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________________ वास्तवमें कुछ विशेष राजपरिवारों से सम्बद्ध होनेसे "पृथ्वीराज रासो' को महत्त्व मिल गया किन्तु उसके समान महत्त्वके काव्यों "पाबुजीरा पवाड़ा", "निहालदे सुल्तान" और "बगड़ावत” प्रादिका हमारे साहित्यिक इतिहास-लेखकोंने कहीं उल्लेख तक नहीं किया। इसका मुख्य कारण इनका अब तक अप्रकाशित रहना और सम्बद्ध इतिहासकारोंका अज्ञान ही है। आशा है कि शीघ्र ही राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा श्रद्धेय मुनि श्री जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्यके मार्गदर्शनमें ऐसे काव्यों के पूर्ण सङ्कलन, सम्पादन और प्रकाशनका परम महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान प्रारंभ किया जावेगा । प्रस्तुत पंक्तियोंके लेखकने कई वर्ष पूर्व 'बगड़ावत' काव्यका संक्षिप्त रूप एकत्र किया था जिसके कुछ अंश श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटाने अपने एक निबन्धमें प्रकाशित भी किये है1 । पुस्तकके परिशिष्टमें वार्ता सम्बन्धी बगड़ावतके कुछ विशेष अंशोंको साहित्य-संसारमें सर्वप्रथम प्रकाशित किया जा रहा है। बगड़ावतका कर्ता 'छोडू' विशेष समर्थ कवि ज्ञात होता है इसीलिये इसकी तुलना महाकवि चन्दसे की जाती है-- 'अोछूने छोछू मिल्यो पृथीराजने चन्द ।' छोछू जातिसे भट्ट अर्थात् भाट था जैसा कि बगड़ावतको निम्न पंक्तियोंसे ज्ञात होता है-- 'चांद सूरज तो तप, मोर करे विलाप । हजूरने बिड़दावे छोळू भाट। छोछू भाट उदलजीरी वरदावली करै ।।' प्रोछू या उदलजी संभवतः बगड़ावतोंमें प्रधान भोजाका पुत्र उदयराव है। ___महाकवि चन्द, नरहरि महापात्र और संभवतः सूरसागरके कर्ता सूरदास (सूरनचन्द) जैसे प्रसिद्ध कवि भी भाट ही थे। राजस्थानमें १५ वीं शताब्दि तक इन कवियोंका विशेष मान था। तत्पश्चात् इनका प्रभाव कम हो गया जिसका मुख्य कारण इनका राजस्थानी काव्य शैली डिंगलको छोड़ पिंगलको और भुकाव ज्ञात होता है। आज भी राजस्थानमें कई जातियोंके भाट काव्य-रचनाको परंपरा अपनाये हुए हैं। श्रीयुत अगरचंदजो नाहटाने अपने निबन्धमें बगड़ावत काव्यका कर्ता "छोछु" के स्थान पर "चोचू" लिखा है । "चोचू" नाम वास्तवमें शुद्ध नहीं है क्योंकि बगड़ावत काव्यमें, जैसा कि उक्त उद्धृ त अंशोंसे प्रकट है "छोछू” नाम ही मिलता है। यह भूल श्री हरप्रसाद शास्त्रीको उक्त अंग्रेजी टिप्पणीमें दिये गये नामका हिन्दी रूपान्तर करते समय "ch" अंग्रेजीके "च" और "छ" पाठका अन्तर नहीं करने के कारण हुई ज्ञात होती है। .. देवजी बगड़ावत सम्बन्धी वार्ताको प्रतिलिपि हमें श्रीयुत अगरचंदजी नाहटाके सौजन्य द्वारा अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेरसे प्राप्त हुई है। प्रस्तुत कृति उक्त ग्रन्थालयके "केटलग प्राफ दो राजस्थानी मेन्युस्क्रिप्टस्" में पृष्ठ सं० १०१ पर "वात" विषयके . १ मरुभारती (बिड़ला ट्रस्ट, राजस्थानी शोध-विभाग, पिलानी) वर्ष ५, अङ्क २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003391
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottamlal Menariya
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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