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________________ प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात [ ५१ हुवा था बि सिव इष्ट अरचा करै छै । अर सासरी बिधलीधां थकां तीष चोषरी भी चरचा करै छै । केई केईक तो केसरां करें रंग गहरे छ । अर किलादार जिकां ऊपर किलारो भार । जिका सोनांरी कुंचित्रांरी माळा कर कर पहरै छे । म्हांनूं ईण सहनांणसूं लहसी । रातीपरी बात घणां दीन रहसी । कहै छै कवांड़ बोल जिण बषत तरवारयां बाहां पर कांम आवां तिण बषत तरवारियांरी चोट वाहुता र बहावता ईस्ट सुमरण कर नांव लेणा । अर आधा बधता पांवड़ा देणा । तिको पांवडे पांवडे प्रस्वमेधरो फळ पावां । चोष तीषरी बातां कांम प्रया पछें रूपकां मांहे गवांवा । अरु मुकत तो जावां ही जावां । तिण समैं कोई कहै छै । रजपूतीरा साधिक' नै ईष्टरा अराधिक' ठाकुरे पहली कही थकी तौ ओर सी लागे । पण कहियां बिनां चोष चाव भी न जाये । माथो पड़ियां पछै तो तरवार बहै । पर पड़तौ माथो राम नांम कहै । धड़ने भागली ही धाव रहै तो रजपूत बदज्यो' । कोई कहै छे पड़ते माथै तो कटारी बाहूं | अरु पड़तो माथो हाथ मैं झेल सिवने चढाउ तो रजपूत बदज्यौ । इण भांत चोष चावसूं बातां करै छै । आप प्रापरा ईष्टरो बांनौं अलंकार धरै छै । तुळसीका मंजरांरा मोड़ बणावै छै । ब्रह्मचरज" ले छै । दान दे है अर बेद १. कूंचियांरी चाबियोंकी | २. सहनांगसू - निशानसे । ३. आघा बधता - श्रागे बढ़ते । ४. रूपकां - काव्यों । ५. मुकतमुक्त, मोक्ष । ६. साधिक- साधक । ७. अराधिक - श्राराधक, श्राराधना करने वाला । ८. आगली ही धाव - आगेकी ही दौड़ । ६. बदज्यो – कहना | १०. ब्रह्मचरज - ब्रह्मचर्य । Jain Education International 2 For Private & Personal Use Only .7 www.jainelibrary.org
SR No.003391
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottamlal Menariya
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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