३. धूज''धड़के - अङ्ग कांपते हैं और हृदय धड़कते हैं। ४. मूक''अंणपारां- समुद्र मर्यादा छोड़ कर अपार रूपमें उलट पाया। ५. झाट अथगां कर झिलै - अपार प्रहार सहन करते हैं । ६. घमचाळ कज - प्रहारके लिये। ७. ईळा "उश्रले - पथ्वी चलायमान हुई। ८. पड़ि'चले - तोपसे आश्चर्यजनक गोला गिरता है जिससे काल भी बच कर चलता है। ६. धाड़ 'धड़हड़े - प्रातकसे यमराज भी कांपता है । १०. बूठो क असरण - जैसे वज्रपात हुमा हो । सं. अशनि । ११. तूटो गयण - प्रासमान टूटा । सं. गगन । १२. कोट'"कमो - महोकसिंह गढ़में कैद कर युद्ध करने लगा। १३. सफीलां - दीवारों। ९४. अमामी - तेज, धनी, बहुत । १५. डडेहड़ारी - डांडियोंकी । १६. गजर - चोट। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात प्रळकाळ रा लुहार अहरण' उपरां घणारी धांमधूम दे बादो बाद लोह घड़े छै । धारसु धार लाग माहोमाह घणी सिरोहियारो सांघणो सार झड़े छ । काळजा फीफरा' उपरां झपटता ग्रीध जिके झपटमैं पायां थकां कटि कटि पड़े छै । तिण रजपूतारै माथै सीरोहियांरा बाड' बरणाटक करता तूटै छै नै लोहियांरी धकरोळ चादरा चलै छ । जको जांणीजे क पहाड़ां उपराथी गैरूंरा षाळ उतरै छै । छोदा छीदा' आछा आछा कमणैतारा हाथांसू तीर सरणकै छ । तिको च्यार च्यार पांच पांच आदम्यांमैं फूट परां पथरा उपरा जाय जाय षणकै छ । सो जाणे सूधी धारां निमाछलौ मेह पड़े छै । तिण भांत सिरोहियारी धार झड़कै छै अर केई बीच बीच बीजळीरी सी नाई बंदूकां भी किड़कै छै । घणा नेठावरा' बंदूकांरा षिलाड़ी तिकां माहोमाह हो उपाड़ी। जिको पैला प्रावता- हाथसू धकाय' म्होरीनुं छातीसुं भिड़ाय कटारीरी जायगां गोळी लगावै छै । कठै कठै ई माहोमाह बरछियांरी धमरोळ पड़े छै । ईण भांत माहोमाह सरावै छै । हर चोंप जगावै छै । जठै बरछिया अधसळे" हुवा थका गळबाथां घाल जमदढा जडै छै" । केहक लथोबथ" हुवा थका कटारियांसु १. अहरण - एरिन । २. बादो बाद - प्रतिस्पर्धा, बारी बारीसे । ३. सांघणो - सघन, पोस-पास । ४. फीफरा - फेफड़े। ५. सीरोहियांरा बाड - तलवारोंके पैने भाग । ६. षाळ - नाले। ७. छीदा-छीदा - चौड़े-चौड़े। ८. निमाछलो मेह - सं० निम्नॊच वर्षा, अविरल वर्षा । ६. नेठावरा - हठी। १०. धकाय - धक्का देकर । ११. म्होरीनु - अग्र भागको। १२. धमरोळ – मारामार । १३. सरावै छ - सराहना करते हैं। १४ अध सळ (अर्द्ध सिलह) - घायल । १५. गळबाथां'' 'ज. छ- गलबांही डाल कर एक प्रकारको भयंकर कटारका प्रहार करते हैं। १६. लथोबथ (लत्थोबत्थ) -- गुत्थमगुत्था । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ५७ सफीला उपरा' लोटण कबूतररी नाई लोटता नजर आवै छै । केहक गिरैबाज' कबूतररी नांई गिरह पाता नै पलचर पंषिया ज्यूं झड़फड़ाता सफीलासुं धरती पड़ता पहली दोय दोय तीन तीन कटारिया लगावै छै । तम्होकमसीघरा तो हाथसू तरवार बहै छै अर ईण भांतरी चोट करै छै तिकां नजरमैं राषै छै हर वाह वा कहै छै । तिको म्होकमसिंघरो नजररो रीषिबो अर रीझरो दाषबो । हाथरी उछांग" नै पगांरी फुरती अर गाढ पर अमट तिको सरदाररी बातानों चार। सो म्होकमसिंघ तो च्याराहीमै वारपार । ईण भांत म्होकमसिंघ घणौ जाडो घूमरो' प्रावै छै। जिणहीमै उड उड पड़े छै। अर इण उपरै घणौं तरवारियांरो गंज बोह झडै छै । ईणरा हाथरौँ घणां निरलंग' होय होय पड़े छै । ईणरै दांत आय चडै छै । जिको सुरगनै ही षड़े छै° । ईण भांत बात कहता बार लागै ओर मोरचांरां घणा षाता अड़िया1 । तिके पण ईण समैं कूद कूद पड़िया। ___ च्यारु तरफ ईण ही तरै होळीरी सी चाचर माची । सो दोनु ही तरफांरा आकाय तिके कुण पाय लांची । ईण तरै भांत भांतरा लोह बाहै छै अर अवसाण14 साधै छ । १. सफीला उपरा - दीवारों पर से। २. लोटण कबूतररी नाई - लकी कबूतर, एक प्रकारका कबूतर जो प्राकाशमें लुढ़कता हुआ सा उड़ता है। ३. गिरै बाज - गुलाच खाने वाला। ४. पलचर - मांसाहारी। ५. उछांग - उछाल। . ६. गाढ पर [थर] अमंट - गाढ़ी अर्थात् गहरी, स्थिर और अमिट । ७. घरणी जाडी घूमरो- बहुत तेजी और अभिमानमें । ८. गंज ''झड़े छ-बहुत जोरदार प्रहार होते हैं। ६. निरलंग - अंगहीन । १०. षडै छै - चलता है। ११. मोरचारां..'अड़िया - मोरचोंके रुके हुए प्रबल वीर। १२. चाचर - चर्चरी, एक प्रकारका होलीके अवसरका नृत्य । १३. पाकाय लांची - पुरुषार्थ वालों से कौन पीछे हटे। १४. अवसारण - प्रौसान, मौका । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात गीत त्रिकुत[८]बंध' अणभंग बिहु थटपैं जुटे, अंग जोस धर कर उपटै । सज सको आवध अमो समुहां, बकारै बर बीर । इण भांत धक चंड बोपिया', लहरीक किरह हलोलिया । कर साह किरमर सर सम हर। अडर अरि हर पछंट' सिर पर । कससि कैमर फूट बड़ फर । पार कर बर गजर धर हर । सीस हथ धर सोपि जटधर । दीध तिह बर1 चंड पत्र पर गूद पल वर धपाड़े14 रिण धीर ।। १ नव नूर' चढियो भड़ निलां, गढ लाज बांधी जिण गलां"। हद बिहद कर हथहू बिया, नृभै" नर नषतैत । पंजर' रुधारी परलकै, रुधराल पाल' सुपरलकै । १. प्राढ़ा किसनाजी कृत रघुवरजसप्रकास, सम्पादक श्रीसीताराम लाळस, प्रकाशक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरके अनुसार राजस्थानी भाषामें ६२ प्रकारके गीत नामक छंद प्रचलित हैं (पृष्ठ १८६-१८७) जिनमें 'त्रिकुटबंध' गीत भी है। २. अरणभंग - अभंग, अजेय । ३. बिहं- दोनों। ४. प्रावध - प्रायुध, शस्त्र । ५. अमो समुहां - आमने-सामने । ६. बकार - ललकारते। ७. वोपिया - सुशोभित हुए। ८. लहरीक हलोलिया - मानो समुद्रकी लहरोंकी तरह हिलोर लेने लगे। ६. पछंट -प्रहार करने वाला। १०. जटधर-जटाधारी, शिव । ११. तिह बर - उस समय । १२. पत्र -पात्र, बर्तन । १३. पल-मांस । १४. धपाई- तप्त करते । १५. नव नूर - नया तेज । १६. गलां-बातें, गल्ल, गर्दन । १७. नभ-निर्भय । १८. नषतत - अच्छे नक्षत्रों में उत्पन्न । १६. पजर-पिञ्जर, शरीर। २०. षाल - खाळ, परनाला, चमड़ी । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ५६ मंडि सबल दमंगल', दलण पलदल । प्रबल मलकल अटल अचपल । बिहद छलबल, करत धकबल। बहल बीजल, धार बल बल । कटि कमल पल, उछल पड़ि पल । तड़िछ तड़ लल, थहे रिण थल । रुहिर* रल तल, प्रछड़ पड़ अचल । जुवल अणियल', जुड़े करिबा जैत ॥ २ तिण बार दल दुहूवा तणां', अति अड़े भड़ अधियांवणा । अवगाह असहां अनड़ उभा, सूर सिंघ अवसांण । . तन प्रचंड रिण अति तापड़ा, बहो लोह वाहै बेझड़ा। पड़ झाट झड़ झड़, काट कौरड़ । छुटे लंब छड़, ताड़ तड़ तड़। बांण छुट बड़, सौक सड़ सड़। फूट फिफरड़, कलिज झड़ फड़ । अंतड़ उधरड़ लोथ लड़ थड़ । १. दमंगळ - युद्ध । २. बिहद - बेहद, बहुत । ३. थहे - होती है। ४. रुहिर - रुधिर, रक्त । ५. अणियळ - सेनाके अग्रभागमें रहने वाले, वीर । ६. जुड़े करिबा जैत -विजय करनेके लिये एकत्रित हुए। ७. दुहूवा तणां - दोनोंके । ८. अध्रियांवणा - शूरवीर। ६. अनड़ - अनम्र, उग्र। । १०. उभा - खड़े हैं। ११. ताषड़ा - प्रबल । १२. लोह वाहै - प्रहार करते। १३. फिफरड़ - फेफड़े। १४. कलिज - कलेजा। १५. अंतड़ - प्रांत उधड़ जाती हैं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात उलझ आषड़, रुंड रड़ बड़। पंप झड़ पड़, बीर बड़ बड़। अछर अड़ वड़, धरा धड़हड़। इसो मचि आरांण ॥ ३ . दईवाण पत्रवट राषतो, अंणगंज* म्होकम आषतौ । समराथि निज हलकार, साथी उरडियो अणभंग । अवगाढ पोरस उफणे', बहो रीझ करतो जुध वणें । अति रोस उपट, रूकरौं झट । थोग सह थट, रूयण द्रहबट। कमल केई कट, समल सट षट । फबि झपट सिर रंगट मट फट । वर्णं रिणवट", घाट अवघट । लड़े लटचट, कुलट नटवट । पलट उलट, पड़त चटपट । पहै पग फट, बिरद अति षट। जीतबा कजि जंग ।।४ कवित्त बिहद मचे घम गजर, किरमर अरि सिर गोड़1 । केई केई कर किलक, धजर अरि उवर घमोड़ें। १. अछर - प्रकाश । २. पारांण-युद्ध । ३. दईवाण - दीवान, प्रतापसिंह । ४. अंगगंज -अजेय। ५. आषतौ- कहता। ६. समराथि - सामर्थ्यवान । ७. पोरस उफणें - वीरता उफनती (प्रकट होती) है। ८. रूक - शस्त्रका। ६. कमल - मस्तक । १०. रिणवट - युद्ध। ११. किरमर - तलवारोंके । १२. सिर गोड़े-सर काटते हैं। १३. उवर - उर, छाती। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात पंजर' सावल पहर कहर केई ध्रवै कटारां । लेता छक छक लहर'... 'जियारां। फरहरै पार फूट अंणी', धार रुहिर रत धरहरै । कर कर उछाह गह धर घुमर, बीर अछर सम बड़बई ॥१ बजै झाट बीजलां, काटि पड़ कंध विछूट । तड़िछ उठ घट तरी, जोम धक हूता जूटै । अमो समा श्राछटै, छोह उपटै छछोहां । मिटै घटै नह मरट, लहै चहै गल लोहा । अवनाड़ बीर साहस अधिक, दुहू तरफा छक दापवै । धड़ भिड़े देष पड़ियां धरा, वाह वाह सिर प्रापवै ॥ बूठ' लोह विकराल, तूट अंग धरा तड़फै। फूट कलिंज फिफराड़, झूल पलचरां' झड़फै । बीर थट'° बड़बड़े, चंड पत्र भरे चठठे। रंभ रू'ड बड़बड़े, मुड माला हर गंठे। उफणै छकै किलकै अतर, मेलै सिर झर ओझड़ा। अस हथां थाट ठेले अउर, रावत षेले रूकड़ा1 ॥३ १. पंजर - शरीर। २. अंणी - शस्त्रोंकी नोक । ३. झाट - प्रहार। ४. जोम - वीरता, गवं। ५. अमो समा - प्रामने-सामने । ६. प्राषवै – कहता है। ७. बूठ - बरसता है। ८. तूट - टूट कर। ६. पलचरां- मांस-भक्षी, पक्षी। १०. थट - समूह । ११. पत्र - पात्र । १२. मुड'गंठ – महादेव मुंडमाला पिरोते हैं। १३. रूकड़ां-शस्त्रोंसे। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] प्रतापसिंध म्होकमसिंघरी वात पड़े झड़े पैमार', अड़े सरदार अमांमा । केई छक चढिया कड़े, सूर मलफै त्यां सांमा । केहकां सिर कट, राम मुख उभा रटै । धरै धार धड़ लड़, प्रगट किरमाल पछटे । केई कथा पत्र धरियां करग', एकण हत्था आछटै । कर वोह सोह चाडै कलां, लोह छाक धरती लुटै ॥ ४ कईक जुट्टै कवर, अउर अणियाचा' भमर । अंग ज वाहर अतर, रंग केसर रच डंबर । चोंप चाव चित चाउ, गुमर धारै गद बहता । अछर झाला दिये , लड़ परला लेवंता । किरवार धार जद्वार कटि, उड अकास पाछो पड़े। आरती जाण न्हा अछर, बरवाकजि° रथ अड़बड़े ॥ ५ केई पड़तो झल कमल'', आंण चाडै11 सिव आगें । झड़े कटारा कंमध, लटां चहुवा गल लागे । कटिया पग भड़ कि येक, टेक असमर उछटै । लत्थ बत्थ होय लुटै, जांण मतवाला झूट । केई कोट भार धरियां कमल, गल कूची माला ग्रहे । कुंचियां सहत अंग पल कट, अॅड अछर भौका कहै ।। ६ १. पैमार - परमार क्षत्रिय अथवा "झड़पे मार" के अनुसार गिरे हुए पर प्रहार । २. अमामा - वीर । ३. मलफै - उछलते हैं। ४. धरियां करग - हाथमें धारण किये हुए । ५. एकण हत्था आछटै - एक हाथसे ही प्रहार करते हैं । ६. जुट्ट - एकत्रित होकर । ७. परिणयाचा - सेनाके । ८. अछर झाला दिये-अप्सरा संकेत करती है। ६. बरबा कजि - वरण हेतु । १०. कमल - मस्तक। ११. आण चाढे - लाकर चढ़ाते हैं । १२. गळ ग्रहे - गलेमें दुर्गरक्षक चाबियोंकी माला धारण कर। १३. पळ - मांस। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात ईस जोस अभंग, दुहू तरफ दवांणा' । सजै मार सांधणी', बाड़ समरा उडांणा । बकै छकै चीफरै, हुवा भमरूत गहकै । चोप तीप नह चकै, थहै रिहूत न थकै । बाराह रूप * दुहू थट बिकट, पग पूंनी बाहै पहै । अंग झड़ कैक पड़ उपड़े, ढांग तेा केह A5 है | बात ईण भांत कितराहेक तो गोळी तीर बरछियांसूं फूटा । कितराहेक कटारियांरा मारिया लथोबथ हुवा तिके ईण भांत उळभिया । सो जुवा किया ही न होय जुवा । सो म्होकमसिंघ कितराहेक सरदार रजपूतांनूं पकड़ लीधा । पकड़िया तिकांनूं रावत प्रतापसिंघरी हजूर प्राण हाजर कोधा' । तिकांनूं घोड़ा सिरपाव' देर छोड दीधा । फुरमायो थाने क्यों प्रोरूं हर होय' तो म्हारी सरकारसूं घोड़ा दिरावां । म्हांरी धरती मांहे दोड़ज्यौ । अर गढरो जोम होवे तो फेर सांमांन करो | म्हांरी फोज आवे छे । जिणसूं हाथ जोड़ज्यौ । प्रबरकै " तो छोडिया छै । जंमीदाराकी साषसूं" हर अबरकै चुकस्यौ तो मार हीज नांषस्यूं " । श्रबै वा जायगा म्हांरी दीवी" रहसी थांहरै कनं " 11 12 14 १. दईवारण - दीवाण, रावत प्रतापसिंह । २. सांधणी - संकरी, थोड़े-थोड़े स्थान पर । ३. असमरां - तलवारें । ४. बाराह रूप - सुधर के रूपमें, सुश्रर वीरताका प्रतीक माना जाता है । ५. झड़े - झड़ते हैं, कटते हैं । ६. फूटा - घायल हुए । ७. प्रतापसिंघरी कीधा - प्रतापसिंहके दरबार में ला कर उपस्थित किया । ८. सिरपाव - मस्तकसे पैर तक के वस्त्राभूषण । ६. श्री हर होय - फिर इच्छा हो ( लड़नेकी) । १०. प्रबरकै - श्रवकी बार । .. ११. सासू - साक्षिसे, सिफारिशसे । १२. मारनांषस्यूं- मार ही डालूंगा । १३. म्हारी दीवी - मेरी दी हुई । १४. थांहरे करें - तुम्हारे पाससे । [ ६३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात I कोई न लेसी । छत्रीधरमरै राह चालस्यौ तो थे हीज षावस्यौ । फेर किंणही गरीबने दुष दीया तो थांहरा किया थे हीज पावस्यौ अर मारया जावस्यौं । अब तो थांनुं छोडिया । ईण वासतै कोई असर for ही रैकी रह गई होय तो फेर पेटो करै डोडिया' । 1 1 I तिण उपरें डोडियां अरज कीधी । म्हानुं प्राप जीवदान दीधा अर चाकर कींधा । अबै तो रहस्या म्हे रावळो हुकम माथे पर लींधा । राजसूं लड़िया ईसड़ो कुण छै जिणनुं प्रासर रहै । राजरी रीस लै जिoरै दोय सीस होय जकौ सहै । हर तरवार है । 1 ईणा ईण भांत अरज कीधी। रावतजी वानूं बिदा कधी । म्होकमसिंघ बुलाय षाथापणां प्रतोषीज्या र मनमें घणां रीज्या । घणो हेत कर गलगाय कह्यौ । म्होकम भाई सुनौं' हेट' हेट करें थांहरी रजपूती अधिकाई । सो एकसूं एक सवाई | पण बाबा थोड़ा धीरा' रह्यां करो | म्हांरो हुकम अर म्हे जिण बात मैं चैन पावां जिat मन मांहे घारया करो । तूं तो ईण भांत सदाई राड़ मैं षाथो बहै छै' । पण म्हारो जोब तोहीज मैं रहै छै सो तूं जायनै बषस । अर सुजस 1 लै सोईणा रावत प्रतापसिंघरी सरकारसुं भी लेषणों दान दीधो । र परा घर मांहे छो सो तो सरब ही दीधो । सो ईणांरो तो सार मैं आचार घण घणो तिको कठा तांई को जावें । जिणारा प्रवाड़ारो' कुण पार पावै । निपट श्रमांमी प्रद्भुत अछूती रजपूतीरो .10 १. आसर - शक्ति, इच्छा । २. पेटी करें डोडिया - डोडिया रजपूत फिर युद्ध कर लें । ३. षाथपरणां प्रतोषीज्या - तेजीको वीरताको सन्तुष्ट किया। 1 ४. मुनौं मुझको । ५ हेट- धिक्कार । ६. धीरा - धीरजसे । ७. राड़मैं षाथो बहै छै - युद्ध में तीव्रता (वीरता) प्रकट करता है । - ८. लेषणौं- विशेष उल्लेखनीय । ६. प्रवाज़ारो - प्रवादोंका, वीरतापूर्ण कामोंका 1 १०. श्रमांमी - बहुत, असीम । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात सरदार । ताता रजपूतांमैं ही तीष चोषरी बात' अषियातरो उबारणहार। तिको रजपूतांरी तो ईण भांत रजपूती अखियात निधान रहसीं । अर ईण बातरा रीझवार रीझिया रीझै छै अर रीझ रहसी। घणां काचा क्रपणांन तो न उपजै चाव। उलटो पड़े सरमंदगीरो डाव । अर ताता तीषा रजपूतांनै चोंप चढावै । अर रंग चढावै । त्यौ त्यो बात पढे त्यौं त्यौं रंग चढे । दोहा काचा धन सांचा कितां, चितां न उपजे चाव । मरदां सुण ई[इ]ण बात मन, चव गुण छाक चढाव ॥ १ धाक पड़े जिण अरि धरा, डाक बजै जिण दिन । छाक चढे जिण छत्रवट, वै मसताक' सु मन ॥ २ जंग अथगां जूटवै, धन वड़ बागां धूत । भिड़ण भाभरा भूत व्है, रीझै सो रजपूत ॥ ३ रहै न तन धन राषिया[i], कीधा कीधां] जतन किरोड़ । मांन लहै मरदां भला, महि सुण बात मरोड़ा ॥ ४ १. ख. प्रति यहांसे प्रागे त्रुटित है। २. अषियातरो उबारणहार - प्राख्यातको प्रसिद्ध करने वाला, सुयशमें लिखे गये काव्यको अमर करने वाला। ३. काचा क्रपरणांन - कमजोर कायरों को। ४. सरमंदगीरो डाव-लज्जित होना। ५. काचा - कच्चे, कमजोर, कायर । ६. धन सांचा-धनका सञ्चय करने वाले । ७. मरदां - मर्द, वीर । ८. चव''चढाव - चौगुना उत्साह बढ़ता है। ६. डाक दिन - जिस दिन युद्धका नगारा बजता है। १०. मसताक - मस्त । ११. जंग अथगां जूटवै - युद्ध में भारी समूह वीरतापूर्वक युद्ध करते हैं । १२. धज वड़ बागां - युद्ध-वाद्य बजने पर । १३. भाभरा भूत व्है - प्रत्यन्त क्रोधित हो। राजस्थानमें भाभरा नामक क्रोधी भूतकी कथा कही जाती है। १४. मांन लहै मरदां भला- श्रेष्ठ वीर मान प्राप्त करते हैं। ग. और घ. प्रतियों में दोहोंके पश्चात् निम्नलिखित सोरठा अधिक हैसोरठा-विद्या जां लग चूर, भणसी लिखसी वांचसी। त्यां लग रावत सूर, पतो कमो रहसी प्रसिध ॥ १५. महि सुण बात मरोड़ -- संसारमें उनको वीरताकी बात सुनी जाती है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात की बत्था[i] धन जोड़िया, नह चलसी सत्थाह । मरदां अस्थां मांणिया, जुग रहसी कत्थाह' ॥ ५ हो रावां हो रजियां, हो सोहड़. भला[ल्लाह । सूरां सपुरसां तणी', जुग रहसी गला[ल्ला]ह ॥ ६ ईती श्री रावत म्होकमसींघ हरीसीघोतरी बात । म्हाराजधिराज म्हाराज श्री बहादुरसीघजी क्रत संपूर्ण । किसनगढ राजस्थान । सं० १६६५ चैत्र बद १३ लीषी जैपुरमै" ।। १. की बत्था' चलसी कत्थाह – संसारमें हाथ फैला-फैला कर धन जोड़नेसे क्या लाभ है ? यह साथ नहीं चलेगा। शूरवीर धनका उपभोग स्वयं करते हैं और युगमें उनकी कथाएं कही जाती हैं। २. रोहड़ - सुभट, वीर। ३. सापुरसां तणी - शूरवीरोंकी। ४. गलांह - बातें । बातके लिये 'गल्ल' शब्द आज भी पञ्जाबो में प्रचलित है । संभवतः ___ गल्ल शब्द संस्कृत 'गल्प' से बना है। ५. महाराजधिराज''बहादुरसीघजी - महाराजाधिराज बहादुरसिंघजी किशनगढ़ के महाराज थे जो किशनगढ़ राज्यके संस्थापक किशनसिंहजी राठोड़के बाद पांचवीं पीढ़ीमें रायसिंहासन पर बैठे। बहादुरसिंघजीका शासन-काल सन् १७६४से सन् १७८१ ई० तक रहा है। ६. ख. प्रतिका पुष्पिका लेख यह है ॥ इोती परतापसींघजीरी बात संपुरन ॥ ३२॥ ग. प्रतिको पुष्पिका यह है--- ॥ इति श्रीपरतापसिंघ ने मोहकमसिंघ हरीसीघोत रावत देवघडका धणीरी बात संपूरण ॥ दुहा सोरठा माहाराज श्री बादरसिंघजीने सिंघवीजी श्री चंद्रभाण कहीयो। . सोरठा- राज बाहावर रूप, त्याग बाहादर हद तवां । वात बाहादर भूप, त्रिजड् बाहादर हद तवां ॥ दूहा- बाण तजो रस प्रादरी, व्है सिध ससी मुषि काम । मगसिर वाढै स्याम चलू, बारस भोम प्राराम ॥ ॥ इति श्री वारत समपुरण लोणतंग भ्राह्मांमण प्रोदीच मगनेस दौलतराम श्री कल्याणरस्तु सुभं भवस्तु ॥ श्री श्री सवंत १६०[.] प्रसाड सुद ३ त्रीतीया भोमवासर श्री। श्री श्री ॥ श्री॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात गाथा-काल घर कमनीये नगर प्रताप दुर्ग जह नपती।। उदयसिंह अभिधानं । भानुवंस भूषन कुल रान ॥ १ या वार्ता भवाया मगनीरामका हातसूं लिषांणी ॥ श्री॥ घ. प्रतिकी पुष्पिका निम्नलिखित है॥ इति श्री प्रतापसिंघ ने मौहषमसिंघरी सिंघोत रावत देवगढरा धणीरी वात संपूर्णम ।। श्री रस्तू ॥ लिषतं महडू राजूराम जोधनयर मध्ये कवराजा श्री भारथनिजी वाचनार्थ श्री। समत १६०३रा चैत्र सुद ११ सोमवासुरे ॥ श्री रस्तु ।। सुभं भवत् ॥ कल्याण महत् ।। वाचे सुणे तिणांसू राजूमा [रा]मरा श्री राम राम बांचसी। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात ॥० ॥ श्री गणेशाय नम [ नमः ] ॥ श्रथ वीरमदे सोनीगरारी वात लिष्यते ॥ गढ जालोर सोनीगरो वणवीर राज करै छै । वणवीरर्र कंवर २ हूवा | वडा कंवररो नाम कांनडदै । छोटो रांणगदै । टीकै कांनडदैजी सोनगीर' राज करै छै । एक दिन कानडदेजी सिकारने चढीया । सो साथ वीषर गयौ । आप जालोरसुं कोस ७८ ११ [ ७-८ ] उपर गया तिसै रात पडी । वास' १ बीजीयो कन्है' रहयो । रा []धी रात गई। रावजी उजाड पोढीया छै । तिस [ण ] समै कांमदेव जागीयो । तरै रावजी 6 १. ६० - गुरुके साथ ६ श्री लगानेकी प्रथा रही है | ||०|| ६ श्री का प्रतीक और परिवर्तित रूप ज्ञात होता है। अंक ६को लिखिते-लिखते अलकृंत करने के प्रयत्न में "र्द०" रूप प्रचलित हो गया है । प्रथवा यह चिन्ह ॐका प्रतीक या परिवर्तित रूप है । २. वीरमदे - कथा - नायकका नाम है। यह वीरमदे "वीरवाण", अपर नाम वीरमायण नामक राजस्थानी काव्यके चरित्रनायक वीरमदेसे भिन्न है । ३. सोनीगरारी - सोनीगरेकी । चौहान क्षत्रियोंकी एक शाखा "सोनीगरा" नामसे विख्यात है । जालोर दुर्ग जिस पहाड़ी पर निर्मित है उसका प्राचीन नाम सुवर्णगिरि कहा जाता है। सोनीगरा चौहानोंका मुख्य स्थान भी जालोर ही रहा । सुवर्णगिरिका अपभ्रंश > सोनगरा हुथा, जिसके प्राधार पर क्षत्रियोंकी सोनीगरा शाखा प्रसिद्ध हुई । ४. ख. प्रतिमें "वात लिष्यते" के स्थान पर "वार्त्ता लिष्यते" पाठ है । ग. प्रतिमें "||०|| लिष्यते" पाठ नहीं है। संभवतः प्रतिलिपिकर्ताको प्रसावधानीसे छूट गया है। ५. सोवनगीर - सुवर्णगिरिका ( ? ) । ६. षवास - पास में रहने वाला सेवक । ७. कन्है - साथ में, पासमें । ८. पोढीया छ - सोये हैं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात कह्यौ । बिजडा इण वेला' असतरी ल्याव । ___ माहाराजा नेडौ तो कोइ गांम न्ही। असतरी कठासु ल्याबुं । तरै तामस करनै कयौ । तरै पथररी पूतलीरो' कह्यौ । तरै कान्हडदेजी कह्यौ। उरी ले प्राव । मांहरी छाती उपर मेल दै। मन वैसास' छ । तरै पूतली पथररी आंणे नै कानडदेरै छाती उपरा मला। तिसै छातीसुं भीडतां पथररी पूतली मानव देह हूई। तरै बोली । माहाराजा हुं अपछरा" छु । अकन कुंवारी'" छु । राजनै परणीयां पछै सुष भोगवसुं। कांनडदेजी राजी हवा। प्रभातै घोडै चाढनै14 गांम वडाडा माहै सांषलो सोमसिंघ घररो धणी छै तिणरै घरै ले जाय उतारी १. इण वेला - इस समय, वेला (सं.)। २. "बिजडा'ल्याव" - के स्थान पर ख. प्रतिमें यह पाठ है- "वीजडिया रांणी तो ___ काई हाजर नहीं नैं नीद प्राव नहीं । तुं काईक लुगाई ल्याव ।" ३. नेडौ - निकट। ४. तामस - क्रोध । ५. पूतलीरो- पुतलीको बात । ६. उरी - समीप। ७. वैसास छ - विश्वास है (कि यह पत्थरकी पुतली भी सजीव हो जावेगी)। ८. भीडतां - लगाते हुए। ६. अपछरा - अप्सरा। १०. अकन कुंवारी - अक्षुण्ण कुमारी । ११. परणीया पछै - परिणयके पश्चात्, विवाहके बाद । १२. सुष भोगवसुं- सुख भोग करूंगी। ग. प्रतिमें यह प्रसङ्ग इस प्रकार है-"तारां रावजी ने बीजड़ियो चाल्या जंगलरै विच एक देहरै आया। बासौ लोधौ । देहरे में पाखाणरी पूतळी, सा घणी रूड़ी फूटरी कान्हड़देजी उणरै रूप दिसी घणो गोर करि जोवण लागा। तिण समै कोई देवर जोग उवा पूतली थी तिका अपछरा हुई। तर रावजी कह्यौ, थे कुण छो । तरै उवा बोली, अपछरा छू, मैं थान वरिया छ । पिण म्हारी प्रा बात किणी प्रागै कही तो परी जासू।" १३. प्रभात - प्रातःकालमें। १४. चाढन - चढ़ा कर। १५. ख. और ग. प्रतिमें गांवका नाम "वराड़ो" लिखा गया है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० । वीरमदे सोनीगरारी वात नै बिजडै षवास कहीयो । इणनै कानडदेजी परणीजण आवसी'। सोमसी सांषलै सारी सझाई कीधी। वरी-विसांणो' रावजी लेनै आया। गोधूलक समै परणीया। रातिवास पोढीया। प्रभात सुषपालमै बैसांणनै गढ जालोर ले आया। अलायदो' मैहल करायौ। तिण माहै घणा सुष भोग विलास करै । अतर सुंधा अरगजा माहै गरकाव रहै । ___ इण भांति वरस २ हूवो । तरै बेटो हूवो। तीणरो' नाम कंवर वीरमदे दीधो। प्रागै रांणी तीणरै बेटी हूई। तिणरो नाम बाई वीरमती दीधो। वरस सात माहे वीरमदे हूवो। तिसै सा गडपे° सारा टाबर रमै छै । पागती लोक उभा छै"। तिस हाथी छूटो सो पाधरो टाबरां मांहे प्रायो। देषनै वीरमदे दोडीयो। युं लारै हाथी दीडीयौ। तिसै रजपूतां कूको कीधो । कंवर मारीयो २ । इसो सबद अपछरा झरोथै बैठी सुणीयो । प्रागै धरती सांम्हो जोवै तो वीरमदे नै हाथी लपेटीयामै छ । तिसै झरोषै बैठी हाथ पसारनै वीरमदेने उचो लीधो । तिको रजपूतां देषनै इचरज हवौ । ठाकुरै मिनष तो न्ही। १. परणीजण पावसी - विवाह करनेके लिये प्रावेंगे। २. सझाई - सजाई, सजावट । ३. वरी-विसांणे - ख. वरी चुडौ, ग. चूडौ बरी, विवाहके लिये वस्त्र-चूड़ा आदि । ४. गोधूलक समै - गोधूलिकाके समय, सायङ्कालमें। ५. सुषपालमै - एक प्रकारको पालकी में । ६. बैसाणन -बैठा कर। ७. अलायदो-अलहदा, अलग । ८. अतर''रहै - इत्र, अरगजा प्रादि सुगंधित पदार्थोसे भरे हुए रहें। ६. तीरणरो- उसका। १०. गडपे - गढ़ पर। ११. टाबर रमै छै - बालक खेलते हैं। १२. पागती "उभा छै - एक अोर पंक्तिबद्ध लोग खड़े हैं। १३. पाधरो:- सीधा। १४. कूको कोधौ-हल्ला किया, शोर मचाया। १५. जोवै-देखती है। १६. इचरज-प्राश्चर्य। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [ ७१ प्र वात रांणगदेजी सांभली' । तरे पूछियो । हठ घणो कीधो । तरै भेद पछारो वतायौ । संझ्या सम रावजी महिलां पधारीया तर अपछरा मुजरो करे नै मांगी। तो साहिबजी मोने लोकां दीठी * । राज पीण हकीगत कीही सो म्हे तो जावसुं । रंग भोग विलास करने अलोप हुई । जाती की कहीय मांहरा बेटारी छायामै छांनी थकी हसु । ईतरो कहि जाती रही । 6 अब वीरमदेजी पंजू पायक कनें सिनूंरा [ सिरूंरा ] ' घाव डाव | पंजू त बंधांणो । वरसां १६ माहे वीरमदेजी हूवा । तिसै जेसलमेरो धणी भाटी रोव लाषणसी एक दिन गोषै बैठो थो । तिस सवणी बोलीयो । रावजी सलामत सवा पोहर दिन चढीयां सोनिकरा कांन्हडदेने विस होसी । इसो सांभलेनै राव लाणसी कागद लिषनै वीरा राइकाने 10 कह्यौ । वोलाई सांढ ताती छे । तिण चढने जालोर जा । सवा पोहर दिन चढीयां मोहर जाए" । तोने साबास देसां । परवांनो कांन्हडदेजीरे हाथे दीयो । इसो कहिनें चांपरसुं" चढीयो । जेसलमेरसुं जालोर कोस 1 2 १. सांभली - सुनी। २. संझ्या समै - संध्या के समय, सायङ्काल । ३. सीष मांगी - छुट्टी मांगी, जानेकी स्वीकृति चाही । ४. मोने दीठी- मुझे लोगोंने देख लिया । ५. लोप हुई - लुप्त हुई, अंतर्ध्यान हुई । ६. छांनी थकी रहसु - गुप्त रूपमें रहूंगी, छिपी हुई रहूंगी। ७. सिम्तूंरा [ सिरूरा ] - प्रारम्भिक मल्ल विद्या (?) 1 ८. सवरणी बोलीयो - भविष्यवक्ता शकुनी बोला (?) ख. ग. प्रतियों में "सांवण बोल्यो । ति जिनावर क्यो (थ्यो) कौ" पाठ है । सवणीसे तात्पर्य शकुन एवं भविष्य बताने वाले पक्षी से है । ६. विस होसी - विष दिया जावेगा, दुःख होगा । १०. राइकाने - ऊंट सवारको । ११. बोलाई ताती छै - समीपकी (?) ऊंटनी तेज चलने वाली है । १२. मोहर जाए - पहले जाना । १३. चांपरसु - शीघ्रता से, चापल्य ( सं .) । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] वीरमदे सोनीगरारी वात ७६ हूवै । घडी ५९६ दिन चढीयो तरां जालोर कोस १ रही अर सांढ थाकी । तरां सांढीयै उपरणीरो फररो कीयां' प्रावतो विरमदेजीरी नीजर आयो । तरैह्यौ । ठाकुरै कोई मोठी ताती सांढ पडीया' आवे छे। तिस सांढीयो पीण प्राय पोहतो । I तरै पूछीयो तू कठारो छै । तरे कह्यौ । जेसलमेर रहु छु । रोव लावणसीजी मेलीयो छ । रावजीसुं कांम छै । 4 6 कान्हडदेजीसुं मीलीयो । परवांनो वांचीयो । हकीकत सांभली " । वात मन माहै राषी । उ [ प्रो]ठीने डेरो दीधो' । तिसै अमल करने विराजीया छै । तिसै दूध मिश्री षवास ले आयो । रावजीरै मन माहै चमक थी' तिणसूं दूध नै मिश्री कुतराने पाई " । घडी १ तडफडेने प्रांण छूटा | 0 तर रावजी पवासन पूछीयो । साच बोल म्हांने जेहर किण दिरायो छे । तरै कयौ माहाराजा गुनो माफ हुवै । अणहूंतो कीणरो नाम 11 लेउ' । तरें षवासरो जांम २ पीलीयो । १. उपरणीरो फररो कीयां - दुपट्ट े, श्रोढ़ने का संकेत ( ? ) किये हुए । २. पडीया - चलाते हुए । ३. ग. प्रतिमें इसके पश्चात् यह पाठ है "नै श्रावंत समा पूछियो, रावजी दांतण करिने श्रारोगिया के नहीं प्रारोगिया । तद पूछणवाळै कह्यौ, रावजी अबै श्रमल करिने दूध मिश्री आरोगसी । तरै पोळिये मांहे रावजीने गुदरायो ।" ४. मेलीयो छँ - भेजा है । ५. वांचीयो - वाचन किया, पढ़ा । ६. सांभली - सुनी। ७. उ [ प्रो ] ठीने डेरो दीधो - ऊंट सवारके ठहरनेका प्रबन्ध किया । ८. अमल विराजीया छँ - श्रफीम लेकर बैठे हैं । ६. ग. प्रतिमें आगे ऐसा पाठ है- "नै तिरवाळा निजर प्राया । तरं खवासने कह्यो, श्रौ दूध मिश्री तू होज पीव जा । खवासने पहले दिन चोट घाली थी । तिण रोससूं खास विस घाल्यौ दूध पिवै नहीं ।" १०. कूतराने पाई - कुत्तेको पिलाई । ११. हंतो लेउं बिना कारण किसका नाम लूं । १२. जाम २ पीलीयो - शरीरका प्रत्येक भाग पेल दिया। ख. में 'जांम २ पीलीयो" के स्थान पर "जनबचौ पीलाया" और ग. में "जनवची पी लियो" पाठ है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [७३ राव लाषणसीजीनै पाछा परवांना लिषनै ओठिनै सीष दीधी । रावजीनै रसाल मेली'। घणो हेत हूवो। परवांना रावजी वाचीया षूस्याली हूई। एक दिन कान्हडदेजी कहीयो। प्रांपासु राव लाषणसीजी गुण कीधो । हि प्रांपें बाई विरमती दीजै तो भलाई ज छ । तरां राणगदेजी कह्यौ। माहाराज फरमावो सो प्रमाण छै । गढपती सगा छ। इसो आलोच करनै घोडा १५ नालेर २ सोना रूपारा परधान साथै प्रासांमी' १० ठावी देने जेसलमेर मेलीया । सो जेसलमेर पाया। रावजीसुं मालम हूई जे सोनिगरांरा नालेर आया छै । आ वात सुणनै रावलजीन घणो सोच हूवो। रावजी कहै म्है तो सोनिगरांसुं भलो कीयो थो पिण मांहरै ही गलामै डोर नांषी छै । हिवै ठाकुरे की करां । कैनै पूछां । तरै परधानै कह्यौ । रावलजी सलामत सोढीजीनै पूछीया"। हां साबास भली कहीया ।। १. मेली - भेजी। २. पुस्याली - प्रसन्नता। ३. गुण कीधो - गुण किया, भलाई की । ४. हिवै - अब । ५. प्रमाण छ - प्रमाण है, टोक है । ६. अालोच - विचार । ७. प्रासांमी - प्रादमी। ८. ठावी - मुख्य, विश्वासपात्र । ६. नांषी छ – डाली हैं । "माहर ही नांषी छ" के स्थान पर ख. प्रतिमें "माहिजे गले प्रलबद छौकरीरी न्हांषी" और ग. प्रतिमें "मांहिजै गळे अलवदौ छोकरीरो नांखियो" पाठ है। १०. हिवै 'पूछा - अब ठाकुरों ! क्या करें, किससे पूछे ? ११. सोढीजीने पूछीया - सोढी रानीको पूछिये । प्रागे ग. प्रतिमें यह पाठ है "मागे रावजीरे ऊमरकोटरी सोढी रांणी छ । तिका डोल माहै माती घांणीरे फेर छ । रूप बुढबी छ, पिण रावलजी सोढी के बस छै"तरै रावळजी कयौ, मां पूछां कि पाछा मेला तो मुंडा दोसां।" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] वीरमदे सोनगरारी वात रावजी मैहला दुमनां विराजीया' । तरां सोढीजी बोलीया । रावजी सलामत नालेर वांदीयां के न्ही । तारे रावलजी बोलीया । म्है तौ नालेर पाछौ मेल देसां । तारां सोढी बोली । हूवा साठी ने बुध नाठी । डोसा गढपतीयांरा नालेर पाछा मेलो मती। तारां नालेर झालीया । परधाननै सीष दीधी। लगन जोयन जांन चढी । तरां सोढी कहीयो । सामोलो सोढारो वषांणज्यौ' । हथलेवो सोढीरो वषांणजो। पिण सोनिगरांरै घरै जीमजो मती । तारां रावजी कह्यौ। भला । ___जांन चढी । प्रागै वधाई दीधी । तरै सांमेलो कीधो। सोनीगरांसु रांम २ हवो । तिसै रावजी अठी उठी देषनें बोलीया। सांमेलो नीपट सषरो10 पिण क्युहीक सांमेलो सोढांरो सकस'1 । विरमदै जांणीयो। जांण तो मन जाणे । १. दुमनां विराजीया- उदास होकर बैठे। २. नालेर 'न्ही - नारियल स्वीकार किये अर्थात् विवाह-सम्बन्ध स्वीकार किया अथवा __ नहीं ? ३. हूवा नाठी - साठ वर्षके हुए और बुद्धि भागी, एक राजस्थानी कहावत है। प्रागे ग. प्रतिमें यह पाठ है "किसं पुखता हुवा छो, रांडोचान करिस्यो किस्यू, खाणे पीवणे पोहचा नहीं, ये रीसावो मती।" ४. डोसा - वृद्ध, मुख्य । ५. झालीया - ग्रहण किये। ६. लगन'चढी - लग्न देख कर बरात (वरयात्रा) रवाना हुई। ७. सांमोलो' ''वषांणज्यौ - सोढ़ोंके स्वागतकी प्रशंसा करना। ८. हथलेवो - पाणीग्रहण, विवाह-संस्कारको एक क्रिया। ६. जीमजो मती - भोजन मत करना। १०. नीपट सषरो- बहुत उत्तम । ११. सकस - बढ़कर । प्रागे ग. प्रतिमें यह पाठ है-"पिण सोढारै सामेळारी होड व्है नहीं । इतरो सांभळत समो वीरमदेरा डील में आग लागी। सोढारो नेस (नाश) छ. तिके दोड़ा छ। भोमिया-भंव, धरतीरा वासी त्यारो, सांमेलो प्राछो, तो रावळ माहे परमेसर नहीं, गधेड़ाकी बूझ छ । सुणीयौ थो त्यूहीज छ । तर वीरमदेजी प्रागै बुधि [वधि] गढ पाया, तठे रावळजी तोरण पण त्यूहीज कयौ...।" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५ वीरमदे सोनीगरारी वात तिसे तोरण बांदीयो'। आरती कीधी। चंवरी वीराजीया । हथलेवो दीधो । तरै रावजी बोलीया। हथलेवो तो सोनीगरीरो सषरो पीण सोढीरी होड न करै। ___ईसो सुणनै वीरमदेजी जांणीयो। सगपणमै षोटा षाधा। रावलमै लषण षीलोरीरा छ । सोनिगरी रीसायनै सुंस घालीयो । हथलेवो छूटा पछै रावलसुं घरवास करूं तो भाइ वीरमदेसुं करूं। परणीजतां विरस हूवो। छेहडा छोडीया। चांच.' पधारतां राव लाषणरो वेगारो हूवो । सीष मांगी। हठ घणो किधो। रहै न्ही । तरै कान्हडदेजी रांणगदेजी रीसांणा। रावलजी चढे नै चालीया। तरां वीरमदेजी कह्यो। बाईने मेलां न्ही । तरै कान्हडदेजी कह्यो। एक वार जेसलमेर पोहचावणी सदामद रीत छ । असवार १०० नै राजडीयो षवास नाई सोथे दैनै बाईजीरो रथ जोतरीयो सो जालोरसुं कोस ४० पोहता। गांव मांडलरो तलाव तट रथ छोडीयो। वलरी तयारी करे छै । केइक टेव टालणन गया छ । १. तोरण वांदीयो - तोरण बांधा, तोरण बांधनेको परंपराका सम्बन्ध तोरण राक्षसको एक पौराणिक कथासे जोड़ा जाता है। २. होड - बराबरी। ३. सगपरणमै षोटा षाधा - विवाह सम्बन्धमें भूल हो गई। ४. पीलोरोरा छै - खिलोरी(?)के हैं। ५. सोनिगरी घालियो - सोनीगरी राजकुमारीने रूठ कर निःश्वास लिया। ६. छेहडा छोडीया - बन्धे हुए वस्त्रोंके कौने खोले गये। विवाह-संस्कारमें वर-वधुके ____ दुपट्ट-साड़ीके कोने एक साथ बाँधे जाते हैं । ७. चांचर्ड - प्रातःकाल। ८. वेगारो - बिगाड़, झगड़ा। ६. रीसारणा - रूठ गये। १०. सदामद - परंपरागत सदाबद्ध । ११. पोहता - पहुंचे। १२. वलरी- व्यालुको, भोजनकी (?) १३ टेव टालणन - पादत टालनेके लिये, शौच आदिके लिये। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] वीरमदे सोनीगरारी वात तिसै सोनीगरी वीरमती छोकरीनै' कहीयो। तूं पाणी भर ले आव । तरै छोकरी भारी भरनै ले आई । तिसै बाई पूसली भरने दे तो पांणी माहें तेल हीज तेल दीसै । तरै कह्यौ। हाथ धोयनै झारी भरी न जायै । तरै छोकरी कहीयो। बाईजी साहिब । कोइक सीरदार सांपडै छै । तिणरा तरवाला आषा" तलावमै दीसै छै । ____ तरै सोनिगरी कहीयो। कठारो सिरदार छै । कांई नांव छ । तूं पूछनै प्राव । तरै छोकरी प्रायनै पूछीयो । तरै ढोली बोलीयो निबो सैवालोत । साष राठोड । धिणलारो धणी' । लापांरो लोडाउ । रूलीयारो जोड । रांकारो मालवो । अधणीयांरो धणी' । परभोम पंचायण । सयारो सेहरो' । दूसमणांरो नाटसाल" । वडो झोकाइत। इसो सुणैनै छोकरी जायनै पाछौ कह्यौ । सोनिंगरी पाछी मेली। १. छोकरीने - दासी को २. ग. प्रतिमें यह पाठ है "तरै दासी झारी भरणनै गई। प्रागै देखे तो नीबों सिवालोत सात-बीसी सांईनारी साथसूं झूलै छ। तिके केवा, चंपेल, अरगजारी पांणी मांहे लपटां प्रावै छ। केसररा रंगतूं पांणी बदळ गयो, रंग फिर गयो छ। दासी झारी झकोळ पाणीसू भरी नै सोनगरीन दीधी। ३. पूसली-अंजली। ४. सापडै छ – स्नान करता है। ५. पाषा - सारे। ६. सैवालोत - सवाल (शिवलाल ?)का वंशज । ७. धिरणलारो धणी - धिरणलाका स्वामी । ८. लाषांरो लोडाउ - लाखोंको मारने वाला। ६. रूलीयारो जोड -बिछड़े हुए, भटकने वालेको मिलाने वाला। १०. रांकारो मालवो - रंकों, निर्धनोंके लिये मालवा। मालवा समृद्ध प्रान्त माना गया है। ११. अधणीयांरो धरणी - जिनका कोई स्वामी न हो, उनका स्वामी । १२. पर भोम पंचायण - दूसरोंकी धरतीके लिये पञ्चानन, सिंह, वीर । १३. सयणांरो सेहरो- समझदारोंका मुखिया । १४. दूसमरणांरो नाटसाल -- शत्रुओंको छकाने वाला। १५. वडो झोकाइत - बहुत मनमौजी। ग. प्रतिमें यह पाठ है-"तर एकण चाकर कह्यौ , साखि राठोड, नींबो सिवालौत, लाखांरौ लोड़ाउ, बडो झोकाऊ, सैंणारो सेहुरो, दुसमणरो साल, जातां मरतांरो साथी, लाखांरो लहरो। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [ ७७ तू जा पूछे ग्राव | राव लाषणसीरी परणी' सोनिगरा कांन्हडदेरी बेटी थांहसुं राषणी यावे तो थांहरै घरै प्रा" । 2B इसा समाचार छोकरी कह्या । तरै निबै सेवालोत बोलीयो । चने प्रावो । है थाने ले जावसां । तर छोकरी जाने कह्यौ । रथ जोतायन: सोनिंगरी चाली । तिसै निबोजी कोस सांमा प्राया । घोडासुं उतरने रथ माहै पधारीया । सोनिगरीसुं मीलीया । 8 तिसै रथरें लारे साथ चढीयो । प्रागै प्रसवार दीठा' । सात वीस ' असवारांसुं सांफ लो वागो' । राजडीयो षवास वाजनै कांम आयो' । निबोजी फतै करैनें " गांव धीणलें पधारीया । वधांमणा" हूवा । 10 2 1 13 .14 वेढरी' " वात कांनडदेजी सुणी । विरमदेजी पीण जांणीयो । निबे घणी कधी । पिण रावलमै षिलोरीरा लषण' था तिसुं परणी गई और साबास नींबाने । मांहरै मोटो सगौ छ । म्है मनमै इण वातरो प्रांटो" कोइ राषां न्ही । 15 १. परणी - परिणीता (सं.), विवाहिता । २. थांह - तुमसे । २ B. ग. प्रतिमें पाठ इस प्रकार है- वीरमतो नाम छे, तिको फेरांरो दोष लागो छै। जो. सूं मोने घरमं घालणी आवे तो हूं आबूं । ३. रथ जोतायन - रथ में बैल जुड़वा कर । ४. लारे - पीछे । ५. स्वार दीठा - अश्वारोही दिखाई दिये । ६. सात वीस- सात बीसी अर्थात् १४० । ७. लो वागो - लोह बजा, लड़ाई हुई । ८. वाजनं - लड़ कर । ६. कांम आयौ - मारा गया । १०. फर्त करने - विजय कर । ११. वधांमरणा - बधाईयां, स्वागत । १२. वेढरी - युद्ध की । १३. घणी कीधी - बहुत क्रिया, विशेष साहस किया । १४. बिलोरीरा लक्षण - खिलोरी ( छिछलेपन) के लक्षण । १५. श्रांटो - वर । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] वीरमदे सोनीगरारी वात राव लाषणसी पीण साभलियो' जे सोनिगरीने ले गयो । लोहारांनै बुलाया । इसो भालो घडो तिणसुं एथ बैठा निबलानै मारां। तरां लोहार साराई दुचिता बैठा' । तरै मिरधारी बेटी बोली। बापजी दुचिता क्युं बैठा छौ। तर कह्यौ रावल भालो घडावै सौ भालो न हूवौ । तरै डावडी कह्यौ लोह नै मैनतरा' दाम उरा ल्यौ नै घर काम करो नै हु रावलजीनै जाब देखें। तरै भालारा रुपीया ले आया। मास ६ हवा तरै रावलजी कह्यौ भालो उरो ल्यावो । तरां लोहाररी बेटी हाथ जोडनै कह्यौ। रावलजी साहीब भालैरो मोनै घणो सोच छ । रावलजी तो पूषता1° छै नै निबौ तो मोटीयार छ । कदेस भालो पकड़नै पूठो रावलजीने वावै'' तो म्है किसुंण करां। तारां रावलजी कह्यौ। हां म्हारी नाहर, भलो वेगौ कह्यौ। भालो भांभरालो देषीयो निंबलो ले जायलो। रावलजी लोहारांनै परची दिराई । भालो भंजायो । रावलजी सोनिंगरी गमाय बैठा । १. साभलियो - सुना। २. भालो घडो - भाला बनायो। ३. एथ - यहां । ४. तसं...बैठा - तब सभी लोहार चिन्तित हो बैठे। ५. मिरधारी – मिरधा नामक व्यक्तिकी (?)। ६ डावडी-लड़की। ७. मैनतरा - महिनतके। ८. उरा ल्यौ – पासमें लो। ६. जाब देखें - जवाब दूंगी, उत्तर दूंगी। १०. पूषता - पुख्ता, परिपक्व, वृद्ध । ११. मोटीयार - जवान, युवा । १२. पूठो - पीछेसे, वापस। १३. वावै – चलावे। १४. भाभरालो - बड़ा, जबरदस्त, भाभरा नामक क्रोधी भूतकी कथा प्रसिद्ध है। १५. भंजायो - तुड़वाया । १६. गमाय बैठा - खो बैठे। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६ वीरमदे सोनीगरारी वात सोनिगरीरै दोय बेटा हूवा । वीरमदेजी नै कागद आवै नै जावै । भाई बहनरे घणो हेत' छ । वरस १० वीता तरै वीरमदेजीरै छोटी बहन तिणरा नालेर दहीयांनै मेलीयां । साहो थाप्यौ । निबाजीनै चावल मेलीया। प्रोहितनै मेलनै बाई वीरमतीनै गढ जालोर ले आया। दिन ५ साहा आडा था तरै वीरमदेजीनै बहिन कह्यौ । थाहरा बैनोइनै बुलावो ज्युं थांहरै नै उणांरै चितषांत भाजै । मोनै अमर कांचली' दीधी। तरै रावजीने पूछनै कुंगतरी मेली । निबोजी वाचेनै घणा राजी हूवा ओर पाछा कागल' लिष्या। तिणमै घणी मनवार लिषी नै वलै' कहीयौ। मोनै रजपूत लेषवीयो' पिण मोनै तो पंजू पायक आयनै ले जाये तो हूं मुजरो करूं । ___ इसा समाचार वीरमदेजीने कह्या। तरै पंजू पायकनें कह्यौ । थे सिधावो11 । निबाजीनें लै आवौ । तरै पंजू कयौ। थे देसोत छौ। मन माहै दगो राषो तो मोने मेलौ मती । पछै अांपणे रस15 रैहसी न्ही । १. हेत - हित, प्रेम। २. साहो थाप्यौ - विवाह लग्न निश्चित किया। ३. प्राडा था – सामने थे, शेष थे। ४. चितषांत भाज- मनोमालिन्य दूर हो। ५. अमर कांचली - अमर सुहाग । कांचळी अर्थात् प्राधी बांहकी चोली सुहागको प्रतीक मानी गई है। ६. कंगतरी मेली - कुंकुंमपत्रिका, निमंत्रणपत्रिका भेजी। ७. कागल - कागज, पत्र। राजस्थानीका अन्य रूप कागद । ८. बल-फिर। ६. लेषदीयो - पालेषित किया, जाना। १०. मुजरो करू - अभिवादन करूं । ११. सिधावो - सिद्ध करो, चलो। १२. देसोत – देशपति । . १३. दगो - दगा, धोखा। १४. मोने मेलो मती - मुझे मत भेजना। १५. रस - प्रानन्दमय सम्बन्धसे तात्पर्य है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] वीरमदे सोनीगरारी वात ___तरै वीरमदेजी पंजूनै वचन बोल दैनै निबाजी कनै मेलीयो । पंजून निबै घणो आदर सनमान देनै बीजै दिन' चढीया सो लग्नरै दिन जालोर अाया। रांव कानडदेजीसुं रांणगदेजीसुं वीरमदेजीसुं जुहार कीधो । डेरो दिरायो । मोदी भलायो । ___ दहीयो परणीयो तिणरो महिल गढ मांहें करायो। वीरमदेजीरै नै निबाजीरै घणो हेत । पंजूपायक नींबाजी कन्है बैठो रहै । एक दिन राजडीयारो बेटो वीजडीयो वीरमदेजीरी षवासी करै छै । तिस बापरो वैर याद आयो तरै प्रांष भरी' । तरै देषनै वीरमदेजी पूछीयो । क्यु तोने कीण दूष दीन्हौ । ___ तरै विजडीयो मुजरो करनै बोलीयौ। कंवरजी राज सरीषा धणो' । तिणसुं मोनै दूष कुण दै। पिण निबो सेवालोत धणीयारो हासो' करावै नै पाप ही करै। वलै गढ मांहै पैषारो करैनै पोढे11 । तिका मन माहै पाई। ___ तरै वीरमदेजी कह्यौ। म्है पंजून बांह दीनी छै तिणसुं कांई कैहणी आवै न्ही । थारै बापरै वैरमै मारै तो मार उतार । ___इसो सुणनै वीजडीयै कयौ। धणीयांरा माथै हाथ छै तो सोगै. १. बीजै दिन - दूसरे दिन : २. डेरो दिरायो - ठहरनेका स्थान दिलाया। ३. मोदी भलायो - भोजनादि सामान इच्छानुसार ठिकानेको ओरसे देते रहने के लिये ___ मोदीको (दुकानदारको) ताकीद की। ४. तिणरो- उसका। ५. दहीयो परणीयो बैठो रहै - पाठ ग. प्रतिमें नहीं है। ६. षवासी कर छ - पासमें रह कर सेवा करता है। ७ ऑष भरी-प्रांखोंमें आँसू भरे। ८, क्यूं दीन्ही - क्यों ? तुमको किसने दुख दिया ? ६. धणी - स्वामी। १०. हासो -हँसी। ११. पोढे – सोता है। १२. बांह - वचनसे तात्पर्य है। १३. साग- वास्तवमें । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [८१ मारूं तो चाकर । इसो मचकूर' करनें उठीया । तिसै बीजै दिन वीरमदेजी गोठरी तयारी कीधी । तरै निबोजी वीरमदेजो पांतोयै बैठा। तिस वोरमदेजोनै कानडदेजी बुलायो । तिसै उठतां थकां कह्यौ । वीजडीया पुरसगारो करे हु आयो । तिसै वीजडोयारा हाथमै वीरमदेजीरो षांडो हूंतो सो नीबाजीने वायौ । आध नेत्र सहीत माथो तूट पडीयो। थांभारै प्रोलै वीजडीयो उभो तिसै नीबेजी तरवार वाई' सो . थांभो कटेने वीजडियारा दोय टूक हय पडीया । तरै चारण कहै । वही वहंत वाह, नर थांभो निझोडीयो । निवडा तणे नेठाह', मारयो विजडीयो मुणस' ॥१ . तिसै गढ माहै हाको हूवौ। नीबाजीरा साथरै गुलीवढ तरवारां थी'' तिणांसुं कांई सझीयो न्ही । साथ सगळो ही नींबाजी कन्है १. मचकूर – निश्चय (?) २. गोठरी - गोष्ठिकी, प्रीतिभोजकी। ३. पांतीय - पातीय पर, भोजनके लिये पंक्तिबद्ध बैठनेके लम्बे वस्त्रको 'पांतीया' कहते हैं। ४. पुरसगारो - भोजनके विविध पदार्थ सामने रखना। ५. षांडो - खड्ग (सं.), विशेष प्रकारकी दुधारी तलवारको 'खांडो' कहा जाता है । ६. थांभार उभो - स्तंभकी प्रोटमें धीजडीया खड़ा था। ७. ग. प्रतिमें यह पाठ है – 'तिको नींबाजीरो माथी अलगौ जाय पड़ियौ न बोजड़ियो थांभार उलै प्राय गयो । तदि नीबेजी प्रापरी तरवार माथै पड़ियै पछै प्राडी वाही।' ८. निझोडीयो- काट दिया। ६. निबड़ा तणे नेठाह - नींबाजीकी हठ, वीरता। १०. मुणस -- मनुष्य । ग. प्रतिमें दूहेका पाठ इस प्रकार है ___ वही वही तै बाहि, नर थांभो नीझौड़ियो । नीबड़ा तणे नेठाहि मरिये वीजडिय मुणस ॥१ ११. गुलीवढ तरवारां थी- गुलोवढ (?) तलवारें थीं। ग. प्रतिमें 'नीबाजीरा' 'तरवारां थी' के स्थान पर यह पाठ है-नोबाजीरा साथ, उमराधांरा हथियार सिकलीगररै दीधा था, तठे गुलरौ बाढ़ दिरायौ थौ । १२. सझीयो न्ही - बना नहीं, सफलता नहीं मिली। १३. सगळो - समग्न, सारा। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] वीरमदे सोनीगरारी वात पडीयौ । सोनिंगरी बेटा दोनुं ही लेने धिणलं ग्राई । 1 2 चूक पंजू पायक सुणीयौ । तर घोडै चढ़ नीसरयौ । सो दीली अलाबदी पातिसाहसुं' मिल्यौ । पातसाहनै सिरूंरा घाव डाव सीषाया । तरै पातसाह रिंकीयो । एक दिन पातसाहसुं रमतां कह्यौ । क्युं बै' पंजू तो बराबर पेलै तँसो कोई पातसाही में है के न्ही । तर पंजूं कह्यौ । जोळोरमै कांनडदेरा बेटा वीरमदे मोसँ बी कुछ सरस है । तर जालोर परवांना मेल्या' । कांनडदेजी परवांना वांच्या' IA घणो सोच हूवो नैं जांण्यौ पंजुडारा काम छै । पातसाहसुं जोर लागे न्ही' । सबरो " मोहरत सषरा श्रवण 11 हूग्रां प्रसवार हजारधसुं' चढीया सो दीली आया | पातसाहने मालम हुई। अंबषासमै ३. रिभयो - प्रसन्न हुआ । ४. बै- सम्बोधन के लिये खड़ी बोलोका हीनतासूचक प्रयोग । १. अलाबदी पातिसाहसं - अलाउद्दीन बादशाहसे । २. सिरा घाव डाव - सिरके श्रर्थात् उच्च श्रेणीके प्रथवा शुरूके, प्रारंभ के ( ? ) घाव दाव । ५. मोस... सरस है मुझसे भी कुछ बढ़ कर है । ६. परवांना मेल्या - एक प्रकारका पत्र, प्रादेशपत्र भेजा । ग. प्रतिमें श्रागे यह पाठ है- 'तिण मांहे लिखियो, तोने ही सिरदार हजूर श्रावज्यो नहीतर हमकूं फेरा दिरावोगे ।' ६. पातसाहसुं न्ही - बादशाह पर बलका प्रयोग नहीं किया जा सकता । १०. सषरो - अच्छा। 12 ७. वांच्या - पढ़ा ( वाचन - सं.) A - A प्रस्तुत अंशकी राजस्थानी मुसलमान पात्रोंसे सम्बद्ध होनेसे खड़ी बोली प्रभावित है । -- 1 5. ख. प्रतिमें यह पाठ है- 'अँ पंजूरा चाळा छे । तर तीने ही प्रालोच्यौ । जो बेंस रहोजै तौ दिल्लोरा धणीसुं पोच श्रावां नही । न हजुर गयां काई वात झूठी साची रफै दर्फ करिस्यां यौं जाण घोडा हजार १ री गांठ करि सबरें मोहरत सबरां सांवण चढ़ीया ।' ११. श्रांबरण - श्रवरण, सुने जाने वाले शकुन ( ? ) १२. हजारधसुं सहस्रार्द्ध (सं.), आधा हजार, पांच सौ । १३. अंबषासमै - ग्राम खासमें श्रौर २ दीवान-ए-खास । 13 मुगल सम्राटोंके दो दरबार होते थे। दीवान-ए-श्राम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [ ८३ बुलाया। दोनुं भाई नै वीरमदेजी मुजरो कीधो। पातसाह डेरो' दिरायो। . - एक दिन पातसाह रमणरो हूकम वीरमदैजीनै दीयो । उमराव रेतीमै उभा छै । पंजू पगांरा अंगुठा नीचे पाछणौ बांधीयो छ । ___ तिसै वीरमदेरी मा अपछरा वीरमदेने कह्यौ । तूं पाछणौ बांधने रमै । उणरा डाव हू टाल देसु नै थारै हाथे पंजू मरसी । हिवै दोनुं जणा रमै छ । तरे कांनडदेजी रांणगदेजी उभा भजन करै छै । तिस कूकडाझट' खेलतां वीरमदे पाछणो काळजानै चलायो । घणा राजी हूवा । हमेस पातसाहरी हजुर आवै । तिसै वीरमदेजीरै पगांरी मोजडी' करणरो हूकम मोचीन दीधो । मोती लाल चुंनी कलाबतू मकतूल मूषमल देने मोचीन सीष दीधी। ___ मोची परवाण11 माफक मौजडी करै छै । तिसै पातसाहरी बैसाह वेगम तिणरी छोकरी मोजडी मोची कन्है करावणने आई थी। तिण मोजडी देषनै पूछीयो । या मोजडी किणरी है । तरै मोची कह्यौ-कंवर वीरमदेरी मोजडी छ । १. डेरो- ठहरनेका स्थान। २. रमरणरो- खेलनेका । ३. रेतीमै - रेत पर, खाली जमीन पर । ४. उभा छ - खड़े हैं। ५. पाछरगो-शस्त्र । ६. दोन जणा - दोनों व्यक्ति । ७. कूकडाझट - मुर्गेका वार (?) ८. ख. प्रतिमें यह पाठ है--तिसं दोन पेलतां २ वोरमदे इसो दाव खेल्यो तिको ऊछलतौ सांम कालजा माहे पंजूरै दोधो। तिको पपिट फाडि प्रांत ऊझ फेफरा निकल ढेर हुवा । धरती पडीयौ । पातिसाहजी क्युं मसलायो। पिण षेल माहे घाव डाव मोटीयाररी फुरत तिणसं क्यं कह्यौ नहीं।' ६. मोजडी - मोचड़ी, जूती। १०. मोचीन - जूती बनाने वालेको । ११. परवाण-परिमाण, नाप । १२. बैसाह -- सम्भवतः बेगमका नाम है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] वीरमदे सोनीगरारी वात तरै मोजडी साह वेगमनै दिषाई। तरै छोकरीनै कह्यौ तिण कंवरनै देषने प्राव तरै उडदावेगण' वीरमदेने देषनै राजी हुई । सागै गेंहणी जलाल छै । पातसाहोमै हुवै तो वंनाउ । तरै छोकरीनै कह्यौ दरबार आवै तरै मोनै दिषावै। तिसै दूसरै दिन दरबार पावतां वेगमनै विरमदे दिषायो। तिसै कंवरने देषनें सनेह जागोयो सो पुरबला भवरो षावंद छै । वांसल भवै कांसी वांणारसी माहैं एक साहूकार तीणरै एकाएक बेटो । जवांन हवो तरै परणायौ । तिस एक दिन संपाडो करतां मुंहडा आगै बहू उभी छै'। तिण समीयै अांधी आई। तिसै असतरी घर माहें गई। साहूकाररो डील रजसुं भरीयो। तरै जांणीयो असत्री मांहरा जीवरी न्ही । रीसमै उठनै कासी करवत छै तठै गयो। करवत लेतां कह्यौ। आधा अंगरो इणहीज साहूकाररै घरै पुत्र होज्यौ। डावा अंगरी अरधंग्या होयजो' । असत्री तो वेह हूई।1।। ___ उण साहूकाररै पुत्र उपनौ' । आधा अंगरी असत्री हूई सो परणीयो । एक दिन वलै1 संपाडो करतां अांधी आई । तिसै असत्री आपरा वसालसुं14 लपेटीयो। तरै साहूकार हसीयो। साहजो क्युं १. उडदावेगण - उडदा नामकी बेगम (?) २. सागै जलाल छै -- वास्तवमें गहाणी जलाल है। 'जलाल' एक राजस्थानी प्रेमाख्यानका नायक है। विशेष जानकारीके लिये 'मरुभारती' पिलानी. वर्ष ६ अङ्क ३ में प्रकाशित मेरा एतद्विषयक निबन्ध अवलोकनीय है। ३. पुरबला. 'षावंद छ - पूर्व जन्मका पति है। ४. वांसलै भवै - पिछले जन्ममें । ५. परणयौ - विवाह किया, (सं. परिणय) । ६. संपाडो करतां - स्नान करते। ७. मुंहडा' 'उभी छै - मुंह प्रागे बहू खड़ी है। ८. तर जाणीयो 'जीवरी न्ही - तब जाना स्त्री मुझसे प्रेम नहीं रखती। ६. रीसमै - रोषमें, कोवमें। १०. डावा. होयजो - बायें अंगकी अर्धांगी-स्त्री होना। ११. वेह हूई - विधवा हुई (?) १२. उपनौ - उत्पन्न हुआ। १३. वल - फिर। १४. वसालूसु- सालसे, दुपट्टे से। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [ ८५ हसीया । तरै कौ गोष' बैठी थांहरी जेठांणी छै । मांहरी असतरी छै । अबार वालो' समयो थो। तरै ग्राप दोड घर मा गई । हूं रस [ज] सुं भरीयो । तरां करवत लेतां मांग्या था सो आधा अंगरा आप हूवा छो । तरं जतन कीधा । I 6 श्रागली असतरी सुणनें मेंहलसुं उतरने करवत लीन्हो | करवत तां कह्यौ । इणहीज भरताररी असतरी होयजो । इतरो केहत पांण धरती पडी सौ पडतां गायरो हाड पगै लागौ । सौ अलावदी पातसाहरै घरै जांमो पायो । साहूकाररा बैटाने कह्यौ थारी भोजाई नेम धार" करवत लोधो । तरै साहरै बैटौ [टे] करवत लेतां कह्यौ । मोटा रावजीरै घरै जांमो पावज्यो । इण असतरीरो वाड कांटो' देजो मती । देह छांडत पांण जालोर गर्दै कांनडदेजीरै कंवर वीरमदे हुवे । तिणसुं बंध | तर वेगम पातसाहने प्ररज कीधी । मैरो व्याह वीरमदेसुं करो । भलां खूब है । 10 एक दीन पातसाह वषासमै विराजीया छै' । तिसै कांनsदेजी आया । पातसाह घणो सनमान देनें वतलाया " । कांनडदे वीरमदेने हमारी लडकी दीधी 11 | १. गोबडे - झरोखे में । २. प्रबार वालो - अभी वाला, प्रभो जैसा । ३. इतरो केहन पांण - इतना कहते ही । ४. गायरो पगै लागौ - गायकी हड्डी पैरों लगी । ५. जामो पायो - जन्म प्राप्त किया । ६. नेम धारनं - नियम धारण कर । ७. वाड कांटो सम्बन्ध-रूपी दुख । ८. मैरो व्याह पूब है - इस श्रंश पर खड़ी बोलीका प्रभाव अवलोकनीय है । ख. प्रतिमें 'मेरो व्याह खूब है' के स्थान पर यह पाठ है -- 'मै वीरमदे सोनिगराने कबुल कीधो । मेरा व्याह निका करो। भरा षावंद सिरपोय जालोरका घणी है । पातिसाह - वेगम तो हिंदु है। मेरी तरफ गाढ भांति २ सुं करिस्थं पिण मेलो तो दाईके हाथ है ।' ६. विराजीया छै - बैठे हैं । - १०. घणो वतलाया- बहुत श्रादर दे कर बातचीत की। ११. हमारी लडकी दीधी- अपनी लड़की दी, खड़ी बोली और राजस्थानी भाषाका मिश्रण अवलोकनीय है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] वीरमदे सोनीगरारी वात तरै कानडदेजी कह्यौ । हम तो हजरतकै नोकर है ।' तरै पातसाह घणो हठ कीधो । तरै कानडदेजी कह्यौ नां हजरत मैं न जाणुं । वीरमदे जाणै । उणरी रजाबंधीरी वात छ । तरै पातसाह इनाम देनै वीदा कीधा ओर कह्यौ । सबां वीरमदेकुं ले पाईयो । कान्हडदेजी डेरे आया। रांणगदेजी वीरमदेजीने हकीगत कही। तरै वीरमदेजी कह्यौ। रावजी कबुलां न्ही तो पातसाह अठे हीज मारै । हूं पातसाहसु वात कर लेसुं ।' प्रभात हवां कान्हडदेजी रांणगदेजी कंवर वीरमदे पातसाहरे हजुर गया। मुजरो करनै बैठा। तिसै फरमायो। वीरमदे तुम हमारी लडकी व्याहो । वीरमदे सलाम करने कह्यौ । हजु[ज]रत सलामत मे तो घररा धणी' रजपूत छां। साहिजादी मांहरां घरां लायक न्ही । पिण हजरत फूरमावै तौ सिर ऊपर कबूलायत छै । पिण जालोर जाय जांन करने' पातिसाहारै घरै आवां तिसौ म्हां कन्है' षजांनो न छ । तिणसु नाकारो' कीजै छ । ___इसो सुणने पातिसाह १२ लाष रुपीया दिराया। तीन वरसरी सीष दीधी। हिंदू गीराहमै परणावेंगे । सताब आईयो । सीष दीन्ही। १. ख. प्रतिमें यह पाठ है-पातिसाह दीन दुनीरा छो। हुं पादरीयौ घररौ धणी रजपूत छु । पातिसाहारा सगा बलक रोम सुम विलायतरा धणी छ । हुं तौ बंदगी करूं छु। २. सबां' 'पाईयो - सबह (?) वीरमदेको ले पाना। 'पाईयो' ग्राम्य हिन्दीका विशेष प्रयोग है। ३. कबुलां न्ही - स्वीकार न करें। ४. ख. प्रतिमें पातसाहके स्थान पर 'तुरकडो' पाठ है। ५. वात कर लेसु- बात कर लूंगा। ६. हजुर - दरबारमें। . ७. धणी - स्वामी। ८. सिर छ - सर पर धारण करने योग्य है, प्राज्ञा स्वीकार है। ६. जान करने - बरात चढ़ा कर । 'जान' शब्द संस्कृत 'यान' का अपभ्रंश है । १०. म्हां कन्है - हमारे पास । ११. नाकारो - मना, नांही। १२. हिंदू परणावेंगे - हिन्दू ग्रहोंमें विवाह करेंगे। १३. सताब - शीघ्रतासे । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात . [८७ तरां साह वेगम पातिसाहन कह्यौ । हजर[त].कान्हडदे वीरमदेने सीष द्यौ। इणका चचा रांणगदेकुं अोलमे' रषो। हिदू है आवै के नावै। पातिसाह कह्यौ खूब कही। कान्हडदे सोनिगरो सीष मांगणनै आयौ तरै पातसाह कह्यौ। भाई रांणगदेकुं हमारे पास रषो। कानडदेजीरो घोडो देवांसी छै । आसौ चारण नै एक षवास तीजा रांणगदेजी। झै तीन जणा राषैनै चालीया । ___तरै रांणगदेजी कह्यौ। ठाकुरां आगे तो सोनारो पोरसो छै नै बारै लाष रुपीया ले जावी छौ तिणरो गढ करावजो। आपण तो पातिसाहसुं नावो करणो छै । मोनै वेगो समाचार देजो। इसी वात ठहरायनै कूच कीधो जालोर पोहता। सषरो' मोहरत जोयनै गढरी रांग दोधी । गढरी ताकीदी कीधी। __ वांस तगा मीलकरी' हवेलीमें रांणगदेजीनै राषीया। रांणगदेजीरो जोबतो कीजो। आसो चारण पईसा २ भर अमल लीयां करै । रांणगदेजी अमल कर कमर वांधने झींथा घोडो उपरै चढे नै पुरी करावै तरै अमल उगै । रांणगदेजी दिन ५ ६ ७ पातसाहरै मुजरै जायै पातिसाह घरांरा १. प्रोलमे -बंधक रूपमें । २. देवांसी-देव-वंशका। ३. पोरसो - पारस पत्थर । ४. नावो करणो छ - नाम अर्थात् संघर्ष करना है । ५. वेगो-शीघ्र, वेग (सं.)। ६. पोहता - पहुंचे। ७. सषरो- श्रेष्ठ, प्रच्छा। ८. गढरी रांग दीधी - गढ़-निर्माणका कार्य प्रारंभ किया। ६. तगा मीलकरी- नजरबन्द करने वालेका नाम है। १०. अमल - अफीम, अहिफेन (सं.)। ११. झीथा - घोड़ेका नाम । १२. अमल उग-अफीमका नशा पावे। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] वीरमदे सोनीगरारी वात समाचार पूछ । तरै मास २ ६ ३ गढ जालोर पोहतांरा' समाचार आया वले आवसी । तरै पिण हजरत वीरमदे दोड गयो थो सो दोड पिण गयो न्ही नै सेहर पीण गयो न्ही तिणरो घणो सोच छ । च्यारै दिस आदमी दोडीया छै। एसा समाचार आया। वले अावसी तरै मालम करसुं। मास १ 5 २ नै बलै पूछीयो । तरै कह्यौ काइ षबर न्ही। पातसाहरा मुंहडा प्रागै नाकरो न कर सकै पिण परो गयो दीसै छै । मांहरै घरमै इतरोइज चांदणो हंतो। इसी वात पातसाह प्रागै कही। वीरमदे भागो सो गम न्ही । तरै साह वेगम बे[बोली। हजरत काफर बैह नावणाया । पातसाह सलामंत रांणगदेका जाबता करीयो। इणकै ताई षबर है। पातसाह तोगवैसो छोड्यौ । तिण समीय बलकर पातसाह अलावदीनै भैसो १ निपट मातो मेलीयो । जिणरा सिंघ'° पूठो ढांकन पूछडै जाय लागा छ । तिको भैंसानै झटकासु मारज्यौ । जबै1 करो मती। दिली अाया। पातसाहसु मिल्या। परवांना दीधा । हकीकत वाची। भैसौ मारणरै वासतै पातसाह दरीषांनो' करैनै विराजीया । मीरजादां जवांनांनै हुकम कीया सो भंसा उपरै थेट १. पोहतार। - पहुंचनेके । २. तिणरो घणो सोच छै – उसकी बहुत चिन्ता है । ३. वले "करुसु - फिर पावेंगे तब निवेदन करूंगा। ४. इतरोइज' हूं तो - इतना ही प्रकाश था । ५. वीरमदे 'न्ही - बीरमदे भागा जिसका दुःख नहीं। ६. बैह नावणाया - दोनों नहीं मानेके हैं। ७. इणकै ताई षबर है - इनको सूचना है। ८. तोगवैसो छोड्यो - पैरोंमें बेड़ी पहिनानेकी प्राज्ञा दी। (?) ६. निपट मातो मेलीयो - बहुत मस्त भेजा। १०. सिंघ - सोंग। ११. जब - जिबह, हलाल । १२. दरीषांनो- अनौपचारिक बैठक । १३. विराजीया - बैठा। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [८६ षुरसाणरा पांडा तूट पडीया' । पठाणजादा हार छूटा। भैंसो मरे न्ही। मास ५७ राषनें सिरपाव देनै पाछी सीष दोधी। सो हालत ता] हालता' जालोर आय उतरीया। तिसै वीरमदेजी वाग पधारता था नै विचै जमरांणारो देठालो हूवो नै भैसारो तमासो देषनै वीरमदेजी उभा रहीने पूछीयो । मीयां भैसो कठै ले जावो छौ। तरै सिपाई बोलीया । बालकरै पातसाह दिलीरा पातसाह कन्है मारणनै मेलीयो थो सो किणहीसु मुवो न्ही । पातसाह न्ही है पटैल' राज करै छै। इसो सांभलनै वीरमदेने रीस चढी' तीको पूठासु प्रायनै तरवार व [वा] ही सींगां नै पूठा विचै तिणसुं माथो तूंट पडीयो। बलकरा सिपाई वाह २ कहिनें वीरमदेनै देषता हीज रह्या । भैंसो मारनै वीरमदेजी गढ सिधाया । भैंसा वाला सिपाई पाछा दिली आया नै भैंसारो माथो पातिसाहन दिषायो। तरै कहीयो हजरत एसा सिपाई हजूरमै राषीजै । वीरमदे कंवर भैसानै मारीयो सो जांणीजै बकरानै लोह कीधो । पातसाह षुस्याल हवा । बलकरा सिपाइ बलक गया। १. थेट''तूट पडीया - ठेठ खुरासानके खांडे टूट पड़े। खांडा = एक प्रकारको तलवार, जिसके दोनों ओर धार हो । २. हालत हालता - चलते-चलते। ३. विच हवो - बीचमें यमराजका (भंसेसे तात्पर्य है) सामना हुआ। ४. उभा रही नै -- खड़े रह कर । ५. बालकर-बलखके। ६. किणहीसं मुवो न्ही -- किसीसे मरा नहीं। ७. पटेल - किसानोंका मुखिया। ८. सांभलन - सुन कर। ६. रीस चढी- क्रोष पाया। १०. पूठासू-पोछेसे । ११, सिघाया-चले। १२. बकराने लोह कीधो-बकरेको मारा। १३. पुस्थाल हूवा - प्रसन्न हुमा । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वीरमदे सोनीगरारी वात वीरमदेरी हकीगत कहो। तरै पातसाह रांणगदेजीन डेरै तेडनै कह्यौ । तुम्हां कहते थे वीरमदेकी षबर न्ही । भेसा मारीया । हमरा बोलबाला हूवा। तुम्ह झूठा बोल्या सौ गुन्हां माफ कीया। अबै कागद भेजनै सताबीसुं बुलावो । उण भैसा लोह करणासुं रांणगदेजी बोहत वेराजी हवा । तरा पछै वेगम कह्यौ । हजरत रांणगदे भाग जायगा। तरै पातसाह वेडी सोरी देनै तगान मेलीयो । फेर कहीयो । जाबतो जादा करीयो । हिंदु काफर है । इनकै सुंसचालमै ठीक न्ही। तिसै वेगम आदमी मेलीयो थो सो गढ देखनै आयो। कांगरा न हूवा छै। वेढरै वासतै' बार वरसांरा सांमांन दही दूध घिरत धान घास कोरड गल षांड तेल सोर सीसारा सामान कीधा । अमल तिजारांरा पूभा' कीधा छै । हमाम होदां टांकां' पाणी भरीजै छै । इसा साम[मा]नरी वात पातसाहनै साह वेगम कही। अमल करणरी वेला बेडी लेने तगो रांणगदेजी कन्है1 प्राय ऊभो रह्यौ ओर कह्यो । पातसाहरो हुक्म छै । थे बैडी पहिरो। तरै रांणगदेजीन घणौ सोच हूवो । तरै आसो चारण बोलोयो । १. तेडन -बुला कर। २. तुम्हां 'बुलावो - प्रस्तुत अंश पर खड़ी बोलीका प्रभाव दृष्टव्य है। ३. वेराजी-बे राजी, नाराज, रुष्ट । ४. वेडी मेलीयो- हलको बेड़ी देकर तगा नामक व्यक्तिको भेजा। ५. संसचालमै - ढोल रखने, चालचलनमें (?) ६. कांगरा-कंगरे, दीवार पर बनानेकी परंपरा रही है । ७. वेढरे वासत - लड़ाई के लिये। ८. सोर -बारूद। ६. पूभा- फोये, रूईके पहल, युद्ध में लगे घावोंकी मरहम-पट्टीके लिये। १०. टांका - भवनों में बने पानी संग्रह करनेके स्थान । ११. अमल करणरी वेला-अफीम लेनेके समय। १२. कन्है - पासमें। १३. ख. प्रतिमें यह पाठ इस प्रकार है-'अब सोनारा थाल माहे सोनारी बेडी पालि तगौ ल्यायो।' Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनिगरारी वात दुहो - रणका रुणझणकेह', राय प्रांगण रमीयो न्ही । तो पहरिस केम पगेह, वड नेउरी वणवीरउत ॥ १ तिसै अमल कर कमर बांध घोडै भींथडे असवार होय कुचरी तयारी कधी । तरै आसो चारण बोलीयो । I दूहो - तगा तगाइ मत करें, बोलै जबां संभाल । 5 नाहर र रजपूतनै, रेकारें" ही गाल' ॥ १ तिसै रांणगदेजी सुणत समान कटारी काढने तगाने वाही' सा तगो तो धरती भेलो हूवो" । भाद्रवारी वीज" पडै ज्युं प्रजांणचूकरी " तीन कटारी लागी । सो तगानै मार लीन्हौ । 12 1 साथ कौ । थेागा पाछा होज्यो । म्है तो गढ जालोर जाय पागडो छाडसां । गजी नीकल्या | हवैली मांहे रोल पडी । सेंहर हलकै चढीयो । लावदी पातसाह है । [ १ १. रुणझरग केह - झनकार करती । २. वड नेउरी - बड़ी नेउरी अर्थात् बेड़ी । ३. वरणवीरउत - वणवीरका वंशज । श्रागे ख. प्रतिमें यह पाठ है- 'श्रौ हौ सांभलि रांगदे कह्यौ । मिरजाजी अमल करु पछै हुकम प्रमाण छे । तगं को खूब कडवा श्ररोग ल्यौ ।' ४. ख. प्रतिमें यह पाठ है-कटारी बांधीने झींथडे प्रसवार हुवा। तरै त का है। होंदू अजब गिवार है । घरजतां माहे घोड़े प्रसवार होवे छे।' ५. नाहर - शेर । ६. रेकारें - 'रे' और 'अरे' श्रादि होनतासूचक सम्बोधन । ७. ख. प्रतिमें यह दूहा अधिक है - ' तगो न जांण तोल, मूरख मछरीकां तो । वायक सुणत कुबोल, मार के प्रा मरे ॥२' ८. सुरणत समांन - सुनते ही । ९. वाही चलाई, प्रहार किया 1 १०. धरती भेलो हूवो - धरतीके शामिल हुश्रा, धराशायी हुना । ११. वीज - बिजली । १२. प्रजांणचूकरी - अचानक हो, विशेष देखिये इसी पुस्तककी टिप्पणी, पृष्ठ सं. २७ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] वीरमदे सोनीगरारी वात दुहौ - सुध पूछ सुरताण, कोलाहल केहो कटक ।। कै हाथी ठाण उथंडीयौ', के रीसबोयो राण ॥ १ पातसाहन मालम हूई। तगान मारने रांणगदे भागो। लारै तो बावीसी विदा कोधी नै कह्यौ। तुमारै लार मै आया। जलदी करीयो। जांण न पावै । दिलीसुं रांणगदेजी घडी ४ दिन चढतै नीकल्या सो रात घडी ४ थाकतां सोझतसुं कोस ६ प्राथवणी कांनी आया । ____ तरै डोकरी' १ गोबर वीणती थी तिणने पूछीयो। डोकरी तै कांइ वात सुंणी। तरै डोकरी कह्यौ। बेटा ! रांणगर्दै तगांनै मारने निकलीयो । वांस बाबीसी चढी छ । इतरो सुणनें रांणगदेजी कह्यौ। फिट भीथडा । तो पैहला वात आई। फिटकारो सुणतां घोडारो प्रांण छूटो तिणरै नाम गांव झीथडो कहीजे छ । आगै तो तूरकारी ढाणी थी। प्रागै सिकोतरीनै11 कह्यौ। १. के."उथंडीयो - या तो हाथी अपने स्थानसे छूट भागा है। २. के रीसवीयौ रांग - अथवा रांणगदे क्रोधित हुआ है। ३. बावीसी- सेनाको बाईसों टुकड़ियां । बादशाहों और राजानोंके यहां विविध महक्मों के २२ विभाग रखनेकी प्रथा रही है। ४. तुमार लार''न पावै - प्रस्तुत अंश पर खड़ी बोलीका प्रभाव है। ५. थाकतां-थकते हुए। ६. पाथवरणी कांनी- पश्चिमकी अोर । राजस्थानी भाषामें चारों मुख्य दिशानों के नाम इस प्रकार हैं- १ ऊगमण (पूर्व), २ प्राथमण (पश्चिम), ३ घराऊ (उत्तर), ४ लङ्काउ (दक्षिण)। ख. प्रतिमें 'रात 'कांनी पाया' के स्थान पर यह पाठ है-'राति घडी ४ पाछली यकां रोहीट गांवसुं उरै कोस ४ एक गांव पायौ' । ७. डोकरी-बुढ़िया। ८. वीणती- चुनती, एकत्रित करती। ६. वांस-पीछेसे। १०. फिट झीथडा-झीथडा घोड़े ! धिक्कार है । झीथड़ा गांव जोधपुर डिविजनमें है । ११. सिकोतरीनै - शाकिनी (एक प्रकारको तांत्रिक स्त्रीको) अथवा शकुनोत्तरी, भविष्यवाणी करने वालीको । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [ ६३ मोनै जालोर पोहचावणो । रोहीठसुं उलीकां न्ही । कोसां चार गांव ढाहरीयां सांसण रांणगदे सोनिगरै दीधी । उठासुं गढ जालोर पोहता । कान्हडदेजीसुं मिलीया । दिलीरी हकीगत सारी ही कही । गढरो घणो जाबतो करणो । रजपूतांरो बारै वरसांरो रोजगार चुकाय दिन्हो नै कह्यो। गढरी सरम थांहरै भुजै छै । गढ घणो फूटरो दीसै त्यूं करणो । तरै रजपूत बोलीया। रावजी सलामत । राजरो लूण घणो फूटरो दिषावसा'। साह वेगमने साथे लैनै पातिसाह लाष १ घोडासु जालोर नेडा" कोसां ४ उरे' डेरा कीधा । मोरचा लगाया। नालीयां चाढी" । गढरै आस पास फोजा लागी।। वरस १ राड हूई। गढ हाथ प्रावणरो ढंग कोई न्ही । तरै पातसाह वेलदार13 ५०० बुलायनै गढरै सुरंग दिराई । १. रोहिठसू उलीकां न्ही - रोही को (जंगल प्रदेशको) उलांचे नहीं (?) २. सांसरण - शासन, दानमें दी हुई जमीन । ३. पोहता- पहुंचे। ख. प्रतिमें पाठ इस प्रकार है-'तर सोकोतर सांवली हुईन कह्यौ म्हारी पूठि ऊपरा चढौ। तर रांणगदे पूठ ऊपरा बैठौ नै सीकौतरि उडी तिका रात घडी २ पाछिली थकां गढ माहे मेल्हीयो। सोकोतरी पाछी प्राई । तठा पर्छ झीथडारी थडौ कराय झीथडार नाम माम वसायौ तिको प्रबारूं कूबाजीरौ झोथडौ कहींज छ।' ४. गढरी "भुजै छ - गढ़को लज्जा तुम्हारी भुजाओं पर है। ५. घणो फूटरो- बहुत अच्छा, श्रेष्ठ । ६. दीस - दिखाई दे। ७. राजरो' 'दिषावसां - आपका खाया हुमा नमक बहुत अच्छी तरह दिखावेंगे। ८. नेडा-समीप। ६. उरे - इधर, इस भोर । १०. नालीयां चाढी - तोपें चढ़ाई गई। तोपें मुख्यतः मुगलकालीन युद्धों में प्रचलित हुई थी। ११. ख. प्रतिका पाठ इस प्रकार है-'जर घडी २ नाला सौ जू [ॐ]ट जूतं तिसी सईकडांबंध लोधी । जिके दौय मण तीन मणरो गोलो षाय । हाथी पूठ टल्ला दै तरै सि तिसी नाला लोधी । और नालारी किसी गणत छ । अगन बरसे। इसी भांतिसु फोजरो चकारी लीयां गढ लागा । साह बेगमरो चकडोल साथे छ ।' १२. राड - राड़, लड़ाई। १३ वेलदार - भवन-निर्माणमें काम करने वाले मजदूर। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] . वीरमदे सोनीगरारी वात तिण समीय उमादै रांणी थाल माहै मोतीयांरो हार पोवती थी सो सुरंगरो धको लागो । सो मोती षडहडीया । तरै रांणी जायनै वीरमदेजीन कह्यौ। अठ सुरंग लागी दीसै छै । तिस तेल मण हजार उनो करायने तइ कीधो छ। तिस सुरंगमै बारी हुई तिणमै तुरत उन्हो तेल नवायो । तिको पालो' साथ ३०००० तेलसुं बल भस्म हूवा । ___ तरै वीरमदेजी जांणीयो इण मोरचै गढ भीळसी' । कंवरजीर रसो. रजपूत जीमै तिकै सोनारा थाळमें जीमें। चलू करनै उठ जाय। वाघ वानर जीमै थाली मंजायनै थाळरै चिबठीरा ठोलारी' मारै सौ आंगल २ री टीकडी उड पडै । सोनार सांधै। तिस कंवरजीनै रसोडदार कह्यौ। वाघ वानर मनमै पोरस11 घणो जांण छ । हमेसां थाल भांजै । रसोडदारनै रीस करने परो मेलीयो । ___ पछै वाघ वानरनै बुलायनै सूरंगरो मोरचो दीधो । पिण कंवरजी एक अरज छ । लोह एक वार चलावसु तिण वास्ते तरवार कटारी हजार २३३ मो कन्है मेलावो" पछै रजपूतरा हाथ देषीजै। इसी १. मोती षडहडीया - मोती हिले, मोती चलायमान हुए। यह प्रसङ्ग ख. ग. प्रतियों में नहीं है। २. उनो करायने - गरम करवा कर। ३. तइ-तैयार, बहुत गरम । ४. नवायो - नमाया, बहाया। ५. पालो - पंदल सिपाही। ६. यह प्रसङ्ग ख. और ग. प्रतियों में प्रागे दिया गया है। ७. भीळसी-नष्ट होगा। ८. चलू करन - प्राचमन कर, पानीसे मुंह साफ कर। ६. चिबठीरा ठोलारी - अंगुलीके जोड़के उठे हुए भागको । १०. सोनार सांध- सोनो जोड़ता। ११. पोरस - पुरुषार्थ । १२. यह प्रसङ्ग ख. और ग. प्रतियों में नहीं है। १३. लोह'चलावसु- एक हथियारका प्रयोग एक बार ही करूंगा। १४. मो कन्है मेलावो-मेरे पास रखवायो। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरी वात [ ६५ वात सुणनै वीरमदेजी मनमै राषी' । अलावदी पातसाने १२ वरस हूवा गढ भिले नही । 3 fare पातसाह कौ । हजरत गढ माहै सांमांन नीठीयो दीसँ छै । आ षबर वीरमदेजीनें हुई । तरें दूधरी बीर करायनें दोना भरने फोज दीसा नांषीया * । 4 तिरै पातसाह देष कह्यौ । मैरा बैटा काफर अजैसे तो गढ़ में षीर षावै छै । सांमांन बोहत वरसके है । 1 पातसाह पाछो कूच कीधो । मोरचा उठाय दीया । जालोरसुं कोस ४ उपरै डेरा दीधा । दिन षंडप भवरांणी डेरा हूवांरो हलकार' प्रायने कह्यौ । दुजै .9 10 तर गढरी पोल घोलने सैदांना वागा । दरीषांनो कीधो" । जाचक जिन " विरद बोलै छै । तिसै गोठ" तयार हुई । तरै सारो ही साथ जीमै छै । वीरमदेजी ने बेंनोई + दहीयो भेला जीमें छै । 3 14 दहीया २ सूल दीघा था । तिकांरा मुंहडा ग्रांमा सांमा देषनै १. यह प्रसङ्ग ख. धौर ग. प्रतियोंमें आगे दिया गया है। २. भिलै न्ही - नष्ट नहीं होता, विजित नहीं होता । 6 ३. नीठीयो दीसं छे - समाप्त हुआ दीखता है । ४. फोज दीसा नांषीया फोजकी घोर डाले। ख. प्रतिका पाठ इस प्रकार है तरै [] कूतरी व्याई थी तिकारी दुध लेनं बोर कराई। तिके पातलाई बोर लगाने ल्हसकर दोसी नांषो ।' - ५. अजैसे - अब तक 1 ६. दुजै - दूसरे । सं. द्वितीय, गुज बोजा । ७. हलकारे - संवाददाताने । ८. सैदांना - नक्कारे । ६. वागा - बजे । १०. दरीषांनो कोधो - दरबार किया । ११. जाचक जिन - याचकजन । १२. गोठ - प्रीति भोज, सं. गोष्ठी । १३. जीमं छे - भोजन करता है । १४. बॅनोई - बहनोई | Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] वीरमदे सोनीगरारी वात वीरमदेजी मसकरी कीधी। आज दहीया मतो भुंडो करै छै । सही तो गढ भेलावसी। इसो सुणनै बैनोइ कहै। कंवरजी मुवांसु किसी मसकरी करो। तरै वीरमदेजी कह्यौ। थे तो मुवांरा जीवता भाइ छौ । थे मदत करो। भायांरो वैर वालो । तरै दहीये कह्यौ। मोटो बोल साहिबने साजै । ___गोठ जीमतां वेरस' हुवो। उठासु उठनै माणस तो मारोठ परबतसरनै पोहचाया । आप नीकलनै पातसाहसुं मीलीयो । हकीकत सारी कहीं । माहे तो सांमांन षूटो । राज पाछो कूच करो । हू गढरो भेदू छु । गढ भेलावसुं। प्रभाते' कूच हुवो सो जालोरगढ दोला' डेरा दीधा। मोरचा लागा। सुरंगमै दारूरा' थेला भराया। पछै लगाई। सोर उडीयो। तिणसुं गढरै बारो° हूवो। तणी सुरंगरै मोरचै वाघ वानर बैठो छ। तिण सुरंगमै पैदल साथ चढनै गढरै बारै आवै तिणनै वाघ वानर घाव करै सो मरै । एक लोह करै । मारतां मारतां हजार ४ पैदलरो गरो हूवौ' । सगला प्रावध नीठीया । तुरक होकारो कर करने आया। तरै तरवार विनां १. मतो भुंडो करै छै - बुरा विचार करते हैं। २. मुवांसुं - मुर्दोसे, मरे हुएसे। ३. भायांरो वैर वालो- भाइयोंके बैरका बदला लो। ४. ख. प्रतिमें यह पाठ है 'वडा सिरदार नर नींदवीज नहीं। नरांरी प्रणमापी राशी छ। चाहै ज्यूं करें। न म्हे तो थांहरा भलचीत छां। पिण मोटा बोल तो श्री नारायणजीनै छाजे।...' ५. वेरस - मनमुटाव । ६. भेदू- भेदिया, भेद देने वाला। ७. प्रभाते - प्रातःकालमें। ८. दोला - चारों ओर। ६. दारूरा-बारूदके । १०. बारो- छेद । .११. गरो हूवौ - ढेर हो गया। १२. सगला प्रावध नीठीया - सभी प्रायुध (शस्त्र) समाप्त हो गये। १३. होकारो-किलकारी। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरमदे सोनीगरारी वात [ ६७ वाघ वानर उभो। फोज आई देषनै हाथ पछाडीयो सो वैणी माहसु हाथ झड पडीयो। हाड तीषो नीकलीयो तिणसुं लोह करै । तिको जांण कटारी वावै छै । इण भांत ४० ते ५० पाडैनै आप पडीयो। तरां वीरमदे कह्यौ। आलम पनां। रजपूतरो वट हिंदु षत्री धरम' जिण मुंहडै राम जपीयो तिण मुंहडै कलमो न केहणी आवै । पिण श्रीरामजी करै सो कबूल छै । ___इसो सुणनै पातिसोह बोल्या। हम तो व्याह हिंदुकै राह कबूलाया था। पिण तुमार तो नका पढणकी दिलमै आई। जावो वीरमदेकुं संपडावौ' । काजी बुलाय नका पढावौ । ___चाकर वीरमदेने दूजे डेरें ले आया। कमर षोली। वागारा चहिरबंध षोलीयो । तरै प्रांतारो ढेर हूवो नै वीरमदे नेत्र फेर दीया । तिसै चाकरां पातिसाहनै कह्यौ । हजरत । वोरमदे पेट परनालन' आया था सो भिस्तकुं पोहता। श्रा वात वेगमकुं कही । तरै वेगम कह्यौ। आलम पनां वीरमदेका सिर काटनै ल्यावो। उनका सिरसुं फेरा लेउंगी। मैरा पहला भवका षांवदा है। इणकै वास्तै मै करोत लीधी। आगै छ वेला इणनै १. वेणी माहसु-कलाईमेंसे। २. पार्डन - गिरा कर, मार कर। ३. षत्री धरम - क्षत्रिय धर्म । ४. ख. प्रतिमें यह पाठ है ..गऊ पुजां । तुलछी मांनां। श्रीसालगरांमजीरो चरणा मृत ल्यां । वामण षटदरसणरै प्राधीन रहा नै जिण मुषसुं श्रीराम राम जप्यौ तिण मुषसु असुर मंत्र कलनौ कहिणी नावै । पिण श्री परमेस्वरजी कर तिर्फे प्रमाण छ ।' ५. कबूलाया - कबूल करवाया, स्वीकार करवाया। ६. ख. प्रतिमें यह पाठ विशेष है ‘साहिब एक है। राह दौह कीया है।' ७. संपडावौ - स्नान करवानो। ८. दूज - दूसरे । ६. वागारा चहिरबंध - बागाके (एक प्रकारको मुगल-कालीन घेरदार अंगरखीके) बंधन । १०. परनालन - चीर कर, काट कर। ११. भिस्तक पोहता - भिश्तको (बहिश्तको) पहुंचे। १२. पैहला भवका षांवद - पूर्व जन्मका पति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] वीरमदे सोनीगरारी वात परणी छु । प्रा सातमी वेला छ । दूहौ- मरू मुंछ मटकडै', अवरस नांपु झार । वर वसं[रू] तो वीरमदे, रहुँ तो अकन कंवार ॥ १ पातिसाह प्रागै वात सगली कहो। वीरमदै नमीयो नही । वीरमदेरो माथो काटनै साह वेगम कन्है थालमै घालनै ले गया। ___वेगम सांमी' आई तरै मुंहडो फिर गयो। तरै वेगम कह्यौ । कंवरजी साहि[ब] मै तो करोत लैतां भव २ तंहीज' भरतार मांग्यौ है नै राज इणहीज भव मांग्यौ । जे इणसुं वाड कांटो देज्यो मती । राज तो रुसणो जिसोहीज निरभायो । हूं तो फेरा ले1 सती होसुं। इतरो सुणतां मुंहडो फिरीयो। साह वेगम फेरा लैनै पातसाहने कह्यौ । मोनै दाग द्यौ । तरै पातसाह कयो । सात भवरो षांवद छै । सत करण द्यौ । १. परणी छु- विवाह किया है। २. वेला- समय, संस्कृत शब्द है । ३. मटकडे - मरोड़। ४. अकन कंवार - निपट कुंवारी, कन्या । ___ यह दूहा ख. और ग. प्रतियोंमें नहीं है । ५. सगली - सारी, समस्त । ६. घालन - डाल कर। ७. सांमी - सामने । ८. तूंहीज - तुमको हो। ६. वाड कांटो देज्यो मती - वाड़ कांटा मत देना, एक मुहावरा है, जिसका तात्पर्य किसी प्रकारको बाधा नहीं देनेसे है। १०. राज तो निरभायो - प्रापने तो अपना रोष वैसा ही निभाया । ११. फेरा ले - विवाह कर, विवाह-संस्कारमें अग्नि-परिक्रमा की जाती है । १२. मोनै दाग द्यौ - मुझे जलाओ, मेरा दाह-संस्कार करो। १३. सत करण द्यो - सती होने दो। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोरमदे सोनीगरारी वात [ ६६ चंदणरो घर करनै गोदमै धड माथो मेलन' सती हूई। साह वेगमरै नै वीरमदेरै रूसणो भागो' । पातिसाह पाछो दिली गयो। इति श्री वीरमदे सोनिंगा[गरा]री वात संपूर्ण । १. मेलन - रख कर। २. रूसणो भागो-आपसका रोष दूर हुमा। रूसणो <सं. रोष, भागो <सं. भग्न । ३. ख. ग. और घ. प्रतियोंके अन्तमें यह पाठ है 'वडी वेढ (ग. वेठ) हूई। रावजीरा राजपूत हजार ५ (ग. पांच) काम (ग. काम) आया। हजार २ (ग. दोय) लोहां पडीया ने पातिसाहजीरा सिपाई हजार १५ काम] (ग. काम) आया। हजार १० ११ लोहां पडीया (ग. पड़िया) वडौ (ग. बडो) गजगाह हुवौ (ग. हुवो)। इण समीयारा गीत गुण भावन घणा ही छ। पछै पातिसाह दिल्ली गयौ (ग. पातिसाहजी दिली गया)। संवत १३०० जालोर (घ. जालौर) वसीयौ। संवत १४१६ गढरी नीव दोधी। संवत १४३७ अलावदीन पातिसा (घ. पातिसाह) जालोर (घ. जालौर) लोधौ ।। इति श्री वीरमदेजीरी वार्ता संपूर्ण । भावन-स्व. श्री सूर्यकरणजी पारोकने "गुणगान" अर्थ दिया है (राजस्थानी वाता पृष्ठ १०३) । प्रेम अथवा समान प्रकट करनेके लिये रचित राजस्थानी काब्यके एक विशेष प्रकारको "भावन" कहते हैं। ग. प्रतिमें संवतवार घटनामोंका उक्त लेख नहीं है और पुष्पिका लेख इस प्रकार है 'इति श्री वीरमदे सोनिगरारी वात पूर्ण । घ. प्रतिका पुष्पिका लेख इस प्रकार है-'इति श्री वीरमदेजीरी वार्ता संपूर्ण: ॥श्री।। मुनि पुस्यालचंद लपि कृ [कृतं] संवत् १८३६ वर्षेः ॥ फागुण बदि ११ बुधवासरेः ॥ श्री गुंदवच नगर मध्यः ॥' प्रागे यह कवित्त है"कवित्तः- किसी चंद्र विण रयण, किसौ पनि वीण तरवर । किसी पुरष वीण नार, किसो हंस विण सरवर । किसी देवल बीण देव, किसौ देव विण पूजारौ । किसी प्ररथ विण वात, किसी वात पिण पडरौ । किसो खड्ग विरण षोत्री, • रूधा जायनसी । कवि गद कहै ही राय हर, विण दोधा कीरती कीसी ॥१ पडारौ- पाण्डित्य, सं.। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट प्रस्तुत पुस्तकमें प्रकाशित वार्तामोंसे सम्बद्ध विशेष कृतियों के कतिपय उद्धरण पाठकोंकी जानकारीके लिये यहां दिये जाते हैं । १ बगड़ावत __ "बगड़ावत" नामक महाकाव्य राजस्थानी जनतामें मौखिक परंपरासे गाया जाता है। प्रस्तुत महाकाव्यमें संगीत और काव्यकी प्रारंभिक स्वाभाविक रमणीयताके दर्शन होते हैं। काव्यका प्रासङ्गिक परिचय पुस्तकको सम्पादकीय भूमिकामें दिया गया है। बगडावत काव्यके कतिपय विशेष अंश साहित्यानुरागियोंकी जानकारीके लिये नीचे प्रकाशित किये जा रहे हैं। संपूर्ण काव्यका गठन एक विशेष लय (तर्ज) पर आधारित है। [ मङ्गलाचरण ] पैलां ही कणी देवने सिंवरजै और कुणीरा लीजै नाम । पैली अणगड़ देवने सिंवरो और गणपतरा लीजै नाम । सारदा ब्रह्मारी डीकरी, हंस बैठी बजावै वीण । खातो संवरे खतोड़ में, एरण धमता लवार । बेटो रजपूतरो आपने संवरे, उगतड़े परभात नीली पाखर पर माण्डे झूल । समरू देवी सारदा, नमण करू गणेस । पांच देव रच्छा करे, ब्रह्मा विस्तू महेस । [रावत भोजा-वर्णन ] लेणा हररा जी नाम, परभाते भोजने गावणा। लेणा भोजरा नाम, भोज दातारांरो सेवरो। मतवाळांरो मोड़, भोज दातारांरो सेवरो। ऊंचा बंधावे देवरा, सोनारा कळस चढ़ाय । सोनाने कांटी तोलणा, रूपाने लेणो ताय । रूप उधारो नी मले, मऱ्या न जीवे कोय । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०१ परिशिष्ट मर जाणो संसारमें, कई य न प्रावे लार । खावो नै खूब्यां करो, करो जीवरा लाड़ । जीवड़ा सरीखा पांवणा, मले न दूजी बार । चुणियोड़ा देवळ ढस पड़े, जनमियोड़ा नर मर जाय । काचा घड़ा नरजन पूतळा, काची मरदारी देही । असी चूडी काचरी, फूटे न फटीको होय । उगियोड़ा सूरज प्रांथसी, फूलियोड़ा कुमलाय । [सूम वर्णन ] कई न अावे लार, सूमरे गाड़ी भरिया लाकड़ा । खांडी हांडी लार, सूमने जाय खेतरां उतार दो । गुरूदेवरी आण, सूमसू धरती मेलो प्रारजी। गुरूदेवरी प्राण, सूमरा धूआं धुंधला नीकळे । गुरूदेवरी प्राण, पाछो मेलोजी भोळा रामजी । सतलोकरे मांय, पाछो मेलोजी भोळा रामजी । कोठामें रह गयो धान, म्हारे गड़िया रह गया टूकड़ा। धळ व्हियो धन माल, सगो कोई नी रे बेटो बापरो। पूत न परवार, सगो कोई न जो घररी गोरज्या । सगो है न संसार, सगो कोजै रे अगनि देवता । वा लेलो सुधार, सगी कोजो जी बनरी लाकड़ी । उठ जलेली लार, सगी कीजो जी बनरी लाकड़ी। [ रावत भोजाको दानशीलता और ऐश्वर्य ] गुरूदेवरी प्राण, ऊंचा बंधाऊ जी हररा देवरा । गज गरियांरी नींव, म्हूँ तो कूड़ा खुदाऊ रे बावड़ी । मायाने किण विध खाय रे मायाने ऊंडी गाड़ दो । दो ने शीशो ढळाय, मरदां काळ दुकाळां काढसी । गुरुदेवरी प्राण, ताळा जड़ दो वीजळसाररा । बगड़ जड़ो कुमाड़, मरदां काळ दुकाळा काढसी । गुरुदेवरी आण आपां मांडल ढाबा मालवो। आपां बळती ढाबा मेवाड़, रे जातोड़ो परजा ढाब लां। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट गुरुदेवरी प्राण, घोड़ीरै पगां ठळकती नेवरी । चांदीरी खुरताळ, घोड़ीरे हरियाला नेवर वाजणा । घमके घूघरमाळ, घोड़ी नानासणारी नेवरयां । गुरुदेवरी आण, घोड़ीरे झूल बणी जंगाल जी। गुरुदेवरी आण, घोड़ीरे दुमची फूंदा पाटका । गुरुदेवरी प्राण, घोड़ी ताजी जुगको ताजणो। सतजगरो पलाण, घोड़ीरे लाख लाखरा पागड़ा । गुरुदेवरी आण, घोड़ीरे सिंगाड़ो सोने जड़यो। हीरा तपे ललाड़, घोड़ीरे मोती बालां जड़या। लाला जड़ी लगाम, चांवड़ने तुरों तो ओपे घणो। तुएँ तार हजार, रे वेलामें चमके वीजळी । [ जयमतो विरह-वर्णन ] गुरुदेवरी प्राण, हीरा काजळसू काळी पडूं । रूप देहीरो जाय, छोरी काजळसू काळी पडूं। बावां हाथरी मूंदड़ी, छोरी रळकण लागी बांय। फूलांसू फोरी पडूं, छोरी गेलामें पाई नींद । नजरसूं देखू रावत भोजने, जदी खाऊं धान । पछ मगरांरा मोर, आज मीठा घणा बोल्या । घणा बोल्या दादर मोर समन्दरा हंस जी । दियाड़ो घणो रूड़ो लागे पो हीरजी। छै दनरी ली रजिया भोज, यो छटो महीनो जाय । [ जयमती सौन्दर्य-वर्णन ] भूल गया भगवान, भाभी ! वण साँचे दो घड़या । भूल गया भगवान, भाभी ! नहीं देवळ फूतळी । नहीं नारांमें नार भाभी ! नहीं देवळ फूतळी । गुरुदेवरी प्राण, भाभी जांघ देवळरो थंभ जी । पिण्डी बेलण होय, भाभी एड़ी तो सुपारो वणी । नाक वणी तलवार, देवी मुख गंगा खळक रही । गुरुदेवरी प्राण, राणीरे गोड़ामें गुणेशजी। गोड़ामें गुणेशजी, देवीरी कमर केळीरी कामड़ी। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३ परिशिष्ट पेट पीपळरो पान, देवीरे दांत दाड़म कर बीजड़ा । गुरुदेवरी प्राण, देवीरे नेतां सुरमो सारणो। कोयां काळी रेख, देवीरे नेताजी सुरमो सारणो। गुरुदेवरी प्राण, देवीरी जीभ कमलरो पानड़ो । होठ फेफरा फूल, राणीरे जीभ कमलरो पानड़ो। कोयां काळी रेख, देवीरी चोटी गई पताळ । गुरुदेवरी आण, अग्गमरो झोलो पावसी । अगमरो झोलो आवसी, पच्छमने लळ जाय । पच्छमरो झोलो आवसी, अग्गमने लुळ जाय । चोफेरा वाजे वायरा, टूक टूक हो जाय । थने सूवो झपट ले जाय, हंसती बोले बेण जी। . गुरुदेवरी आण, राणी सीप भर पाणी पिवे । गुरुदेवरी आण, राणी बोळ्या-पानमें जीमसी । गुरुदेवरी आण, धणारी खोपड़ी में खाय । चोथो दाणो चांवल तो राणी पेट फाट मर जाय । [ युद्धसज्जा और युद्ध ] गुरुदेवरी आण, भाटी नूतांजी जैसलमेररा। भीलवाड़रा भील, मरदां गढ़ देवलरा देवड़ा। भीलवाड़रा भील, मरदां गढ़ चित्तोड़रा चीतला । गुरुदेवरी पाण, काळू मीयों सनवाड़। काळ मीयों सनवाड़, चढ़ ने वेगो आवजे । महाभारतरे माय, काळ चढ़ने वेगो आवजे । गुदेरुवरी प्रोण, काळू रे ढाल उड़े आगे फरे । गूजर गावे गीत, काळू री बरछी मांगे आंतड़ा। तंग कसी तरवार, काळू रे छुरियां चमके वीजळी रे जोधो जगमाल, नानी वयरो बाळक्यो। हुयो जोध असवार, गयो खारीरे खेतमें। भारत करवा लागो सूरमो, धरती रगत धपाई । छः महीनारो भारत झझियो, माथो देवी लीधो। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] परिशिष्ट के नीयाजीरो माथो चांवड़ माळामें पोयो । नीयाजी घोड़ो ऊबटा रंगमहलांमें आवे । सती हो तो जागजो नियारी भारती लीजो उतार । गज मोतीड़ा थाळ, गढ़री गजरयां आई । गजरयां देखे वेष नीयाजीरे माथो नहीं। के भड़ भाई चोईस, हुया घुड़ले असवार । कै रण भारत माचियो, खारीरे ढावे पास । देवी चांवडा खप्पर खाण्डो ले ऊतरी। ऊतरी धर बदनोरांसू आज बगड़ावतारी फोजमें। चोईसारा माथा काट, झट माळा पहरली। "गण गण माथा तोड़, बैठी बदनोरांरी ढाळमें । देव नारायण देव पधारिया दसा बावड़ी, गावो मंगलाचार । वधावा गावो परथीनाथरा, गावो मंगलाचार । गजर करे भारती, घणी खमा नारायण हींदे पालणे । पुजारा करे भारती, श्री नारायण हींदे पालणे । खारीरा भोमिया थारी भारती, भदेरया भेरू थारी भारती। मातासरी पो थांरी आरती, बदनोरी चांवडा थांरी आरती । खूमाणा स्याम थारी भारती, काळी काळका थांरी पारती। जोगड़ारा धणी थांरी आरती, भूत्या सक्या थांरी पारती। तेतीस करोड़ देवता, थांरी बोलां प्रारती। कासीर। वासी, ने बारा ही पुजारा बोलां पारती ॥ २ महाराजा बहादुरसिंह कृत ख्याल राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानके पुस्तकालयमें किशनगढ़ महाराजा बहादुरसिंह प्रणीत ख्याल परक एक नवीन कृति हालही में प्राप्त हुई है । यह कृति पुस्तकालय रजिस्टर में क्रम संख्या १३७५२ पर अङ्कित हुए गुटकेमें लिखित है। ख्यालके कतिपय अंश पाठकोंकी जानकारीके लिए प्रकाशित किये जाते हैं। * श्री गणेशाय नमः * अथ ध्याल महाराज वहादुरसिंहजी कृत लिख्यते Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ १०५ राग रामकरी सुतडीने काही छेडो रूडा महाने श्राळसियो हो आवै । द्रिग हिमैं महारै पागा छुवावौ या नहो बात सुहावै ॥ १ हौ लाडीजी ौ कई किसडौ सुभाव । पिय प्राधीन रहैं कर जौड्या तौहो भौंह चढाव ॥ २ राग ललित उणीदा छो जी रातरा। वैण स्थिल अरु नैण झक्या ही पावै, लग बैठा परभातरा । पलकां पीक अधर फीकै रंग, रस अळसाया गातरा ।। ३ उरणीदा वौलो घणा धूमै छ। झपक उझक मिल लालच लुभावै छै । अजब छकणकी झूमै छ । उणीदी आषडल्यां पर घूमै छ । लालच लगी झमक मिल झपकै । लाज दबी झुकि झूमै छै ।। ४ अाज हुवौ छै मनरौ भायौ, राज सहेली व्है गुण गास्यां ।। पना सालग्रह कुंवर पांवणा, फिरचौ दिन कद पास्यां ॥ षुसी जनमरी मांहि जनम फल, क्यातणो जितास्यां । यां केसरयानै लडाय कर छकस्यां, और छकास्यां और छकास्यां ॥ ५२ नवल सषीजी भल आया हो राज । साँझो काज फुल वीणण पायोजी फल आज । इहि वन फूली सी फिरत अकेली तूं पाली सांवरी है। सांझीकौं फूल गरै डौरी हग फल मन भरै भावरी है ।। ५३ रहै दौऊं बदन निहार । फूलन स्यांम सषी इत उत स्यांमा सकुमार । लता किरनमैं रह गये इत उत सके कौंन निवार । नागरिया मिले नैन दुहूनके वडे ठगन ठगवार ॥ ५४ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] परिशिष्ट पना मारुजी प्राजौ जी प्यारा पावरणा हो राज । पना मारुजी काछी चढज्यों कूदरणे हो राज | पना मारुजी हाथे चावक सावल साज || पना मारू धण थारी प्रोलू करै हो राज | पना मारू किणनै कहा दुख जियको प्राज । पना मारुजी मेह वूझा हरक हातमै हो रोज ।। ६२ मेहली लूंवियो राज जब झड रंगरी मचो । नेह मेहरी भूम भूम मैं मतवालो मौज सचो । इंद्रनीलमणिरै मधि नायक कुंदन रेष षची । धरण दामणरोकियौ घण उपमां लची कची ।। ७१ * हो गोरीजीरा बालम सेझडली लुभाया रंग राता है । लोयण झुक झुक उझक लजाता है । षि छकि छकि हरषां [ता] ₹ । कि देषि उठत छाता धुकै रुकं मदमाता रै | कुंवर पना किण नही भावौ अलसाता मुसकाता रे || ७६ महारा प्रालीजाजी थारी छवि भावै । मदछक राग गवाता महलां वरछा थेगा देता आवै ॥ ८० हरिया वनडा नेहडला लगा । अलभ लाभ धन भाग मांन छकि वनडोकै चाव जगा ॥ ८१ गीत हैं जो उक्त ख्याल गुटकेके पुस्तकाकार ६ पत्रों में लिखित है। इसमें कुल ५१ विभिन्न राग-रागनियों में गेय है । सम्भवतः लेखन में ख्याल अपूर्ण रह गया है। उक्त ख्याल राजस्थानी भाषा में गीतिनाट्यके विकासको सूचित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है, जिस पर उत्तर मुगलकालीन कलाका प्रभाव पूर्णरूपेण प्राप्त होता है । ३ वीरमदे सोनीगरारी वात सोनगरा चौहान कान्हडदे, वीरमदे और रागदे नामक वीरोंके विषयमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ राजस्थानी भाषामें उपलब्ध होती हैं, जिनमेंसे महाकवि पद्मनाभ विरचित काव्यग्रंथ, कान्हडदे प्रबन्धका प्रकाशन राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रतिष्ठान द्वारा पहिले किया जा चुका है और वीरमदे सोनीगरारी वातका प्रकाशन प्रस्तुत पुस्तकमें Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिस्ट [ १०७ किया जा रहा है। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा हालही में प्राप्त किए गए इन्द्रगढ़ (कोटा) के सरस्वती-भंडारके हस्तलिखित ग्रन्थों में एक चारण गीत संग्रह भी है जिसमें उक्त सोमोगरा चौहान वीरोंके विषयमें भी गीत और दूहे लिखे गये हैं। पाठकोंकी जानकारी और संदर्भ हेतु उनको नीचे उद्धृत किया जा रहा है गीत वीरमदे सोनगराको सर सेल कटारी पटे [पेट] न सकीयो, डरपीयो हर अहर दुष । फुरत भलो बीरमदे फुरोयो, माथो पींड बिरण परा मुख ॥ पोहोप पटोळं बीर पुजीयो, देष के वैरज मांहि दीवाण । आणीयां पछो हुवो अपराठो, सुदतायी सोभ बदी सुरताण ।। रंगि कैवरि न रचे अने रड़े. राव प्रभतायी तणी रुष । बरबा कजि उठि सीस बदनी, मुष देषे फररीयो मष । छ चोक छतीस पोहोरकी छेटी, बीर तह न बीसरीयो। बाढीया पछो भलो बीरमदे, फटि फटि [फीट फोट] कहे कमल फरीयो ।। ५२३ गीत जसो सोनगरारो जुग च्यार पर्षे गा मुझ जोवता, राजि कन रहतां दीन राति । आजि सहार बिचै उपामे, जुनां देव नवी या जाति ।। पाहिव आहि वजतै प्राणीया, । सो जाणं मैं दिठ सह । कमळा तणो कमल कहकंतां, किम मिलीयो यिम वात कहै ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] परिशिष्ट मह रामायण सीस लीया म, आप ईस सकत्तिसुं येम । जाय पाणिया स ताहि तुं जाणे, __ कहन आणिया सजाण केम ॥ उतबंग अनंत आणीया आगें, नाथ कह सांम्हळि नीय नारि । दीयणहार न मीळीयो दुजो, सींघ समो भूम[प] तिस्यो सैंसारि ॥ आप तणें त्रिय तणों प्रापरी, भड़ भटनेर पड़त भारि । सीर व्यहुँ वसिये सोनंगर, दीधा मुंड बडै दातारि ।। ५२५ दहा वुतबंग अरघंग ता, बंधे कंठ लड़ीयो बयस । जोय अचिरज जैसा नाडुळा, नर हर नयस ॥ १ रांणंगा रूणझुणतेह, रोय आंगरिग रमियो नही । पाय बेड़ी पहरेह, बाजंती बाणारउत ।। १ [२] तगो न जाणे तोल. मूरष मछरीकां तणो। कारणि हेक कुबोल, मारे काय पापे मरे ॥ २ [३] तगा तगाई झिणि करै, बोले मोह सम्हालि । नाहर पर रजपूतन, रेकार ही गालि ॥ ३ [४] कथ कबियण साची कहै, राणिगहबै सम्हालि । काय कर घाति कटारियां, काय पग प्रांठी बालि ॥ ४ [५] जमडढ काढया जाय, चूवती उभै चौहटै । असर न आडा थाय, राणिगदेरा ताकियां ।। ५ [६] सांकि कहियो सरताण, यो कोलाहळ कास हुवं । सदि रीसांणो रांण, काय मंगल षंभ मरोडियो॥ ६ [७] उक्त दूहों में से २, ३, ४ और ६ संख्यक दूहे मूल वार्ता पा चुके हैं, शेष ३ दूहे नवीन हैं । संग्रहमें ५२४ संख्यक 'गीत राणगदे सोनगरारों" शीर्षकके अंतर्गत दिया गया है किन्तु यह वास्तबमें अमरसिंह राठौड़का है। गीतको प्रथम पंक्ति “सम्हारी जेम राणिग सोनगरे" होनेसे लेखकको भ्रम हो गया है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रकाशित ग्रन्थ संस्कृतभाषाग्रन्थ-१. प्रमाणमंजरी-तार्किकचूड़ामणि सर्वदेवाचार्य, मूल्य 6.00 / 2. यन्त्रराजरचा:-महाराजा सवाई जयसिंह, मूल्य 1.75 / 3. महर्षिकुलवैभवम्-स्व० श्रीमधुसुदन अोझा, मूल्य 1075 / 4. तर्कसंग्रह-पं० क्ष्माकल्याण, मूल्य 3.00 / 5. कारकसम्बन्धोद्योत-पं० रभसनन्दि, मूल्य 1.75 / 6. वृत्तिदीपिका-पं० मौनिकृष्ण, मूल्य 2.00 / 7. शब्दरत्नप्रदीप, मूल्य 2.00 / 8. कृष्णगीति-कवि सोमनाथ, मूल्य 175 6. शृङ्गारड़ारावली-हर्षकवि, मूल्य 2.75 10. चक्रपाणिनिजयमहाकाव्य-पं० लक्ष्मीधरभट्ट, मूल्य 3.50 / 11. राजविनोद-कवि उदयराज, मूल्य 2.25 / 12. नृत्त संग्रह, मूल्य 1.75 / 13. मृत्यरत्नकोश, प्रथम भाग-महाराणा कुम्भकर्ण, मूल्य 3.75 / 14. उक्तिरत्नाकर-पं० साधुसुन्दरगणि, मूल्य 4.75 / 15 दुर्गापुष्पाञ्जलि-पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी, "मूल्य 4.25 / 16. कर्णकुतूहल तथा कृष्णलीलामृत-भोलानाथ, मूल्य 1.50 / 17. ईश्वरविलास महाकाव्य-श्रीकृष्ण भट्ट, मूल्य 11.50 / 18. पद्यमुक्तावली-कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट, मूल्य 400 / 16. रसदीर्घिका-विद्याराम भट्ट, मूल्य 2.00 / 10. काव्यप्रकाशसङ्कत-भट्ट सोमेश्वर, भाग 1, मूल्य 12.00, भाग 2, मूल्य 8.25 / 21. वस्तुरलकोश, अज्ञात कर्तृक, मूल्य 4.00 / 22 दशकण्ठवधम्-पं. दुर्गाप्रसाद द्विवेदी। मूल्य 4.00 / राजस्थानी और हिन्दी भाषा ग्रन्थ-१. कान्हडदे प्रबन्ध-कवि पद्मनाभ, मूल्य 12.25 / 2. क्यामखांरासा-कवि जान, मूल्य 4.75 / 3. लावारासा-गोपालदान, मूल्य 3.75 / 4. वांकीदासरी ख्यात-महाकवि बांकीदास, मूल्य 5.50 / 5. राजस्थानी. साहित्यसंग्रह, भाग 1, मूल्य 2.25 / 5. जुगल-विलास-कवि पीथल, मूल्य 1.75 / 7 कवीन्द्रकल्पलता-कवीन्द्राचार्य मूल्य 2.00 15. भगतमाळ-चारण ब्रह्मदासजी, मूल्य 1.75 / / 6. राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिरके हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची, भाग 1, मूल्य 7.50 / / 10. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची, भाग 2, मल्य। 12.00 / 11. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग 1, मूल्य 8.50 न.पै. / 12. रघुवरजसप्रकास, किसनाजी आढ़ा, मूल्य 8-25. न.पै.। 13. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ सूची, भाग 1, मूल्य 4.50 / 14. वीरवाण, ढाढी बादर कृत, मूल्य 4.50 / 15 राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग 2, मूल्य 2.75 / प्रेसोंम छप रहे ग्रन्थ संस्कृत-भावा-भ्रन्थ-१. त्रिपुराभारतीलघुस्तव-लघुपंडित / 2. शकुनप्रदीप-लावण्यशर्मा। 3. करुणामृतप्रपा-ठक्कुर सोमेश्वर / 4. बालशिक्षा व्याकरण-ठक्कूर संग्रामसिंह 5. पदार्थ रत्नमञ्जूषा-पं० कृष्ण मिश्र / 6. वसन्त-विलास फागु / 7. नृत्यरत्नकोश भाग 2 / 8. नन्दोपाख्यान / 6. चान्द्रव्याकरण। 10. स्वयंभूछंद-स्वयंभू कवि / 11. प्राकृतानंद-कवि रघुनाथ / 12. सुग्धावबोध आदि मौक्तिक-संग्रह / 13. कविकौस्तुभपं० रघुनाथ मनोहर। 14. वृत्तजातिसमुच्चय-कवि विरहा। 15. इन्द्रप्रस्थप्रबन्ध / 16. हम्मीरमहाकाव्यम्-नयचन्द्रसूरि 17 ठक्कर फेरु रचित रत्नपरीक्षादि। 18 भवनेश्वरीमहास्तोत्र भाष्य-कवि पद्मनाभ। 16 स्थूलभद्र-काकादि। 20 वासवदत्ता-सुबन्धु / 21 घटखपरादि। 22 भुवनदीपक-यावनाचार्य / / - राजस्थानी और हिन्दीभाषा ग्रन्थ-१. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग २-मुंहता नैणसी / 2. गोरावादल पदमिणी चऊपई-कवि हेम रतन / 3. चंद्रवंशावली-कवि मोतीराम / 4 सजान संवत-कवि उदयराम। 5. राजस्थानी दूहा संग्रह। 6. राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज-भण्डारकर / 7 राठोड़ारी वंशावली। 8. सचित्र राजस्थानी भाषासाहित्य ग्रंथ सची। 6. मीरां ब द पदावली 10. बगसीराम और अन्य वार्ताएँ। 11 सूरजप्रकाश-कविया करणीदान / 16 नेहतरंग-बुधसिह हाड़ा। 13 विद्याभूषण ग्रन्थसूची। इन ग्रंथोंके अतिरिक्त अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी और Jain Eeहिन्दी भाषामें रचे गये ग्रंथोंका संशोधन और सम्पादन किया जा रहा है।