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[ १३ ] प्रतापसिंहसे शेरबुलंबखांको शरण देनेका आग्रह किया। रावत प्रतापसिंहने महोकसिंहके विशेष आग्रहसे औरङ्गजेबके कुपित होनेकी चिन्ता छोड़ कर शेर बुलंदखांको अपने प्राश्रयमें रख लिया । इस घटनासे रावत प्रतापसिंह और महोकसिंहको विशेष ख्याति मिली प्रतीत होती है जिसका उल्लेख स्व० डॉ. गौरीशङ्करजी हीराचंदजी ओझाने भी अपने इतिहासमें किया है।
कथाकारने अन्तमें पीपलोदा गांवके उपद्रवी डोडिया राजपूतोंसे हुए प्रतापसिंह और महोकसिंहके संघर्षका वर्णन किया है । डोडिया राजपूतोंने प्रतापसिंहके दरबारसे दक्षिणाके रूपमें धन प्राप्त कर लौटते हुए एक पण्डितको मार दिया। रावत प्रतापसिंहके समझाने पर भी डोड़ियोंने विपरीत उत्तर ही दिया कि उदयपुरके महाराणा और मुगलशासक भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते_ 'रांणैजी पर सूबो में भी म्हास टालो दे छ । वारी धरतीम म्हे चाहा सो कर छा पण म्हारो नाम न ले छे । रावतजी- प्रावणो छै तो बेगा कीजै असवारी। भली भांत मनवार करस्यां।
डोड़ियोंसे हुए संघर्षके प्रसंगमें कथाकारने अपनी युद्ध-सम्बन्धी जानकारीका विस्तृत परिचय दिया है । प्रस्तुत प्रसंगमें कथाकारके कविहृदयका परिचय भी भली भांति प्राप्त होता है। वार्ता में वीररसका परिपाक करने हेतु कथाकार वीररसमें उमङ्गित होकर अनेक गीत, दूहा और कवित्त लिख देता है।
उक्त युद्ध-प्रसंगमें उत्तर मुगलकालीन युद्धोंको प्रणाली और पतनोन्मुखी स्थितिका भी वास्तविक परिचय प्राप्त होता है। तब युद्धक्षेत्र में सेनाके साथ दास-दासियों और तवायफोंको संख्या सैनिकोंसे भी अधिक होती थी। इस विषयमें वार्ताकारने लिखा है---
'एक हाथसू गळ बांही न्हाष्या एक हाथसू ही गोळी बाहै छ। x x x बंदुकां पर प्याला एकण साथ भर रह्या छ।' ___ अन्तमें कथाकारने महोकसिंहको युद्ध-क्षेत्रमें प्रकट हुई विशेष वीरता और विजयका सजीव चित्रण किया है।
वीरमदे सोनीगरारी वात - तीसरी कथा 'वीरमदे सोनोगरारी बात' अर्द्ध ऐतिहासिक है। मुसलमान इतिहासकारोंने अल्लाउद्दीन खिलजीको जालोर-विजयका संक्षिप्त उल्लेख मात्र किया है। वास्तवमें जालोरका साका राजस्थान ही नहीं, समस्त पश्चिमोत्तरी भारतको एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक
१. प्रतापगढ़ राज्यका इतिहास (वैदिक यंत्रालय, अजमेर) पृष्ठ सं० १८५ ।
२. समकालीन मुख्य इतिहासकार जियाउद्दीन बनि जालोर विजयका उल्लेख इन शब्दोंमें किया है-'रणथंभोर, चित्तोड़, मण्डलखेड़, धार, उज्जैन, मांदुखर, अलाईपुर, चन्देरी, एरिज, सिवाना तथा जालोर, जिनकी गणना सुव्यवस्थित प्रदेशोंमें न होती थी वालियों तथा मुक्तोंके सिपुर्द हो गए (तारीखे फीरोजशाही, पृष्ठ ८६, खलजीकालीन भारत, सै० अतहर अब्बास रिज़वी द्वारा सम्पादित)। वालीसे तात्पर्य प्रांतीय अधिकारीसे और
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