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[ २२ ] हमारे लेखकोंका यह प्रयत्न किसी सीमा तक सफल भी हुआ था और तब हमारे देशसे हिन्दू - मुस्लिम संघर्षका अन्त हो गया था । ___ अन्त में हम पुस्तक में प्रकाशित वार्तामोंको प्रमुख विशेषताओंकी अोर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं
१. कथानोंका प्रारंभ परम अाकर्षक रूपमें हुआ है। "देवजी बगड़ावतारी"और "वीरमदे सोनीगरारी" वार्तामों के प्रारंभ में क्रमशः दृष्टि-दोषसे तपस्विनीके गर्भ रहने और पाषाण पुत्तलिकाके सजीव अप्सरा रूप होनेके प्रसङ्ग हैं तो "प्रतापसिंघ म्होकसिंघरो" वातमें वर्णनात्मक राजस्थानी दहे और अन्य सरस प्रयोग हैं ।
२. इन कथानोंमें लौकिक और अलौकिक घटनाग्रोंका प्रसङ्गानुसार सफल सामञ्जस्य हुआ है। "देवजी बगड़ावतारी" और "वीरमदे सोनीगरारी" बातमें अलौकिक घटनाओंका बाहुल्य है जिसका प्रधान कारण सम्बद्ध कथा-वस्तुओं की प्राचीनता है । परंपरित कथानक - रूढ़ियोंका सफल प्रयोग एवं सामञ्जस्य भारतीय कथाओंकी प्रधान विशेषता रही है । तदनुसार सम्बद्ध कथा-लेखकोंके लिये "असंभव" जैसी कोई घटना नहीं है। प्रसङ्गानुसार ऐसी घटनामोंका भौचित्य सिद्ध कर पाठकों अथवा श्रोताओंका विश्वास प्राप्त करना कटिन होता है। उक्त दोनों ही कथानोंके अज्ञात लेखकोंको इस कार्यमें पूर्ण सफलता मिली है।
३. तत्कालीन ऐतिहासिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियोंका सरल, सरस एवं स्वाभाविक यथातथ्य चित्रण भी इन बातों में मिलता है और सम्बद्ध विषयों के अध्ययनमें इनसे पूर्ण सहायता प्राप्त होती है ।
४. तीनों ही वार्ताएं मूलतः राजस्थानके भिन्न-भिन्न भागों में लिखी गई हैं। जैसे- "देवजी बगड़ावतारी वात" पर बीकानेर क्षेत्रका, 'प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी" वात पर जयपुर-किशनगढ़ श्रेत्रका और "वीरमदे सोनीगरारी वात" पर जैसलमेरका प्रभाव लक्षित होता है किन्तु इससे इन वार्ताओंके राजस्थानी भाषा-सौन्दर्य में कोई प्रभाव नहीं परिलक्षित होता और न अनेकताके हो दर्शन होते हैं।
५. दास्तवमें तीनों ही वार्ताओंकी भाषा पूर्ण साहित्यिक राजस्थानी है और कुशल लेखकों द्वारा लिखित है । 'प्रतापसिंघ म्होकसिंघरी वात' तो राजस्थानी भाषाको एक परम उत्कृष्ट कृति है। इस वार्ताको ग. और घ. प्रतियों के अनुसार इसमें सर्वत्र दवावतका प्रयोग हुआ है। रघुनाथ रूपक और रघुवरजसप्रकास जैसे ग्रन्थों में गद्य बंध और पद्यबंध नामक दो प्रकारके दवावैतोंका विवरण मिलता है । हमारी रायमें राजस्थानी भाषामें दवावैतका प्रयोग फारसी 'दुबेती' के प्रभावसे हुआ है। गद्यमें तुक मिलानेकी प्रवृत्ति इस्लामी साहित्यके प्रभावको भी सूचित करती है।' वार्ता में प्रथसे इति तक दवावैतका स्वाभाविक निर्वाह कुशल कलाकारका ही कार्य होता है।
६. प्रस्तुत कथानोंमें विशुद्ध भारतीय कथा-शैलीके दर्शन होते हैं। कालान्तरमें भारतीय कथा साहित्यका विकास राजस्थानी भाषामें लिखित ऐसी सहस्त्रों विभिन्न विषयक १. विशेष देखिये - दवावत सज्ञक हिन्दी रचनाओंकी परंपरा, श्रीयत् अगर चन्दजी
नाहटा, भारतीय साहित्य, विश्वविद्यालय, अागरा, अप्रेल १६५६, पृष्ठ २१७ । तारीख फिरोजशाहीमें भी उल्लेख है कि दिल्ली सुलतान जलालुद्दीन खिलजी "दुबेती" लिखता था। खिलजीकालीन भारत, पृष्ठ १५ ।
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