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[ १० ] ' प्रति-ऊ.
यह प्रति श्रीलाधूरामजी दूधोडियासे प्राप्त हुई है। प्रतिको पुष्पिका इस प्रकार है
"ईति श्री रावत मोहकमसिंघ हरीसिंघौतरी वात संपूर्ण । मिति असाढ वदि १२ सवत्त १८६७रा फतेग [6] मध्येः लिखितं वैष्णवै मगनीरामः"
वार्ता ६.५४७ इन्च आकारके १२ पत्रों में पूर्ण हुई है। प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या २६ और प्रति पंक्ति अक्षर सं० २५, २६ हैं। प्राप्त प्रतियों में यह प्राचीनतम है किन्तु इसके पत्र सं० ५, ६ और ६ अप्राप्त हैं । प्रति जीर्ण और तेलसे भरी हुई भी है।
उक्त कारणोंसे पूर्ण पाठ केवल क. प्रतिका ही ग्रहण किया गया है और विशेष पाठान्तर अन्य प्रतियोंके दिए गए हैं। . पाठकी दृष्टिसे अ. वर्गकी क और ख. प्रतियां एक माताकी और प्रा. वर्गकी ग. घ. ऊ. प्रतियां अन्य माताको पुत्रियां ज्ञात होती हैं। अर्थात् क. ख. सगी बहिनें और ग. घ. ङ सगी बहिनें हैं । अ. और प्रा. प्रतियां एक दूसरे वर्गको मोसेरी बहिनें हैं।
वार्ता-लेखक बहादुरसिंहजी राजस्थानके राज-परिवारों में अनेक व्यक्ति साहित्यकारोंके आश्रयदाता और साहित्यके प्रेमी ही नहीं स्वयं साहित्यकार भी हो गये हैं, जिनका रचित साहित्य प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होता है। ऐसे ही प्रतिष्ठित परिवारों में राजस्थानके मध्य भाग में स्थित किशनगढ़का राज-परिवार भी है, जिसमें प्रसिद्ध सन्त और साहित्यकार नागरिदास अपर नाम सांवतसिंहका नाम विशेष उल्लेखनीय है। सांवसिंहका जन्म सं० १७५६ वि० और मृत्यु-समय सं० १८१४ वि० है। इनकी छोटी-बड़ी ७७ रचनामोंका संग्रह प्रकाशित भी हो चुका है।
सांवतसिंह अपने पिता महाराजा राजसिंहजीके देहान्तके समय (सं० १८०५ वि०) दिल्लीचे थे। किशनगढ़ राज्यके उत्तराधिकारी होनेके नाते बादशाह अहमदशाहने नागरिदासको किशनगढ़का शासक घोषित कर दिया। इसी समय किशनगढ़में नागरिदासको अनुपस्थितिमें इनके लघु-भ्राता बहादुरसिंह राज्य-सिंहासन पर प्रारूढ़ हो गये और अपने बल एवं कौशलसे लगभग ३३ वर्ष (सन् १७४६ ई० से १७८२) ई० तक राज्य किया।'
उक्त बहादुरसिंह, किशनगढ़ महाराजा ही प्रस्तुत वार्ताके रचयिता थे, जो किशनगढ़ राज्यके संस्थापक किशनसिंह राठौड़की ५वीं पीढ़ीमें राज्यके उत्तराधिकारी बने । नागरिदासको सहायताके लिए प्रागत विशाल बादशाही सेनाको भी वीरवर बहादुरसिंहूने पराङ मुख कर दिया, जिससे इनके रण-कौशलका परिचय मिलता है। बहादुरसिंह ६ वर्ष तक अपने सिंहासनको सुरक्षाके लिए सफल संघर्ष करते रहे। इसी बीच नागरिदासने राज्य-प्राप्तिको पाशा छोड़ कर वृन्दावनवास और साहित्य-सेवा स्वीकार की। तदुपरान्त नागरिदासके पुत्र सरदारसिंहकी सहायताके लिए चढ़ाई कर आई हुई सेनासे बहादुरसिंहने नीतिपूर्वक संधि कर सरदारसिंहको सरवाड़, फतहगढ़ और रूपनगरके परगने दे दिये और राज्य में शान्ति स्थापित की । उक्त घटनाओंसे बहादुरसिंहके उदात्त चरित्र पर विशेष प्रकाश पड़ता है ।
१ मारवाडका इतिहास, भाग २, पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ, पृष्ठ सं० ६८६ ।
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