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________________ ३४ ] प्रतापसिंघ म्होकमसिंघरी वात मोसू ईतरो आसांन दाषीजै । आ हकीकत देवगढ आई । तरां कितराहेक तो बिचार सोच कीधो। अर म्होकमसिंघ सुणनै पहरिया बैठो थो सो सरपाव अर घोड़ो घणों धन षबरदारनूं दीधो। सो ओ तो म्होकमसिंघ उधारा प्रांटांरो लेणहार । सरण पायांरो साधार । दोहा-मंडै रिणथट मेलबै", कांटा काढणहार' । कल सिर उपरा टांकमौं', प्रांटा लेय उधार ॥ १ राव राजा सरणे रौं, महि असहां घड़ मोड़ । अभंग झिलै जग उपरां, अईवो कमां अरोड़:॥२ बात सो म्होकमसिंघ जाय नै उणहीज बेळा13 रावत प्रतापसिंघन कहियो। श्री दीवाण'* हूं घणां दिनातूं मनमैं बाछतो थो तिको मनरो मनोरथ हमै लहिये। मन मांहि आधष' थी सो अवरंगजेबसूं हर १. मोसूदाषी - मुझ पर इतना अहसान प्रकट कीजिये । २. पहरिया - पहिने हुए। ३. सरपाव - शिरोपाव, वस्त्राभूषण। 'सरपाव' को भेंट अादरसूचक मानी जाती है। ४. घणों - बहुत । ५. उधारा आंटांरो लेगहार - शत्रुताका बदला लेने वाला। ६. मंडै ‘मेलबै - युद्ध प्रायोजित कर मेल कराता है। ७. कांटा काढणहार - कांटे निकालने वाला अर्थात् खटकने वाली शत्रुताको नष्ट करने वाला। ८. कळ' ''टांकमौं - सिर पर युद्धको धारण किये रहने वाला। ६. प्रांटा'''उधार - उधार शत्रुता लेने वाला। १०. महि' मोड़ - संसारमें शत्रुओंकी सेनाको पराजित करने वाला। ११. अभंग उपरां - धरती पर अखण्ड रूपमें सुशोभित होता है । १२. अईवो' 'अरोड़ - महोकसिंह ऐसा वीर है। १३. उणहीज बेळां - उसी समय । १४. श्रीदीवाण-हे शिशोदिया रावत प्रतापसिंह। १५ बाछतो- वाञ्छना करता, इच्छा करता। १६. हमै - अब । १७. आधष -प्रबल इच्छा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003391
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottamlal Menariya
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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